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Friday, October 21, 2016

राष्ट्रीय ‘समझ’ को चुनौती देते राजनेता!

राष्ट्रीय ‘समझ’ को चुनौती देते राजनेता!
ओह! एक और शर्मिंदगी! लोकतांत्रिक भारत के चेहरे पर फिर शर्मिंदगी का मुलम्मा? सत्तापक्ष या सरकार के किसी कदम की ऐसी परिणति से सरकार या सत्तारूढ़ दल ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा देश शर्मिंदा होता है। मजाक बन जाता है पूरे विश्व में। चूंकि, बात महान भारत की है, विश्व में सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या यही है पूरे संसार में ज्ञानोदय कराने वाली सभ्यता संस्कृति का आदर्श? ‘सत्यमेव जयते’ का अनुयायी भारतवर्ष विपरीत आचरण का अपराधी बन कटघरे में बार-बार क्यों खड़ा हो रहा है? मैं यहां स्पष्ट कर दूं, ये सवाल भारत देश के किसी एक वर्ग विशेष का नहीं है। सिर्फ विपक्ष का नहीं है। व्यक्तिगत आधार पर पूर्वाग्रही सोच के धारकों का नहीं है। उन सभी लोकतंत्र के पक्षधरों का है, जो भारत को हर क्षेत्र में मुखिया की भूमिका में देखना चाहते हैं। खेद है कि पिछले कुछ दिनों से देश में कुछ ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है, जिस कारण हम उपहास के पात्र बनने को मजबूर हैं।



ताजा विवाद भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर के उस वक्तव्य से उठ खड़ा हुआ है जिसमें उन्होंने देश के रक्षा मंत्री और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को कटघरे में खड़ा कर दिया है। एक संसदीय समिति के समक्ष पूछे जाने पर जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय सेना पहले भी लक्षित हमले (सर्जिकल स्ट्राइल) करती रही है। विदेश सचिव का यह वक्तव्य रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के उन बयानों को झूठा साबित कर देता है जिसमें उन्होंने कहा था कि आजाद भारत के इतिहास में सेना ने पहली बार किसी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को अंजाम दिया है। अब सवाल यह कि ऐसी स्थिति आई तो क्यों? श्रेय! श्रेय लेने की होड़!! श्रेय लेने की ओछी राजनीति! दु:खद ही नहीं शर्मनाक भी कि सत्ता और विपक्ष दोनों इस होड़ में भूल गए कि उनके आचरण से न केवल भारतीय सेना का मनोबल गिर रहा है, बल्कि विश्व की नजरों में भारत उपहास का पात्र भी बनता जा रहा है।
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के राजनीतिकरण को मैं व्यक्तिगत रूप से एक सैन्य अपराध मानूंगा। कुछ मित्र चौंक सकते हैं, आपत्ति भी व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन मैं मजबूर हूं। मैं उस हर कदम का विरोधी हूं, जिसके अंतर्गत सेना के नाम पर राजनीति की जाए या राजनीति में सेना को घसीटा जाए। ये नहीं भूला जाना चाहिए कि 1962 के अप्रत्याशित चीनी आक्रमण को छोड़ दिया जाए तो 1965, 1971 और 1999 में भारतीय सेना ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए पडो़सी, किंतु दुश्मन, पाकिस्तान को उसकी औकात दिखा दी थी। 1971 में पाकिस्तान का अंग विच्छेद कर पूर्वी पकिस्तान को विश्व के नक्शे से हटा दिया। एक नये मित्र देश बांग्लादेश का उदय हुआ। उस सफल निर्णायक युद्ध के बाद भारत की वह पूर्वी सीमा सुरक्षित हो गई। सेना की वह एक अत्यंत ही रणनीतिक सफलता थी। वैसी सेना के मनोबल को अब जब प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने के उपक्रम हो रहे हैं, विरोध स्वाभाविक है।
स्पष्ट कारणों से ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को तूल देकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश अनुचित है। श्रेय हमेशा उपलब्धियों के पुष्प पर आसीन हो सुगंध बिखेरते हैं, विस्तार पाते हैं-यथार्थ उपलब्धियों पर। काल्पनिक उपलब्धियों पर श्रेय के शोर टिक नहीं पाते, विस्मृत कर दिए जाते हैं। पाक अधिकृत कश्मीर में जारी आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर लक्षित हमले करने का निर्णय ले प्रधानमंत्री मोदी व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने जिस दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया था, उस पर अनावश्यक राजनीतिक शोर ने पानी फेर दिया। कुछ ऐसा कि कतिपय गैरजिम्मेदार विपक्ष व राजनेताओं ने सेना पर ही सवालिया निशान जड़ दिए हैं। राजनीतिक गलत-सही अपनी जगह, सेना को इसमें घसीटना अपराध है। चूंकि, ऐसी अवस्था को जन्म सत्तापक्ष की ओर से दिया गया, वह अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते।
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एक अन्य कृत्य को लेकर भी कठघरे में हैं। पर्रिकर के अनुसार लक्षित हमले के लिए उन्हें और प्रधानमंत्री मोदी को संभवत: शक्ति प्राप्त हुई तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रशिक्षण के कारण। अगर ये सच भी है, तब भी देश के रक्षा मंत्री को किसी गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्था के नाम का उल्लेख एक सैन्य कार्रवाई के संदर्भ में नहीं करना चाहिए था। पूछा जाने लगा है कि क्या भारत अब सामरिक निर्णयों के लिए गैर सरकारी निजी संस्थाओं की सहायता लेगा? हास्यास्पद प्रतीत होता है यह। रक्षा मंत्री पर्रिकर ने और उनकी ओर से पार्टी के कुछ प्रवक्ताओं ने हालांकि स्पष्टीकरण दिए, किंतु तब तक विलंब हो चुका था। रक्षा मंत्री कठघरे में खड़े किए जा चुके थे।
रक्षा मंत्री पर्रिकर के प्रत्येक शब्द को ध्यानपूर्वक सुनने के बाद मुझे ऐसा लगा कि राहुल गांधी की ‘दलाली’ की तरह पर्रिकर का ‘आरएसएस प्रशिक्षण’ भी भाषायी अल्पज्ञान का शिकार हुआ है। राहुल की तरह पर्रिकर की हिन्दी की समझ सर्वविदित है। इसके पूर्व, 26/11 के हमले के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन गृह मंत्री आर आर पाटिल भी ऐसे ही भाषायी अल्पज्ञान के शिकार हुए थे। बेचारे पाटिल को तब मंत्री पद त्याग देना पड़ा था। हालांकि, यह संभव नहीं है फिर भी मेरा आग्रह है कि देश के सभी राजदल, राजनेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी जब भी ऐसी घटनाओं की चर्चा करें, ईमानदारीपूर्वक भाषायी विडंबना को ध्यान में रखकर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचें। भाषायी अल्पज्ञान किसी व्यक्ति विशेष की समझ या चरित्र के आकलन का आधार नहीं बनना चाहिए। इस बिंदु पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को संदेह का लाभ मिलना अपेक्षित है।
हां! राजदल हंै, राजनेता हैं, पक्ष-विपक्ष है, राजनीति तो होगी, किंतु पूरा देश तब सिरदर्द से पीडि़त हो उठता है, जब वोट के लिए धर्म, संप्रदाय, जाति की राजनीति शुरू होती है। पहले भी ऐसा होता रहा है, किंतु हाल के दिनों में जिस प्रकार इनका राजनीतिक इस्तेमाल किया जाने लगा है, तय मानिए अगर इन पर अंकुश नहीं लगा तो देश में ऐसी अराजक उन्मादी स्थिति पैदा हो जाएगी, जो खतरनाक रूप से समाज को अनेक भागों में विभाजित कर डालेगी।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। चूंकि, इस चुनाव के परिणाम आने वाले दिनों में न केवल केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के भविष्य को तय करेंगे, बल्कि देश की राजनीतिक दशा-दिशा को भी प्रभावित करेंगे। इस वास्तविकता के पाश्र्व में भाजपा सहित अन्य राजनीतिक दल सक्रिय, अतिसक्रिय हो उठे हैं। इस पर कोई आपत्ति नहीं। आपत्ति इस बात पर है कि प्राय: सभी दल धर्म, संप्रदाय, जाति की राजनीति बेशर्मी से करने पर आतुर हैं। उत्तर प्रदेश की एक पहचान अयोध्या और राम मंदिर को लेकर भी है। राम मंदिर निर्माण का मामला अदालत में लंबित है। बावजूद इसके सत्तापक्ष और इसके सहयोगी संगठनों की ओर से मंदिर निर्माण के पक्ष में जिस प्रकार राम-राम का जाप शुरू किया गया है, उससे बगैर किसी शक के लोग इस नतीजे पर पहुंचने पर मजूबर हो गए हैं कि चुनावी लाभ के लिए भगवान राम के नाम का दुरुपयोग किया जा रहा है। सभी संबंधित इस तथ्य की गांठ बांध लें कि प्रदेश की जनता अर्थात मतदाता ने इस नए उन्माद को अपनी ‘समझ’ के लिए चुनौती मान लिया है। और यह अकाट्य सत्य है कि जब-जब मतदाता ने अपनी ‘समझ’ का प्रयोग किया है, परिणाम ऐतिहासिक निकलते रहे हैं।

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