Tuesday, December 7, 2010
पराजय राहुल गांधी की, विजय गडकरी की !
''... कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को बिहार की जनता ने उनका असली मुकाम दिखा दिया।'' बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशीलकुमार मोदी के इन शब्दों में वैसे नया तो कुछ नहीं किन्तु भविष्य के लिए कुछ संकेत अवश्य निहीत हैं। साथ ही राजनीतिक समीक्षकों के लिए एक चुनौती भी। ध्यान रहे, जब पिछले वर्ष नागपुर के नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तब प्राय: सभी समीक्षकों ने नियुक्ति को कांग्रेस के युवा महासचिव और कांग्रेस के घोषित 'भविष्य' राहुल गांधी के मुकाबले युवा गडकरी को मैदान में उतारने की बातें कही थीं। आकलन सही भी था। तब राहुल गांधी के 'रोड शो' और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राएं सुर्खियां बन रही थीं। समाचारपत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में राहुल गांधी ही छाये हुए थे। उनके 'श्रम' की प्रशंसा करते मीडियाकर्मी थकते नहीं थे। अपवादस्वरूप कुछ वैसे अवश्य थे जो 'राहुल-श्रम' के टायं-टायं फिस्स होने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। लेकिन इनकी संख्या नगण्य थी। जब बिहार चुनाव की घोषणा हुई तब समीक्षकों ने राहुल और गडकरी दोनों के लिए इसे अग्नि परीक्षा निरूपित कर डाला था। राहुल गांधी के पक्ष में जहां कहा गया था कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करेगी, परिणाम के बाद वह 'किंगमेकर' की भूमिका में रहेगी, वहीं गडकरी के लिए कहा गया था कि भाजपा के लिए सीटें कम होंगी और तब दिल्ली की चौकड़ी उन पर नए सिरे से प्रहार शुरू कर देगी। बिहार चुनाव को वस्तुत: राहुल बनाम गडकरी के रूप में प्रचारित किया गया। अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला चुनाव गडकरी के लिए सचमुच अग्नि परीक्षा ही था। विफलता की हालत में अपने हश्र से वे अच्छी तरह परिचित थे। अपनी सांगठनिक कुशलता के लिए विख्यात गडकरी ने अपने ढंग से जंग की रणनीति तैयार की, उसे क्रियान्वित किया। परिणाम आने के बाद न केवल कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया, बल्कि राहुल गांधी के कथित करिश्मे का भी पर्दाफाश हो गया। औंधे मुंह गिरे वे। देहातों में लोगों ने टिप्पणी की कि ''राहुल को गडकरी ने धोबिया पछाड़ दे डाला।'' स्वयं भाजपा के अनेक बड़े नेता बगले झांकने लगे। ऐसे अप्रत्याशित परिणाम की कल्पना उन्होंने नहीं की थी। लेकिन गडकरी की सफल रणनीति ने सभी के मुंह पर ताला जड़ दिया। आश्चर्यजनक रूप से मीडिया के उन समीक्षकों को भी लकवा मार गया जिन्होंने चुनाव को राहुल बनाम गडकरी निरूपित किया था। सत्ता के पक्ष में भौं-भौं कर अपने लिए कुछ सुनिश्चित करने का मीडिया चरित्र एक बार फिर कलंक के रूप में सामने आया। जब युद्ध राहुल बनाम गडकरी था तब परिणाम के बाद राहुल की पराजय पर परदा डाल उनका बचाव क्यों किया गया? साफ है कि चुनाव में राहुल को एक सिरे से बिहार की जनता ने नकार दिया। उनके 'रोड शो' के तमाशे से वहां की जनता प्रभावित नहीं हुई। गरीबों के घरों में जाकर भोजन-भजन को नौटंकी से ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। राहुल और कांग्रेस के लिए यह एक ऐसी सीख है जिसे शायद वे भूल नहीं पाएंगे। राजनीतिक समीक्षको के गालों पर भी परिणाम एक तमाचे के रूप में आया है। अगर समीक्षक अपने शब्दों के प्रति ईमानदार हैं तब उन्हें देश को यह बताना चाहिए कि मतदाता ने राहुल गांधी की जगह नितिन गडकरी को स्वीकार किया है। गडकरी की घोषित 'विकास की राजनीति' पर मतदाता ने मुहर लगाई है। जाति, वर्ग, धर्म से पृथक गडकरी के शब्दों पर विश्वास किया गया। इसे कोई अतिरंजना के रूप में न ले। बिहार की धरती का यह सच एक बार फिर उजागर हुआ कि जब वहां की जनता करवट लेती है तब वह पूरे देश के लिए आदर्श को स्थापित करती है। अगर कांग्रेस और राहुल गांधी ने जमीनी हकीकत से पुन: हाथ झटकने की कोशिश की तो आज इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है कि आने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव में भी 'बिहार-परिणाम' दोहराया जाएगा। राहुल गांधी के सलाहकार सच को स्वीकार कर रणनीति बनाएं। आज देश का मतदाता परिपक्व हो चला है। वह किसी 'हवा' के साथ चल मतदान नहीं करता। नई पीढ़ी जात-पात-धर्म से दूर विकास देखना चाहती है। बिहार में यह सिद्ध भी हो गया। जातीयता के ज्वर से अब तक पीडि़त बिहार ने ठंडे पानी से स्वयं को धो डाला है। विकास की रोशनी देख उसने स्वयं के लिए विकास की राजनीति को अंगीकार किया है। राहुल गांधी और कांग्रेस की विडंबना यह है कि वे चाटुकारिता की संस्कृति का त्याग नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन भविष्य का उनका नेता गलत सलाह और नीति के कारण बिहार में औंधे मुंह गिर चित हो गया। जंग में विजयी नितिन गडकरी रहे।
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3 comments:
very nice post
बहुत ही अच्छ विश्लेषण
उम्दा विश्लेषण....
बिहार की धरती का यह सच एक बार फिर उजागर हुआ कि जब वहां की जनता करवट लेती है तब वह पूरे देश के लिए आदर्श को स्थापित करती है।
yahi sach hai..
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