सचमुच यह समझ से परे है कि जनता की नजरों में पूरी तरह गिर चुकी , ढीली हो चुकी गठबंधन की गांठों के बावजूद केंद्र में संप्रग सरकार के पतन के लिए लालकृष्ण आडवाणी को आखिर किसी एक 'विभीषण' की प्रतीक्षा क्यों है? इस जरूरत को चूंकि आडवाणी ने सार्वजनिक किया है, सफाई भी उन्हें ही देनी होगी। जब आडवाणी यह कहते हैं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह भाग्यशाली हैं कि कांग्रेस के अंदर आज कोई वी.पी सिंह मौजूद नहीं है, तब क्या वे अपरोक्ष में हताशा को चिह्नित नहीं कर रहे? उनकी पार्टी भाजपा के अंदर और बाहर इसे आडवाणी की व्यक्तिगत हताशा निरूपित करेंगे-पार्टी की हर्गिज नहीं। सचमुच, यह एक पहेली ही है कि केंद्र में सत्ता परिर्वतन के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर आडवाणी विद्रोह की प्रतीक्षा करें। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं, कि देश का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य और भाजपा तथा राजग के उस के सहयोगी दलों में हिलोरे मारते उत्साह के बीच, कहीं किसी कोने में भी हताशा मौजूद है। भ्रष्टाचार के आरोपों से तार-तार और गठबंधन के घटक दलों में व्याप्त घोर असंतोष के बावजूद अगर आडवाणी सरीखा कोई वरिष्ठ नेता सत्तापक्ष के अंदर विद्रोह की प्रतीक्षा करता है, तब लोगों की भौंहें तो तनेंगी ही। निश्चय ही, आडवाणी इस मुकाम पर अकेले हताश लग रहे हैं। एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर वरिष्ठ नेताओं का मंतव्य जानने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि पार्टी के अंदर उत्साह है, हताशा नहीं। भाजपा अपने और राजग के बलबूते सत्ता-परिवर्तन की ताकत रखती है। 70 के दशक के मध्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ 'सम्पूर्ण क्रांति' का झंडा किसी वी.पी सिंह ने नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीति से दूर सर्वमान्य जयप्रकाश नारायण ने उठाया था। शासकीय अत्याचारों, निर्ममता और क्रूरता के बावजूद तब विद्रोह कर प्राय: सभी लोकतांत्रिक दलों के नेता जयप्रकाश-आंदोलन की सफलता के माध्यम बने थे। 80 के दशक में बोफोर्स और फेयरफैक्स घोटालों के आरोपों से घिरे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का साथ उनके सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अवश्य छोड़ा था, किंतु वे 'लोकनायक' नहीं बन पाये थे। जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मतदान कर कांग्रेस सरकार को तब अपदस्थ कर दिया था। आडवाणी यह कैसे भूल गए कि तब वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बन पाए थे, भाजपा के सर्मथन पर और उनकी सरकार का पतन हुआ तो भाजपा की समर्थन वापसी के कारण। आज केंद्र की गठबंधन सरकार 70 और 80 के दशकों से कहीं अधिक विषम परिस्थितियों से गुजर रही है। वर्तमान मनमोहन सिंह सरकार के घोटालों के आगे इंदिरा और राजीव की सरकारों के घोटाले बौने दिखने लगे हैं। जनता के बीच असंतोष आज चरम पर है। हजारों, लाखों ,करोड़ों के घोटाले आज आम हो गए हैं। यह ऐसा पहली बार हुआ है, जब केंद्र सरकार का एक मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल के अंदर पड़ा है, एक पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल कर चुकी है, भारत के एक पूर्र्व मुख्य न्यायधीश व उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, हाईकोर्ट के एक जज के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल करती है, बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों पर राजकोष लूटने के आरोप लग रहे हैं, खेल-मनोरंजन से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों पर छापेमारी हो रही है, सत्तापक्ष का एक सांसद न्यायपालिका के खिलाफ सार्वजनिक आरोप लगा रहा है कि धन लेकर मा$कूल फैसले लिखवाये गये हैं और अनेक केंद्रीय मंत्री एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। देश की लूट का ऐसा आलम पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसे में जब हर कोण से सत्ता- परिर्वतन के संकेत परिलक्षित है तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा सत्ता घराने के किसी 'विभीषण' के आगमन की प्रतीक्षा क्यों करेगी? पार्टी में नेतृत्व-स्तर पर अब शीर्ष नेतृत्व अर्थात पार्टी अध्यक्ष को कड़े फैसले लेने होंगे। नेतृत्व की कमान स्वयं संभालनी होगी। सभी को साथ लेकर चलने की नीति सराहनीय तो है, किंतु जब अन्य नेताओं का लक्ष्य कुछ और हो, व्यक्तिगत अभिलाषाएं पार्टीहित को चोट पहुंचा रही हों तब अनुशासित करने की जरूरत तो पड़ेगी ही। आडवाणी के ताजा कथन से उत्पन्न भ्रम का निराकरण होना ही चाहिए, जनता की अपेक्षा के अनुरूप परिणाम तभी संभव है, जब पार्टी का आत्मविश्वास मजबूत बना रहे। ध्यान रहे, मैं यहां किसी पार्टी विशेष का विरोध या समर्थन नहीं कर रहा, मै तों केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार के विरुद्ध व्याप्त, व्यापक असंतोष और परिवर्तन के पक्ष में बह रही बयार को रेखांकित कर रहा हूं। चूंकि विकल्प के रूप में भाजपा नेतृत्व के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से ही लोग आशा लगाए बैठे हैं, इसे एहसास तो दिलाना ही होगा। इतिहास गवाह है कि जब ऐसे अवसर आएं हैं विजय जनाकांक्षा की ही होती रही है।
बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी से देश की अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं, गड़करी के लिए यह एक चुनौती है। अब प्रतीक्षा रहेगी इस बात की, कि गड़करी जनाकांक्षा को समझ सार्थक, सकारात्मक नेतृत्व दे पाते हैं या नहीं।
2 comments:
हम महान लोग... हमारा सबकुछ महान...
इन आडवाणी साहब का दोहरा रवैया मुझे तो बहुत अखरता है ! राम जन्म भूमि से लेकर सोनिया के विदेशी खातों के आरोप तक किसी मसले पर दृढ रहना तो इन्होने सीखा ही नहीं !
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