Tuesday, December 14, 2010
भ्रष्टाचार के हमाम में 'तू भी नंगा, हम भी नंगे'!
निर्वाचित जनप्रतिधियों के जनविरोधी ऐसे आचरण पर लोकतंत्र एक बार फिर कलंकित हुआ। कांग्रेस व सत्तारूढ़ संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाजपा को भ्रष्टाचार का आईना दिखा स्वयं के पाप पर परदा डालने की कोशिश की है- 'तू भी नंगा, हम भी नंगे' की तर्ज पर। तो क्या हमाम के इन नंगों के भ्रष्टाचार को देश स्वीकार कर स्वयं को लुटता देखता रहे? कदापि नहीं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, भ्रष्टाचार के इनके कारनामों को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इन्हें बचाने की कोशिश करने वाले भी भ्रष्टाचार के पाप में बराबर के हिस्सेदार हैं। सोनिया गांधी ने जब भाजपा पर प्रहार करते हुए पूछा कि भ्रष्टाचार की नसीहत देने वाले ये कौन होते हैं, तब बरबस उनकी सास स्व. इंदिरा गांधी की याद आ गई। सत्तर के दशक में जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व की केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिर चुकी थी, तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या निरूपित कर इस महारोग को मामूली बताने की कोशिश की थी। बात इतिहास की है, दोहरा दूं। तब जब संसद व कानून भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कारगर साबित नहीं हुआ था तब एक व्यक्ति जयप्रकाश नारायण के रूप में सामने आया। सत्ता को चुनौती दी और उसके पीछे-पीछे पूरे देश की जनता सड़कों पर उतर आई। शासन ने अपनी निरंकुशता का विकृत चेहरा भी सामने लाया, जनता के दमन के लिए संविधान प्रदत्त उसके मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, जेपी सहित अनेक बड़े नेता जेलों में डाल दिए गए। हजारों बेकसूर जनता के साथ। किन्तु अतत: विजयी लोकतंत्र हुआ, जनता हुई। इंदिरा शासन जनता के हुंकार में उड़ गया था। आज सोनिया गांधी विपक्ष को भी भ्रष्ट बताकर क्या भ्रष्टाचार को शासकीय स्वीकृति प्रदान नहीं कर रही हैं? लगभग एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जांच करवाए जाने की विपक्षी मांग को अनुचित बता सरकार खारिज क्यों कर रही है? सरकार इस तथ्य को क्यों भूल जाती है कि संसद जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सर्वोच्च मंच है? संविधान ने संसद को लोकतंत्र मेें सर्वोच्च स्थान दे रखा है। फिर इसकी उपेक्षा अथवा इस पर अविश्वास क्यों? इस संदर्भ में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का आचरण भी निंदनीय है। संदिग्ध भी। स्पेक्ट्रम घोटाले पर संसद में जारी गतिरोध पर उन्होंने मौन तोड़ा तो विदेशी धरती पर! समीक्षक इसे भारतीय संसद का अपमान बता रहे हैं तो ठीक ही है। लोगबाग स्तब्ध हैं प्रधानमंत्री के उन शब्दों को लेकर जिसके द्वारा उन्होंने कहा कि वे संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। प्रधानमंत्री का यह बयान घोर आपत्तिजनक है। आखिर उनके दिमाग में चल क्या रहा है? विश्व की सर्वश्रेष्ठ-सफल भारतीय संसद प्रणाली के भविष्य पर यह कैसी चिंता? जेपीसी की विपक्षी मांग को एक सिरे से खारिज करने वाले प्रधानमंत्री जब यह दलील देते हैं कि मौजूदा संसदीय तंत्र (अर्थात् सरकार द्वारा घोषित एक सदस्यीय जांच समिति) वही कर सकता है जो जेपीसी कर सकती है तब देश उनसे जानना चाहेगा कि फिर संसदीय कार्यप्रणाली में जेपीसी का प्रावधान ही क्यों रखा गया? अगर इसकी जरूरत नहीं तब क्यों नहीं इस प्रावधान को ही हटा दिया जाए? अगर हिम्मत है तो सरकार तत्संबंधी प्रस्ताव संसद में लाए। विपक्ष की जेपीसी संबंधी मांग बिल्कुल न्यायोचित है। स्पेक्ट्रम घोटाले से संबंधित जो तथ्य उभरकर बाहर आ रहे हैं वे अत्यंत ही विस्फोटक हैं। रिश्वत व कमीशन के लेनदेन से आगे बढ़ता हुआ यह घोटाला विदेशों के लिए जासूसी से भी जुड़ चुका है। बड़े-बड़े राजनेताओं, उद्योगपतियों, पत्रकारों और नौकरशाहों की संलिप्तता सीधे-सीधे शासन को चुनौती है। प्रधानमंत्री अगर संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो बेहतर हो वे संदर्भ में परिवर्तन कर लें। हमारी संसदीय प्रणाली का भविष्य अगर संकट में है तो किसी राजदल विशेष के कारण नहीं बल्कि सत्ता मेें मौजूद भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों व दलालों के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो ऐसे भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण प्रदान किए जाने के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो सत्ता पक्ष द्वारा संसद की उपेक्षा के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो गठजोड़ की राजनीति की उस मजबूरी के कारण जहां सत्ता वासना के पक्ष में समझौते-दर-समझौते किए जा रहे हैं- नग्न हो सत्ता की देवी भ्रष्टाचार के दानवों के समक्ष समर्पित होने को मजबूर है। अगर प्रधानमंत्री व उनका दल संसदीय प्रणाली अर्थात्ï लोकतंत्र को सुरक्षित रखना चाहता है तब वह सत्ता मोह त्याग देशहित में भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों आदि के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें जेल के सीखचों के पीछे भेजे। क्या सोनिया गांधी और उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे? सत्ता का त्याग करने को तैयार होंगे ये? अगर नहीं तब फिर ये लोकतंत्र के भविष्य के प्रति चिंता का नाटक न करें। जनता स्वयं भ्रष्टों को दंडित कर लोकतंत्र को सुरक्षित, कायम रखने में सक्षम साबित होगी।
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2 comments:
हम भ्रष्टन के, भ्रष्ट हमारे..
बरबस उनकी सास स्व. इंदिरा गांधी की याद आ गई। सत्तर के दशक में जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व की केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिर चुकी थी, तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या निरूपित कर इस महारोग को मामूली बताने की कोशिश की थी।
लगता है भारत मे आपातकाल लागू है.
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