...तो अब क्या करें पत्रकार? दलाली करें? राजनीति करें?
आज सत्ता में वे राष्ट्रभक्त हैं जो इंदिरा गांधी के ‘कुशासन और भ्रष्टाचार’ के खिलाफ जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के झंडाबरदार बने थे। भारत की दूसरी आज़ादी की सफल लड़ाई के सिपाही थे आज के ये शासक। ओह! फिर आज ये मीडिया को पंगु क्यों बना रहे हैं? मीडिया पर साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना उन्हें रेंगने को मजबूर क्यों किया जा रहा है? पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों के साथ उन्हें बलात्कार करने को मजबूर क्यों किया जा रहा है? विरोध के स्वर को दबा कर लोकतंत्र की नींव को कमजोर क्यों किया जा रहा है?
...तो अब क्या करें पत्रकार? दलाली करें? राजनीति करें?
‘मीडिया मंडी’ का ताजा शोर बेवजह नहीं। कारण मौजूद हैं। देश के सबसे पुराने खबरिया नेटवर्क एनडीटीवी में अचानक आये परिवर्तन से दर्शक हतप्रभ हैं। एनडीटीवी एक अकेला ऐसा नेटवर्क रहा है, जो टीआरपी की अंधी दौड़ में कभी शामिल नहीं हुआ। कमोबेश दर्शकों के प्रति ईमानदार इस चैनल ने अपनी पत्रकारीय विश्वसनीयता अब तक कायम रखी थी। अब जब अचानक दिखने लगा कि यह चैनल भी कुछ अन्य चैनलों की तरह एक पक्षीय हो रहा है तो दर्शक निराश हुए। अब चर्चा यह कि आखिर ऐसा हुआ तो क्यों? स्वाभाविक रूप से पक्ष और विपक्ष में टिपण्णियां आ रही हैं, कयास लगाए जा रहे हैं। एक पक्ष कह रहा है कि सरकार के दबाव में आकर अंतत: एनडीटीवी का प्रबंधन भी झुकने को मजबूर हो गया। दूसरा पक्ष कह रहा है कि ‘राष्ट्रविरोधी’ एनडीटीवी अब ‘राष्ट्रभक्त’ होने की राह पर चल पड़ा है। तो क्या मीडिया की विश्वसनीयता अब ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’ के पैमाने पर परखी जाएगी? निष्पक्षता, तटष्ठता हाशिए पर रख दी जाएगी? पत्रकारिता सिर्फ विरोध और समर्थन की होगी? फिर वस्तुनिष्ठ विश्लेषण और निष्कर्ष क्या होंगे? राष्ट्रीय सोच को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाली ऐसी नकारात्मक पत्रकारिता को फिर क्यों नहीं दफना ही दिया जाये? सीधे-सीधे राजनीति या दलाली करें पत्रकार और मीडिया संस्थाएं! स्थिति भयावह है।
तब आपातकाल का अंधा युग था। ‘सेंसर’ की तलवार के नीचे प्रेस कराह रही थी। नागरिक मौलिक अधिकार छीन लिए गये थे। प्रेस को झुकने के लिए कहा गया, वह रेंगने लगी। सभी नहीं। कुछ अपवाद थे जिन्होंने सरकारी तानाशाही के आगे झुकने की जगह जेल जाना पसंद किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काले कानून, तानाशाही को उन पत्रकारों ने अस्वीकार कर जेल के सींखचों का वरण किया। पत्रकारीय मूल्य को जीवित रखने वाले वे अपवाद कालान्तर में आदर्श के रुप में पूज्य हुए। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के ‘रोल मॉडल’ बने।
आज आपातकाल नहीं है। सत्ता में वे राष्ट्रभक्त हैं जो इंदिरा गांधी के ‘कुशासन और भ्रष्टाचार’ के खिलाफ जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के झंडाबरदार बने थे। आपातकाल में बंदी बन जेल में रहे। भारत की दूसरी आज़ादी की सफल लड़ाई के सिपाही थे आज के ये शासक। ओह! फिर आज ये प्रेस अर्थात् मीडिया को पंगु क्यों बना रहे हैं? मीडिया पर साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना उन्हें रेंगने को मजबूर क्यों किया जा रहा है? पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों, मान्य सिद्धांत के साथ उन्हें बलात्कार करने को मजबूर क्यों किया जा रहा है? विरोध के स्वर को दबा कर, सच/तथ्य को सतह के नीचे दबा कर लोकतंत्र की नींव को कमजोर क्यों किया जा रहा है? सत्ता-स्तुति, एकपक्षीय जानकारी के लिए मीडिया को मजबूर कर कोई शासक जनता के दिलों पर राज नहीं कर सकता। इतिहास के पन्ने इसके गवाह हैं।
इस शाश्वत सत्य की मौजूदगी के पाश्र्व में अगर वर्तमान सरकार, जे पी के अनुयायियों की सरकार, मीडिया को कुचलने का प्रयास करती है, तो इसे ’विनाश काले, विपरीत बुद्धि’ की अवस्था निरुपित करने को मैं मजबूर हूं। हां, चूंकि अन्य देशवासियों की तरह मैंने भी 2014 में विश्वास व आशा के साथ नरेंद्र मोदी के ‘परिवर्तन’ के आह्वान का साथ दिया था, चाहूंगा कि मेरे इस आकलन, इस आशंका को सत्ता गलत साबित कर दे। क्या देश के’प्रधान सेवक’ पहल करेंगे?
पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना के सफल ‘लक्षित हमले’ (सर्जिकल स्ट्राइक) के बाद शुरू सर्वथा अवांछित, अशोभनीय राजनीतिक बहस को क्रूर विस्तार दिया मीडिया ने। कुछ ऐसा कि अपने घर में ही विभाजन का खतरा पैदा हो गया-सेना के मनोबल को दांव पर लगा दिया गया। पाकिस्तान के खिलाफ राजदलों की एकजुटता के बावजूद मीडिया सन्देश ऐसा मानो विपक्ष देश का दुश्मन है! मुद्दा आधारित टिप्पणी करने वाले, सत्य आधारित विश्लेषण कर निष्पक्ष निष्कर्ष के कतिपय पक्षधरों ने जब कर्तव्य निर्वाह करते हुए सच्चाई प्रस्तुत करने की कोशिश की तो उनके खिलाफ चाणक्य की नीति-साम, दाम, दंड, भेद अपनाई गई।
एनडीटीवी इसी नीति का शिकार हुआ प्रतीत हो रहा है। सच के पक्ष में अपवाद की श्रेणी के इस खबरिया चैनल को झुकता-रेंगता देख पत्रकारिता की आत्मा कराह उठी है। सच जानने को इच्छुक देश तड़प उठा है। पत्रकारिता के विद्यार्थी हतप्रभ हैं, एनडीटीवी के नये बदले चरित्र और चेहरे को देख कर। चैनल ने घोषणा की थी अपनी वरिष्ठ, हाई प्रोफाइल पत्रकार बरखा दत्त द्वारा लिये गए पी. चिदम्बरम के साक्षात्कार के प्रसारण की। अंतिम समय में कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। शर्मनाक तो ये कि चैनल ने ऐसा राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किया। बात यहीं खत्म नहीं होती। चैनल ने घोषणा कर दी कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाली किसी खबर या कार्यक्रम का प्रसारण नहीं करेगा। ‘राष्ट्रभक्त’ और ‘सिद्धांतवादी’ के इस मुखौटे के पीछे का सत्य भयावह है। सच ये कि एनडीटीवी भी झुक गया, एनडीटीवी को भी झुका दिया गया। हां, कड़वा सच यही है। मुलायम सरीखे राजनेता की तरह प्रणब रॉय भी अंतत: टूट गए।
देर-सबेर प्रणब को झुकाने वाले, तोडऩे वाले हाथ-हथियार भी सामने आ जायेंगे। लेकिन, लोकतांत्रिक भारत का स्वाभिमानी मीडिया आज निर्वस्त्र कोठे पर बैठ जिस प्रकार रुदन को विवश है, क्या कोई हाथ उसकी ‘लाज’ के रक्षार्थ अवतरित होगा?
भारत, भारतवासी प्रतीक्षारत हैं कि प्रणब रॉय भी करवट लें!
और, प्रतीक्षा इस बात की भी कि जे पी के शिष्यों की आत्मा भी अंतत: करवट लेने को मजबूर होगी-आजाद मीडिया के हक में।
1 comment:
खबरिया चैनल वही दिखाते हैं जिसमें उनकी TRP बढती रहे. सेना वाले सही बात करते हैं. बुद्धि अगर नहीं है तो राजनीतिक समझ होनी चाहिए.
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