centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Friday, October 14, 2016

‘उधार की बुद्धि’ की ये कैसी राष्ट्रीय विडंबना!

‘उधार की बुद्धि’ की ये कैसी राष्ट्रीय विडंबना!
मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अल्पज्ञानी हैं। यह भी मानने को तैयार नहीं कि केंद्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर मूर्ख हैं। मानने को मैं यह भी तैयार नहीं कि मीडिया महारथी मूर्ख अथवा षड्यंत्रकारी हैं।
अब सवाल यह कि फिर प्रधानमंत्री मोदी, उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी व मीडिया के नामचीन ऐसी हरकतें क्यों कर रहे हैं, जो उन्हें मूर्खों की पंक्ति में खड़ी कर देती हैं। देश की राजनीति ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से से भी ऐसी हरकतें असहज स्थिति पैदा कर रही हैं। बात सिर्फ दलगत राजनीतिक लाभ-हानि की होती तो ये क्षम्य हो सकते थे, किंतु जब मामला राष्ट्रीय सुरक्षा व स्वाभिमान से जुड़ जाए तो राष्ट्रीय चिंता स्वाभाविक है।
निष्पक्ष, तटस्थ गहन चिंतन के बाद ईमानदार चिंतक इस दु:खद निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसी दु:अवस्था की जड़ में मामला उधार की बुद्धि का है। गिरवी हुई बुद्धि का है, गुलाम बुद्धि का है। पढऩे-सुनने में कड़वा तो लगेगा, प्रभावित-विचलित भी होंगे, लेकिन वर्तमान का सत्य यही कड़वा सच है।




आलोच्य प्रसंग की शुरुआत कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ‘जवानों के खून की दलाली’ टिप्पणी के साथ हुई। वितंडावाद के पोषकों, प्रेरकों ने कुछ ऐसा वातावरण निर्मित किया कि राहुल गांधी देश के खलनायक बना दिए गए। 
सत्ता पक्ष की ओर से राहुल को राष्ट्रविरोधी और भारतीय सेना विरोधी ही नहीं बल्कि देश की रक्षा में शहीद हुए जवानों के अपमान का अपराधी भी घोषित कर डाला। क्या सचमुच, राहुल गांधी के शब्दों का आशय वही था, जैसा उनके आलोचक बता रहे हैं? यह संभव नहीं। कोई कुटिल व्यक्ति भी ऐसी मूर्खता नहीं कर सकता। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के नेता राहुल ऐसी गलती कैसे करेंगे?
बात वही बुद्धि, उधार की बुद्धि की है। राहुल गांधी ने जब ‘दलाली’ शब्द का प्रयोग किया, तब उनका आशय ‘राजनीतिक लाभ’ उठाने से था।

 राहुल की हिन्दी वैसी नहीं कि वे दलाली जैसे शब्द का शाब्दिक अर्थ समझते हों।

 हां, यह सच है कि चूंकि दलाली शब्द का इस्तेमाल अत्यंत ही नकारात्मक रूप में लेन-देन को लेकर होता आया है, राहुल यहां फंस गए। राहुल की ओर से सफाई तो दी गई, किंतु सत्तापक्ष भला ऐसे हाथ आए अवसर से क्यों चूके? ‘दलाली’ के दलालों की वैसे भी इस देश में कमी नहीं है।



 राजनीतिक लाभ के लिए राहुल की अज्ञानता का भरपूर इस्तेमाल किया गया। इस बिंदु पर सभी भूल गए कि ऐसा कर वे पूरी की पूरी ‘राष्ट्रीय समझ’ को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। स्वार्थ की ऐसी घृणित राजनीति जो राष्ट्रीय शर्म बन जाए!
राहुल गांधी की हिन्दी समझ के पक्ष में एक दृष्टांत: 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व एक कार्यक्रम में फिल्म अभिनेता सलमान खान तब प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के साथ गुजरात में शरीक हुए थे। सलमान और मोदी दोनों पतंग उड़ा रहे थे। एक पत्रकार ने सलमान से पूछा कि, ‘प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए?’ सलमान का जवाब था, ‘बेस्ट (ड्ढद्गह्यह्ल) आदमी होना चाहिए।’ पत्रकार का अगला सवाल था, ‘नरेंद्र मोदी कैसे हैं?’ सलमान का निर्दोष उत्तर था, ‘ये गुड (द्दशशस्र) हैं।’ अब अगर हम उत्तर के शाब्दिक अर्थ में जाएं, तब कहा जाएगा कि सलमान ने तब मोदी की अवमानना की थी-‘बेस्ट’ की जगह ‘गुड’ बताकर। लेकिन, ऐसा नहीं था। अब आप सलमान खान से गुड (द्दशशस्र), बेटर (ड्ढद्गह्लह्लद्गह्म्), बेस्ट (ड्ढद्गह्यह्ल) के बीच के अंतर की जानकारी की अपेक्षा तो कर नहीं सकते! सलमान अपनी ओर से नरेंद्र मोदी को अच्छा ही निरुपित कर रहे थे। लेकिन, भाषायी ज्ञान के अभाव के कारण अपने ही बोले शब्दों का अर्थ वह नहीं समझ पाए। शब्दों के प्रयोग के समय का उनका हावभाव नरेंद्र मोदी के पक्ष, उनकी सराहना के प्रति था। सलमान की तरह राहुल भी ‘दलाली’ का प्रचलित आशय नहीं समझ पाए।
दु:ख तो यह कि राहुल गांधी की नासमझी और भावना को समझने वाले भी सत्ता पक्ष के बड़े राजनेता ही नहीं, मीडिया के बुद्धिजीवी महारथी भी ओछी राजनीति और स्वार्थ का घिनौना खेल खेलने से बाज नहीं आ रहे। राजनीतिज्ञों की ‘दलाली’ तो फिर भी समझ में आने वाली बात है, किंतु मीडिया महारथियों की ‘दलाली’? हां, क्षमा करेंगे, वे विशुद्ध ‘दलाली’ ही कर रहे हैं- सत्ताधारी राजनीतिज्ञों की ‘दलाली’। किसलिए? क्या ये बताने की जरूरत है? विभिन्न खबरिया चैनलों पर इस विषय को लेकर आयोजित कार्यक्रमों को देख लें, आप साफ-साफ देखेंगे कि जानकारी अथवा समझ के बावजूद ये महारथी जान-बूझकर वितंडावाद को हवा दे रहे हैं। ओह! स्वयं को मूर्ख साबित करने की ऐसी अंधी दौड़!
इस प्रकरण में एक और खतरनाक घटनाक्रम सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने जोड़ा। विगत 29 सितंबर को सेना ने अपने शौर्य और बुद्धिमानी का परिचय देते हुए पाक अधिकृत कश्मीर में जारी आतंकी प्रशिक्षण केंद्रों पर सफल लक्षित हमले (सर्जिकल स्ट्राइक) किए। लेकिन, इसे लेकर राजनीतिक लाभ उठाने का जो दौर शुरू हुआ, उसमें पूर्व सेना अधिकारियों ने आपत्तिजनक भूमिका निभा रहे हैं। विभिन्न चैनलों पर उपस्थित हुए ये अधिकारी ठेठ राजनेताओं की तरह राजनीति करने लगे हैं। यही नहीं, गोपनीयता की शपथ लेने वाले ये अधिकारी सार्वजनिक रूप से सेना की कार्यप्रणाली और गतिविधियों का खुलासा कर रहे हैं। आश्चर्य है! राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाली इनकी हरकतों को नजरअंदाज क्यों किया जा रहा है? सेना व शासन को संज्ञान लेते हुए इन पूर्व सैनिक अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करनी चाहिए। युद्धोन्माद, या युद्ध की स्थिति के बीच दलगत एवं अन्य आधार पर मतभेेद भुला जब पूरा देश एकजुट है, तब शर्मनाक रूप से ये चैनल देश की जनता और सेना के बीच मतभेद व विभाजन पैदा करने का मंच प्रदान कर रहे हैं। अगर, ऐसा चैनल अज्ञानतावश कर रहे हैं, तो तत्काल संशोधन कर लें। फिलहाल कोई कह नहीं रहा है, लेकिन कालांतर में ये ‘राष्ट्रद्रोही’ ही निरुपित किए जाएंगे!

No comments: