अगर लोकतंत्र में वाणी स्वतंत्रता का यही अर्थ है, यही अंजाम है, यही रूप है, यही चरित्र है तो बगैर समय गंवाए इसे मौत दे दी जाए। देश को नहीं चाहिए ऐसी वाणी स्वतंत्रता। नहीं चाहिए अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी जो पूरे देश के चरित्र पर ही सवालिया निशान जड़ दे। उस भारत देश का चरित्र संदिग्ध दिखे जिसकी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति पूरे संसार के लिए आदर्श है, अनुकरणीय है।
70 के दशक में आपातकाल के दिनों में मशहूर और अब जनता पार्टी के एकल नेता सुब्रह्मïण्यम स्वामी ने गुरुवार (9 दिसंबर) को कहा कि 'कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भ्रष्टाचार की गंगोत्री हैं, विषकन्या हैं और धार्मिक ग्रंथों की ताड़का हैं' तो पूरे देश को स्वयं के चरित्र पर संदेह होने लगा। अभी कुछ ही दिनों पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक के. सुदर्शन ने जब टिप्पणी की थी कि सोनिया गांधी सीआईए एजेंट हैं और इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी की हत्या के षडय़ंत्र में वे शामिल थीं, तब भी ऐसी शंका उठी थी। अतीत में चलें तब लगभग 4 दशक पूर्व तब के एक कांग्रेसी नेता सी.एम. इब्राहिम ने टिप्पणी की थी कि इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय '....' हैं, तब भी देश स्तब्ध रह गया था। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर स्वाभाविक है। कभी सबूतों के साथ तो कभी बगैर सबूतों के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाते रहे हैं। संसद, विधान मंडलों और बाहर भी इन पर चर्चा होती है, हंगामा होता है, कभी-कभी जांच आयोग और जांच समितियां भी गठित हो जाती हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन जब मर्यादा का अतिक्रमण कर व्यक्तिगत चरित्र पर अश्लील लांछन लगाए जाते हैं तब उसे स्वीकार करना संभव नहीं। सुब्रह्मïण्यम स्वामी ऐसे ही अपराध के दोषी बन गए हैं। सोनिया गांधी को भ्रष्टाचार की गंगोत्री निरूपित करने तक को एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु उन्हें विषकन्या व ताड़का अर्थात्ï राक्षसी बताना अक्षम्य अपराध की श्रेणी का है। सुशिक्षित सुब्रह्मïण्यम स्वामी विषकन्या और ताड़का के अर्थ से अपरिचित नहीं हो सकते। यह हमारी भारतीय संस्कृति को चुनौती भी है। अगर बात भ्रष्टाचार की की जाए तब शायद सुब्रह्मïण्यम स्वामी कुछ सबूत पेश भी कर दें। लेकिन क्या वे सोनिया गांधी को विषकन्या व ताड़का साबित कर पाएंगे? शत प्रतिशत आधारहीन ऐसे आरोप को हमारी संस्कृति स्वीकार नहीं करती। फिर स्वामी ने ऐसे आरोप लगाए तो कैसे? अगर वे अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं, तो इलाज करवाया जाना चाहिए। अगर नहीं तब चुनौती है कि वे सोनिया के खिलाफ इस्तेमाल किए गए अश्लील शब्दों के औचित्य को साबित करें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तब न केवल पूरे देश से माफी मांगें, बल्कि प्रायश्चित के लिए हिमालय की किसी गुफा में चले जाएं। जब पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन अपने बयान के बाद अलग-थलग पड़ गए थे, तब उन्होंने भी क्षमा मांग ली थी। स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने उनके बयान से स्वयं को अलग कर लिया था। इंदिरा गांधी के चरित्र पर उंगली उठाने वाले इब्राहिम का मामला अवश्य विचित्र है। एक विस्मयकारी (रहस्यमय भी कह सकते हैं) निर्णय लेते हुए इंदिरा गांधी ने इब्राहिम को कांग्रेस में वापस ले लिया था। तब फुसफुसाहटों में अनेक सवाल पूछे गए थे। लेकिन इंदिरा गांधी के आभा मंडल के तेज में वे सब निस्तेज बन गए थे। वैसे सोनिया गांधी को लेकर ताजा विवाद के बीच कुछ कोनों से, दबी जुबान में ही सही, ऐसे सवाल अवश्य उभर रहे हैं कि सुदर्शन या फिर सुब्रह्मïण्यम स्वामी कोई सड़कछाप नेता तो हैं नहीं। फिर इन्होंने सड़कछाप वक्तव्य दिए तो कैसे? पड़ताल, हां पड़ताल की जरूरत है।
1 comment:
नो कमेन्टस..
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