राजनीति और राजनीतिकों के ऐसे पतन की कल्पना हमारे लोकतंत्र ने कभी नहीं की होगी। क्या हो गया है लोकतंत्र के हमारे कथित कर्णधारों को, युवा पीढ़ी के कथित मार्गदर्शकों को और लोकतंत्र व संविधान के कथित रक्षकों को? सत्ता के लिए मर्यादा भूल नंगा हो जाने की ऐसी दशा के लिए आखिर जिम्मेदार है तो कौन? पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार को 'मौत के सौदागर' निरूपित कर एक अत्यंत ही घृणित परंपरा की नींव डाली थी। जनता ने चुनाव में तब कांग्रेस को पराजित कर सोनिया के बयान के प्रति के अपनी नाराजगी प्रकट कर दी थी। भारतीय संस्कृति की यह खूबी बरकरार है। फिर राजनेता इससे सीख क्यों नहीं ले रहे? बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 'चोर और बेईमान' बताती घूम रही हैं। कांग्रेस सांसद संजय निरूपम नीतीश सरकार को महाभ्रष्ट बताते हुए गंगा में डुबो दिए जाने की मांग कर रहे हैं। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती देश के ब्राह्मïणों को जूते मारे जाने की घोषणा कर चुकी हैं। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे अपने भतीजे राज ठाकरे के 'पिछवाड़े' पर जूते मारने की बात कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) अध्यक्ष शरद यादव कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को गंगा में फेंक देने का ऐलान कर रहे हैं। यह कौन सी राजनीति है? राजनीति का यह स्तर आदर्श तो नहीं हो सकता। युवा पीढ़ी विस्मित है लोकतंत्र के इन कथित पहरुओं के आचरण पर। एक समय था जब राजनेता अनुकरणीय आदर्श हुआ करते थे। किन्तु आज? खेद है कि वे लोकतंत्र की हत्या को अंजाम देने पर तुले हुए हैं। चरित्र और नैतिकता के साथ दिनदहाड़े चौराहे पर बलात्कार करने से भी इन्हें परहेज नहीं। 80 के दशक में एक अवसर पर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अब्दुल गनी खान चौधरी ने जब बंगाल की माक्र्सवादी सरकार को बंगाल की खाड़ी में डुबो दिए जाने की बात कही थी तब पूरे देश ने गनीखान चौधरी के शब्दों को अश्लील करार दिया था। उन्हीं दिनों एक और केंद्रीय मंत्री के.के. तिवारी के कड़वे शब्दों को अश्लीलता की श्रेणी में रखकर एक मराठी दैनिक के तत्कालीन संपादक ने तिवारी की तुलना 'राजीव गांधी के बेलगाम कुत्ते' से कर दी थी। हालांकि आपत्तिजनक संपादक की वह टिप्पणी भी थी। उन्होंने स्वयं को पतित राजनीतिकों की पंक्ति में खड़ा कर लिया था। मुझे दुख इस बात का हुआ कि घोर आपत्तिजनक राजनीति की ऐसी शैली अभी भी बरकरार है। इस प्रवृत्ति पर अंकुश की आवश्यकता है। क्या कोई पहल करेगा? लोकतंत्र और महान भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए यह जरूरी है। एक ओर जब विकास के नाम पर चुनावी मैदान में उतरने की बातें की जा रही हैं तब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में आपत्तिजनक अश्लील शब्दों का सहारा क्यों? मेरा मानना है कि इस पर अंकुश के लिए सार्थक पहल युवा पीढ़ी कर सकती है। चुनाव में ऐसे तत्वों को पराजित कर उन्हें सबक सिखा दिया जाना चाहिए।
इसी क्रम में भ्रष्टाचार की गंगोत्री की चर्चा भी इन दिनों तेज हे। मुंबई के कुलाबा स्थित आदर्श सोसाइटी में फ्लैट आबंटन को लेकर जो हृदयविदारक तथ्य सामने आए हैं वे भ्रष्टाचार के हमाम में सभी नंगे को रेखांकित कर रहे हैं। कथित रूप से करगिल युद्ध पीडि़तों के लिए निर्मित उस भवन में राजनीतिकों, सेनाधिकारियों व सरकारी अधिकारियों ने जो बंदरबाट की उससे एक बार फिर यह साबित हो गया कि आज के राजनीतिक व अधिकारी अपने हक में लूट के लिए युद्धपीडि़तों एवं सैन्य विधवाओं के हक पर भी डाका डाल सकते हैं। भ्रष्टाचार की पुरानी परंपरा पर चूंकि रोक लगाने की सार्थक व गंभीर कोशिश कभी नहीं की गई, यह रोग फलता-फूलता चला आया। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में सिराजुद्दीन जीप घोटाले से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्र्यकाल में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तक की भ्रष्ट यात्रा सामने है। इनके बीच में इंदिरा गांधी के कार्यकाल का पाइप लाइन घोटाला व पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला, राजीव गांधी के कार्यकाल का बोफोर्स व फेयरफैक्स घोटाला, नरसिंहराव के कार्यकाल का सांसद रिश्वत कांड, हर्षद मेहता कांड व दूरसंचार घोटाला, अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल का ताबूत घोटाला आदि लोकतांत्रिक भारतीय इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज हैं। सभी शामिल हैं इनमें। भ्रष्टाचार की गंगोत्री की पहचान कठिन नहीं। हां, अधिकारियों के साथ मिलकर राजनेताओं ने इन पर परदा डाल रखा है। चूंकि इस लूट में प्रताडि़त आम जनता होती रही है, उसकी गाढ़ी कमाई को उसकी जेबों से निकाल लिया जाता है, विरोध व अंकुश की पहल जनता को ही करनी होगी। आगे युवा पीढ़ी को ही आना होगा। आह्ïवान है कि वे दलगत राजनीति से इतर लोकतंत्र व देशहित में कदमताल करते हुए भ्रष्ट, स्वार्थी, देशद्रोही ऐसे तत्वों को कुचल डालें।
Sunday, October 31, 2010
Tuesday, October 26, 2010
झूठी एवं मक्कार हैं अरुंधति!
अहंकारी किन्तु मूर्ख बिल्ली सरीखी लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति राय ने स्वयं ही अपने थैले के बंधन खोल डाले हैं। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में देशद्रोही स्वर अपनाने वाली अरुंधति ने क्षमा मांगने की जगह देश की सत्ता का और पूरी जनता की समझ का मखौल उड़ा डाला। जरा उनके शब्दों पर गौर करें, ''उस मुल्क पर (मुझे) दया आती है जहां इंसाफ की बात करने वालों को जेल में डाला जाता है... मैंने तो कश्मीरियों के लिए सिर्फ इंसाफ की आवाज उठाई है। किस मुल्क और किन कश्मीरियों की बात कर रही हैं अरुंधति? दया तो मुझे उनकी समझ पर आ रही है। दया 'बुकर पुरस्कार के निर्णायकों की समझ पर भी आ रही है। अगर बुकर पुरस्कार से अरुंधति समान मन-मस्तिष्क की धारक सम्मानित हो सकती है तो कूड़ेदान में डाल दें ऐसे पुरस्कार को। अपने देश भारत को 'उस मुल्क से संबोधित कर और अपने ही देश के एक राज्य कश्मीरवासियों के लिए पृथक कश्मीरी स्वर निकालकर अरुंधति ने स्वयं ही यह प्रमाणित कर दिया कि वे विघटनकारी तत्वों के साथ मिलकर अलगाववाद को बढ़ावा दे रही हैं। और यह भी कि अरुंधति स्वयं को शायद भारतीय भी नहीं मानतीं। यह पूरे भारतीयों का अपमान है कि उन्होंने भारत के लिए ऐसे शब्द-स्वर निकाले। अपनी बातों के समर्थन में अरुंधति का यह कहना कि उन्होंने वही बात कही 'जो कश्मीर के लाखों लोग रोजाना कहते हैं, निश्चय ही अलगाववाद है। अरुंधति ने कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी तत्वों की गिनती कब की? कहां हैं वे लाखों कथित कश्मीरी? झूठ बोल रही हैं अरुंधति। बिल्कुल एक मक्कार की भाषा इस्तेमाल कर रही हैं वे। ऐसे में तो वे अलगाववादी-आतंकवादी भी सही थे जिन्होंने कभी खलिस्तान की आवाजें उठाई थीं। वह देशद्रोह था जिसे कुचल दिया गया। आज बेशर्मी के साथ अपनी बातों को सही ठहराकर अरुंधति ने अपने लिए कालकोठरी को आमंत्रित किया है। उनके ताजा वक्तव्य का एक-एक शब्द अलगाववाद प्रेरित है। उनकी कपटभरी नीयत रेखांकित हुई है। जरा गौर करें। अपने खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग पर टिप्पणी करते हुए जब वे कहती हैं कि ''इंसाफ की बात करने वाले लेखकों को तो इस देश में जेल में डाल दिया जाता है किन्तु साम्प्रदायिक हिंसा करने वाले, नरसंहार करने वाले, कार्पोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों पर जुल्म ढाने वाले खुले घूम रहे हैं तब उनकी नीयत स्वत: सामने आ जाती है। अरुंधति नाम की यह लेखिका बड़ी चालाकी से संसद पर हमले के दोषी, फांसी की सजा प्राप्त अफजल गुरु का नाम गोल कर जाती हैं। क्यों छुपाया अफजल का नाम उन्होंने? क्या वे बताएंगी? अरुंधति! सच तो यह है कि यह भारत देश ही है जहां अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आसानी से अरुंधतियों की ऐसी फौज खड़ी हो जाती है जो खाती तो भारत का है, ऐश भारत में करती है, लेकिन जुबान और कलम भारत के खिलाफ चलाती है। ऐसा कर वे विदेशियों के लिए महान बन जाती है। विदेशी धन और पुरस्कारों से नवाजी जाती है। भारत देश अपनी उदार और सहिष्णु नीति के कारण इनके खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं कर पाता। भारत की इसी कमजोरी का लाभ अरुंधतियां उठाती रहती हैं। लेकिन अब और नहीं। मैंने खलिस्तान की चर्चा की है तो भिंडरावाले की याद कर ली जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या की घटना की याद कर ली जाए। इन अरुंधतियों ने कभी भी इन घटनाओं के पीछे की शक्तियों को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए देश के विकास हेतु उठाए गए कदमों का विरोध कर सुर्खियां बटोरने में ऐसे लेखक माहिर हैं। जिन 'कश्मीरियों और 'मुल्क की बात अरुंधति ने की है, कथित लाखों कश्मीरियों की चर्चा की है, बेहतर हो पहले वे इतिहास के पन्नों को पलट लें। पता चल जाएगा कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के अन्य प्रदेशों की तरह भारत का अभिन्न अंग है और कश्मीरी पहले भारतीय हैं, बाद में कश्मीरी-पंजाबी, बिहारी, बंगाली, मराठी, मद्रासी आदि की तरह। अगर अरुंधति या उनके समान सोच वालों के खिलाफ तत्काल कठोर कार्रवाई नहीं की जाती तब कोई आश्चर्य नहीं अगर ये तत्व लगभग एक हजार वर्ष गुलाम रहे भारत के अतीत को स्वर्णिम युग बताते हुए पुराने शासकों की वापसी की मांग भी कर डालें। ऐसे लेखक अपनी कल्पना की उड़ान में इस तरह की देशद्रोही सोच को कलमबद्ध करने में हिचकेंगे नहीं। चूंकि अरुंधति ने घोर अलगाववादी सोच को सही ठहराया है, देशद्रोह के आरोप में उन्हें तत्काल दंडित करने की मांग हर भारतीय करेगा। एक अनुरोध शासकों से भी। उदारता तो ठीक है, किन्तु इतने उदार भी न बनें कि हम अपनी जमीन देशद्रोहियों को कबड्डïी खेलने के लिए उपलब्ध कराते रहें। ऐसे तत्वों को दंडित करने के लिए अगर आवश्यक हो तो संविधान-कानून बदल डालें।
देश निकाला दें गिलानी व अरुंधति को!
रीढ़ विहीन शासक वर्ग और मुखौटाधारी राष्ट्रविरोधी कथित बुद्धिजीवी वर्ग को चेतावनी है कि वे भारत को एक नपुंसक देश प्रमाणित करने की कोशिश न करें। यह असह्ïय है, देशवासी इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। आज हर देशवासी यह जानना चाहता है कि कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को अपनी ही भूमि पर, अपनी ही भूमि के लिए 'आजादी' का नारा बुलंद करने की इजाजत कैसे दी गई? सभी यह भी जानना चाहते हैं कि कथित बुद्धिजीवी लेखिका अरुंधति राय को यह घोषणा करने की अनुमति किसने दी कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा? राष्ट्रद्रोह के ऐसे स्वर को क्यों नहीं तत्काल कुचल दिया जाता? और देश यह भी जानना चाहता है कि कश्मीर मामलों में बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त प्रमुख वार्ताकार दिलीप पाडगांवकर ने यह किस हैसियत से कह दिया कि बगैर पाकिस्तान को शामिल किए कश्मीर मामले का स्थायी समाधान संभव नहीं? साफ है कि कश्मीर में षडय़ंत्र रचे जा रहे हैं ताकि पाकिस्तान की मांग के अनुरूप कश्मीर के कथित विवाद को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना कर तीसरे पक्ष की घुसपैठ करा दी जाए! क्या यह कश्मीर मामले में हमारी घोषित नीति के खिलाफ नहीं?
'कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है' इस सत्य को चुनौती देनेवाले निश्चय ही देश के गद्दार हैं- विभीषण, जयचंद तथा मीरजाफर की भूमिका में अवतरित हैं ये! इस घटना विकासक्रम को कोई हल्के से न ले। देश के एक और विभाजन का पूर्वाभ्यास है यह! सांप ने फन उठाया है, अपनी चाल को वह गति प्रदान करे, इससे पूर्व उसे कुचल दिया जाए। पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की जगह भारतीय अंग कश्मीर की आजादी की बातें करनेवालों को इस धरती पर जगह कैसे मिल गई? अलगाववादी घोषित गिलानी को इतनी छूट क्यों कि वह हमारी राजधानी दिल्ली में आकर कश्मीर के लिए आजादी की बातें करे? शर्म और पीड़ा गहरी हो गई यह जानकर कि हमारे केंद्रीय गृहमंत्रालय ने गिलानी के खिलाफ नफरत फैलाने वाला भाषण देने का आरोप लगाते हुए पुलिसिया कार्रवाई की अनुशंसा की है। उन्हें तो देशद्रोह के आरोप में मामला दर्ज कर तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए था। गिलानी का अपराध कभी कश्मीर के प्रधानमंत्री व बाद में मुख्यमंत्री रहे शेख अब्दुल्ला से भी अधिक गंभीर है। शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर के खिलाफ षडय़ंत्र रचने का आरोप लगा था। पारिवारिक मित्र होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने 8 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी करवाई। वह घटना कुख्यात ''कश्मीर षडय़ंत्र'' के रूप में इतिहास में दर्ज है। शेख अब्दुल्ला 11 वर्षों तक जेल में रहे। फिर हमारे वर्तमान शासक कमजोर क्यों दिख रहे हैं? वह भी गिलानी जैसे आदमी के सामने! कहीं किसी और ''कश्मीर षडय़ंत्र'' की तैयारी हो रही है। तो फिर भारत सरकार पंडित नेहरू की तरह कड़े कदम क्यों नहीं उठाती? गिलानी को अविलंब गिरफ्तार कर देश निकाला दे दिया जाए! इसी प्रकार अरुंधति राय के खिलाफ भी राष्ट्रदोह का मुकदमा चलाया जाये। भारत में कश्मीर के विलय को चुनौती देकर अरुंधति ने देशद्रोह को अंजाम दिया है। अपने कथन को ऐतिहासिक सच बतानेवाली अरुंधति राय इतिहास के पन्नों को पलट लें। कश्मीर के तत्कालीन सदर-ए-रियासत डॉ. कर्णसिंह अभी उपलब्ध हैं। सभी जानते हैं कि उनके पिता राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का औपचारिक विलय भारत में कर दिया था।
वह तो तब नवनिर्मित पाकिस्तानियों की चाल थी जो उन्होंने कबायली देश में अपने सैनिकों की घुसपैठ करवाकर कश्मीर के कुछ हिस्से पर कब्जा करवा लिया था। यह संभव हो पाया था नेहरू की ढुलमुल नीति के कारण! ऐसे में अरुंधति राय की चुनौती हर दृष्टि से राष्ट्रविरोधी कार्रवाई है। अरुंधति ने न केवल कश्मीर पर खतरनाक बयानबाजी की है बल्कि भारत को औपनिवेशिक ताकत निरूपित कर दुश्मनों की पंक्ति में खड़ी हो गई हैं। विभिन्न संगठनों के नाम पर विदेशी धन प्राप्त करनेवाली इस महिला को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। कश्मीर के लिए आजादी को एकमात्र विकल्प बतानेवाली अरुंधति राय भारतीय हित के खिलाफ काम कर रही हैं।
नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रधानमंत्री के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में जाने जानेवाले पत्रकार दिलीप पाडगांवकर भी एक पालतू पशु की तरह व्यवहार कर गए। कश्मीर मामले में पाकिस्तानी पक्ष की अपरिहार्यता को रेखांकित करनेवाले दिलीप पाडगांवकर इस मुद्दे पर भारतीय मत को कैसे भूल गए? कश्मीर संदर्भ में अगर पाकिस्तान का कोई पक्ष है तो सिर्फ आतंक और आतंकवादियों के निर्माण और पोषक के रूप में! कश्मीरी भूमि का वह पक्षकार कभी नहीं हो सकता! संसद और संसद के बाहर भारत सरकार की ओर से ऐसे ऐलान किए जा चुके हैं कि भारत में कश्मीर के अस्तित्व के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ कोई बातचीत नहीं हो सकती। फिर पाडगांवकर ऐसी गलती कैसे कर बैठे? लगता है पाडगांवकर ने वार्ताकार के रूप में अपनी नियुक्ति को भारत सरकार की नौकरी मान लिया!!
'कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है' इस सत्य को चुनौती देनेवाले निश्चय ही देश के गद्दार हैं- विभीषण, जयचंद तथा मीरजाफर की भूमिका में अवतरित हैं ये! इस घटना विकासक्रम को कोई हल्के से न ले। देश के एक और विभाजन का पूर्वाभ्यास है यह! सांप ने फन उठाया है, अपनी चाल को वह गति प्रदान करे, इससे पूर्व उसे कुचल दिया जाए। पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की जगह भारतीय अंग कश्मीर की आजादी की बातें करनेवालों को इस धरती पर जगह कैसे मिल गई? अलगाववादी घोषित गिलानी को इतनी छूट क्यों कि वह हमारी राजधानी दिल्ली में आकर कश्मीर के लिए आजादी की बातें करे? शर्म और पीड़ा गहरी हो गई यह जानकर कि हमारे केंद्रीय गृहमंत्रालय ने गिलानी के खिलाफ नफरत फैलाने वाला भाषण देने का आरोप लगाते हुए पुलिसिया कार्रवाई की अनुशंसा की है। उन्हें तो देशद्रोह के आरोप में मामला दर्ज कर तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए था। गिलानी का अपराध कभी कश्मीर के प्रधानमंत्री व बाद में मुख्यमंत्री रहे शेख अब्दुल्ला से भी अधिक गंभीर है। शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर के खिलाफ षडय़ंत्र रचने का आरोप लगा था। पारिवारिक मित्र होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने 8 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी करवाई। वह घटना कुख्यात ''कश्मीर षडय़ंत्र'' के रूप में इतिहास में दर्ज है। शेख अब्दुल्ला 11 वर्षों तक जेल में रहे। फिर हमारे वर्तमान शासक कमजोर क्यों दिख रहे हैं? वह भी गिलानी जैसे आदमी के सामने! कहीं किसी और ''कश्मीर षडय़ंत्र'' की तैयारी हो रही है। तो फिर भारत सरकार पंडित नेहरू की तरह कड़े कदम क्यों नहीं उठाती? गिलानी को अविलंब गिरफ्तार कर देश निकाला दे दिया जाए! इसी प्रकार अरुंधति राय के खिलाफ भी राष्ट्रदोह का मुकदमा चलाया जाये। भारत में कश्मीर के विलय को चुनौती देकर अरुंधति ने देशद्रोह को अंजाम दिया है। अपने कथन को ऐतिहासिक सच बतानेवाली अरुंधति राय इतिहास के पन्नों को पलट लें। कश्मीर के तत्कालीन सदर-ए-रियासत डॉ. कर्णसिंह अभी उपलब्ध हैं। सभी जानते हैं कि उनके पिता राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का औपचारिक विलय भारत में कर दिया था।
वह तो तब नवनिर्मित पाकिस्तानियों की चाल थी जो उन्होंने कबायली देश में अपने सैनिकों की घुसपैठ करवाकर कश्मीर के कुछ हिस्से पर कब्जा करवा लिया था। यह संभव हो पाया था नेहरू की ढुलमुल नीति के कारण! ऐसे में अरुंधति राय की चुनौती हर दृष्टि से राष्ट्रविरोधी कार्रवाई है। अरुंधति ने न केवल कश्मीर पर खतरनाक बयानबाजी की है बल्कि भारत को औपनिवेशिक ताकत निरूपित कर दुश्मनों की पंक्ति में खड़ी हो गई हैं। विभिन्न संगठनों के नाम पर विदेशी धन प्राप्त करनेवाली इस महिला को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। कश्मीर के लिए आजादी को एकमात्र विकल्प बतानेवाली अरुंधति राय भारतीय हित के खिलाफ काम कर रही हैं।
नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रधानमंत्री के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में जाने जानेवाले पत्रकार दिलीप पाडगांवकर भी एक पालतू पशु की तरह व्यवहार कर गए। कश्मीर मामले में पाकिस्तानी पक्ष की अपरिहार्यता को रेखांकित करनेवाले दिलीप पाडगांवकर इस मुद्दे पर भारतीय मत को कैसे भूल गए? कश्मीर संदर्भ में अगर पाकिस्तान का कोई पक्ष है तो सिर्फ आतंक और आतंकवादियों के निर्माण और पोषक के रूप में! कश्मीरी भूमि का वह पक्षकार कभी नहीं हो सकता! संसद और संसद के बाहर भारत सरकार की ओर से ऐसे ऐलान किए जा चुके हैं कि भारत में कश्मीर के अस्तित्व के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ कोई बातचीत नहीं हो सकती। फिर पाडगांवकर ऐसी गलती कैसे कर बैठे? लगता है पाडगांवकर ने वार्ताकार के रूप में अपनी नियुक्ति को भारत सरकार की नौकरी मान लिया!!
Saturday, October 23, 2010
अज्ञानी हैं, पागल हैं, चाटुकार हैं मोहन प्रकाश!
कांग्रेस प्रवक्ता मोहन प्रकाश या तो घोर बदतमीज हैं, घोर अज्ञानी हैं या फिर अव्वल दर्जे के चाटुकार। वैसे शंका यह भी उठी है कि कहीं वे कांग्रेसी लंका के विभीषण तो नहीं बन रहे! कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की लोकनायक जयप्रकाश नारायण से तुलना कर मोहन प्रकाश ने जयप्रकाश नारायण की आत्मा को तो रूलाया ही है, देश का अपमान भी किया है। आज अगर पूरा देश क्रोधित है तो बिल्कुल सही। स्वयं कांग्रेसियों की भौंहें तन गई हैं। वे मोहन प्रकाश के शब्दों में निहीत नीयत की पड़ताल करने लगे हैं। समझ में नहीं आता कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्या वे सचमुच इतने बड़े अज्ञानी हैं कि उन्हें जयप्रकाश नारायण और उनकी संपूर्ण क्रांति की जानकारी नहीं? सत्ता की राजनीति से हमेशा दूर रहने वाले जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री, राहुल गांधी की दादी, इंदिरा गांधी के कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ सफल आंदोलन चलाया था। उन्होंने तत्कालीन सत्ता को खुली चुनौती दी थी। कुशासन और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर वर्गहीन समाज की स्थापना की मुहिम चलाई थी। जेपी तब जन-जन की आवाज बन बैठे थे। पूरा देश उनके साथ मर-मिटने को तैयार हो उठा था। सत्तालोलुप इंदिरा गांधी ने तब आंदोलन को कुचलने के लिए हर तरह के अलोकतांत्रिक कदम उठाए थे। जयप्रकाश नारायण सहित देश के प्राय: सभी बड़े नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे। इंदिरा ने तब जनता से उसके मौलिक अधिकार भी छिन लिए थे। लोकतंत्र की हत्या कर देश पर आपातकाल थोप दिया था। सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं बाड़े में कैद कर दी गई थीं। उनकी जुबान पर बड़े-बड़े ताले लगा दिए गए थे। और तो और न्यायपालिका की आजादी और गरिमा भी तब सवालिया निशानों के घेरे में थी। अत्याचार का तब एक ऐसा दौर चला था कि स्वयं भारत माता लहूलुहान दिखने लगी थी। विरोध के स्वर कुचल दिए गए थे। यह सब इंदिरा गांधी ने अर्थात्ï राहुल गांधी की दादी ने किया था सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए। जयप्रकाश नारायण का विरोध उन्हें सहन नहीं था। उनका लोकनायक बनना इंदिरा को नहीं सुहाया था। लेकिन देश की जनता ने जयप्रकाश नारायण का साथ दिया, इंदिरा को झुकना पड़ा, देश दूसरी आजादी से रूबरू हुआ। जयप्रकाश नारायण पूरे देश के हृदय सम्राट के रूप में स्वीकार किए गए थे। आज मोहन प्रकाश ने जब राहुल गांधी की तुलना जयप्रकाश से कर इतिहास के उस घिनौने अध्याय की याद दिला दी है तब निश्चय ही उनकी नीयत और उनके ज्ञान पर सवाल उठेंगे। बिहार में चुनाव के मौके पर ऐसी टिप्पणी कर सच पूछिए तो मोहन प्रकाश ने कांग्रेस का बहुत बड़ा अहित कर डाला है। वे अपनी टिप्पणी में पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को बच्चों से प्यार होने की बात कहकर पता नहीं कांग्रेस का हित में कौन सा हित साधना चाहते थे! कहीं ऐसा तो नहीं कि सोनिया गांधी द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा बिहार में खोले जाने का मुद्दा उठाने के बाद मोहन प्रकाश ने मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने के लिए कलाम का नाम ले लिया! अगर ऐसा है तब निश्चय ही मोहन प्रकाश अव्वल दर्जे के चाटुकार हैं। यह विडंबना ही है कि अभी कुछ दिनों पूर्व राहुल गांधी ने चाटुकारों को 15 मिनट के अंदर पार्टी से निकाल बाहर करने की बात कही थी, उसी राहुल गांधी पर टनों मक्खन उंडेलकर मोहन प्रकाश ने स्वयं को क्या बड़ा चाटुकार साबित नहीं किया? अब देखना है राहुल गांधी उन्हें कितने मिनट के अंदर पार्टी से निकाल बाहर करते हैं। मोहन प्रकाश अपनी नादानी अथवा चाटुकारिता में यह भी भूल गए कि जिस राहुल की तुलना वे जयप्रकाश नारायण से कर रहे थे, उस राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी को एक तराजू पर तौला था। संभवत: मोहन प्रकाश को यह नहीं मालूम कि जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख सेनापति नानाजी देशमुख संघ के ही सदस्य थे। नानाजी देशमुख ने भी आंदोलन के दौरान एक बार जयप्रकाश नारायण को मौत के मुंह से बचाया था। तब इंदिरा शासन ने षडय़ंत्र कर जेपी की हत्या करानी चाही थी। खेद है कि मोहन प्रकाश यह सब भूल राहुल-वंदना कर बैठे। लेकिन, उनकी टिप्पणी प्रतिउत्पादक सिद्ध हुई है। लोगों में विशेषकर बिहार के लोगों में चुनाव के दौरान आपातकाल की यादें ताजा हो गईं। उन मौलिक अधिकारों की चर्चा होने लगी जिन्हें आपातकाल के दौरान छिन लिया गया था। मोहन प्रकाश ने लोगों को यह भी याद दिला दिया कि राहुल गांधी लोकतंत्र की हत्या करने वाली इंदिरा गांधी के पोते हैं। सचमुच जब कोई व्यक्ति चाटुकारिता की होड़ में आगे निकलना चाहता है तब वह अपना विवेक खो बैठता है। ऐसे में वह बदतमीज, पागल और अज्ञानी तो लगेगा ही।
Tuesday, October 19, 2010
यह कैसी धर्मनिरपेक्षता?
''क्या संविधान से धर्मनिरपेक्षता शब्द को मिटा देना चाहिए?'' एक पाठक ने संदेश देकर यह सवाल पूछा। संदर्भ बिहार चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा नीतीश कुमार को सांप्रदायिक निरूपित किए जाने का है। सवाल मौजू है और राष्ट्रीय बहस का आग्रही भी है। चूंकि इस शब्द का इस्तेमाल अब स्वार्थपूर्ति के लिए राजनीतिक करने लगे हैं, यह तो साफ है कि ऐसे लोगों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं। अवसरवादी राजनीति के लिए धर्मनिरपेक्षता शब्द का पत्ता फेंकनेवाले तथ्य से कोसों दूर हैं। उन्हें इसकी परवाह भी नहीं। उनकी ङ्क्षचता है तो सिर्फ वोटों की। कथित धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में अभियान से समाज बंटता है, देश बंटता है तो अपनी बला से। सांप्रदायिक दंगों को उकसाने से भी इन्हें परहेज नहीं। बल्कि ऐसे दंगों की आग में भी ये राजनीतिक रोटी सेंकने से बाज नहीं आते। इन्हें तो सिर्फ वोट चाहिए। जहां तक बिहार चुनाव और मनमोहन, सोनिया, नीतीश का सवाल है, मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि मनमोहन और सोनिया दोनों ने सांप्रदायिक ज्वाला भड़काने की कोशिश की है। बिहार में सोनिया गांधी ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जमीन आबंटित नहीं किए जाने से नीतीश की आलोचना की, तब निश्चित ही वे मुस्लिम तुष्टीकरण की उस सीढ़ी पर चढ़ रही थीं, जो अंतत: सांप्रदायिकता की आग पैदा करती है। सोनिया ने बड़े गर्व से कहा कि केंद्र की संप्रग सरकार की अनुमति के बावजूद मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए जमीन मुहैया नहीं कराई। साफ है कि ऐसी टिप्पणी कर सोनिया गांधी वहां के मुस्लिम मतदाता को नीतीश के खिलाफ अपने पक्ष में लुभा रही थीं। सोनिया गांधी इस बिंदु पर सांप्रदायिक आधार पर वोट मांगने का कानून विरुद्ध आचरण की दोषी बन जाती हैं। गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव में नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर बता वहां कांग्रेस का सफाया करवा देने वाली सोनिया गांधी ने लगता है उससे सबक नहीं सीखा। बिहार में मुस्लिम तुष्टीकरण का पांसा फेंक उन्होंने अपनी कांग्रेस पार्टी का अहित ही किया है। अपनी नेता की तरह मनमोहन सिंह भी कुछ ऐसी ही गलती कर बैठे हैं। नरेन्द्र मोदी से हाथ मिलाने के कारण नीतीश कुमार को सांप्रदायिक बतानेवाले प्रधानमंत्री पहले इतिहास के पन्नों को पलट लें। नीतीश के असली पाश्र्व की जानकारी ले लें। अक्टूबर 1990 में जब रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी को लालूप्रसाद यादव (तत्कालीन मुख्यमंत्री ) ने गिरफ्तार करवाया था, तब नीतीश कुमार लालू मंत्रिमंडल के सदस्य थे। बल्कि तब वे लालू के 'फ्रेंड-फिलासॉफर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। जाहिर है आडवाणी की गिरफ्तारी में नीतीश की भूमिका महत्वपूर्ण रही होगी। अब अगर नीतीश भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं, तब निश्चय ही राजनीतिक अवसरवादितावश। यही वर्तमान राजनीति का सच है। धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी वोट और सिर्फ वोट के लिए कर रहे हैं। अवसरवादिता का ऐसा नंगा तांडव हर काल में राजनीतिकों ने किया है। जरा याद करें जयप्रकाश के आंदोलन के दिनों की। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कथित शासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव, नीतीशकुमार, रामविलास पासवान, सुबोधकांत सहाय, जार्ज फर्नांडिस आदि की भूमिकाएं कालांतर में क्या रहीं? लालू और नीतीश उसी कांग्रेस नेतृत्व की सरकार के हिस्सा बने जिसे ये सभी लोकतंत्र विरोधी, संविधान विरोधी और भ्रष्ट बताया करते थे। आरोप गलत भी नहीं थे। सत्ता में बने रहने के लिए तब कांग्रेस नेतृत्व ने देश पर आपातकाल थोपा, नागरिकों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के साथ-साथ हजारों अन्य नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था। स्वयं लालू, रामविलास और सुबोध आदि जेलों में बंद कर दिए गए थे। आपातकाल खत्म हुआ, चुनाव हुए तब जनता ने कांग्रेस को सत्ता से दूर कर दिया। कहा गया कि भारत को दूसरी आजादी मिली है। वामदलों को छोड़कर तब का जनसंघ (अब की भाजपा) सहित प्राय: सभी विपक्षी दल आपसी भेदभाव भुला एकमंच पर एकत्रित हुए और जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पार्टियां भी इसमें शामिल हुईं। लेकिन, सत्ता-स्वार्थ ने एक बार फिर इन लोगों को अलग-अलग कर दिया। वही लालू, रामविलास बाद में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार में मंत्री बने। सुबोधकांत तो कांग्रेस में ही शामिल हो आज मंत्री हैं। क्या कहेंगे इसे? क्या ये उदाहरण मूल्य, नैतिकता और सिद्धांत को चुनौती नहीं देते? एक और उदाहरण। 1996 के आम चुनाव के बाद जब भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तब बहुमत के लिए आवश्यक संख्या जुटाने में वह विफल रही। भाजपा को अछूत करार देते हुए कोई भी राजनीतिक दल उसके समर्थन में साथ नहीं गया था। नतीजतन अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिनों में सत्ता से बाहर हो गई। लेकिन बाद में? चुनाव पश्चात पुन: जब भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी तब उसके साथ लगभग दो दर्जन दल चले गए थे। अटलबिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में तब जार्ज फर्नांडिस सरीखे समाजवादी भी शामिल थे। साफ है कि सत्ता की राजनीति में अब न कोई स्थायी दोस्त है, दुश्मन है, न अछूत। इसलिए कथित धर्मनिरपेक्षता का नारा अब कोई मायने नहीं रखता। संविधान से इस शब्द को मिटाया तो नहीं जाना चाहिए किंतु हां, इसकी पुनव्र्याख्या अवश्य हो।
ठाकरे-मनमोहन दोनों कटघरे में!
लोकतंत्र प्रदत्त वाणी की यह कैसी स्वतंत्रता कि जब चाहे जनता की समझ को चुनौती दे दी जाए? हमारे राजनेता यह मानकर कैसे चलते हैं कि जनता बेअक्ल है और उसकी याददाश्त कमजोर होती है! फैशन के रूप में जारी इस परंपरा ने इस बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को एकसाथ कटघरे में खड़ा कर दिया है। अब इन दोनों में से किसी को शर्म आएगी यह कहना कठिन है। राजनीतिक बेशर्मी का लबादा जो इन्होंने ओढ़ रखा है! जरा इनकी बानगी देखिए! मुंबई में दशहरा रैली को संबोधित करते हुए बाल ठाकरे ने घोषणा की कि वे वंशवाद राजनीति में विश्वास नहीं करते। क्या यह जनता की समझ को चुनौती नहीं है? जिस मंच से ठाकरे रैली को संबोधित कर रहे थे, उसी मंच पर उनके 20 वर्षीय पोते आदित्य ठाकरे को तीसरी पीढ़ी के नेता के रूप में पेश किया गया। बाल ठाकरे ने आदित्य को तलवार पेश करते हुए युवा सेना के प्रमुख पद को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। क्या यह वंशवाद की परंपरा की स्वीकृति नहीं? 83 वर्षीय बाल ठाकरे ने यह सफाई देकर कि पुत्र उद्धव ठाकरे को राजनीति में वे नहीं ले आए, एक और झूठ को रेखांकित किया। उनके अनुसार अगर राज ठाकरे ने उद्धव को राजनीति में लाया था तब उन्होंने स्वीकार क्यों किया? जब पार्टी में उनकी और सिर्फ उनकी चलती है तब वे उद्धव के प्रवेश को रोक सकते थे। साफ है कि बाल ठाकरे झूठ बोल रहे हैं। जिस नेहरू-गांधी परिवार को वंशवाद का पोषक बताते हुए बाल ठाकरे पानी पी-पीकर आलोचना करते रहते हैं, उसी वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाकर बाल ठाकरे निश्चय ही गांधी-नेहरू परिवार के अनुयायी बन गए हैं। शिवसेना की कार्यप्रणाली को लोकतंत्र से अलग शिवशाही पर चलने की घोषणा करने वाले बाल ठाकरे जब निडरतापूर्वक यह स्वीकार कर सकते हैं कि पार्टी में कोई भी निर्णय उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं लिया जा सकता, तब उसी निडरता के साथ वंशवाद का पोषक होने को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते? तानाशाह या हिटलर का आरोप कोई नहीं लगाएगा। सभी जानते हैं कि भाषा और प्रांतीयता की तुच्छ राजनीति करने वाले ठाकरे मराठी माणूस के नाम पर अराजकता और अवसरवादिता की राजनीति करते हैं। शालीन लोकतंत्र को इन्होंने हमेशा ठेंगे पर रखा है। क्या अब भी ठाकरे वंशवाद की अपनी नीति को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेंगे? बेहतर हो कर लें। जनता सब समझती है।
बाल ठाकरे की तो अपनी एक नीति है। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी स्वयं को ठाकरे की पंक्ति में खड़ा कर देश को निराश किया है। अर्थशास्त्री डॉ. सिंह ने एक बिल्कुल अवसरवादी राजनीतिक की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार की धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान जड़ दिया। उनका यह कहना कि '' जिस नीतीशकुमार ने एक मंच पर नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाया, उससे मुझे उनके धर्मनिरपेक्ष होने पर संशय होता है,ÓÓ हास्यास्पद है। तथ्य की कसौटी पर गलत भी। एक प्रदेश के निर्वाचित मुख्यमंत्री को अछूत करार देकर प्रधानमंत्री ने निश्चय ही अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है। मुझे तो शक है कि मनमोहन सिंह को धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा की जानकारी है भी या नहीं? वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता में फर्क है प्रधानमंत्रीजी! अगर नरेंद्र मोदी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं अर्थात्ï साम्प्रदायिक हैं तब गुजरात प्रदेश की जनता उनके साथ कैसे है? विधानसभा में उनकी बहुमत की सरकार है। ताजातरीन मनपा चुनावों में उनकी भारतीय जनता पार्टी की भारी विजय ही नहीं हुई बल्कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ गया। क्या गुजरात की पूरी की पूरी जनता धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ साम्प्रदायिक हो गई है? ऐसा नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी को हिन्दुत्व की बातें कहने पर कोई साम्प्रदायिक घोषित करता है तब मुस्लिम तुष्टीकरण की बातें करने वाला, नीति पर चलने वाला निश्चय ही उनसे कहीं अधिक साम्प्रदायिक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लें कि देश की जनता मूर्ख नहीं समझदार है। अच्छाई-बुराई में फर्क करना वह जानती है। उसे गुमराह करने की कोशिश कोई न करे। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता से पृथक विकास के मोर्चे पर नरेंद्र मोदी और नीतीशकुमार की सरकारें कांग्रेस शासित प्रदेशों को क्या चुनौतियां नहीं दे रहीं? मनमोहनसिंहजी आप देश के प्रधानमंत्री हैं, कम से कम आप तो प्रदेश-प्रदेश में फर्क न करें।
बाल ठाकरे की तो अपनी एक नीति है। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी स्वयं को ठाकरे की पंक्ति में खड़ा कर देश को निराश किया है। अर्थशास्त्री डॉ. सिंह ने एक बिल्कुल अवसरवादी राजनीतिक की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार की धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान जड़ दिया। उनका यह कहना कि '' जिस नीतीशकुमार ने एक मंच पर नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाया, उससे मुझे उनके धर्मनिरपेक्ष होने पर संशय होता है,ÓÓ हास्यास्पद है। तथ्य की कसौटी पर गलत भी। एक प्रदेश के निर्वाचित मुख्यमंत्री को अछूत करार देकर प्रधानमंत्री ने निश्चय ही अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है। मुझे तो शक है कि मनमोहन सिंह को धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा की जानकारी है भी या नहीं? वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता में फर्क है प्रधानमंत्रीजी! अगर नरेंद्र मोदी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं अर्थात्ï साम्प्रदायिक हैं तब गुजरात प्रदेश की जनता उनके साथ कैसे है? विधानसभा में उनकी बहुमत की सरकार है। ताजातरीन मनपा चुनावों में उनकी भारतीय जनता पार्टी की भारी विजय ही नहीं हुई बल्कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ गया। क्या गुजरात की पूरी की पूरी जनता धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ साम्प्रदायिक हो गई है? ऐसा नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी को हिन्दुत्व की बातें कहने पर कोई साम्प्रदायिक घोषित करता है तब मुस्लिम तुष्टीकरण की बातें करने वाला, नीति पर चलने वाला निश्चय ही उनसे कहीं अधिक साम्प्रदायिक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लें कि देश की जनता मूर्ख नहीं समझदार है। अच्छाई-बुराई में फर्क करना वह जानती है। उसे गुमराह करने की कोशिश कोई न करे। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता से पृथक विकास के मोर्चे पर नरेंद्र मोदी और नीतीशकुमार की सरकारें कांग्रेस शासित प्रदेशों को क्या चुनौतियां नहीं दे रहीं? मनमोहनसिंहजी आप देश के प्रधानमंत्री हैं, कम से कम आप तो प्रदेश-प्रदेश में फर्क न करें।
Saturday, October 16, 2010
औकात बता दें कट्टरपंथियों को!
अब बातें दो टूक हों, फैसला भी हो ही जाए। सांप्रदायिक सौहाद्र्र और सर्वधर्म समभाव का पक्षधर मैं आज गहरी पीड़ा के साथ इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड चाहता ही नहीं कि अयोध्या अर्थात्ï मंदिर-मस्जिद मसले का कोई हल निकले। वे चाहते हैं कि विवाद बना रहे, सांप्रदायिक तनाव चलता रहे। निष्पक्ष सोच के धारक पहले से ही कहते आये हैं कि कट्टरपंथी जब तक इस मामले में हस्तक्षेप करते रहेंगे, समाधान नहीं निकल पाएगा। ये तत्व समाधान चाहते ही नहीं। मामला अगर सुलझ गया तो फिर इनकी दुकानदारी जो बंद हो जाएगी! आजादी पश्चात विभाजन के साथ ही इन कट्टरपंथियों ने अपनी-अपनी दुकानें खोल ली थीं। धर्म-संप्रदाय का मुलम्मा चढ़ा इन्होंने मंदिर-मस्जिद को बेचना शुरू कर दिया। अयोध्या विवाद को आजादी पूर्व अंग्रेज शासकों ने हवा दी और आजादी पश्चात इन कट्टरपंथियों ने! विवाद में राजनीतिकों के प्रवेश ने मामले को विस्फोटक बना दिया। विवाद को वोट बैंक से भी जोड़ दिया गया। फिर क्या आश्चर्य कि समय-समय पर इस विस्फोटक के पलीते को चिंगारी मिलती रही! बड़ी कोफ्त होती है यह देख-सुनकर की विशाल भारत का विशाल समाज कथित धर्मगुरुओं व कट्टरपंथियों के इशारे पर संचालित होता है। झुठला दें इस सोच को! न तो हमारी संस्कृति इसकी इजाजत देती है और न प्राचीन सभ्यता। भारत देश का गौरवशाली इतिहास सर्वधर्म समभाव का पक्षघर है। कुछ टुच्चे-लुच्चे अवश्य धर्म को हथियार बना समाज को कांटने-बांटने का घृणित खेल खेलते रहते हैं। इनके चेहरे सामने हैं। ढूंढने की जरूरत नहीं। फिर क्यों न इन्हें इनकी औकात बता दी जाए? वो औकात जो इन्हें समाज में वजूद रखने की इजाजत नहीं देता फिर कैसे ये तत्व बेखौफ विचर रहे हैं? क्या हमारा समाज शक्तिहीन बन गया है?
इसे स्वीकारना संभव नहीं। हमारा समाज इतना अशक्त कदापि नहीं। जरूरत है पहल की। जरूरत है त्वरित निर्णय की! मुस्लिम समुदाय घोषणा कर दे कि ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता। वे वस्तुत: कुछ स्वार्थी राजनीतिकों की गोद में बैठकर धर्म की राजनीति कर रहे हैं। जब सभी पक्ष यह घोषणा कर चुके थे कि अयोध्या मसले पर अदालत का फैसला उन्हें मान्य होगा, तब फिर फैसले पर सवालिया निशान क्यों! फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का उनका निर्णय मामले को लंबा खींचने के मकसद से लिया गया है, मामले को सुलझाने के मकसद से नहीं! वे नहीं चाहते कि मामले का सर्वमान्य हल निकले। साफ है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी अगर उनके मन मुताबिक नहीं आया तब वे कानून-संविधान के खिलाफ जाकर कोई नया पैंतरा ढूंढेंगे। अब चुनौती है मुस्लिम समुदाय के विवेक को! ठुकरा दें ऐसे कथित रहनुमाओं को, उनकी दुकानों पर ताले लगा दें! ये तत्व समुदाय का हित चाहनेवाले नहीं, सिर्फ उनका उपयोग करने वाले हैं।
इसे स्वीकारना संभव नहीं। हमारा समाज इतना अशक्त कदापि नहीं। जरूरत है पहल की। जरूरत है त्वरित निर्णय की! मुस्लिम समुदाय घोषणा कर दे कि ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता। वे वस्तुत: कुछ स्वार्थी राजनीतिकों की गोद में बैठकर धर्म की राजनीति कर रहे हैं। जब सभी पक्ष यह घोषणा कर चुके थे कि अयोध्या मसले पर अदालत का फैसला उन्हें मान्य होगा, तब फिर फैसले पर सवालिया निशान क्यों! फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का उनका निर्णय मामले को लंबा खींचने के मकसद से लिया गया है, मामले को सुलझाने के मकसद से नहीं! वे नहीं चाहते कि मामले का सर्वमान्य हल निकले। साफ है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी अगर उनके मन मुताबिक नहीं आया तब वे कानून-संविधान के खिलाफ जाकर कोई नया पैंतरा ढूंढेंगे। अब चुनौती है मुस्लिम समुदाय के विवेक को! ठुकरा दें ऐसे कथित रहनुमाओं को, उनकी दुकानों पर ताले लगा दें! ये तत्व समुदाय का हित चाहनेवाले नहीं, सिर्फ उनका उपयोग करने वाले हैं।
Friday, October 15, 2010
सुसंस्कृति की पक्षधर है जनता!
वसूली संस्कृति पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के मौन पर कोई अचंभित न हो। यही तो कांग्रेस संस्कृति है। परंपरा के रूप में जारी और विरासत के रूप में प्राप्त वसूली संस्कृति पर मौन साध वस्तुत: सोनिया गांधी ने इस पुख्ता संस्कृति की पुष्टि कर दी है। कहां तो यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि वसूली के भंडाफोड़ होने के बाद सोनिया गांधी अपनी यात्रा रद्द कर देंगी, किन्तु उन्होंने रैली में न केवल भाग लिया बल्कि वसूली में कथित रूप से अंतर्लिप्त या यूं कहिए वसूली के लिए जिम्मेदार नेताओं की प्रशंसा कर इस 'संस्कृति' को मजबूती प्रदान कर दी। यही वर्तमान राजनीति का सच है। लेकिन, सच यह भी है कि राजनीति से जुड़े अनेक लोग आज भी मौजूद हैं जो कि 'संस्कृति' को स्वीकृति देने को तैयार नहीं। और सच यह भी है कि व्यापक भ्रष्टाचार-कदाचार, सड़-गल चुकी व्यवस्था, घोर अराजकता और परस्पर अविश्वास के बावजूद देश का बहुमत आज भी सुसंस्कृति का पक्षधर है, वसूली संस्कृति का नहीं। वर्धा रैली के नाम पर महात्मा गांधी की आत्मा को चाक-चाक कर जिस प्रकार धन उगाही की गई, उसे स्वीकार कर कांग्रेस नेतृत्व ने जो संदेश दिया है, वह बिल्कुल साफ है। कांग्रेस नेतृत्व को भी ऐसे ही लोग चाहिए जो धन उगाही कर खजाना भर सकें। चुनाव के दौरान उम्मीदवारों द्वारा घोषित संपत्ति के ब्यौरे गवाह हैं कि धनबल उम्मीदवारी के लिए अनिवार्य पात्रता है। जिसके पास यह शक्ति नहीं वह उम्मीदवार बनने की सोच भी नहीं सकता। वह जमाना चला गया जब उम्मीदवार की ईमानदारी और निर्धनता उसकी शक्ति के रूप में चिन्हित होती थी। मतदाता भी ऐसे उम्मीदवारों को अपना समर्थन प्रदान करते थे। अब सबकुछ बदल गया। धनबल और बाहुबल ने लोकतंत्र का हरण कर लिया है। नेता और कार्यकर्ता दोनों को धन चाहिए। अपने इसी धनबल के इस्तेमाल से वे मतदाता का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। योग्यता को पैमाना मानने वाले मतदाता तब असहाय हो जाते हैं जब उनके सामने योग्य विकल्प नहीं दिखता। 'अंधों में काना' ढूंढने के लिए वे विवश हो जाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे जब धनबल से सज्जित (अयोग्य) उम्मीदवार सर्वथा योग्य उम्मीदवार को पछाड़ विजयी होते आए हैं। दरबार में पूछ ऐसे ही उम्मीदवारों की होती है, आदर इन्हें ही मिलता है। सोनिया गांधी ने इस कसौटी पर कुछ अनपेक्षित नहीं किया। वे तो यह देख पुलकित हुईं कि सैकड़ों बसों की व्यवस्था की गई और हजारों लोगों को उनके दर्शनार्थ उपस्थित कर दिया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने वसूली के जिम्मेदार सभी राजनेताओं के कामों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर डाली। तो क्या इसे देशवासी वर्तमान लोकतंत्र की नीयति मान स्वीकार कर लें? नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिए। यह ठीक है कि आज चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है, किन्तु सच यह भी है कि आज चारों ओर ऐसे भ्रष्टाचार के विरोध में आवाज उठाने वाले भी कम नहीं। जब-जब ऐसे लोगों ने सीमा पार की है, मर्यादा का उल्लंघन किया है, विरोध के स्वर की तीव्रता ने इन्हें हमेशा परास्त किया है। लोकतंत्र के इस मजबूत पक्ष को कोई अनदेखा न करे। वसूली के लिए जिम्मेदार लोग आज भले ही पुलकित हो उठे हों, कल उन्हें जनआक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। आज की उनकी मुस्कान तब मातम में बदल जाएगी। महात्मा गांधी ऐसा ही चाहते थे। लोकतंत्र आश्वस्त रह सकता है कि महात्मा गांधी की इच्छा को पूरा करने वाले वे हाथ आज मौजूद हैं। कांग्रेस नेतृत्व अब भी संशोधन कर ले। इसके पूर्व कि अत्यधिक विलंब हो जाए, वसूली संस्कृति को बढ़ावा देने के जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाए। जनता के सब्र की परीक्षा कोई न ले।
नंगी हुई कथित कांग्रेस संस्कृति!
क्या यही कांग्रेस संस्कृति है? अगर हां, तो फिर कांग्रेस ऐलानिया यह स्वीकार कर ले कि उसे शिष्टाचार नहीं भ्रष्टाचार ही चाहिए। ईमानदारी व मूल्यों का ढोल वह न पीटे। घोषणा कर दे कि हां, हमारी संस्कृति ही ऐसी है जिसे हमारे नेता-कार्यकर्ता जब चाहे सड़क-चौराहे पर नीलाम कर दें। कोई उंगली न उठाए। गांधीवाद हमारा ढोंग है, लोकतंत्र एक दिखावा। देश को वह बता दे कि संविधान व लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस्तेमाल पार्टी देश की जनता की जेबों में हाथ डालने और खुद का पेट भरने के लिए करती है।
सचमुच महात्मा गांधी की आत्मा आज विलाप कर रही है। उनकी कर्मभूमि वर्धा तो खैर पहले से ही नकली गांधियों के कारण आक्रांत है, आज कांग्रेस ने एक बार फिर उनकी आत्मा की बोली लगा दी। गांधी को याद कर महाराष्ट्र कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 वर्ष पूर्ण होने पर 'ग्राम से सेवाग्राम' रैली के आयोजन को सफल बनाने के लिए जिस कदाचार का सहारा लिया उससे हम स्तब्ध हैं। हालांकि ऐसे आयोजनों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा, विशेषकर सत्तारूढ़ दल द्वारा, 'वसूली' कोई नई बात नहीं है। वर्तमान घटना में नया कुछ है तो यह कि स्वयं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और एक पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी ने ऐसी वसूली की पुष्टि की। बल्कि अपनी जुबान से पूरे देश को बता दिया। हर बार ऐसी घटना से इन्कार करने वाला दल इस बार कटघरे में है। पूरा वाकया कैमरे में कैद होकर जनता के सामने सार्वजनिक हो चुका है। गांधी उपनाम का भरपूर दोहन करने वाले नेहरू परिवार की सोनिया गांधी की शिरकत के कारण इस रैली को व्यापक प्रचार मिला। आयोजन को महत्वपूर्ण बताया गया। लेकिन प्रदेश कांग्रेस और कांग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार ने कांग्रेस संस्कृति को नंगा कर चौराहे पर खड़ा कर दिया। अब चाहे कांग्रेस दल जितना भी खंडन-मंडन कर ले, यह सच प्रमाणित हो गया कि सत्ता का दुरुपयोग करते हुए रैली के लिए धन वसूला गया। सार्वजनिक वीडियो टेप से यह साबित हो गया कि मुख्यमंत्री व उनके मंत्रियों ने आयोजन के लिए कई करोड़ रुपये दिए। क्या इस पर कोई विवाद हो सकता है कि यह धन मुख्यमंत्री अथवा मंत्रियों ने अपनी जेब से न देकर किसी अन्य स्रोत से उगाहे! क्या स्रोत को चिन्हित करने की जरूरत है? काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था में ऐसे धन सहज उपलब्ध हैं। हमारी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था की उपज ही है ऐसी समानांतर अर्थव्यवस्था। लोकतंत्र के नाम पर और जनसेवा की घोषणा के साथ राजनीतिक और राजदल आज धनशक्ति को सींचने में मशगूल हैं। यह वही धनबल है जिसने लोकतंत्र की मूल भावना को कैद कर रखा है। यह धनबल ही है जिसने बाहुबलियों की एक लंबी कतार को जन्म दिया है। धनबल और बाहुबल ने मिलकर पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कब्जा कर लिया है। धन की असीम लोलुपता ने प्राय: हर दल को भ्रष्ट बना दिया है। वर्धा की इस रैली ने इसके एक छोटे रूप को ही उजागर किया है। 3-4 करोड़ रुपये की उगाही तो अत्यंत ही मामूली बात है। सभी जानते हैं कि चुनावों के दौरान एक-एक निर्वाचन क्षेत्र में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा कई सौ करोड़ में पहुंच जाता है। और यह सब संभव होता है काले धन से ही। क्या कभी लग सकेगा इस प्रवृत्ति पर अंकुश? विभाग और अधिकारी तो मौजूद हैं, किन्तु उनके चरित्र? व्यवस्था ने उन्हें भी या तो पंगु बना डाला है या फिर वे नेताओं के साथ साठगांठ कर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में स्वयं उतर पड़े हैं। तो क्या भ्रष्टाचार और अनाचार के इस दैत्य के सामने देश समर्पण कर दे? नहीं, कदापि नहीं। विरासत में प्राप्त हमारी महान संस्कृति और सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। आशा की रोशनी इस देश में हमेशा विद्यमान है। कहीं किसी कोने से कभी न कभी इसकी किरणें फूटेंगी और तब भ्रष्टाचार का दैत्य इन्हें सहन नहीं कर पाएगा। उसे पलायन करना ही होगा। हम अर्थात्ï देश हतोत्साहित कदापि नहीं। प्रतीक्षा रहेगी देर आयद दुरुस्त आयद के साकार होने की।
सचमुच महात्मा गांधी की आत्मा आज विलाप कर रही है। उनकी कर्मभूमि वर्धा तो खैर पहले से ही नकली गांधियों के कारण आक्रांत है, आज कांग्रेस ने एक बार फिर उनकी आत्मा की बोली लगा दी। गांधी को याद कर महाराष्ट्र कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 वर्ष पूर्ण होने पर 'ग्राम से सेवाग्राम' रैली के आयोजन को सफल बनाने के लिए जिस कदाचार का सहारा लिया उससे हम स्तब्ध हैं। हालांकि ऐसे आयोजनों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा, विशेषकर सत्तारूढ़ दल द्वारा, 'वसूली' कोई नई बात नहीं है। वर्तमान घटना में नया कुछ है तो यह कि स्वयं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और एक पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी ने ऐसी वसूली की पुष्टि की। बल्कि अपनी जुबान से पूरे देश को बता दिया। हर बार ऐसी घटना से इन्कार करने वाला दल इस बार कटघरे में है। पूरा वाकया कैमरे में कैद होकर जनता के सामने सार्वजनिक हो चुका है। गांधी उपनाम का भरपूर दोहन करने वाले नेहरू परिवार की सोनिया गांधी की शिरकत के कारण इस रैली को व्यापक प्रचार मिला। आयोजन को महत्वपूर्ण बताया गया। लेकिन प्रदेश कांग्रेस और कांग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार ने कांग्रेस संस्कृति को नंगा कर चौराहे पर खड़ा कर दिया। अब चाहे कांग्रेस दल जितना भी खंडन-मंडन कर ले, यह सच प्रमाणित हो गया कि सत्ता का दुरुपयोग करते हुए रैली के लिए धन वसूला गया। सार्वजनिक वीडियो टेप से यह साबित हो गया कि मुख्यमंत्री व उनके मंत्रियों ने आयोजन के लिए कई करोड़ रुपये दिए। क्या इस पर कोई विवाद हो सकता है कि यह धन मुख्यमंत्री अथवा मंत्रियों ने अपनी जेब से न देकर किसी अन्य स्रोत से उगाहे! क्या स्रोत को चिन्हित करने की जरूरत है? काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था में ऐसे धन सहज उपलब्ध हैं। हमारी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था की उपज ही है ऐसी समानांतर अर्थव्यवस्था। लोकतंत्र के नाम पर और जनसेवा की घोषणा के साथ राजनीतिक और राजदल आज धनशक्ति को सींचने में मशगूल हैं। यह वही धनबल है जिसने लोकतंत्र की मूल भावना को कैद कर रखा है। यह धनबल ही है जिसने बाहुबलियों की एक लंबी कतार को जन्म दिया है। धनबल और बाहुबल ने मिलकर पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कब्जा कर लिया है। धन की असीम लोलुपता ने प्राय: हर दल को भ्रष्ट बना दिया है। वर्धा की इस रैली ने इसके एक छोटे रूप को ही उजागर किया है। 3-4 करोड़ रुपये की उगाही तो अत्यंत ही मामूली बात है। सभी जानते हैं कि चुनावों के दौरान एक-एक निर्वाचन क्षेत्र में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा कई सौ करोड़ में पहुंच जाता है। और यह सब संभव होता है काले धन से ही। क्या कभी लग सकेगा इस प्रवृत्ति पर अंकुश? विभाग और अधिकारी तो मौजूद हैं, किन्तु उनके चरित्र? व्यवस्था ने उन्हें भी या तो पंगु बना डाला है या फिर वे नेताओं के साथ साठगांठ कर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में स्वयं उतर पड़े हैं। तो क्या भ्रष्टाचार और अनाचार के इस दैत्य के सामने देश समर्पण कर दे? नहीं, कदापि नहीं। विरासत में प्राप्त हमारी महान संस्कृति और सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। आशा की रोशनी इस देश में हमेशा विद्यमान है। कहीं किसी कोने से कभी न कभी इसकी किरणें फूटेंगी और तब भ्रष्टाचार का दैत्य इन्हें सहन नहीं कर पाएगा। उसे पलायन करना ही होगा। हम अर्थात्ï देश हतोत्साहित कदापि नहीं। प्रतीक्षा रहेगी देर आयद दुरुस्त आयद के साकार होने की।
Tuesday, October 12, 2010
दोषी राज्यपाल भी, दोषी विधानसभा अध्यक्ष भी!
कानून के तहत विधानसभा अध्यक्ष ने कार्रवाई की, वस्तुत: वह दलबदल तो कभी हुआ ही नहीं! बागी विधायक इस कानून के अपराधी तब बनते जब वे पार्टी द्वारा जारी 'व्हिप' का उल्लंघन कर विश्वासमत के खिलाफ वोट देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इन विधायकों को सदन में घुसने भी नहीं दिया गया। इन्हें बलपूर्वक बाहर रोका गया। फिर ये दलबदल के दोषी कैसे बन गए? आखिर विधानसभा अध्यक्ष ने किस आधार पर उन्हें दलबदलू करार दिया? उन्होंने विश्वासमत के खिलाफ न तो वोट दिया और न ही किसी अन्य दल की सदस्यता ग्रहण की थी। ये विधायक दंडित किए गए एक ऐसे अपराध के लिए जो कभी घटित हुआ ही नहीं! निश्चय ही यह न्याय नहीं, अन्याय है। भाजपा के ऐसे 11 विधायकों के अलावा जिन 5 निर्दलीय विधायकों को दलबदल कानून के तहत निलंबित किया गया, वह तो अत्यंत ही हास्यास्पद है। विधानसभा अध्यक्ष ने जिन दस्तावेजों के आधार पर निर्दलीय विधायकों के निलंबन को जायज ठहराने की कोशिश की है, वे मान्य नहीं हो सकते। स्वयं विधानसभा अध्यक्ष जानते हैं कि आदेश पर हस्ताक्षर करने के समय तक वे पांचों विधायक निर्दलीय ही थे। फिर वे दलबदलू कैसे हो गए? साफ है कि सत्ता के इस घिनौने खेल में राज्यपाल के साथ-साथ विधानसभा अध्यक्ष भी अपनी मर्यादा, अपना दायित्व भूल पक्षपाती बन गए- लोकतंत्र के हत्यारे बन गए। मामला अदालत में चला गया है, केंद्र सरकार ने पाक साफ दिखने के लिए कानूनी दांवपेंच खेलना शुरू कर दिया है। केंद्र सरकार आरंभ से ही अपनी सुविधानुसार राज्यपालों की नियुक्ति और उनको अपनी कठपुतली के रूप में इस्तेमाल करती रही है। 50 के दशक में केरल की ईएमएस नंबूदरीपाद की निर्वाचित साम्यवादी सरकार को पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में बर्खास्त कर दिया गया था। तब से यह खेल जारी है। हां, केंद्र में अब खिचड़ी सरकार होने के कारण इस प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश अवश्य लगा है। विभिन्न दलों में इस मुद्दे पर मतभेद होने के कारण कर्नाटक सरकार की भाजपा सरकार का भविष्य चाहे जो हो, बेहतर हो कि राज्यपाल पद पर राजनीतिकों की नियुक्ति न किए जाने की पुरानी मांग को प्राथमिकता के आधार पर स्वीकार किया जाए। जब तक ऐसे लोग राज्यपाल बनते रहेंगे, लोकतंत्र की हत्या होती रहेगी।
Monday, October 11, 2010
गोरी चमड़ी वालों की काली हरकतें!
इसमें हैरानी की क्या बात है! गोरी चमड़ी वाले विदेशी हम काले भारतीयों के साथ हमेशा ऐसा ही सलूक तो करते रहे हैं! आजादी के पहले गुलाम भारत में भी और आजादी पश्चात स्वतंत्र भारत में भी। आजादी के छह दशक बाद भी कोई दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि हम कालों के प्रति गोरों की मानसिकता में कोई उल्लेखनीय बदलाव आया है। यह तो हमारी सहनशीलता है और संभवत: विरासत में प्राप्त संस्कृति है जो हमें जैसे को तैसा सरीखा जवाब देने से रोक देती है। लेकिन आखिर कब तक? आस्ट्रेलिया में पुलिस ने एक वीडियो टेप जारी कर प्रचारित किया कि भारतीय छात्रों को सबक सिखाने का यह एक उम्दा तरीका है। भारत के किसी भाग में फिल्माई गई उस टेप में एक ट्रेन में बिजली के करेंट से कुछ लोगों के हताहत होने के दृश्यों को दिखाया गया है। क्या यह गोरों की विकृत सोच व दंभी मानसिकता का परिचायक नहीं? आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के खिलाफ नस्लवाद के नंगे खेल को वहां के प्रधानमंत्री स्वीकार कर चुके हैं। भारत सरकार को उनकी ओर से ऐसी किसी भी पुनरावृत्ति के खिलाफ आश्वस्त किया गया था। फिर ऐसी नस्लवादी घृणा का प्रचार क्यों? इसके पूर्व अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नाम को लेकर न्यूजीलैंड के टीवी चैनल का एंकर अश्लील टिप्पणी करते देखा-सुना गया था। जब राजनयिक स्तर पर भारत की ओर से आपत्ति दर्ज की गई तब दंडस्वरूप उस एंकर से इस्तीफा ले लिया गया। क्या यह कोई सजा हुई? वीडियो टेप के मामले में भी संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अभी तक कोई गंभीर कदम नहीं उठाए गए हैं। फिर क्यों न ये गोरी चमड़ी वााले उद्दंडता की सीमा पर कर भारतीयों का अपमान करते रहें, उन्हें प्रताडि़त करते रहें? वैसे बात इतिहास की है किन्तु कठोर सत्य के रूप में हमेशा सालती रहती है कि कैसे भारतीय काले बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी (महात्मा गांधी) को दक्षिण अफ्रीका में नस्ल के आधार पर ट्रेन के डब्बे से उठाकर बाहर फेंक दिया गया था। अत्यंत ही दु:खी मन से इस पुरानी घटना की याद आज करनी पड़ रही है। आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड की इन ताजा घटनाओं ने हमें झकझोर कर रख दिया है। हम इतने दीन-हिन-कमजोर तो नहीं कि जब चाहे कोई हमारे गालों पर तमाचे जड़ दे! बावजूद इसके अगर गोरों के मन में कुछ ऐसा एहसास है तब निश्चय ही कहीं-किसी स्तर पर हम कमजोर हैं। इसका पता लगाया जाए। आज जब भारत हर क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के बल पर विश्व समुदाय को चुनौती दे रहा है, तब हमारे साथ अगर ऐसा व्यवहार होता है तो कारण ढूंढने ही पड़ेंगे। या तो हमारी विदेश नीति कमजोर है, हमारे राजनयिक अक्षम हैं या फिर हमारा प्रचार तंत्र सही दिशा में कार्य नहीं कर पा रहा है। इस मुद्दे पर हम मौन नहीं रह सकते। अब गोरों को यह बता ही दिया जाना चाहिए कि वे दिन लद गए जब गोरों ने हम भारतीयों को कुत्तों के समकक्ष रख छोड़ा था। आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड की घटनाएं पूरे भारत के लिए अपमानजनक हैं। क्या भारत सरकार अब भी ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर पूर्ण विराम सुनिश्चित करेगी?
Saturday, October 9, 2010
जनजागृति- समय की पुकार!
बनवारीलाल पुरोहित की पीड़ा है कि आज का समाज इतना तटस्थ हो गया है कि वह ज्वलंत मुद्दों से भी आंखें मूंद लेता है। ऐसी राष्ट्रीय निर्लिप्तता खतरनाक है। यह स्थिति एक कमजोर राष्ट्र का लक्षण भी है। ऐसे में, जागृति आज समय की पुकार है। अंग्रेजी दैनिक 'द हितवादÓ के प्रबंध सम्पादक बनवारीलाल पुरोहित सक्रिय राजनीतिक भी हैं। उनकी इस समीचीन पीड़ा का निराकरण क्या कोई करेगा? जब उन्होंने जागृति का आह्ïवान किया तब निश्चय ही उनके जेहन में वे मुद्दे रहे होंगे जिन पर न केवल राष्ट्रीय बहस बल्कि तत्काल निर्णय लेने की जरूरत है। राम मंदिर मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ भाजपा में प्रवेश करने वाले पुरोहितजी अपनी बेबाकी के लिए भी मशहूर हैं। धर्मनिरपेक्ष भारत के स्वरूप चरित्र पर भाषण दे एक बार संसद में सत्ता पक्ष की ओर से वाहवाही लूट चुके जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ताजा बयान ने भी पुरोहितजी को उद्वेलित किया होगा। सचमुच उमर का बयान हर दृष्टि से देश विरोधी और दुश्मन पाकिस्तान की तरफदारी करने वाला है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उमर यहां तक कह गये कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच का मुद्दा है जिसमें जम्मू-कश्मीर पिस रहा है। हमारे देश का एक मुख्यमंत्री भारत विरोधी ऐसा बयान देकर अगर स्वच्छन्द विचर रहा है तब निश्चय ही भारत निद्रा अवस्था में है। उसे जागृत करना ही होगा। अब सवाल यह कि केंद्रीय सत्ता के एक भागीदार उमर अब्दुला के खिलाफ केंद्र सरकार राष्ट्रद्रोह का मामला क्यों नहीं चलाती? अगर उमर की तरह किसी और दल के किसी नेता की ओर से ऐसा बयान आया होता तो हमारे प्रधानमंत्री क्या वर्तमान की तरह मौन रहते? भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर के पिसने की बात खतरनाक है। यह हमारी विदेश नीति को भी चुनौती है। सत्य से दूर तो यह है ही। जम्मू-कश्मीर के लोग अगर पिस रहे हैं तो पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों और जम्मू-कश्मीर सरकार की ढुलमुल नीतियों के बीच में। वहां की सरकार की अकर्मण्यता के कारण ही आज पूरा जम्मू-कश्मीर सुलग रहा है। उमर के बयान से साफ हो गया है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों को राज्य में शरणागत बनाया गया है। मुद्दा सिर्फ एक जम्मू-कश्मीर राज्य का नहीं है। इस प्रदेश के एक हिस्से पर पाकिस्तान पहले ही कब्जा कर चुका है। पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र में हमारा एक और दुश्मन देश चीन हाथ-पांव पसार रहा है। बड़ी संख्या में चीनी सैनिक और हथियार वहां पहुंच चुके हैं। सड़कों और बंकरों का निर्माण हो रहा है। ऐसी कवायद उद्देश्यहीन तो नहीं ही हो सकती। अगर हमारे शासक इसके बावजूद उमर के बयान का निहितार्थ नहीं भी समझ पा रहे हैं तो उन्हें झक मारकर जगाना ही होगा। फिर भी, नहीं जागते तो जनता को जागृत कर निष्क्रिय शासकों को बदल डालना होगा। असली जागृति की जरूरत यहीं चिन्हित होती है। शासकों की कमजोरी को तो उमर के बयान ने रेखांकित कर ही दिया है। उसने पूरे संसार को जता दिया कि भारत के वर्तमान शासकों के गालों पर चाहे जितने तमाचे मार लो, देश की सुरक्षा और अखंडता के महत्व को वे समझ नहीं सकते। केंद्र की खिचड़ी सरकार के सभी दल अपने-अपने पृथक एजेंडों की खिचड़ी पका रहे हैं। उनके एजेंडों में येन-केन-प्रकारेण धन अर्जित करना और दलों के भ्रष्ट शुभचिंतकों-समर्थकों का हित साधना भर है। अपने-अपने एजेंडों के क्रियान्वयन में ये सफल हो रहे हैं तो सिर्फ इसीलिए कि देश की आम जनता सुप्तावस्था में है। पुरोहितजी ने आह्ïवान किया है तो पहल भी करें। यह तो तय है कि जागृत भारत अपने सीने पर उमर अब्दुला सरीखे अलगाववाद और दुश्मन देश का पक्ष लेने वालों को कदमताल कभी नहीं करने देगा। उमर को अगर मैं यहां चिन्हित कर रहा हूं तो इसलिए कि उनके पिता फारूक अब्दुल्ला भी केंद्र में मंत्री हैं। और यह तथ्य भी सामने है कि इनके दादा शेख अब्दुल्ला को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जेल भिजवा दिया था तो उनकी ऐसी ही गतिविधियों के कारण। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी को सरकार चलाने की मजबूरी हो सकती है लेकिन देशवासी अपने किसी प्रदेश को अ-भारतीय घोषित करनेवाले को भला भारत में कैसे रहने देंगे? उन्हें तो देश निकाला देना चाहिए।
जनजागृति- समय की पुकार!
बनवारीलाल पुरोहित की पीड़ा है कि आज का समाज इतना तटस्थ हो गया है कि वह ज्वलंत मुद्दों से भी आंखें मूंद लेता है। ऐसी राष्ट्रीय निर्लिप्तता खतरनाक है। यह स्थिति एक कमजोर राष्ट्र का लक्षण भी है। ऐसे में, जागृति आज समय की पुकार है। अंग्रेजी दैनिक 'द हितवादÓ के प्रबंध सम्पादक बनवारीलाल पुरोहित सक्रिय राजनीतिक भी हैं। उनकी इस समीचीन पीड़ा का निराकरण क्या कोई करेगा? जब उन्होंने जागृति का आह्ïवान किया तब निश्चय ही उनके जेहन में वे मुद्दे रहे होंगे जिन पर न केवल राष्ट्रीय बहस बल्कि तत्काल निर्णय लेने की जरूरत है। राम मंदिर मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ भाजपा में प्रवेश करने वाले पुरोहितजी अपनी बेबाकी के लिए भी मशहूर हैं। धर्मनिरपेक्ष भारत के स्वरूप चरित्र पर भाषण दे एक बार संसद में सत्ता पक्ष की ओर से वाहवाही लूट चुके जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ताजा बयान ने भी पुरोहितजी को उद्वेलित किया होगा। सचमुच उमर का बयान हर दृष्टि से देश विरोधी और दुश्मन पाकिस्तान की तरफदारी करने वाला है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उमर यहां तक कह गये कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच का मुद्दा है जिसमें जम्मू-कश्मीर पिस रहा है। हमारे देश का एक मुख्यमंत्री भारत विरोधी ऐसा बयान देकर अगर स्वच्छन्द विचर रहा है तब निश्चय ही भारत निद्रा अवस्था में है। उसे जागृत करना ही होगा। अब सवाल यह कि केंद्रीय सत्ता के एक भागीदार उमर अब्दुला के खिलाफ केंद्र सरकार राष्ट्रद्रोह का मामला क्यों नहीं चलाती? अगर उमर की तरह किसी और दल के किसी नेता की ओर से ऐसा बयान आया होता तो हमारे प्रधानमंत्री क्या वर्तमान की तरह मौन रहते? भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर के पिसने की बात खतरनाक है। यह हमारी विदेश नीति को भी चुनौती है। सत्य से दूर तो यह है ही। जम्मू-कश्मीर के लोग अगर पिस रहे हैं तो पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों और जम्मू-कश्मीर सरकार की ढुलमुल नीतियों के बीच में। वहां की सरकार की अकर्मण्यता के कारण ही आज पूरा जम्मू-कश्मीर सुलग रहा है। उमर के बयान से साफ हो गया है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों को राज्य में शरणागत बनाया गया है। मुद्दा सिर्फ एक जम्मू-कश्मीर राज्य का नहीं है। इस प्रदेश के एक हिस्से पर पाकिस्तान पहले ही कब्जा कर चुका है। पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र में हमारा एक और दुश्मन देश चीन हाथ-पांव पसार रहा है। बड़ी संख्या में चीनी सैनिक और हथियार वहां पहुंच चुके हैं। सड़कों और बंकरों का निर्माण हो रहा है। ऐसी कवायद उद्देश्यहीन तो नहीं ही हो सकती। अगर हमारे शासक इसके बावजूद उमर के बयान का निहितार्थ नहीं भी समझ पा रहे हैं तो उन्हें झक मारकर जगाना ही होगा। फिर भी, नहीं जागते तो जनता को जागृत कर निष्क्रिय शासकों को बदल डालना होगा। असली जागृति की जरूरत यहीं चिन्हित होती है। शासकों की कमजोरी को तो उमर के बयान ने रेखांकित कर ही दिया है। उसने पूरे संसार को जता दिया कि भारत के वर्तमान शासकों के गालों पर चाहे जितने तमाचे मार लो, देश की सुरक्षा और अखंडता के महत्व को वे समझ नहीं सकते। केंद्र की खिचड़ी सरकार के सभी दल अपने-अपने पृथक एजेंडों की खिचड़ी पका रहे हैं। उनके एजेंडों में येन-केन-प्रकारेण धन अर्जित करना और दलों के भ्रष्ट शुभचिंतकों-समर्थकों का हित साधना भर है। अपने-अपने एजेंडों के क्रियान्वयन में ये सफल हो रहे हैं तो सिर्फ इसीलिए कि देश की आम जनता सुप्तावस्था में है। पुरोहितजी ने आह्ïवान किया है तो पहल भी करें। यह तो तय है कि जागृत भारत अपने सीने पर उमर अब्दुला सरीखे अलगाववाद और दुश्मन देश का पक्ष लेने वालों को कदमताल कभी नहीं करने देगा। उमर को अगर मैं यहां चिन्हित कर रहा हूं तो इसलिए कि उनके पिता फारूक अब्दुल्ला भी केंद्र में मंत्री हैं। और यह तथ्य भी सामने है कि इनके दादा शेख अब्दुल्ला को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जेल भिजवा दिया था तो उनकी ऐसी ही गतिविधियों के कारण। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी को सरकार चलाने की मजबूरी हो सकती है लेकिन देशवासी अपने किसी प्रदेश को अ-भारतीय घोषित करनेवाले को भला भारत में कैसे रहने देंगे? उन्हें तो देश निकाला देना चाहिए।
अज्ञानी व दंभी हैं राहुल व उमर !
सत्य को आत्मसात कर ज्ञान अर्जित करने वाला ही एक सच्चे ज्ञानी के रूप में स्वीकृति प्राप्त करता है। असत्य को ग्रहण करने वाला अज्ञानी व दंभी बन जाता है। लगता है कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला इसी असत्य आधारित व्याधि से पीडि़त हैं। प्रमाण है राहुल और उमर के ताजा वक्तव्य। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के समकक्ष रख राहुल ने जहां स्वयं को अज्ञानी के रूप में चिन्हित किया, वहीं भोपाल में युवा कांग्रेसियों को चेतावनी देते हुए यह कहकर कि ''...मैं 15 मिनट में निकाल बाहर कर दूंगा,'' अपने दंभी होने का भी परिचय दे डाला। उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर के भारत में विलय पर सवालिया निशान जड़कर अज्ञानी ही नहीं, स्वयं को राष्ट्रविरोधी-देशद्रोही की श्रेणी में डाल दिया। दो उभरते युवाओं के ऐसे हश्र पर आज पूरा देश दुखी एवं चकित है।
क्या समझकर राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना सिमी से कर डाली? राष्ट्रविरोधी, सांप्रदायिक व आतंकवादी गतिविधियों में लिप्तता के आरोप में सिमी पर भारत सरकार ने प्रतिबंध लगाया हुआ है। ध्यान रहे, सिमी पर प्रतिबंध भाजपा नेतृत्व की राजग सरकार के कार्यकाल में लगा था जिसे कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार ने भी जारी रखा है। अर्थात् सिमी की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को लेकर कोई राजनीतिक मतभेद नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी पूर्व में प्रतिबंध लगाए गए किन्तु पूर्णत: राजनीतिक कारणों से संघ को इसके आलोचक भी राष्ट्रविरोधी निरूपित नहीं करते। बल्कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री तक संघ की गतिविधियों की सराहना कर चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि एक बार गणतंत्र दिवस की परेड में भी भारत सरकार ने संघ को शामिल किया था। चीन और पाकिस्तान द्वारा अपने देश पर किए गए हमलों के दौरान संघ की भूमिका की सराहना केंद्र सरकार कर चुकी है। देश के इतिहास से अनभिज्ञ राहुल गांधी ने ऐसे संघ की राष्ट्रविरोधी सिमी से तुलना कर दी है। एक ओर जब वे गांव-गांव में घूमकर भारत और भारतीयों को जानने-समझने का सराहनीय प्रयास कर रहे हंै, युवा वर्ग ही नहीं एक सही नेतृत्व को आतुर देशवासियों की नजरें भी उन पर टिकी हैं, राहुल के ताजा बयान से सभी निराश हुए हैं। राहुल ने स्वयं को संकुचित मानसिकता वाला एक पूर्वाग्रही व्यक्ति साबित कर डाला। उनके 'मैं' के दंभ की चर्चा मैंने अपने इस स्तंभ में तब भी की थी जब वे वर्धा में उद्ïबोधन के दौरान बार-बार 'मैं' निहित अहं को चिन्हित कर रहे थे। कुछ मित्रों की राय है कि राहुल को अभी संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। मैं और मेरे समान सोच के धारक ऐसा करने को तैयार हैं, शर्त यह कि राहुल असली भारत को पहचान पूर्वाग्रह से मुक्त सोच का वरण करें। और यह तभी संभव है जब वे चाटुकारों से दूर यथार्थ और सत्य को प्रश्रय दें।
जहां तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की टिप्पणी का सवाल है, मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। पहले दादा शेख अब्दुल्ला, फिर पिता फारूक अब्दुल्ला और अब बेटा उमर अब्दुल्ला! प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अकारण शेख अब्दुल्ला को जेल के सीखचों के पीछे नहीं डलवाया था।
उमर ने जो बयान दिया है, उसके बाद इसे भी सीखचों के पीछे भेज दिया जाना चाहिए। दुश्मन पड़ोसी पाकिस्तान की साजिश का अंग बनने वाला उमर अब्दुल्ला अगर स्वतंत्र विचरण करता है, तब क्षमा करेंगे इस टिप्पणी के लिए कि भारत का नेतृत्व अयोग्य है। देश की अखंडता को कायम रखने में यह सक्षम नहीं है।
क्या समझकर राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना सिमी से कर डाली? राष्ट्रविरोधी, सांप्रदायिक व आतंकवादी गतिविधियों में लिप्तता के आरोप में सिमी पर भारत सरकार ने प्रतिबंध लगाया हुआ है। ध्यान रहे, सिमी पर प्रतिबंध भाजपा नेतृत्व की राजग सरकार के कार्यकाल में लगा था जिसे कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार ने भी जारी रखा है। अर्थात् सिमी की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को लेकर कोई राजनीतिक मतभेद नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी पूर्व में प्रतिबंध लगाए गए किन्तु पूर्णत: राजनीतिक कारणों से संघ को इसके आलोचक भी राष्ट्रविरोधी निरूपित नहीं करते। बल्कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री तक संघ की गतिविधियों की सराहना कर चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि एक बार गणतंत्र दिवस की परेड में भी भारत सरकार ने संघ को शामिल किया था। चीन और पाकिस्तान द्वारा अपने देश पर किए गए हमलों के दौरान संघ की भूमिका की सराहना केंद्र सरकार कर चुकी है। देश के इतिहास से अनभिज्ञ राहुल गांधी ने ऐसे संघ की राष्ट्रविरोधी सिमी से तुलना कर दी है। एक ओर जब वे गांव-गांव में घूमकर भारत और भारतीयों को जानने-समझने का सराहनीय प्रयास कर रहे हंै, युवा वर्ग ही नहीं एक सही नेतृत्व को आतुर देशवासियों की नजरें भी उन पर टिकी हैं, राहुल के ताजा बयान से सभी निराश हुए हैं। राहुल ने स्वयं को संकुचित मानसिकता वाला एक पूर्वाग्रही व्यक्ति साबित कर डाला। उनके 'मैं' के दंभ की चर्चा मैंने अपने इस स्तंभ में तब भी की थी जब वे वर्धा में उद्ïबोधन के दौरान बार-बार 'मैं' निहित अहं को चिन्हित कर रहे थे। कुछ मित्रों की राय है कि राहुल को अभी संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। मैं और मेरे समान सोच के धारक ऐसा करने को तैयार हैं, शर्त यह कि राहुल असली भारत को पहचान पूर्वाग्रह से मुक्त सोच का वरण करें। और यह तभी संभव है जब वे चाटुकारों से दूर यथार्थ और सत्य को प्रश्रय दें।
जहां तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की टिप्पणी का सवाल है, मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। पहले दादा शेख अब्दुल्ला, फिर पिता फारूक अब्दुल्ला और अब बेटा उमर अब्दुल्ला! प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अकारण शेख अब्दुल्ला को जेल के सीखचों के पीछे नहीं डलवाया था।
उमर ने जो बयान दिया है, उसके बाद इसे भी सीखचों के पीछे भेज दिया जाना चाहिए। दुश्मन पड़ोसी पाकिस्तान की साजिश का अंग बनने वाला उमर अब्दुल्ला अगर स्वतंत्र विचरण करता है, तब क्षमा करेंगे इस टिप्पणी के लिए कि भारत का नेतृत्व अयोग्य है। देश की अखंडता को कायम रखने में यह सक्षम नहीं है।
Wednesday, October 6, 2010
फिर तुष्टीकरण की यह कैसी कवायद!
फिर हिंदू-हिंदू, मुसलमान-मुसलमान, मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद!!!! हद हो गई। शर्म की इस इंतहा को राजनीतिक स्वीकृति? दफन कर दें ऐसी सोच को, ऐसे विचार को! देशहित में सांप्रदायिक सौहाद्र्र्र, सर्वधर्म समभाव, परस्पर विश्वास, सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को, समर्पण की भावना को चुनौती देनेवालों को अगर हमारा कानून दंडित करने में असमर्थ है तब लोग पहल करें। ऐसे तत्वों का सामाजिक बहिष्कार करने में हम सक्षम तो हैं ही! फिर विलंब क्यों? इन ताकतों नेे गोलबंद होना शुरू कर दिया है। सिर उठाना शुरू कर दिया है! फिर विलंब क्यों? कुचल दें इनके सिरों को। अन्यथा 1947 और 1992-93 की पुनरावृत्ति को कोई रोक नहीं पाएगा। क्या देश ऐसा चाहेगा? सांप्रदायिक आधार पर वोट की राजनीति करनेवाले को छोड़ अन्य कोई नहीं चाहेगा।
दशकों पुराने मंदिर-मस्जिद विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले का पूरे देश ने, हर संप्रदाय के लोगों ने स्वागत किया। हिंदू-मुस्लिम संगठनों के नेताओं ने पहल की और फैसले के आलोक में सर्वसम्मत स्थायी हल की खोज शुरू कर दी। कुछ कट्टरपंथियों को छोड़ दें तो मुस्लिम समुदाय की ओर से पहल करते हुए इनके प्रतिनिधि हिंदू धर्म गुरुओं से मिले। हिंदू समुदाय की ओर से इस आशय का बयान आया कि राम मंदिर के बगल में मस्जिद बने तो किसी को आपत्ति नहीं होगी। दोनों संप्रदायों के बीच परस्पर विश्वास, आस्था पर सभी को नमन करना चाहिए। लेकिन नहीं! धर्म और संप्रदाय पर राजनीति करनेवालों को यह स्वीकार नहीं! संाप्रदायिक आधार पर भड़काने और वैमनस्य पैदा करने का खेल शुरू हो गया है। सांप्रदायिकता की आग में देश को झोंक देने की कवायद शुरू कर दी है इन देशद्रोहियों ने! जी, हां! ये देशद्रोही ही हैं। इस कड़वी टिप्पणी के लिए मैं मजबूर हूं। कांग्र्रेस पार्टी की ओर से फैसले का स्वागत तो किया गया, संयम बरतने की अपील भी की गई, किंतु फैसले के पूर्व और बाद में भी बार-बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुले रहने की बात कर आखिर वे क्या संदेश देना चाहते हैं? यही नहीं, पार्टी की एक उच्चस्तरीय बैठक के बाद यह कहना कि फैसले से 6 दिसंबर 1992 के दिन विवादित ढांचा गिराने के कृत्य को माफी नहीं मिल जाती। वह एक शर्मनाक और आपराधिक कृत्य था जिसके लिए दोषियों को नतीजा भुगतना ही चाहिए। इस खबर पर शिक्षित-सभ्य भारत का हर समझदार व्यक्ति शर्मिंदा हुआ है। निश्चय ही 6/12 की घटना एक आपराधिक कृत्य थी। लेकिन उसकी याद को ताजा करने की कवायद भी क्या आपराधिक कृत्य नहीं है? अगर कांग्रेस या कोई अन्य दल मुस्लिम तुष्टीकरण की पुरानी नीति पर चलना चाहता है तो उन्हें निराशा मिलेगी। फैसला आने के बाद मुस्लिम समुदाय ने स्वागत कर संदेश दे दिया है कि अब उनका और राजनीतिक दोहन नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस को अगर विवादास्पद ढांचा गिराए जाने का सही में दुख है तो बेहतर हो वह अपनी पहल पर राम जन्मभूमि परिसर पर मस्जिद निर्माण करवा दे। देश की समझ को चुनौती देने की भूल न करे। हिंदू-मुसलमान के बीच मतभेद व अविश्वास पैदा कर कांग्रेस देश-समाज का अहित कर रही है। देश का अभिभावक दल कहलाने वाली कांग्रेस के लिए यह शोभा नहीं देता। यह कांग्रेस की ताजा कवायद ही है जिसने मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता को सांप्रदायिक आधार पर सिर उठाने का फिर मौका दे दिया। पहले तो मुसलमानों का मसीहा बन मुलायम ने फैसले से मुसलमानों को ठगा निरूपित किया और अब कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं से मिलकर उन्हें उकसाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मुलायम सफल होते हैं तो इसका दोष कांग्रेस के सिर ही जाएगा। कांग्रेस अब बस करे। बहुत हो चुका मुस्लिम तुष्टीकरण और सांप्रदायिक राजनीति का खेल। कोई भी सर्वेक्षण करवा लें, देश की नई पीढ़ी धर्म-संप्रदाय आधारित ऐसी कवायद को देशद्रोह की श्रेणी में डालती मिलेगी।
दशकों पुराने मंदिर-मस्जिद विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले का पूरे देश ने, हर संप्रदाय के लोगों ने स्वागत किया। हिंदू-मुस्लिम संगठनों के नेताओं ने पहल की और फैसले के आलोक में सर्वसम्मत स्थायी हल की खोज शुरू कर दी। कुछ कट्टरपंथियों को छोड़ दें तो मुस्लिम समुदाय की ओर से पहल करते हुए इनके प्रतिनिधि हिंदू धर्म गुरुओं से मिले। हिंदू समुदाय की ओर से इस आशय का बयान आया कि राम मंदिर के बगल में मस्जिद बने तो किसी को आपत्ति नहीं होगी। दोनों संप्रदायों के बीच परस्पर विश्वास, आस्था पर सभी को नमन करना चाहिए। लेकिन नहीं! धर्म और संप्रदाय पर राजनीति करनेवालों को यह स्वीकार नहीं! संाप्रदायिक आधार पर भड़काने और वैमनस्य पैदा करने का खेल शुरू हो गया है। सांप्रदायिकता की आग में देश को झोंक देने की कवायद शुरू कर दी है इन देशद्रोहियों ने! जी, हां! ये देशद्रोही ही हैं। इस कड़वी टिप्पणी के लिए मैं मजबूर हूं। कांग्र्रेस पार्टी की ओर से फैसले का स्वागत तो किया गया, संयम बरतने की अपील भी की गई, किंतु फैसले के पूर्व और बाद में भी बार-बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुले रहने की बात कर आखिर वे क्या संदेश देना चाहते हैं? यही नहीं, पार्टी की एक उच्चस्तरीय बैठक के बाद यह कहना कि फैसले से 6 दिसंबर 1992 के दिन विवादित ढांचा गिराने के कृत्य को माफी नहीं मिल जाती। वह एक शर्मनाक और आपराधिक कृत्य था जिसके लिए दोषियों को नतीजा भुगतना ही चाहिए। इस खबर पर शिक्षित-सभ्य भारत का हर समझदार व्यक्ति शर्मिंदा हुआ है। निश्चय ही 6/12 की घटना एक आपराधिक कृत्य थी। लेकिन उसकी याद को ताजा करने की कवायद भी क्या आपराधिक कृत्य नहीं है? अगर कांग्रेस या कोई अन्य दल मुस्लिम तुष्टीकरण की पुरानी नीति पर चलना चाहता है तो उन्हें निराशा मिलेगी। फैसला आने के बाद मुस्लिम समुदाय ने स्वागत कर संदेश दे दिया है कि अब उनका और राजनीतिक दोहन नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस को अगर विवादास्पद ढांचा गिराए जाने का सही में दुख है तो बेहतर हो वह अपनी पहल पर राम जन्मभूमि परिसर पर मस्जिद निर्माण करवा दे। देश की समझ को चुनौती देने की भूल न करे। हिंदू-मुसलमान के बीच मतभेद व अविश्वास पैदा कर कांग्रेस देश-समाज का अहित कर रही है। देश का अभिभावक दल कहलाने वाली कांग्रेस के लिए यह शोभा नहीं देता। यह कांग्रेस की ताजा कवायद ही है जिसने मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता को सांप्रदायिक आधार पर सिर उठाने का फिर मौका दे दिया। पहले तो मुसलमानों का मसीहा बन मुलायम ने फैसले से मुसलमानों को ठगा निरूपित किया और अब कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं से मिलकर उन्हें उकसाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मुलायम सफल होते हैं तो इसका दोष कांग्रेस के सिर ही जाएगा। कांग्रेस अब बस करे। बहुत हो चुका मुस्लिम तुष्टीकरण और सांप्रदायिक राजनीति का खेल। कोई भी सर्वेक्षण करवा लें, देश की नई पीढ़ी धर्म-संप्रदाय आधारित ऐसी कवायद को देशद्रोह की श्रेणी में डालती मिलेगी।
Tuesday, October 5, 2010
अपराधी उम्मीदवार,तटस्थ मतदाता!
अब ऐसी राष्ट्रीय तटस्थता पर चिंतक रूदन क्यों न करें! ऐसी अवस्था को राष्ट्रीय शर्म निरूपित किया जाए तो कुछ गलत नहीं होगा। राजदलों द्वारा प्रस्तुत बेशर्मी के ताजा उदाहरण ने मुझे ऐसी टिप्पणी करने को मजबूर कर दिया है। पीड़ा तब गहरी हो जाती है जब राजदलों की ऐसी हरकतों को देश एक तटस्थ मूकदर्शक की तरह देखता रह जाता है। यह दोहराना ही होगा कि देश की ऐसी ही तटस्थता ने राजनेताओं-राजदलों को बेशर्म, उच्छृंखल बना डाला है। जन आक्रोश की ओर से ये आश्वस्त से हो गए हैं। हो भी क्यों नहीं। इनके सभी झूठ-जाल-फरेब की ओर से जनता निर्लिप्त जो हो चली है।
बेशर्मी का ताजा उदाहरण। चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में सभी राजनीतिक दल राजनीति में अपराधियों के प्रभाव को रोकने पर एकमत नजर आए। गंभीर चिंता इनके प्रतिनिधियों ने जताई। कहा- राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाना ही होगा। बड़ी कोफ्त हुई जब इसके ठीक विपरीत राजदलों के आचरण की जानकारी मिली। जरा आप भी समझ लें। बिहार विधानसभा चुनाव के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अब तक घोषित उम्मीदवारों की सूची इनके झूठ और बदनीयत को साबित करने के लिए काफी है। अब तक घोषित उम्मीदवारों में भारतीय जनता पार्टी के 62 प्रतिशत, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के 53 प्रतिशत, जनता दल (यू) के 33 प्रतिशत और कांग्रेस पार्टी के 24 प्रतिशत उम्मीदवार आपराधिक पाश्र्व के हैं। इनके खिलाफ विभिन्न अदालतों में आपराधिक मामले लंबित हैं। क्या ये आंकड़े उनकी नीयत की चुगली नहीं कर रहे? चुनाव आयोग के समक्ष बैठ राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश की चर्चा करने वाले राजदल पहले व्यवहार के स्तर पर इस मुद्दे पर ईमानदारी दिखाएं। अगर औसत ले लें तो इन सभी दलों द्वारा अब तक घोषित उम्मीदवारों में 44 प्रतिशत आपराधिक चरित्र वाले हैं। चुनाव जीत विधान मंडल में विशेषाधिकारों के साथ निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में पहुंच क्या ये लोग राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगने देंगे? अपेक्षा ही बेकार है। हमारे राजदल-राजनेता पहले भी इस मुद्दे पर झूठ बोल चुके हैं, देश के साथ दगा कर चुके हैं। देश जब आजादी की स्वर्ण जयंती मना रहा था। तब संसद के एक विशेष संयुक्त अधिवेशन में सभी दलों ने सर्वसम्मति से राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया था। प्रस्ताव के अनुसार सभी दलों ने संसद में वचन दिया था कि वे चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकट नहीं देंगे। सचाई से पूरा देश परिचित है। लोकतंत्र के हमारे इन पहरुओं ने जब इस मुद्दे पर संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव को अहमियत नहीं दी, प्रस्ताव के विपरीत आचरण करते हुए आपराधिक चरित्र वाले लोगों को टिकट देते रहे तब आज चुनाव आयोग के समक्ष बनी सहमति पर ये भला क्या अमल करेंगे। झूठे हैं ये। बेइमान हैं ये। अगर ये सचमुच ईमानदारीपूर्वक राजनीति को अपराधियों व बाहुबलियों से मुक्त रखना चाहते हैं तो 15 वर्ष पूर्व संसद में पारित प्रस्ताव पर अमल करें। बिहार में चुनाव प्रक्रिया जारी है। चुनौती है सभी राजदलों को कि वे घोषित आपराधिक पाश्र्व के उम्मीदवारों को साफ-सुथरे उम्मीदवारों से बदल डालें। आगे घोषित होने वाली अन्य सूचियों में किसी भी संदिग्ध चरित्र को शामिल न करें। क्या इतना नैतिक साहस है इनमें? चुनाव में हार-जीत के गणित को अपनी जगह छोड़ दें। मतदाता को श्रेष्ठ उम्मीदवारों में से सर्वश्रेष्ठ को चुनने की आजादी दे दें। लोकतंत्र तब अपनी संपूर्णता में पाक साफ रहेगा, सुरक्षित रहेगा।
बेशर्मी का ताजा उदाहरण। चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में सभी राजनीतिक दल राजनीति में अपराधियों के प्रभाव को रोकने पर एकमत नजर आए। गंभीर चिंता इनके प्रतिनिधियों ने जताई। कहा- राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाना ही होगा। बड़ी कोफ्त हुई जब इसके ठीक विपरीत राजदलों के आचरण की जानकारी मिली। जरा आप भी समझ लें। बिहार विधानसभा चुनाव के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अब तक घोषित उम्मीदवारों की सूची इनके झूठ और बदनीयत को साबित करने के लिए काफी है। अब तक घोषित उम्मीदवारों में भारतीय जनता पार्टी के 62 प्रतिशत, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के 53 प्रतिशत, जनता दल (यू) के 33 प्रतिशत और कांग्रेस पार्टी के 24 प्रतिशत उम्मीदवार आपराधिक पाश्र्व के हैं। इनके खिलाफ विभिन्न अदालतों में आपराधिक मामले लंबित हैं। क्या ये आंकड़े उनकी नीयत की चुगली नहीं कर रहे? चुनाव आयोग के समक्ष बैठ राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश की चर्चा करने वाले राजदल पहले व्यवहार के स्तर पर इस मुद्दे पर ईमानदारी दिखाएं। अगर औसत ले लें तो इन सभी दलों द्वारा अब तक घोषित उम्मीदवारों में 44 प्रतिशत आपराधिक चरित्र वाले हैं। चुनाव जीत विधान मंडल में विशेषाधिकारों के साथ निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में पहुंच क्या ये लोग राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगने देंगे? अपेक्षा ही बेकार है। हमारे राजदल-राजनेता पहले भी इस मुद्दे पर झूठ बोल चुके हैं, देश के साथ दगा कर चुके हैं। देश जब आजादी की स्वर्ण जयंती मना रहा था। तब संसद के एक विशेष संयुक्त अधिवेशन में सभी दलों ने सर्वसम्मति से राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया था। प्रस्ताव के अनुसार सभी दलों ने संसद में वचन दिया था कि वे चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकट नहीं देंगे। सचाई से पूरा देश परिचित है। लोकतंत्र के हमारे इन पहरुओं ने जब इस मुद्दे पर संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव को अहमियत नहीं दी, प्रस्ताव के विपरीत आचरण करते हुए आपराधिक चरित्र वाले लोगों को टिकट देते रहे तब आज चुनाव आयोग के समक्ष बनी सहमति पर ये भला क्या अमल करेंगे। झूठे हैं ये। बेइमान हैं ये। अगर ये सचमुच ईमानदारीपूर्वक राजनीति को अपराधियों व बाहुबलियों से मुक्त रखना चाहते हैं तो 15 वर्ष पूर्व संसद में पारित प्रस्ताव पर अमल करें। बिहार में चुनाव प्रक्रिया जारी है। चुनौती है सभी राजदलों को कि वे घोषित आपराधिक पाश्र्व के उम्मीदवारों को साफ-सुथरे उम्मीदवारों से बदल डालें। आगे घोषित होने वाली अन्य सूचियों में किसी भी संदिग्ध चरित्र को शामिल न करें। क्या इतना नैतिक साहस है इनमें? चुनाव में हार-जीत के गणित को अपनी जगह छोड़ दें। मतदाता को श्रेष्ठ उम्मीदवारों में से सर्वश्रेष्ठ को चुनने की आजादी दे दें। लोकतंत्र तब अपनी संपूर्णता में पाक साफ रहेगा, सुरक्षित रहेगा।
Monday, October 4, 2010
...और तब 'प्रवर्तक' बन जाएंगे राहुल!
यह जान-सुन अच्छा लगा कि कांग्रेस के युवराज के रूप में प्रस्तुत राहुल गांधी को चमचागीरी पसंद नहीं है। उन्होंने युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी कि अगर किसी ने ऐसा किया तो उसे 15 मिनट में पार्टी से निकाल बाहर किया जाएगा। राहुल यहीं नहीं रुके, संगठन में पद पाने के लिए किसी वरिष्ठ नेता की सिफारिश को एक सिरे खारिज करने की घोषणा भी कर डाली। कहा- सिफारिश नहीं काम के आधार पर ही मौका दिया जाएगा। आम जनता के बीच पहुंच देश को बचाने की ललक के साथ राष्ट्रभ्रमण करनेवाले राहुल गांधी सही समय आने पर क्या अपनी बातों पर अमल कर पाएंगे? यह यक्ष प्रश्न इसलिए कि कांग्रेस संस्कृति ही चमचागीरी अथवा चापलूसी और सिफारिश पर आधारित है। मैं यहां राहुल गांधी की नीयत पर शक नहीं कर रहा हंू। उस कांग्रेस संस्कृति की याद दिला रहा हूं जिसने राहुल के पिता राजीव गांधी की 'मिस्टर क्लीन' की आरंभिक छवि को पलक झपकते 'मिस्टर करप्ट' के रूप में परिवर्तित कर डाला था। बोफोर्स और फेयरफैक्स कांड की यादें अभी पुरानी पड़ी हैं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद संपन्न आम चुनाव में आशातीत सफलता प्राप्त करनेवाले राजीव गांधी को 1989 के अगले चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा था। उपर्युक्त कांड को मुद्दा बना कांग्रेस छोड़ चुनाव लडऩे वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह की विजय हुई और वह प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी और उनकी कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। बातों को समझने के लिए थोड़ा और पीछे चलें। 1985 में मुंबई में आयोजित कांग्रेस शताब्दी समारोह में अत्यंत ही तल्ख शब्दों में राजीव ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जेहाद की बातें कही थीं। आज चाहे बोफोर्स कांड में राजीव गांधी और ओट्टïावियो क्वॉत्रोची को सीबीआई और अदालतें भले ही क्लिन चीट दे दें, तब जनता की अदालत ने दोषी करार देते हुये इनसे सत्ता की कुर्सी छीन ली थी। अरुण सिंह और अरुण नेहरू जैसे मित्र और कट्टर समर्थक भी इस मुद्दे पर राजीव का साथ छोड़ गये थे। सीधे-सरल राजीव गांधी के पतन का कारण कांग्रेस की स्थापित संस्कृति थी जिसके दबाव ने उन्हें समझौतों के लिए मजबूर कर दिया था। कांग्रेस संस्कृति के खिलाफ राजीव नहीं जा पाये थे। आज राजीव पुत्र राहुल जब उसी कांग्रेस संस्कृति के विरुद्ध जाकर चमचागीरी और सिफारिश को खत्म करने की बात कर रहे हैं तो संदेह तो होगा ही। मैं फिर दोहरा दूं कि मुझे राहुल की नीयत पर कतई संदेह नहीं, मैं चाहूंगा कि कांग्रेस में कैंसर के रूप में प्रविष्ट चमचागीरी और सिफारिश की सस्ंकृति समाप्त हो। राहुल सफल हों। लेकिन शक के कारण और भी हैं। संदर्भवश प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे की टिप्पणी की याद पुन: दिलाना चाहूंगा। खरे ने दो टूक शब्दों में पिछले दिनों टिप्पणी की थी कि कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य चुनाव जीतना है। देश के प्राय: सभी राजनीतिक विश्लेषकों ने खरे के आकलन को सच निरूपित किया है। राहुल की ताजा पहल भाजपा शासित मध्यप्रदेश में हुई है। जरा गौर करें, राहुल ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को चेतावनी देने के पूर्व कहा था कि- '...यदि म.प्र. में भाजपा की सरकार बदलनी हो तो...'। यह क्या दर्शाता है? यही न कि राहुल गांधी की नजर मध्यप्रदेश के आगामी चुनाव पर है। यानी हरीश खरे की बात बिल्कुल सही है। राहुल गांधी पार्टी कार्यकर्ताओं से चमचागीरी और सिफारिश का त्याग इसलिए चाहते हैं ताकि मध्यप्रदेश में भाजपा की जगह कांग्रेस की सरकार बन सके । तात्पर्य यह कि राहुल स्थायी नहीं बल्कि अस्थायी तौर पर- चुनाव तक-कार्यकर्ताओं को चमचागीरी और सिफारिश से दूर रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि चुनाव सदृश युद्ध जीतने के लिए हर कदम को जायज ठहराया जाता है। किंतु वैसी स्थिति में संस्कृति बदलने का आह्ïवान कर कोई नायक कभी नहीं बन सकता। ठीक उसी तरह जैसे राजीव गांधी मिस्टर क्लीन का तमगा स्थायी रूप से धारण नहीं कर पाये थे। राहुल अगर अपनी पहल के प्रति ईमानदार हैं तब बेहतर हो पहले वे कांग्रेस पार्टी की संस्कृति को जानने के लिए पार्टी के इतिहास का अध्ययन कर लें। अगर धारा के विपरीत चलते हुये राहुल गांधी पार्टी की बदनाम हो चुकी पुरानी संस्कृति को बदलने में सफल होते हैं तब चापलूसी और सिफारिश के आधार पर पार्टी के विभिन्न पदों पर कब्जा जमाये चेहरे स्वत: लुप्त हो जायेंगे। राहुल को तब समर्थन मिलेगा और वे इतिहास में एक 'प्रवर्तक' के रूप में दर्ज कर दिये जायेंगे।
एक चुनौती कुविचारों को
स्वामी विवेकानंद ने एक अवसर पर कहा था, ''विष और शस्त्र से केवल एक की हत्या होती है, कुविचार से बहुतों का नाश होता है।'' आज जब आपका 'दैनिक 1857' अपने प्रकाशन का प्रथम वर्ष पूरा कर रहा है तो, मैं शपथपूर्वक यह कहने की स्थिति में हूं कि आपके इस अखबार ने कुविचारों को कभी स्थान नहीं दिया। हां, सच और साहस को प्रतिपादित करते हुये हमने निडरता, निष्पक्षतापूर्वक कुछ कड़वे सच अवश्य उकेरे। हमने पिछले एक वर्ष की यात्रा कांटों भरी ही नहीं, अवरोधक के रूप में खड़ी विशाल चट्टानों का सामना करते पूरी की है। क्या नहीं झेलना पड़ा हमें? मुझे याद है 4 अक्टूबर 2009 की वह संध्या जब स्थानीय पत्रकार भवन सभागृह में 'दैनिक 1857' का लोकार्पण हो रहा था, लोकमत समाचारपत्र समूह के अध्यक्ष श्री विजय दर्डा व अंग्रेजी दैनिक हितवाद के प्रबंध संपादक श्री बनवारीलाल पुरोहित ने इसे लोकार्पित किया था। सभागृह के अंदर और बाहर कुछ फुसफुसाहटें उभरी थीं- ''...आखिर कब तक?... हफ्ते-10 दिन या महीना भर से ज्यादा चलेगा क्या?'' आशंका व्यक्त करने के कारण मौजूद थे। प्रकाशक के रूप में कोई बड़ा मीडिया हाउस या बिजनेस हाउस नहीं। नौकरीपेशा- एक श्रमजीवी पत्रकार जब दैनिक अखबार निकाले तब लोगों के दिलों में स्वाभाविक रूप से ऐसी शंका तो उठनी ही थी। मित्रों, शुभचिंतकों और पाठकों के विश्वास की पूंजी के साथ मैंने इस 'दैनिक 1857' का प्रकाशन शुरू किया। एक बिल्कुल पृथक, बौद्धिक आजादी के आंदोलन के रूप में। यात्रा शुरू हुई तो आज इसने आरंभ का 1 वर्ष पूरा भी कर लिया। जिन अवरोधकों की मैंने चर्चा की है, उसकी टीस हमेशा सालती रहेगी। नागपुर जैसे अपेक्षाकृत शांत शहर के भीड़ भरे चौराहे पर 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारा दोष यह था कि हमने एक अंग्रेज द्वारा लिखित उस पुस्तक के कुछ अंश प्रकाशित किए जिसमें उस लेखक द्वारा महात्मा गांधी को चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की गई है। प्रसंगवश बता दूं कि हमने जितना प्रकाशित किया था, उससे कई गुना ज्यादा अंश बड़े समाचारपत्रों एवं पत्रिका में प्रकाशित हो चुके थे। लेकिन प्रतियां जलाई गईं सिर्फ 'दैनिक 1857' की। और बता दूं, वह पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बिशन' आज नागपुर सहित देश के प्राय: सभी शहरों में बिक रही है। लेकिन आपके अखबार की होली जलाने वाले कथित गांधीवादियों ने आंखें मूंद रखी हैं। यह एक उदाहरण काफी है यह साबित करने के लिए कि अखबार को जलाने के पीछे उनकी मंशा क्या थी। गांधी के प्रति उनका पे्रम तो सिर्फ दिखावा था। षड्यंत्र यहीं नहीं रुका, जब विदर्भ के हर क्षेत्र से इस अखबार की मांग होने लगी, अखबार वहां पहुंचने लगा तब इसका वितरण षड्यंत्रपूर्वक रोका गया। विरोधस्वरूप हम यह लड़ाई लड़ रहे हैं और लड़ते रहेंगे। बड़े अखबारों के बीच देश में स्पर्धा के नाम पर जारी हथकंडों की जानकारी तो हमें है किंतु 'दैनिक 1857' जैसे एक पत्रकार के अखबार के विरुद्ध ऐसा षड्यंत्र? लेकिन मैं आश्वस्त हूं पाठकीय सहयोग-समर्थन के प्रति। मैं जानता हूं कि वार करनेवालों के खिलाफ एक दिन यह पाठकवर्ग हमारा सुरक्षा कवच बनकर चट्टïान की तरह तनकर खड़ा रहेगा। षड्यंत्रकारियों को बेनकाब वह स्वयं कर देगा। अब 1 वर्ष की यात्रा के पश्चात् जब हम आगे की यात्रा की योजना बना रहे हैं तो हमारे सुधी पाठक यह जान लें कि 'दैनिक 1857' कुविचारों से दूर, सुविचारों के साथ प्रत्येक पाठक को आंदोलित करता रहेगा। प्रत्येक सुबह उनके दरवाजों पर दस्तक देता रहेगा। सीमित संसाधन से शुरू यह अखबार आकांक्षी है आपके सहयोग-समर्थन का। हमने चुनौती कुविचारों को दी है, सद्विचारों की गूंज हर पाठकके आंगन में पहुंचाने का बीड़ा उठाया है हमने। इस दौर में कदम तो नहीं रुकेंगे, सांसें भले रुक जाएं।
Sunday, October 3, 2010
कोई पड़ाव नहीं पत्रकारीय यात्रा में!
कवि मित्र राजेन्द्र पटोरिया और पत्रकार मित्र चंद्रभूषण की जिज्ञासा ने आज दिल में अवस्थित अंत:पुर को भेद डाला। उनका संयुक्त सवाल था- ''... आपकी पांच दशक की संघर्षपूर्ण यात्रा का अगला पड़ाव कौन सा होगा?'' मुख से त्वरित उत्तर निकला- ''बनारस का मणिकर्णिका घाट!'' प्रसंग था दो दिन बाद इस अखबार 'दैनिक 1857' के प्रकाशन को एक वर्ष पूरा होने का। वे स्तब्ध हुए। किंतु मुझमें एक नवशक्ति का संचार हुआ। मुझे अनायास पुण्यप्रसून वाजपेयी के ये शब्द याद आ गये-
''शिव ने विष पीया तो क्या पीया,
विनोदजी तो हर रोज पिये जाते हैं,
कमाल है कि फिर भी जिये जाते हैं।''
मेरी पत्रकारिता यात्रा का शायद यही सच है। 'शायद' इसलिए कि अनेक कड़वे-मीठे सच को मैंने अपने दिल के भीतर स्थायी कैद दे डाला है। इनका वजूद मेरे वजूद के साथ ही खत्म होगा। कब और किस पड़ाव के बाद, अभी बताने की स्थिति में नहीं हूं। यह तो मित्रों की जिज्ञासा है जिसने मुझे झिंझोड़कर रख दिया। वैसे तो स्वयं से पूछता ही रहता हूं, आज सवाल आप से पूछ रहा हूं। क्या, मिशन की पत्रकारिता का अवसान हो गया है? पत्रकारीय लक्ष्य पर पूंजी का लबादा क्यों? एक अखबार चलाने के लिए पूंजी की जरूरत तो ठीक है, किंतु पूंजी प्रभावित लक्ष्य क्या उद्देश्य की पवित्रता को विदू्रप नहीं कर रहा? प्रबंधन और संपादकीय के बीच पत्रकारीय मिशन के मुद्दे पर तालमेल क्यों नहीं? प्रबंधन सिर्फ पूंजीग्राही बनकर क्यों रह गया है? मिशन को पूंजी के हाथों का सहारा क्यों नहीं? 'मिशन' का स्थान 'प्रोफेशन' आत्मसात क्यों न करे? मैं अपनी इस मान्यता पर दृढ़ हूं कि प्रबंधन और संपादकीय का तालमेल व्यावसायिकता की जरूरत को पूरा करते हुए 'मिशन' को भी पवित्र-सुरक्षित रख सकता है। इसी उद्देश्य और लक्ष्य के साथ मेरी यात्रा- संघर्ष की यात्रा जारी है। पड़ाव की चिंता मैंने कभी नहीं की। लगभग 50 वर्ष पूर्व जिस ऊर्जा के साथ कार्यरत था, वह ऊर्जा आज भी मौजूद है। अपने अखबार के घोषवाक्य, 'एक आंदोलन बौद्धिक आजादी का' के साथ न्याय करने का उत्साह हर पल हिलोरें मारता रहता है। सच और साहस का आक्सीजन इसकी अतिरिक्त ऊर्जा है। मेरे अनेक शुभचिंतक, मित्र मेरे जारी संघर्ष को लेकर चिंतित रहते हैं। अंतरंग परेशान कि खाली जेब से इस यात्रा की निरंतरता कैसे कायम रहेगी? लेकिन मेरा संबल-मेरा आत्मविश्वास और मित्रों की शुभकामनाएं जब तक विद्यमान हैं, अपनी उपस्थिति के प्रति आश्वस्त कर सकता हूूं। मित्रगण पड़ाव की चिंता न करें। ये पांव बीच में नहीं रुकेंगे, ये रुकेंगे तो सिर्फ एक बार... अंतिम बार!!
''शिव ने विष पीया तो क्या पीया,
विनोदजी तो हर रोज पिये जाते हैं,
कमाल है कि फिर भी जिये जाते हैं।''
मेरी पत्रकारिता यात्रा का शायद यही सच है। 'शायद' इसलिए कि अनेक कड़वे-मीठे सच को मैंने अपने दिल के भीतर स्थायी कैद दे डाला है। इनका वजूद मेरे वजूद के साथ ही खत्म होगा। कब और किस पड़ाव के बाद, अभी बताने की स्थिति में नहीं हूं। यह तो मित्रों की जिज्ञासा है जिसने मुझे झिंझोड़कर रख दिया। वैसे तो स्वयं से पूछता ही रहता हूं, आज सवाल आप से पूछ रहा हूं। क्या, मिशन की पत्रकारिता का अवसान हो गया है? पत्रकारीय लक्ष्य पर पूंजी का लबादा क्यों? एक अखबार चलाने के लिए पूंजी की जरूरत तो ठीक है, किंतु पूंजी प्रभावित लक्ष्य क्या उद्देश्य की पवित्रता को विदू्रप नहीं कर रहा? प्रबंधन और संपादकीय के बीच पत्रकारीय मिशन के मुद्दे पर तालमेल क्यों नहीं? प्रबंधन सिर्फ पूंजीग्राही बनकर क्यों रह गया है? मिशन को पूंजी के हाथों का सहारा क्यों नहीं? 'मिशन' का स्थान 'प्रोफेशन' आत्मसात क्यों न करे? मैं अपनी इस मान्यता पर दृढ़ हूं कि प्रबंधन और संपादकीय का तालमेल व्यावसायिकता की जरूरत को पूरा करते हुए 'मिशन' को भी पवित्र-सुरक्षित रख सकता है। इसी उद्देश्य और लक्ष्य के साथ मेरी यात्रा- संघर्ष की यात्रा जारी है। पड़ाव की चिंता मैंने कभी नहीं की। लगभग 50 वर्ष पूर्व जिस ऊर्जा के साथ कार्यरत था, वह ऊर्जा आज भी मौजूद है। अपने अखबार के घोषवाक्य, 'एक आंदोलन बौद्धिक आजादी का' के साथ न्याय करने का उत्साह हर पल हिलोरें मारता रहता है। सच और साहस का आक्सीजन इसकी अतिरिक्त ऊर्जा है। मेरे अनेक शुभचिंतक, मित्र मेरे जारी संघर्ष को लेकर चिंतित रहते हैं। अंतरंग परेशान कि खाली जेब से इस यात्रा की निरंतरता कैसे कायम रहेगी? लेकिन मेरा संबल-मेरा आत्मविश्वास और मित्रों की शुभकामनाएं जब तक विद्यमान हैं, अपनी उपस्थिति के प्रति आश्वस्त कर सकता हूूं। मित्रगण पड़ाव की चिंता न करें। ये पांव बीच में नहीं रुकेंगे, ये रुकेंगे तो सिर्फ एक बार... अंतिम बार!!
Friday, October 1, 2010
हताश विघ्न संतोषी
कौन कहता है कि विश्वास से देश नहीं चलता? यह विश्वास ही है जो समाज-देश को एकता के सूत्र में बांधे रखता है। भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश अगर आज एकजुट है, विकास व सफलता के मार्ग पर कदमताल कर रहा है, विश्वगुरु बनने की पात्रता अर्जित कर रहा है तो इसी परस्पर विश्वास के कारण। छद्म धर्म निरपेक्षता के नाम पर साम्प्रदायिक और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव, लगता है मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। रामजन्मभूमि विवाद पर जहां पूरा देश इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को स्वीकार कर रहा है, वहीं इस विशुद्ध धार्मिक मसले को राजनीतिक स्वरूप देनेवाले मुलायम यादव व अन्य विघ्न संतोषी हताश हैं, बेचैन हैं। चालू भाषा में कहा जाय तो ऐसे तत्वों को अपनी दुकानदारी बंद होने का खतरा नजर आने लगा है। अपनी सुविधानुसार इस विवाद को मुद्दा बनाकर राजनीति करनेवाले बेचैन तो होंगे ही। मुद्दा जो इनके हाथों से फिसलता नजर आने लगा है। हालंाकि मुद्दे के मामले में बेचैन तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को अधिक होना चाहिए। लेकिन इन दोनों दलों ने देश के अभिभावक दल की भूमिका निभाते हुए अदालती फैसले को स्वीकार कर परिपक्वता का परिचय दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अदालती फैसले का स्वागत कर संस्कृतिनिष्ठ अपने चरित्र को चिन्हित कर समाज-देश को सकारात्मक संदेश दिया है। धर्म के नाम पर कट्टरवादी, हिंदु हृदय सम्राट के रूप में परिचित शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भी अदालती आदेश को सर-अंाखों पर लिया है। भारत भूमि पर पाकिस्तानी खिलाडिय़ों - कलाकारों को नहीं देख सकने वाले बाल ठाकरे ने अयोध्या की विवादित भूमि का एक अंश मुसलमानों को दिए जाने के आदेश पर संतोष व्यक्त कर वस्तुत: हिंदु संस्कृति का आदर ही किया है। सभी ने सर्वधर्म सम्भाव और एक ईश्वर को स्वीकार कर एक ऐसा उदाहरण पेश किया है, जो एक हिंदुस्तान, मजबूत हिंदुस्तान के स्वप्न को साकार करता है। ऐसे में परस्पर विश्वास और आस्था के सिद्धांत को नकारने वाले मुलायम सिंह यादव एवं अन्य देशहित चिंतक तो कदापि नहीं हो सकते।
अब कोई विघ्न पैदा न करे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश की व्यापक स्वीकृति से उत्पन्न संदेश स्पष्ट है। बहुधर्मी, बहुभाषी हिंदुस्तान एक है, एक है। सुन्नी वक्फ बोर्ड का असंतोष अगर उनकी नासमझी का परिणाम तो राममंदिर निर्माण के लिए गठित संतों की उच्चाधिकार समिति का असंतोष भी संदिग्ध है। किसी भी कीमत पर रामजन्मभूमि के विभाजन व परिसर में किसी अन्य मजहब के पूजा स्थल को स्वीकार नहीं करने की उनकी घोषणा देश को मान्य नहीं। उच्चाधिकार समिति द्वारा आहूत शुक्रवार के भारत-बंद का हश्र प्रमाण है कि देश उनके साथ नहीं। बंद के समर्थन में कोई भी सामने नहीं आया। राजजन्म भूमि पर राममंदिर निर्माण को राष्ट्रीय स्वाभिमान बताने वाली संतों की उच्चाधिकार समिति इस तथ्य को न भूले कि अदालत का आदेश रामजन्म भूमि पर पूजा-अर्चना और मंदिर निर्माण के पक्ष में है। अदालत ने रामलला के गर्भ गृह पर हिंदुओं के अधिकार को स्वीकार किया है। अब समिति अगर जमीन के एक टुकड़े को मुसलमानों को दिए जाने पर आपत्ति प्रकट करती है, तो यह अनुचित होगा। फैसले के बाद अगर कोई अब मंदिर-मस्जिद के बीच टकराव की बात करता है तो निश्चय ही वह देश को अमान्य होगा। दु:खद रूप से निर्माेही अखाड़ा भी अब फैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट की दरवाजा खटखटाने की बात करने लगा है। अगर इन सब नई मांग के पीछे किसी वर्ग द्वारा पकाई जा रही राजनीति की खिचड़ी है, तो उसे उठा गंदे पनाले में फेंक दिया जाना चाहिए। संतों की उच्चाधिकार समिति, निर्माही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों देश की समझ को चुनौती देने की बेवकूफी न करें।
अब कोई विघ्न पैदा न करे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश की व्यापक स्वीकृति से उत्पन्न संदेश स्पष्ट है। बहुधर्मी, बहुभाषी हिंदुस्तान एक है, एक है। सुन्नी वक्फ बोर्ड का असंतोष अगर उनकी नासमझी का परिणाम तो राममंदिर निर्माण के लिए गठित संतों की उच्चाधिकार समिति का असंतोष भी संदिग्ध है। किसी भी कीमत पर रामजन्मभूमि के विभाजन व परिसर में किसी अन्य मजहब के पूजा स्थल को स्वीकार नहीं करने की उनकी घोषणा देश को मान्य नहीं। उच्चाधिकार समिति द्वारा आहूत शुक्रवार के भारत-बंद का हश्र प्रमाण है कि देश उनके साथ नहीं। बंद के समर्थन में कोई भी सामने नहीं आया। राजजन्म भूमि पर राममंदिर निर्माण को राष्ट्रीय स्वाभिमान बताने वाली संतों की उच्चाधिकार समिति इस तथ्य को न भूले कि अदालत का आदेश रामजन्म भूमि पर पूजा-अर्चना और मंदिर निर्माण के पक्ष में है। अदालत ने रामलला के गर्भ गृह पर हिंदुओं के अधिकार को स्वीकार किया है। अब समिति अगर जमीन के एक टुकड़े को मुसलमानों को दिए जाने पर आपत्ति प्रकट करती है, तो यह अनुचित होगा। फैसले के बाद अगर कोई अब मंदिर-मस्जिद के बीच टकराव की बात करता है तो निश्चय ही वह देश को अमान्य होगा। दु:खद रूप से निर्माेही अखाड़ा भी अब फैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट की दरवाजा खटखटाने की बात करने लगा है। अगर इन सब नई मांग के पीछे किसी वर्ग द्वारा पकाई जा रही राजनीति की खिचड़ी है, तो उसे उठा गंदे पनाले में फेंक दिया जाना चाहिए। संतों की उच्चाधिकार समिति, निर्माही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों देश की समझ को चुनौती देने की बेवकूफी न करें।
Thursday, September 30, 2010
सलाम हिन्दुस्तान!
पूरे देश के होंठों पर आज ये दो शब्द थिरक रहे हैं तो बिल्कुल सही ही। एक बार नहीं, बार-बार, हजार बार, आज हर जुबां से यही निकल रहा है-सलाम हिन्दुस्तान। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद पर लगभग छह दशकों बाद आया हाईकोर्ट का फैसला किसी के खिलाफ नहीं है। अत्यंत ही संवेदनशील इस मुद्दे पर गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत तक के शासक किसी फैसले से परहेज करते आए थे। उन्हें लगता था कि इस विवाद में हाथ डाला तो खुद के हाथ जल जाएंगे। धार्मिक आस्था से जुड़े इस मामले में राजनीति के प्रवेश ने दुखद रूप से एक सांप्रदायिक मोड़ दे दिया था। कोर्ट की राजनीति से जुड़ 'मंदिर-मस्जिद' विवाद इतना विस्फोटक बना कि इसने सांप्रदायिक आधार पर खून के खेल तक खेल डाले। लेकिन नमन हिन्दुस्तान की न्यायपालिका को जिसने सभी शंकाओं-कुशंकाओं की तपिश पर ठंडा जल डालते हुए विवाद का निपटारा कर डाला। फैसले की तिथि की घोषणा के साथ ही मीडिया में प्रचार का ऐसा दौर चला मानो फैसले के साथ ही पूरा का पूरा हिंदुस्तान देश विभाजन के कालखंड का हिंदुस्तान बन जाएगा। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की नींद उड़ गई थी। हर स्थिति से निपटने के लिए युद्ध स्तर पर तैयारियां की गईं। लेकिन बदलते हिंदुस्तान की अवाम ने फैसले के साथ ही यह दिखा दिया कि न उसे हिंदुस्तान की न्यायपालिका के प्रति सम्मान है-विश्वास है बल्कि हिंदुस्तान की प्राचीन अनुकरणीय संस्कृति पर गर्व भी है। फैसला आया तो किसी की जय-पराजय के रूप में नहीं बल्कि हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों के पक्ष में। अब एक और महत्वपूर्ण अपेक्षा। हिंदुस्तानियों के संयम ने जिस प्रकार पूरे विश्व के सामने हर दृष्टि से एक अनुकरणीय मिसाल पेश की है, एक पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड भी हिंदुस्तान के पक्ष में अनुकरणीय मिसाल पेश करे। फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की जिद वह छोड़ दे। जब खुद उसके नेता यह कह रहे हैं कि फैसला न किसी पक्ष की हार है और न किसी पक्ष की जीत, तब इसे स्थायी समाधान मानने में अड़चन क्यों? हमारे हिंदुस्तान में मंदिर-मस्जिद, गिरिजाघर व गुरुद्वारों की मौजूदगी हर जगह है। सभी कौम के लोग पूरे सम्मान के साथ इन सभी धार्मिक स्थलों के सामने सिर झुकाते हैं। सर्वधर्म समभाव का अद्भुत स्थल है हिंदुस्तान। जब हाईकोर्ट वक्फ बोर्ड को भी विवादित भूमि का एक तिहाई देने का फैसला दिया है तब उसे सहर्ष स्वीकार किया जाए। सबूतों एवं साक्ष्योंं के आधार पर जब हाईकोर्ट ने विवादित गर्भगृह को रामलला का मान लिया तब उसे कोई चुनौती न दे। निर्मोही अखाड़े के दावे को स्वीकार करते हुये उसे भी एक तिहाई जगह देने का आदेश दिया है। पूरी विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांट, आबंटित करने का हाईकोर्ट का फैसला हर दृष्टि से न्याय के पक्ष में दिया गया फैसला है। हमें हिंदुस्तान पर अभिमान यूं ही नहीं है। दशकों पुराने इस विवाद का निपटारा चूंकि आपसी बातचीत के जरिये नहीं हो पा रहा था, मामला अदालत में चला गया। फैसले के पूर्व सभी पक्षों ने फैसला मानने का वचन दिया था। अब फैसला आ गया है और अदालत ने गर्भगृह पर रामभक्तों के अधिकार की पुष्टि कर दी तब कोई विवाद न हो। इसी प्रकार अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि मस्जिद के पहले उस स्थान पर मंदिर था और वह मस्जिद निर्माण वस्तुत: इस्लाम के खिलाफ था तब इस पर भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अब कोई नया विवाद खड़ा न करें। अदालती फैसले को सम्मान देते हुए उसे स्वीकार कर लिया जाए। बेहतर हो तीन महीने यथावत स्थिति के दौरान ही सभी पक्ष फैसले को स्वीकार करते हुए उसे क्रियान्वित कर डालें। सर्वोच्च न्यायालय की जरूरत ही न पड़े। और तब सही अर्थ में धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान की गूंज पूरे विश्व में सुनी जा सकेगी।
Tuesday, September 28, 2010
सेक्स, पैसा, नेता और खेल!
अगर असलम शेर खान सच बोल रहे हैं तब खेल संगठनों से जुड़े राजनेतागण चुल्लूभर पानी में डूब मरें। क्या ऐसा करने की हिम्मत उनमें है? शायद नहीं। क्योंकि राजनीति की मोटी चमड़ी शर्म को नहीं बेशर्मी को पनाह देती है। भारत के लिए औपनिवेशिक शर्म राष्ट्रकुल खेल के बहाने ही सही खेल के एक और सच ने हमारे नेताओं की कलई अनावरित कर दी है। विभिन्न खेल संगठनों में नेताओं की दिलचस्पी पर भौंहें तनती रही हैं। लेकिन हॉकी आलिम्पियन और पूर्व केंद्रीय खेल मंत्री ने सीधे यह कहकर कि सेक्स और पैसे के लिए नेता ऐसे संगठनों से जुड़ते हैं, भूचाल ला दिया है। सचमुच यह आश्चर्यजनक है कि शरद पवार, विलासराव देशमुख, सुरेश कलमाड़ी, राजीव शुक्ला, लालू प्रसाद यादव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण जेटली, मनोहर जोशी आदि नेताओं को क्रिकेट व अन्य खेलों से क्या लेना-देना रहा है जो ये इन संगठनों पर काबिज होने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं! एक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ही लें। हजारों करोड़ रुपयों का वारा-न्यारा करने वाले इस संगठन पर आश्चर्यजनक रूप से नेताओं व अन्य गैरखिलाडिय़ों का कब्जा रहा है। निश्चय ही इसके पीछे ग्लैमर और पैसे का आकर्षण रहा है। वरना शरद पवार जैसे कद्दावर नेता, केंद्रीय मंत्री के पास इन संगठनों को चलाने के लिए समय कैसे मिल पाया? वे वर्षों भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे और अब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष हैं। निश्चय ही राजनीति से इतर कोई चुंबकीय आकर्षण अवश्य है। इसी प्रकार यह पूछा जा सकता है कि लालू प्रसाद यादव, विलासराव देशमुख और अरुण जेटली जैसे राजनीति के 'फुलटाइमर' खेल संगठनों के लिए समय कैसे निकाल पाते हैं? यह निश्चय ही शोध का विषय है। मैं यह नहीं कहता कि असलम शेर खान के आरोप शतप्रतिशत सही हैं। बल्कि सच तो यह है कि हाल के दिनों में कतिपय खिलाडिय़ों ने सार्वजनिक रूप से यौन शोषण के आरोप नेताओं पर नहीं बल्कि गैरराजनीतिक खेल पदाधिकारियों पर लगाए हैं। लेकिन जहां तक अन्य आकर्षण का सवाल है, उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। भारत में क्रिकेट और हॉकी सबसे अधिक लोकप्रिय खेल हैं। इनमें खिलाडिय़ों के लिए प्रचुर धन भी है और राष्ट्रीय सम्मान भी। लेकिन क्या यह सच नहीं कि भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रतिभाएं अवसर से वंचित रह जाती हैं? खिलाडिय़ों के चयन को लेकर हमेशा संदेह प्रकट किए गए हैं। क्षेत्रीयता का दंश अनेक प्रतिभाओं को डंस चुका है। संगठन के शीर्ष पर राजनेताओं की मौजूदगी के कारण भी पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। और तो और, पैसे का लोभ ऐसा कि सट्टïेबाजी और मैच फिक्सिंग में भी खिलाडिय़ों के नाम शुमार किए जा चुके हैं। मोहम्मद अजहरुद्दीन, मनोज प्रभाकर और अजय जडेजा जैसे महान खिलाडिय़ों पर ऐसे आरोप लग चुके हैं। मोहम्मद अजहरुद्दीन को तो आजीवन प्रतिबंधित तक कर दिया गया। वैसे राजनीति के इस निराले खेल ने अजहरुद्दीन को लोकसभा में पहुंचा दिया है। लेकिन यह अलग विषय है। फिलहाल असलम शेर खान के आरोप के आलोक में बेहतर होगा कि इस पर बहस हो और खेल की पवित्रता के हक में कड़े कदम उठाए जाएं। इस दिशा में पहला कदम यह हो कि सभी खेल संगठनों को राजनेताओं के चंगुल से मुक्त किया जाए। खेलों से जुड़ी हस्तियों को ऐसी जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। हमारे देश में सुनील गावसकर, कपिलदेव, के. श्रीकांत, रवि शास्त्री, मोहिन्दर अमरनाथ, धनराज पिल्ले, परगट सिंह आदि महान पूर्व खिलाड़ी मौजूद हैं। क्यों नहीं इनके अनुभव का लाभ खेल और खिलाडिय़ों को मिले। क्या इस पर कोई मतभेद हो सकता है कि राजनेताओं से कहीं अधिक अच्छे ढंग से ये खिलाड़ी खेल संगठनों का नेतृत्व करेंगे? पिछले दिनों संसद एवं संसद के बाहर ऐसी मांग उठी भी थी। असलम शेर खान के खुलासे के बाद तो यह और भी जरूरी प्रतीत होने लगा है। सरकार पहल करे। जरूरत पड़े तो कानून बनाकर खेल संगठनों को राजनेताओं के चंगुल से मुक्त कराया जाए। राजनेता राजनीति करें। यह उनका पेशा है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। बल्कि खेल संगठनों से विलग होकर राजनेता मतदाता और देश के प्रति अधिक न्याय कर पाएंगे। इसी प्रकार जब पूर्व महान खिलाडिय़ों को खेल संगठनों के नेतृत्व का दायित्व सौंपा जाएगा, तभी खेल और खिलाडिय़ों के साथ सही न्याय हो पाएगा। प्रतिभाओं को न्याय मिलेगा, अवसर मिलेगा, तब निश्चय ही देश भी गौरवान्वित होगा।
Sunday, September 26, 2010
पत्रकारिता को बिकाऊ निरूपित न करें!
भारतीय पत्रकारिता का एक और कड़वा सच। विडंबना भी कह लें! लोकतंत्र के स्वघोषित चौथे स्तंभ में अयोग्य, अज्ञानी और ग्लैमरपसंद लोगों की भीड़ हो गई है। संपादक-संवाददाता पद पर ऐसे लोगों का कब्जा चिंता का विषय है। ये सब तथा और भी बहुत कुछ बोल गए पत्रकारिता की लंबी यात्रा कर राज्यसभा सदस्य बने तरुण विजय।
भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की पीड़ा उनके प्रति सहानुभूति पैदा करती है। उनकी व्यथा यह है कि जो वे बोलते नहीं उसे उनके मुंह में डाल दिया जाता है। नागपुर से एक नए हिंदी साप्ताहिक 'भारत-वाणी' के विमोचन के अवसर पर पत्रकार और पत्रकारिता को चुनौती देने का अवसर इन दोनों राजनेताओं को मिला। तरुण विजय कुछ ज्यादा ही आक्रामक दिखे। यहां तक बोल गए कि आज पत्रकारिता बिक रही है। मैं उनके इस विचार से सहमत नहीं हूं। पत्रकारिता में दृढ़ अनुभव प्राप्त तरुण विजय संशोधन कर लें, पत्रकारिता बिकाऊ नहीं है। हां, इससे जुड़े कतिपय पत्रकार अवश्य बिकाऊ हैं। अर्थात् पत्रकारिता नहीं पत्रकार बिक रहे हैं। बिकाऊ वही वर्ग है जिसकी ओर तरुण विजय ने इशारा किया है। 'ग्लैमर, पावर और प्रिविलेज' के आकर्षण से पत्रकारिता में प्रवेश करनेवाला सहज ही भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों के चंगुल में फंस जाता है। इनका उपयोग-दुरुपयोग शुरू हो जाता है। तरुण विजय के इस विचार से मैं भी सहमत हूं कि आज संपादक नाम की संस्था धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है। उनकी यह बात भी बिल्कुल सही है कि ऊंगलियों पर गिनने लायक संपादकों को छोड़ दें तो शेष संपादक संपादकीय दायित्व छोड़ संस्थान के अन्य हित को प्राथमिकता देते हैं। यह अवस्था निश्चय ही पत्रकारिता के लिए चिंताजनक है। अगर भारतीय पत्रकारिता को अपनी संपूर्णता में जीवित रहना है तो उसे ईमानदार आत्मचिंतन करना होगा। इसके लिए पहली शर्त यह है कि संपादक की सत्ता व उसकी पवित्रता कायम रखी जाए। तर्क दिये जाते हैं कि संपादक की कुर्सियों पर आज मालिकों की मौजूदगी के कारण इसकी पवित्रता खत्म हो रही है, संपादकीय दायित्व हाशिए पर चला गया है। क्योंकि आज का पेशेवर संपादक ही अपना दायित्व गरिमापूर्ण पत्रकारिता की नींव को चोटिल कर रहा है। जब नायक ही दायित्वहीन व भ्रष्ट होगा तब उसके सहयोगियों से ईमानदार दायित्व निर्वाह की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वह तो अपने संपादक का ही अनुसरण करेगा। तरुण विजय का यह आरोप कि भाषाज्ञान से दूर व्यक्ति संपादक और संवाददाता बन जाता है तो पत्रकारिता की इसी नवीन अवस्था के कारण! अयोग्यता और निष्क्रियता साथ-साथ चलती है। अयोग्य संपादक-संवाददाता निष्क्रिय ही तो साबित होगा। तरुण विजय के अनुसार देश में संभवत: चार-पांच संपादक ही संपादक कहलाने योग्य हैं। तरुण विजय यहां अतिरेक के शिकार प्रतीत हुए। संभवत: उनके जेहन में दिल्ली महानगर रहा होगा। देश के अन्य राज्यों के शहरों व कस्बों से प्रकाशित समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में आज भी अनेक ऐसे संपादक मौजूद हैं जो महानगरीय सुविधाओं-प्रलोभनों से दूर अनेक कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना करते हुए स्वस्थ, ईमानदार पत्रकारिता कर रहे हैं। लघु पत्र-पत्रिकाओं के अधिकांश संपादक पत्रकारीय आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं। सच लिखने का साहस अगर है तो इनमें। बल्कि सच तो यह है कि इनकी लेखनी से निकले शब्द, भाषा, तथ्य, निष्पक्षता और निडरता बड़े शहरों में कार्यरत संपादकों को हर पल चुनौती देती है। भारतीय पत्रकारिता का आकलन महानगर की पत्रकारिता के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। वस्तुत: भारतीय लोकतंत्र आज अगर सफल है तो उसका एक मुख्य कारण सशक्त भारतीय पत्रकारिता भी है। इसके पहले भी मैं कह चुका हूं, आज भी कहता हूं कि कृपया पत्रकारिता को कोई बिकाऊ निरूपित न करे।
भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की पीड़ा उनके प्रति सहानुभूति पैदा करती है। उनकी व्यथा यह है कि जो वे बोलते नहीं उसे उनके मुंह में डाल दिया जाता है। नागपुर से एक नए हिंदी साप्ताहिक 'भारत-वाणी' के विमोचन के अवसर पर पत्रकार और पत्रकारिता को चुनौती देने का अवसर इन दोनों राजनेताओं को मिला। तरुण विजय कुछ ज्यादा ही आक्रामक दिखे। यहां तक बोल गए कि आज पत्रकारिता बिक रही है। मैं उनके इस विचार से सहमत नहीं हूं। पत्रकारिता में दृढ़ अनुभव प्राप्त तरुण विजय संशोधन कर लें, पत्रकारिता बिकाऊ नहीं है। हां, इससे जुड़े कतिपय पत्रकार अवश्य बिकाऊ हैं। अर्थात् पत्रकारिता नहीं पत्रकार बिक रहे हैं। बिकाऊ वही वर्ग है जिसकी ओर तरुण विजय ने इशारा किया है। 'ग्लैमर, पावर और प्रिविलेज' के आकर्षण से पत्रकारिता में प्रवेश करनेवाला सहज ही भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों के चंगुल में फंस जाता है। इनका उपयोग-दुरुपयोग शुरू हो जाता है। तरुण विजय के इस विचार से मैं भी सहमत हूं कि आज संपादक नाम की संस्था धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है। उनकी यह बात भी बिल्कुल सही है कि ऊंगलियों पर गिनने लायक संपादकों को छोड़ दें तो शेष संपादक संपादकीय दायित्व छोड़ संस्थान के अन्य हित को प्राथमिकता देते हैं। यह अवस्था निश्चय ही पत्रकारिता के लिए चिंताजनक है। अगर भारतीय पत्रकारिता को अपनी संपूर्णता में जीवित रहना है तो उसे ईमानदार आत्मचिंतन करना होगा। इसके लिए पहली शर्त यह है कि संपादक की सत्ता व उसकी पवित्रता कायम रखी जाए। तर्क दिये जाते हैं कि संपादक की कुर्सियों पर आज मालिकों की मौजूदगी के कारण इसकी पवित्रता खत्म हो रही है, संपादकीय दायित्व हाशिए पर चला गया है। क्योंकि आज का पेशेवर संपादक ही अपना दायित्व गरिमापूर्ण पत्रकारिता की नींव को चोटिल कर रहा है। जब नायक ही दायित्वहीन व भ्रष्ट होगा तब उसके सहयोगियों से ईमानदार दायित्व निर्वाह की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वह तो अपने संपादक का ही अनुसरण करेगा। तरुण विजय का यह आरोप कि भाषाज्ञान से दूर व्यक्ति संपादक और संवाददाता बन जाता है तो पत्रकारिता की इसी नवीन अवस्था के कारण! अयोग्यता और निष्क्रियता साथ-साथ चलती है। अयोग्य संपादक-संवाददाता निष्क्रिय ही तो साबित होगा। तरुण विजय के अनुसार देश में संभवत: चार-पांच संपादक ही संपादक कहलाने योग्य हैं। तरुण विजय यहां अतिरेक के शिकार प्रतीत हुए। संभवत: उनके जेहन में दिल्ली महानगर रहा होगा। देश के अन्य राज्यों के शहरों व कस्बों से प्रकाशित समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में आज भी अनेक ऐसे संपादक मौजूद हैं जो महानगरीय सुविधाओं-प्रलोभनों से दूर अनेक कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना करते हुए स्वस्थ, ईमानदार पत्रकारिता कर रहे हैं। लघु पत्र-पत्रिकाओं के अधिकांश संपादक पत्रकारीय आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं। सच लिखने का साहस अगर है तो इनमें। बल्कि सच तो यह है कि इनकी लेखनी से निकले शब्द, भाषा, तथ्य, निष्पक्षता और निडरता बड़े शहरों में कार्यरत संपादकों को हर पल चुनौती देती है। भारतीय पत्रकारिता का आकलन महानगर की पत्रकारिता के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। वस्तुत: भारतीय लोकतंत्र आज अगर सफल है तो उसका एक मुख्य कारण सशक्त भारतीय पत्रकारिता भी है। इसके पहले भी मैं कह चुका हूं, आज भी कहता हूं कि कृपया पत्रकारिता को कोई बिकाऊ निरूपित न करे।
'नायक' पर वार को तत्पर ये 'खलनायक'!
सुबह-सुबह टेलीफोन पर एक मित्र द्वारा व्यक्त जिज्ञासा ने मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ दिया। मित्र जानना चाहते थे कि भारत के राजनेता बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन से सबक क्यों नहीं लेते! अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी की तरफ से उम्मीदवारी के लिए साम-दाम-दंड-भेद के हथियारों से लैस एक-दूसरे के विरुद्ध लडऩे वाले राजनीति के ये योद्धा आज एकसाथ मिलजुलकर सरकार कैसे चला रहे हैं? राष्ट्रपति बनने के बाद कटुता त्यागकर अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी को सरकार में शामिल कर महत्वपूर्ण विदेश विभाग सौंप ओबामा ने सहृदयता और विश्वास की जो मिसाल कायम की, उसकी अनदेखी क्यों? हमारे राजनेता क्यों नहीं उनका अनुसरण कर पाते? निश्चय ही यह जिज्ञासा राजनीति के विद्यार्थियों को प्रेरित करेगी। वैसे मित्र ने महाशक्ति अमेरिका की हर क्षेत्र में सफलता के लिए इस अमेरिकी चरित्र को चिन्हित भी किया। प्रसंग था भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के 'मिशन-2014' और पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं के राजनीतिक अंत:पुर में पक रही खिचड़ी का। मित्र की इस जिज्ञासा ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर भाजपा जैसी बड़ी पार्टी के बड़े नेता अपनी ही पार्टी के मार्ग में गड्ढïे क्यों खोद रहे हैं? कहीं सिर्फ अहंï की तुष्टि के लिए ही तो नहीं? पिछले 2 चुनावों में नेताओं के अहंकार के कारण पराजित भाजपा का नया नेतृत्व अगर अगले चुनाव के लिए विजय का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है तब उसके मार्ग में अवरोधक क्यों? यह ठीक है कि मन की दुष्प्रवृत्ति के बेलगाम होने पर ऐसे खलनायक का जन्म होता है जो अपने नायक की पीठ पर वार करने से नहीं चूकता। अगर पार्टी के कथित बड़े नेता इस दुष्प्रवृत्ति के शिकार हो गए हैं तो उनका इलाज किया जाना चाहिए। यह विचित्र है कि पार्टी के नए नेतृत्व को निर्णय क्षमता की कसौटी पर अयोग्य करार देने वाला पार्टी का यह गुट अब पार्टी हित में नेतृत्व द्वारा लिए जा रहे निर्णय पर बेचैन हो गया है। मैं यहां किसी की सोच को अथवा विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दे रहा। मेरी पीड़ा लोकतांत्रिक प्रणाली को पहुंचाई जा रही चोट और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य को लेकर है। स्वतंत्रता संग्राम को नेतृत्व देने के नाम पर वर्षों मतदाता का भावनात्मक शोषण कर सत्ता प्राप्त करती रही कांग्रेस पार्टी चूंकि अब भारत और भारतीयता को भूलती जा रही है, राष्ट्रहित में उसका विकल्प आवश्यक है। भारत की विशिष्ट पहचान उसकी महान संस्कृति और सभ्यता रही है। ज्यादा विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह रेखांकित किया जा सकता है कि कांग्रेस के विकल्प के रूप में आज देश का बहुमत भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है। लोगों ने इसे सत्ता सौंपी थी लेकिन पार्टी के कतिपय नेताओं के अहंकार और तुच्छ स्वार्थी नीतियों के कारण पिछले दो चुनावों में इसे मुंह की खानी पड़ी। सत्ता सिंहासन अनायास कांग्रेस और उसके सहयोगियों की झोली में चला गया। वैश्विक स्पर्धा और विकास के नाम पर ऐसी नीतियां बनीं जिसने समाज में अमीरी और गरीबी के बीच खाई और चौड़ी कर दी। अमीरों का एक विशेष वर्ग तैयार कर उसे भारत बताया जाने लगा। जबकि हकीकत में गरीबों की फौज बढ़ती गई और गलत नीतियों के कारण पूरे देश में अराजक स्थिति पैदा हो गई। आतंकवाद के रूप में अलगाववादियों के पांव मजबूत हुए। देश पर और एक विभाजन का खतरा मंडराने लगा। अपने ही देश में लोगों को यह समझाने की जरूरत आन पड़ी कि सभी भारतीय हैं। इससे अधिक हास्यास्पद स्थिति और क्या हो सकती है। उत्तर-पूर्व के क्षेत्र हों या फिर जम्मू-कश्मीर, वहां असुरक्षा की बढ़ती भावना ने सरकार के प्रति विश्वास को डिगा दिया है। दुश्मन देश सक्रिय हो इस असहज स्थिति का लाभ उठाने का षडय़ंत्र रच रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की जमीन पर अब 'आजादी' का नारा बुलंद होने लगा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। निश्चय ही यह सब शासकों की गलत नीतियां, निज स्वार्थ और अदूरदर्शिता के कारण संभव हो पाया है। अब अगर देशवासी एक सशक्त राष्ट्रवादी विकल्प चाहते हैं तो बिल्कुल सही ही। भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे अनुकूल अवसर और कुछ नहीं हो सकता। पार्टी के नए नेतृत्व ने इस अवसर को भांपकर ही 'मिशन-2014' का लक्ष्य निर्धारित किया है। मैं व्यक्तिगत जानकारी और अनुभव के आधार पर यह शब्दांकित करने की स्थिति में हूं कि पार्टी नेतृत्व के शीर्ष पद की आकांक्षा पालने वाले कथित बड़े नेतागण खलनायक की भूमिका में सक्रिय हैं। सार्वजनिक मंचों से नए नेतृत्व की प्रशंसा करने वाला यह वर्ग अपने विश्वस्तों से निजी बातचीत में मिशन को विफल बनाने का षडय़ंत्र रचता रहता है। लोकतंत्र के लिए यह एक अत्यंत ही दुखद घटना विकासक्रम है। अगर कोई मंदिर का महंत बनना चाहता है तो जरूरी तो यह है कि पहले मंदिर को सुरक्षित रखा जाए। फिर महंतगीरी के दावे किए जा सकते हैं। लेकिन यहां तो मंदिर को ही ढहाने को तत्पर ये दिख रहे हैं। पिछले दिनों नए नेतृत्व की ओर से एक सुखद संकेत यह अवश्य मिला कि उसने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए सकारात्मक निर्णय लेना शुरू कर दिया है। ऐसे में मठाधीशों की बेचैनी पर कोई आश्चर्य नहीं। हां, नेतृत्व से पार्टी का आम कार्यकर्ता और पार्टी के प्रति समर्पित नेता यह अपेक्षा अवश्य कर रहा है कि मठाधीशों के वार से नेतृत्व अविचलित आगे बढ़ता रहेगा- जीवन के इस सत्य को समझकर कि भूतकाल का सत्य तो भोगा जा चुका है, अब वह वर्तमान के कटु सत्य का मंथन कर भविष्य के लिए एक नए शुद्ध सत्य को जन्म देगा।
Friday, September 24, 2010
पुस्तक संस्कृति : कौन सी, कैसी संस्कृति?
गांधी (असली गांधी अर्थात् मोहनदास करमचंद गांधी) की कर्मभूमि वर्धा के लोकसभा सदस्य दत्ता मेघे हैं। जानता तो वर्षों से हूं किन्तु आज उनका एक अद्ïभुत नूतन स्वरूप सामने आया। राजनीतिक हैं। अनेक शिक्षण संस्थाएं चलाते हैं। लोगों के दुख-सुख में शामिल होने वाले विशुद्ध सामाजिक जीव हैं। आज शुक्रवार दि. 24 सितंबर 2010 को नागपुर में राष्ट्रीय पुस्तक मेला का उद्घाटन उनके हाथों हुआ। इसमें कोई नई बात नहीं। मेरे लिए नया उनका उद्बोधन था। पूर्णत: गैरराजनीतिक विषय पर बोलने के दौरान मेघे ने यह स्वीकार किया कि जब वे स्कूल में पढ़ते थे तब उनके पास पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे। वाचनालय में जाकर अध्ययन किया करते थे। मैं इसका उल्लेख हर दृष्टि से संपन्न किसी व्यक्ति के जीवन के आरंभिक काल के रूप में नहीं कर रहा। मैं इसे पुस्तक संस्कृति से जोड़कर देख रहा हूं। वह संस्कृति जिसे पुस्तक मेले द्वारा भारत के घर-घर में पुनस्र्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जी हां, पुस्तक संस्कृति को पुनस्र्थापित करने का एक आंदोलन है यह। 'पुनस्र्थापित' इसलिए कि टेलीविजन के इस युग में पुस्तक संस्कृति लुप्तप्राय हो चुकी है। पहले जहां छोटे-बड़े हर घर में एक पुस्तक कोना हुआ करता था, अब उसका स्थान टेलीविजन ने ले लिया है। घर में काम करने वाली बाई के यहां भी पहले एक पुस्तक कोना हुआ करता था। अकादमिक दिलचस्पी रखने वाले वर्ग को छोड़ दें तो एक वर्ग ऐसा अवश्य है जिनके घर पुस्तकों के भंडार मिलेंगे। लेकिन क्षमा करेंगे, इस वर्ग के घरों में मौजूद पुस्तकों के रेक्स यह जताने के लिए होते हैं कि वे सुरुचि संपन्न शिक्षित परिवार के हैं। पुस्तकों को खोल कर पढऩे की जहमत यह वर्ग नहीं उठाता। पुस्तकों को उन्होंने शोभा की वस्तु बनाकर सजा रखा है। साधुवाद पुस्तक मेला के आयोजकों का जिन्होंने मृत पुस्तक संस्कृति को जीवित करने का बीड़ा उठाया है। ऐसा न हुआ तो वे वाचनालय शेष कहां रह जाएंगे जहां बालक दत्ता मेघे जैसे स्वाध्याय प्रवृत्तिवाले अशक्त जरूरतमंद पहुंचते हैं।
हां, एक बात और। जब बात पुस्तक संस्कृति की उठी है तब इस बात का भी फैसला हो जाए कि कौन सी और कैसी संस्कृति? पुस्तक का एक लेखक होता है, प्रकाशक होता है और विक्रेता होता है। लेखक अपने विवेक से विषय चयन कर विभिन्न रूपों में कलमबद्ध करता है। फिर वह प्रकाशक के दरवाजे दस्तक देता है या अगर लेखक कद्दावर हुआ तो प्रकाशक उसके दरवाजे पहुंचता है। इस मुकाम पर प्रकाशक के लिए अपने विवेक के सही इस्तेमाल की चुनौती होती है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसे पुस्तक के विषय पर ध्यान देना पड़ता है। प्रकाशन पश्चात विके्रता उसे पाठकों तक पहुंचाते हैं। उसकी भी जिम्मेदारी अहम हो जाती है। बल्कि सबसे अहम। पिछले दिनों ब्रिटेन के इतिहासकार जेड एडम्स लिखित पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बीशन' विदेशों में जारी की गई। पुस्तक में महात्मा गांधी के सेक्स जीवन को लेकर चरित्र हनन किया गया। ऐतिहासिक सच के नाम पर लेखक ने घोर आपत्तिजनक बल्कि अश्लील बातें महात्मा गंाधी के विरुद्ध पुस्तक में बताई हैं। भारत के अनेक समाचार पत्र-पत्रिकाओं सहित हमारे 'दैनिक 1857' ने भी पुस्तक के कुछ अंश संक्षिप्त में प्रकाशित कर यह मांग की थी कि इस पुस्तक का प्रसार भारत में प्रतिबंधित किया जाए। संभव हो तो विदेशों में भी इसके प्रसार पर रोक की कोशिश की जाए। तब तक भारत में पुस्तक नहीं आई थी। कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओ ने हमारे समाचार प्रकाशन को गांधी का अपमान बताते हुए हिंसक आपत्ति दर्ज की। भीड़भरे चौराहे पर विरोध सभा लेकर हमारे 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारे लिए अपशब्दों के प्रयोग किए गए, जान से मारने की धमकियां दी गईं। यह वाकया मई माह के प्रथम सप्ताह का है। अब वही पुस्तक 'गांधी : नेकेड एम्बीशन' नागपुर सहित भारत के सभी शहरों में बिक रही है। पुस्तक के कुछ अंश को प्रकाशित करने वाले अखबार की प्रतियां जलाने वाले कथित गांधीवादी अब कहां हैं? पुस्तक विक्रेताओं के यहां उपलब्ध इस पुस्तक की होली क्यों नहीं जलाई जा रही? अब तो पूरी की पूरी पुस्तक देशवासियों को यह बतलाने के लिए उपलब्ध है कि महात्मा गांधी चरित्रहीन थे। मुझे वैसे मुखौटाधारी गांधीवादियों की चिंता नहीं। वे तब अखबार के खिलाफ षडय़ंत्र की राजनीति कर रहे थे और आज स्वार्थ की नपुंसक राजनीति ने उन्हें पुस्तक के खिलाफ कार्रवाई से रोक रखा है। मेरी चिंता पुस्तक संस्कृति की पवित्रता को कायम रखने को लेकर है। क्यों न पुस्तक विक्रेता स्वयं ऐसी आपत्तिजनक पुस्तक को बेचने से इन्कार कर दें? जब किसी संस्कृति को अश्लीलता की चुनौती मिलती है। तब वह संस्कृति पवित्र नहीं रह पाती। मुखौटाधारी गांधीवादी तो स्वार्थवश पहल नहीं करेंगे, पहल करें पुस्तक विके्रता या फिर भारत में उसके वितरक। लेखक या प्रकाशक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं दिया जा सकता। पुस्तक में जानबूझकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन किया गया है। अन्य गोरी चमड़ी वालों की तरह इस पुस्तक के लेखक जेड एडम्स को भी यह बर्दाश्त नहीं कि एक भारतीय महात्मा गांधी को विश्व इतिहास ने 'बेमिसाल' की उपमा कैसे दे रखी है? निश्चय ही अंग्रेज लेखक की यह पुस्तक हमारी पुस्तक संस्कृति की भागीदार नहीं हो सकती।
हां, एक बात और। जब बात पुस्तक संस्कृति की उठी है तब इस बात का भी फैसला हो जाए कि कौन सी और कैसी संस्कृति? पुस्तक का एक लेखक होता है, प्रकाशक होता है और विक्रेता होता है। लेखक अपने विवेक से विषय चयन कर विभिन्न रूपों में कलमबद्ध करता है। फिर वह प्रकाशक के दरवाजे दस्तक देता है या अगर लेखक कद्दावर हुआ तो प्रकाशक उसके दरवाजे पहुंचता है। इस मुकाम पर प्रकाशक के लिए अपने विवेक के सही इस्तेमाल की चुनौती होती है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसे पुस्तक के विषय पर ध्यान देना पड़ता है। प्रकाशन पश्चात विके्रता उसे पाठकों तक पहुंचाते हैं। उसकी भी जिम्मेदारी अहम हो जाती है। बल्कि सबसे अहम। पिछले दिनों ब्रिटेन के इतिहासकार जेड एडम्स लिखित पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बीशन' विदेशों में जारी की गई। पुस्तक में महात्मा गांधी के सेक्स जीवन को लेकर चरित्र हनन किया गया। ऐतिहासिक सच के नाम पर लेखक ने घोर आपत्तिजनक बल्कि अश्लील बातें महात्मा गंाधी के विरुद्ध पुस्तक में बताई हैं। भारत के अनेक समाचार पत्र-पत्रिकाओं सहित हमारे 'दैनिक 1857' ने भी पुस्तक के कुछ अंश संक्षिप्त में प्रकाशित कर यह मांग की थी कि इस पुस्तक का प्रसार भारत में प्रतिबंधित किया जाए। संभव हो तो विदेशों में भी इसके प्रसार पर रोक की कोशिश की जाए। तब तक भारत में पुस्तक नहीं आई थी। कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओ ने हमारे समाचार प्रकाशन को गांधी का अपमान बताते हुए हिंसक आपत्ति दर्ज की। भीड़भरे चौराहे पर विरोध सभा लेकर हमारे 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारे लिए अपशब्दों के प्रयोग किए गए, जान से मारने की धमकियां दी गईं। यह वाकया मई माह के प्रथम सप्ताह का है। अब वही पुस्तक 'गांधी : नेकेड एम्बीशन' नागपुर सहित भारत के सभी शहरों में बिक रही है। पुस्तक के कुछ अंश को प्रकाशित करने वाले अखबार की प्रतियां जलाने वाले कथित गांधीवादी अब कहां हैं? पुस्तक विक्रेताओं के यहां उपलब्ध इस पुस्तक की होली क्यों नहीं जलाई जा रही? अब तो पूरी की पूरी पुस्तक देशवासियों को यह बतलाने के लिए उपलब्ध है कि महात्मा गांधी चरित्रहीन थे। मुझे वैसे मुखौटाधारी गांधीवादियों की चिंता नहीं। वे तब अखबार के खिलाफ षडय़ंत्र की राजनीति कर रहे थे और आज स्वार्थ की नपुंसक राजनीति ने उन्हें पुस्तक के खिलाफ कार्रवाई से रोक रखा है। मेरी चिंता पुस्तक संस्कृति की पवित्रता को कायम रखने को लेकर है। क्यों न पुस्तक विक्रेता स्वयं ऐसी आपत्तिजनक पुस्तक को बेचने से इन्कार कर दें? जब किसी संस्कृति को अश्लीलता की चुनौती मिलती है। तब वह संस्कृति पवित्र नहीं रह पाती। मुखौटाधारी गांधीवादी तो स्वार्थवश पहल नहीं करेंगे, पहल करें पुस्तक विके्रता या फिर भारत में उसके वितरक। लेखक या प्रकाशक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं दिया जा सकता। पुस्तक में जानबूझकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन किया गया है। अन्य गोरी चमड़ी वालों की तरह इस पुस्तक के लेखक जेड एडम्स को भी यह बर्दाश्त नहीं कि एक भारतीय महात्मा गांधी को विश्व इतिहास ने 'बेमिसाल' की उपमा कैसे दे रखी है? निश्चय ही अंग्रेज लेखक की यह पुस्तक हमारी पुस्तक संस्कृति की भागीदार नहीं हो सकती।
पंडित-मौलवी की भूमिका में राजनीतिक?
संभवत: सुप्रीम कोर्ट ने नैसर्गिक न्याय के पक्ष में रमेशचंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुनवाई का फैसला कर लिया। परंतु लोग यह जानना चाहेंगे कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन पूर्व बुधवार को याचिका खारिज करते हुए यह कैसे कहा था कि सुनवाई उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है? 24 घंटे के अंदर याचिका उनके अधिकार क्षेत्र में कैसे आ गई? हाल के दिनों में संदेहों के काले बादलों से घिरी न्यायपालिका को अपनी निष्पक्षता का प्रमाण देना होगा। उसे यह प्रमाणित करना ही होगा कि गुरुवार का निर्णय उसका अपना निर्णय है, वह सत्ता या किसी अन्य के दबाव में नहीं है। न्याय की यह अवधारणा कि न्याय सिर्फ हो नहीं बल्कि वह होता हुआ दिखे भी, लांछित न हो! आखिर कुछ दिनों तक अयोध्या की विवादित जमीन पर फैसले को स्थगित करने का आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट न्याय के पक्ष में क्या हासिल कर लेगा? छह दशक पुराने इस मामले पर अदालती फैसले का इंतजार सभी कर रहे हैं। संबंधित पक्ष और पूरा देश चाहता है कि अदालती फैसला शीघ्र हो। हाईकोर्ट ने तो फैसले के लिए 24 सितंबर तारीख भी निर्धारित कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनेवाले त्रिपाठी चाहते हैं कि विवाद का निपटारा सभी पक्ष आपसी बातचीत से अदालत के बाहर कर दें। याचिकाकर्ता के अपने तर्क हो सकते हैं किंतु यह सत्य तो अपनी जगह मौजूद है कि भूतकाल में परस्पर बातचीत के सभी प्रयास विफल साबित हुए हैं। विवाद का राजनीतिकरण हो जाना इसका मुख्य कारण है। ईश्वर और अल्लाह के प्रति आस्था वस्तुत: सिर्फ दिखावे के लिए है। मंदिर-मस्जिद मुद्दे को सीधे-सीधे वोट की राजनीति से जोड़ दिया गया है। दु:खद रूप से इसी आधार पर हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत की दरार पैदा कर दी गई है। सत्तालोलुप राजदल और राजनेता सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा को लतियाकर मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेलते रहे हैं। परस्पर सांप्रदायिक सद्भाव को मजबूत करने की जगह सांप्रदायिक घृणा को हवा दी गई है। धर्म के नाम पर देश-समाज को बंाटने का षडय़ंत्र भी रच दिया गया है। दोनों समुदायों में मौजूद कट्टरपंथी धार्मिक आस्था की कोमल व पवित्र भावनाओं का दोहन करते रहे! धार्मिक आस्था संबंधित कमजोरी का लाभ उठाया गया- देश की एकता एवं अखंडता की कीमत पर! जबकि हकीकत में दोनों संप्रदाय के लोग एक-दूसरे की धार्मिक आस्था का सम्मान करते हुए मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं! यह तो राजनीतिकों और सत्ता के हाथों बिक चुके कट्टरपंथी हैं जो लोगों को बरगलाते रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अदालत के बाहर दोनों पक्षों के बीच मतैक्य नहीं हो पाया। समय-समय पर दंगे भड़के, दोनों संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे बन गए। लेकिन यह भी सच है कि अदालती फैसले का सम्मान करने का आश्वासन दोनों पक्ष दे चुके हैं। फिर अदालती विलंब क्यों? 60 साल का अरसा एक लंबा अरसा है। हाईकोर्ट के तीनों न्यायाधीश फैसला सुनाने को तैयार बैठे हैं। इसमें कोई व्यवधान पैदा न किया जाये। यह तो स्वाभाविक है कि फैसले से कोई एक पक्ष असंतुष्ट बना रहेगा। उस पक्ष का इस्तेमाल कट्टरपंथी करना चाहेंगे। प्रयास यह हो कि अदालती फैसले का सम्मान दोनों पक्ष करें। मंदिर और मस्जिद के नाम पर किसी भी सभ्य समाज में खून-खराबा अनुचित है। ऐसे तत्वों के साथ कड़ाई बरती जाए। सिर्फ शासन के लिये यह संभव नहीं। समाज में आम लोगों को सामने आना होगा। सरकार की ओर से दिया जा रहा तर्क कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुला रहेगा, समस्या के हल में मददगार नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस बात की क्या गारंटी है कि असंतुष्ट पक्ष फैसले को स्वीकार कर ही लेगा? फिर क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट के बाद तो अन्य कोई कोर्ट है नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि हाईकोर्ट के फैसले को सम्मान देने के लिए दोनों पक्षों को प्रेरित किया जाए। यह संभव है, शर्त यह कि राजदल और राजनीतिज्ञ, पंडित और मौलवी की भूमिका में न आएं।
Thursday, September 23, 2010
भाजपा में सक्रिय ये विघ्नसंतोषी
किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि सियासत को तवायफ का दुपट्टा कभी किसी की आंसुओं से गीला नहीं होता। अनेक 'गंध' मिलकर स्वच्छ वातावरण व उसकी पवित्रता को चुनौती देने वाली 'दुर्गन्ध' पैदा करता रहता है यह दुपट्टा। एक शाश्वत सत्य है। आश्चर्य है कि इस अटूट स्थापित सत्य से अच्छी तरह परिचित होने के बावजूद पक्ष-विपक्ष दोनों के कतिपय नेता अंजान बन इस सड़ांध को हवा दे रहे हैं। केन्द्र में सत्ता का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस तो गूंगी, बहरी, अंधी बन इसे सहेज रही है। प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे ने सार्वजनिक रूप से कांग्रेस को निकम्मी-नालायक निरूपित कर शायद सच को चिन्हित कर दिया है। खरे के इस आकलन को क्या कांग्रेसी नेता चुनौती दे सकते हैं कि कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना है। मूल्य-सिद्धांत, सेवा से कोई लेना-देना नहीं। खरे के आकलन पर प्रधानमंत्री के मौन को फिर हम स्वीकारोक्ति क्यों न मान लें?
प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता भी इस 'दुर्गन्ध' के पोषक बन गए हैं। मूल्य आधारित राजनीति करने का दावा करनेवाली भाजपा के वर्तमान नए नेतृत्व को सतर्क रहना होगा। दलदली दिल्ली में मठाधीश की भूमिका में राजनीति करनेवाले कुछ कथित बड़े नेता वही लोग हैं जिनकी निजस्वार्थ राजनीति के कारण सन् 2004 और 2009 में केन्द्रीय सत्ता कांग्रेस नेतृत्व के संप्रग की गोद में अनायास पहुंच गई। इन दोनों चुनावों में भाजपा की हार का कारण इन अहंकारी नेताओं की स्वार्थजनित नीतियां थीं। इन लोगों ने अपने स्वार्थ के आगे पार्टी व देशहित की बलि चढ़ा दी। इनका स्वार्थ नये युवा नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। नितिन गडकरी के रूप में भाजपा को प्राप्त नया राष्ट्रीय अध्यक्ष आशा की लौ तो जगा रहा किन्तु मठाधीशों का अहंकार व षडय़ंत्र पुन: पार्टी की विकास यात्रा के मार्ग में अवरोध पैदा कर रहे हैं। अगर बकौल हरीश खरे कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना है तो भाजपा के इन मठाधीशों का एकमात्र लक्ष्य नितिन गडकरी के 'विजन 2014' को विफलता की खाई में फेंक देना है। हां, यही सच है- कड़वा सच है। पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भाजपा का बंटाढार करने वाले ये मठाधीश भला यह कैसे बर्दाश्त कर लें कि गडकरी की संगठन कुशलता और दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप सन् 2014 में भाजपा को सफलता मिल जाए। इनकी कलई जो खुल जाएगी। अध्यक्ष पद संभालने के पूर्व और पश्चात् इस 'गैंग' ने गडकरी को अनुभवहीन व अकुशल नेता के रूप में प्रचारित करवाने का षडय़ंत्र रचा था। बाद में मीडिया के अपने पिट्ठुओं द्वारा प्रचारित कराया गया कि गडकरी में निर्णयक्षमता का अभाव है। वे मठाधीशों के बंदी हैं। पूरे देश में पार्टी के बीच तालुका स्तर पर इस दुष्प्रचार को पहुंचाया गया। वस्तुत: यह 'गैंग' गडकरी की कार्यक्षमता व बुद्धिमत्ता को कम कर आंक रही थी। गडकरी के नजदीकी आश्वस्त थे कि सही समय पर सही निर्णय लेकर गडकरी पार्टी हित के ग्राफ को ऊपर ले जाएंगे। झारखंड में भाजपा नेतृत्व की सरकार के गठन ने इसे प्रमाणित भी कर दिया। कश्मीर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक में नितिन गडकरी के सकारात्मक विचारों को सुन स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्तब्ध रह गए थे। भाजपा के मठाधीश बेचैन हो उठे। उन्होंने मीडिया में मौजूद अपने पिट्ठुओं की पीठें ठोंकी व उन्हें सक्रिय किया। भाजपा से जुड़े नागपुर के 2-3 व्यापारियों को निशाने पर लेकर दुष्प्रचार कर एक नया अभियान शुरू किया। नितिन गडकरी पर कार्पाेरेट घरानों का हित साधने का घिनौना आरोप लगाया गया। इस अभियान में मीडिया का एक वर्ग अनर्गल बातों को हवा देता रहा। मैं इस तथ्य को चिन्हित यूं ही नहीं कर रहा हूं। सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूंगा। पिछले दिनों जब झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा नागपुर आए थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय जाकर संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात की थी। दिल्ली व अन्य शहरों से प्रकाशित एक बड़े अंग्रेजी दैनिक ने खबर छापी कि जब अर्जुन मुंडा संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने गये थे तब गडकरी के नजदीकी एक उद्योगपति अजय संचेती भी मुंडा के साथ गए थे। बड़ी चालाकी से अखबार ने इस तथ्य को छुपा लिया कि संचेती भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य भी हैं। खबर बिल्कुल झूठी थी। यह दावा इसलिए कि अर्जुन मुंडा के साथ संचेती नहीं बल्कि मैं स्वयं गया था- झारखंड का होने व अपने पुराने व्यक्तिगत संबंधों के कारण, भाजपा या संघ के कारण नहीं। दु:ख व आश्चर्य इस बात का है कि ऐसी खबरें भाजपा का ही एक वर्ग मीडिया में प्लांट करवा रहा है। कारण साफ है, यह वर्ग नितिन गडकरी से भयभीत है। उसे भय है कि अगर नितिन गडकरी की योजना सफल हुई तब सन् 2014 में भाजपा नेतृत्व का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन केंद्रीय सत्ता में वापसी कर लेगा और तब नया युवा नेतृत्व भाजपा व देश को नई दिशा, नई पहचान देने में भी सफल रहेगा। आरंभ से गडकरी को अक्षम व अनुभवहीन करार देते रहने वाले विघ्नसंतोषियों की बेचैनी समझी जा सकती है। बेहतर हो कि नए अध्यक्ष नितिन गडकरी की योजना को क्रियान्वित करने में सहयोगी बनें। उनके विरुद्ध षडय़ंत्र रच बदनाम करने का अभियान त्याग दें। गडकरी जो कुछ कर रहे हैं, पार्टी व देशहित में कर रहे हैं।
प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता भी इस 'दुर्गन्ध' के पोषक बन गए हैं। मूल्य आधारित राजनीति करने का दावा करनेवाली भाजपा के वर्तमान नए नेतृत्व को सतर्क रहना होगा। दलदली दिल्ली में मठाधीश की भूमिका में राजनीति करनेवाले कुछ कथित बड़े नेता वही लोग हैं जिनकी निजस्वार्थ राजनीति के कारण सन् 2004 और 2009 में केन्द्रीय सत्ता कांग्रेस नेतृत्व के संप्रग की गोद में अनायास पहुंच गई। इन दोनों चुनावों में भाजपा की हार का कारण इन अहंकारी नेताओं की स्वार्थजनित नीतियां थीं। इन लोगों ने अपने स्वार्थ के आगे पार्टी व देशहित की बलि चढ़ा दी। इनका स्वार्थ नये युवा नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। नितिन गडकरी के रूप में भाजपा को प्राप्त नया राष्ट्रीय अध्यक्ष आशा की लौ तो जगा रहा किन्तु मठाधीशों का अहंकार व षडय़ंत्र पुन: पार्टी की विकास यात्रा के मार्ग में अवरोध पैदा कर रहे हैं। अगर बकौल हरीश खरे कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना है तो भाजपा के इन मठाधीशों का एकमात्र लक्ष्य नितिन गडकरी के 'विजन 2014' को विफलता की खाई में फेंक देना है। हां, यही सच है- कड़वा सच है। पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भाजपा का बंटाढार करने वाले ये मठाधीश भला यह कैसे बर्दाश्त कर लें कि गडकरी की संगठन कुशलता और दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप सन् 2014 में भाजपा को सफलता मिल जाए। इनकी कलई जो खुल जाएगी। अध्यक्ष पद संभालने के पूर्व और पश्चात् इस 'गैंग' ने गडकरी को अनुभवहीन व अकुशल नेता के रूप में प्रचारित करवाने का षडय़ंत्र रचा था। बाद में मीडिया के अपने पिट्ठुओं द्वारा प्रचारित कराया गया कि गडकरी में निर्णयक्षमता का अभाव है। वे मठाधीशों के बंदी हैं। पूरे देश में पार्टी के बीच तालुका स्तर पर इस दुष्प्रचार को पहुंचाया गया। वस्तुत: यह 'गैंग' गडकरी की कार्यक्षमता व बुद्धिमत्ता को कम कर आंक रही थी। गडकरी के नजदीकी आश्वस्त थे कि सही समय पर सही निर्णय लेकर गडकरी पार्टी हित के ग्राफ को ऊपर ले जाएंगे। झारखंड में भाजपा नेतृत्व की सरकार के गठन ने इसे प्रमाणित भी कर दिया। कश्मीर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक में नितिन गडकरी के सकारात्मक विचारों को सुन स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्तब्ध रह गए थे। भाजपा के मठाधीश बेचैन हो उठे। उन्होंने मीडिया में मौजूद अपने पिट्ठुओं की पीठें ठोंकी व उन्हें सक्रिय किया। भाजपा से जुड़े नागपुर के 2-3 व्यापारियों को निशाने पर लेकर दुष्प्रचार कर एक नया अभियान शुरू किया। नितिन गडकरी पर कार्पाेरेट घरानों का हित साधने का घिनौना आरोप लगाया गया। इस अभियान में मीडिया का एक वर्ग अनर्गल बातों को हवा देता रहा। मैं इस तथ्य को चिन्हित यूं ही नहीं कर रहा हूं। सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूंगा। पिछले दिनों जब झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा नागपुर आए थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय जाकर संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात की थी। दिल्ली व अन्य शहरों से प्रकाशित एक बड़े अंग्रेजी दैनिक ने खबर छापी कि जब अर्जुन मुंडा संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने गये थे तब गडकरी के नजदीकी एक उद्योगपति अजय संचेती भी मुंडा के साथ गए थे। बड़ी चालाकी से अखबार ने इस तथ्य को छुपा लिया कि संचेती भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य भी हैं। खबर बिल्कुल झूठी थी। यह दावा इसलिए कि अर्जुन मुंडा के साथ संचेती नहीं बल्कि मैं स्वयं गया था- झारखंड का होने व अपने पुराने व्यक्तिगत संबंधों के कारण, भाजपा या संघ के कारण नहीं। दु:ख व आश्चर्य इस बात का है कि ऐसी खबरें भाजपा का ही एक वर्ग मीडिया में प्लांट करवा रहा है। कारण साफ है, यह वर्ग नितिन गडकरी से भयभीत है। उसे भय है कि अगर नितिन गडकरी की योजना सफल हुई तब सन् 2014 में भाजपा नेतृत्व का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन केंद्रीय सत्ता में वापसी कर लेगा और तब नया युवा नेतृत्व भाजपा व देश को नई दिशा, नई पहचान देने में भी सफल रहेगा। आरंभ से गडकरी को अक्षम व अनुभवहीन करार देते रहने वाले विघ्नसंतोषियों की बेचैनी समझी जा सकती है। बेहतर हो कि नए अध्यक्ष नितिन गडकरी की योजना को क्रियान्वित करने में सहयोगी बनें। उनके विरुद्ध षडय़ंत्र रच बदनाम करने का अभियान त्याग दें। गडकरी जो कुछ कर रहे हैं, पार्टी व देशहित में कर रहे हैं।
Sunday, August 29, 2010
खतरनाक शिगूफा है 'भगवा आतंकवाद'
राजनीतिक स्वार्थ और लक्ष्य का नया विदू्रप चेहरा अत्यंत ही भयावह है। हिन्दी नहीं जानने-समझने का ऐलान कर चुके केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम को अचानक 'भगवा' का अर्थ कैसे समझ में आ गया? 'हिन्दू आतंकवाद' से आगे बढ़ते हुए 'भगवा आतंकवाद' के चिदंबरम-प्रलाप को फिसलती जुबान या फिर भाषा के प्रति अज्ञानता करार देकर फिर कोई खारिज न करे। यह राजनीतिक स्वार्थ का वह वीभत्स चेहरा है तो प्रकारान्तर में साम्प्रदायिकता का दानव बन तांडव करने लगता है। क्या दोहराने की जरूरत है कि ऐसी अवस्था समाज व देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य व घृणा का जहर घोल देती है। ऐसे में भारत सरकार के गृहमंत्री द्वारा 'भगवा आतंकवाद' का प्रलाप क्यों? यह तो तय है कि चिदंबरम की कोई निजी आकांक्षा या स्वार्थ इस प्रकरण में निहित नहीं है। निश्चय ही या तो उन्हें गुमराह किया गया है या फिर केंद्र रचित किसी बड़ी साजिश के चिदंबरम प्रवक्ता बन गए। हालांकि कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर खुद को चिदंबरम की भगवा टिप्पणी से अलग कर लिया है। किन्तु यह नाकाफी है। चिदंबरम के बयान ने जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी क्षतिपूर्ति तत्काल संभव नहीं है। ध्यान रहे, आज पूरा संसार जिस आतंकवाद से खौफजदा है वह इस्लामिक आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। यह पीड़ादायक है किन्तु सच है कि वैश्विक स्तर पर व्याप्त आतंकवाद के पाश्र्व में इस्लाम अथवा मुस्लिम संप्रदाय ही है। इस बीच भारत में हुए कुछ विस्फोटों में कथित रूप से अंतर्लिप्त कतिपय हिन्दू संगठनों से जुड़े हिन्दू कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। विस्फोटों को अंजाम देने के आरोप इन पर लगे। जाहिर है कि इन्हीं घटनाओं को आधार बना केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम ने 'भगवा आतंकवाद' का शिगूफा छोड़ दिया। यह एक ऐसी गैरजिम्मेदाराना हरकत है जिसे भारत देश सहन नहीं कर सकता। 'मुस्लिम आतंकवाद' के मुकाबले पहले हिन्दू आतंकवाद और अब 'भगवा आतंकवाद' को खड़ा कर मुस्लिम वोट बैंक को साबूत रखने की यह चाल हर दृष्टि से राष्ट्र विरोधी हरकत है। पूरे संसार में आतंकवाद के एक पर्याय के रूप में 'भगवा आतंकवाद' को जन्म देकर चिदंबरम ने देश का अहित किया है, राष्ट्र विरोधी हरकत की है। अगर प्रधानमंत्री अपने इस गैरजिम्मेदार गृहमंत्री के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते तब आम लोगों की इस आशंका को बल मिलेगा कि अकेले चिदंबरम नहीं बल्कि यह साजिश स्वयं भारत सरकार रचित है। जब अलकायदा जैसा खतरनाक आतंकवादी संगठन पुणे के जर्मन बेकरी विस्फोट की सार्वजनिक जिम्मेदारी ले रहा है, भगवा आतंकवाद को खड़ा किया जाना निश्चय ही एक समुदाय विशेष को दूसरे समुदाय विशेष की कीमत पर खुश करने की चाल है। ऐसा तो कभी गुलाम भारत में ब्रिटिश शासक किया करते थे। चिदंबरम ने तो कथित रूप से इस्लाम के खिलाफ खड़े इस्लाम के दुश्मनों को पनाह देने वालों को सबक सिखाने का दंभ भरने वाले ओसामा बिन लादेन के अल कायदा की मदद कर दी है। अगर कांगे्रस अपने इस कथन पर कायम है कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता, तो वह तुरंत चिदंबरम को केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करे। देश में साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने के आरोप में उन्हें दंडित करे। अन्यथा हम यह मानने को मजबूर हो जाएंगे कि चिदंबरम के बयान से स्वयं को अलग करने संबंधी कांग्रेस का बयान दिखावा मात्र है।
Sunday, August 22, 2010
निराश किया राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री ने!
पिछले दिनों ज्यादातर दौरे पर रहा। आपसे रू-ब-रू नहीं हो सका। कुछ परेशानियां, तनाव भी। लेकिन ये सभी आमंत्रित। बौद्धिक आजादी का एकल आंदोलन। समुद्र के किनारे बैठ लहरों को गिनने के समान। मजाक उड़ाया गया। बेवकूफ समझा गया। किसी-किसी ने तो पागल तक करार दिया। लेकिन मैं न तो निराश हूं और न ही हतोत्साहित। आश्वस्त हूँ कि एक पराजित की मौत नहीं मरूंगा। सीमित किंतु ठोस समर्थक धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं। लिखे-बोले पर कहीं-कहीं वैचारिक मंथन शुरू हो चुके हैं। किसी आंदोलन की शुरुआत ऐसी ही तो होती है। एक पग बढ़े तो शनै:-शनै: दो-चार-दस और फिर दर्जन... दर्जन अनुसरण को तत्पर। सो, कोई निराशा नहीं, जारी रहेगा आंदोलन और जारी रहेगा बेबाक-मंथन।
विगत दिनों हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह दोनों ने निराश किया। इन दिनों राष्ट्रकुल खेल की चर्चा जोरों पर है। वैसे चर्चा भ्रष्टाचार की अधिक, खेलों की कम है। मैं जिस निराशा की बात कर रहा हूं उसका संबंध सीधे-सीधे बौद्धिक गुलामी से है। राष्ट्रकुल खेल की चर्चा करनेवाले अमूमन, संभवत: जानबूझकर, इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन का पाश्र्व ही गुलामी अथवा दासतां है। ब्रिटिश गुलामी से मुक्त आजाद भारत अब इन खेलों में शिरकत करता ही क्यों है? इसी से जुड़ा सवाल यह भी कि आखिर कथित राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहें तो क्यों? हम बार-बार स्वयं को गुलाम मानसिकता के भारत के रूप में चिन्हित क्यों करते रहते हैं?
हद तो तब हो गई जब हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल राष्ट्रकुल खेलों की शुरुआत के प्रतीक 'बेटन रिले समारोह' में शरीक होने के लिए ब्रिटेन की महारानी के महल में पहुंच गईं। चाहे कोई कितनी भी सफाई दे, जायज ठहरा दे, ब्रिटेन की महारानी के महल में भारत की राष्ट्रपति की ऐसे समारोह में उपस्थिति से प्रत्येक भारतीय मन आहत हुआ है। बिल्कुल ऐसा लगा जैसे भारत अभी भी 'ब्रिटिश कालोनी' का हिस्सा है। दबी जुबान में ही सही भारतीय जनमानस इस कृत्य को बौद्धिक गुलामी की पुष्टि मान रहा है। इसी गुलामी से मुक्ति चाहते हैं हम। आजाद भारत के आजाद शासक बार-बार देश को शर्मसार न करें।
जम्मू- कश्मीर के बिगड़ते हालात के बीच प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का बयान आया कि घाटी के लिए सीमित स्वायत्तता की संभावना पर विचार किया जा सकता है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक सोच है। देश के एक और विभाजन का पूर्व संकेत है यह। पीड़ा और दु:ख के बीच भयमुक्त मैं इस तथ्य को रेखांकित करना चाहूंगा कि केंद्रीय सत्ता में शामिल किसी भी दल को जनादेश प्राप्त नहीं है कि वह भारत के और टुकड़े की बात करे। जम्मू-कश्मीर को आखिर किस आधार पर सीमित स्वायत्तता की बातें की जा रही हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दानव वहां फल-फूल रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला अर्थात् दादा, बाप और बेटे के शासन को स्थायित्व प्रदान कर दिया जाए? क्या सिर्फ इसलिए कि भारत की ढुलमुल विदेश नीति के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन चुका कथित कश्मीर विवाद का हल ढूंढऩे में हमारे शासक नाकाम रहे हैं? इन सचाइयों के बीच कटु सत्य यह है कि केंद्रीय सत्तापक्ष बिहार सहित अन्य महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाता का समर्थन चाहता है। मुस्लिम तुष्टीकरण की यही खतरनाक प्रवृत्ति है जिसने पूरे समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रखा है। कथित धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़, तुष्टीकरण की इस प्रवृत्ति को ऊर्जा देनेवाले राजदल मुस्लिमों के हितैषी कदापि नहीं हैं। ये तो मुस्लिम मतदाता को वोट बैंक बनाकर सिर्फ उनका 'उपयोग' करना जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का तानाबाना इन्हीं का तो रचा है। मैं बार-बार मुस्लिम समाज से राष्ट्र की मुख्य धारा से जुडऩे का आग्रह इसीलिए करता हूं। वे राजदलों के इस षडय़ंत्र को समझ उन्हें नकार दें। जिस भारतीय लोकतंत्र ने, संविधान ने, सभी संप्रदाय को समान अधिकार दे रखा है, उसकी मूल भावनाओं को समझें। लालच-प्रलोभन से तुष्ट होने की जगह संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रयोग करें। इस देश पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य संप्रदाय के लोगों का। भारतीय मन और भारतीय भावना को अपना संपूर्णता में भारतीय बन जाएं। यह संभव है, शतप्रतिशत संभव है। शर्त यह कि सभी संप्रदाय-वर्ग के लोग धर्म-संप्रदाय से इतर भारत को ही अपना घर, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च समझें।
विगत दिनों हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह दोनों ने निराश किया। इन दिनों राष्ट्रकुल खेल की चर्चा जोरों पर है। वैसे चर्चा भ्रष्टाचार की अधिक, खेलों की कम है। मैं जिस निराशा की बात कर रहा हूं उसका संबंध सीधे-सीधे बौद्धिक गुलामी से है। राष्ट्रकुल खेल की चर्चा करनेवाले अमूमन, संभवत: जानबूझकर, इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन का पाश्र्व ही गुलामी अथवा दासतां है। ब्रिटिश गुलामी से मुक्त आजाद भारत अब इन खेलों में शिरकत करता ही क्यों है? इसी से जुड़ा सवाल यह भी कि आखिर कथित राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहें तो क्यों? हम बार-बार स्वयं को गुलाम मानसिकता के भारत के रूप में चिन्हित क्यों करते रहते हैं?
हद तो तब हो गई जब हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल राष्ट्रकुल खेलों की शुरुआत के प्रतीक 'बेटन रिले समारोह' में शरीक होने के लिए ब्रिटेन की महारानी के महल में पहुंच गईं। चाहे कोई कितनी भी सफाई दे, जायज ठहरा दे, ब्रिटेन की महारानी के महल में भारत की राष्ट्रपति की ऐसे समारोह में उपस्थिति से प्रत्येक भारतीय मन आहत हुआ है। बिल्कुल ऐसा लगा जैसे भारत अभी भी 'ब्रिटिश कालोनी' का हिस्सा है। दबी जुबान में ही सही भारतीय जनमानस इस कृत्य को बौद्धिक गुलामी की पुष्टि मान रहा है। इसी गुलामी से मुक्ति चाहते हैं हम। आजाद भारत के आजाद शासक बार-बार देश को शर्मसार न करें।
जम्मू- कश्मीर के बिगड़ते हालात के बीच प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का बयान आया कि घाटी के लिए सीमित स्वायत्तता की संभावना पर विचार किया जा सकता है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक सोच है। देश के एक और विभाजन का पूर्व संकेत है यह। पीड़ा और दु:ख के बीच भयमुक्त मैं इस तथ्य को रेखांकित करना चाहूंगा कि केंद्रीय सत्ता में शामिल किसी भी दल को जनादेश प्राप्त नहीं है कि वह भारत के और टुकड़े की बात करे। जम्मू-कश्मीर को आखिर किस आधार पर सीमित स्वायत्तता की बातें की जा रही हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दानव वहां फल-फूल रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला अर्थात् दादा, बाप और बेटे के शासन को स्थायित्व प्रदान कर दिया जाए? क्या सिर्फ इसलिए कि भारत की ढुलमुल विदेश नीति के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन चुका कथित कश्मीर विवाद का हल ढूंढऩे में हमारे शासक नाकाम रहे हैं? इन सचाइयों के बीच कटु सत्य यह है कि केंद्रीय सत्तापक्ष बिहार सहित अन्य महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाता का समर्थन चाहता है। मुस्लिम तुष्टीकरण की यही खतरनाक प्रवृत्ति है जिसने पूरे समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रखा है। कथित धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़, तुष्टीकरण की इस प्रवृत्ति को ऊर्जा देनेवाले राजदल मुस्लिमों के हितैषी कदापि नहीं हैं। ये तो मुस्लिम मतदाता को वोट बैंक बनाकर सिर्फ उनका 'उपयोग' करना जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का तानाबाना इन्हीं का तो रचा है। मैं बार-बार मुस्लिम समाज से राष्ट्र की मुख्य धारा से जुडऩे का आग्रह इसीलिए करता हूं। वे राजदलों के इस षडय़ंत्र को समझ उन्हें नकार दें। जिस भारतीय लोकतंत्र ने, संविधान ने, सभी संप्रदाय को समान अधिकार दे रखा है, उसकी मूल भावनाओं को समझें। लालच-प्रलोभन से तुष्ट होने की जगह संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रयोग करें। इस देश पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य संप्रदाय के लोगों का। भारतीय मन और भारतीय भावना को अपना संपूर्णता में भारतीय बन जाएं। यह संभव है, शतप्रतिशत संभव है। शर्त यह कि सभी संप्रदाय-वर्ग के लोग धर्म-संप्रदाय से इतर भारत को ही अपना घर, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च समझें।
Sunday, August 8, 2010
राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ें मुस्लिम!
क्या मुस्लिम समुदाय हमेशा 'वोट बैंक' का कर्जदार बना रहेगा? बंधक बना रहेगा? राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग बना रहेगा? विकास में भागीदारी से दूर रहेगा? अत्यंत ही संवेदनशील व असहज इन सवालों के जवाब चाहिए। सिर्फ जवाब ही नहीं सार्थक और तार्किक परिणति भी चाहिए। एक ऐसा समाधान भी चाहिए जो हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच परस्पर सम्मान और विश्वास को जन्म दे। आजाद भारत में बगैर किसी भेदभाव के हिन्दू-मुस्लिम समानता के आधार पर सम्मानपूर्वक जीवन यापन का अधिकार दे। दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास की रेखा मिटा दे। अब अगर ऐसा नहीं हुआ तो कड़वे वचन के रूप में घोषणा कर दी जा सकती है कि फिर मुस्लिम 'वोट बैंक' स्थायी बंधक बनकर रह जाएंगे। स्वार्थी राजनीतिक तुष्टीकरण की रोटी खिलाकर इन्हें हमेशा हाशिये पर रखने की कोशिश करते रहेंगे। देश-समाज की नजरों में संदिग्ध बनाकर पेश करते रहेंगे। भारत के राष्ट्रीय स्वरूप पर लगा सांप्रदायिकता का पैबंद फिर कभी हट नहीं पाएगा। पहले अंग्रेजों ने और अब स्वार्थी राजनीतिकों ने दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास का बीज बोया और बोते रहे हैं। यह बताया जाता रहा है कि इस्लामी विचारधारा ही वस्तुत: राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। दूसरी ओर मुस्लिम संप्रदाय को विशुद्ध सांप्रदायिकता के आधार पर राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग कर धर्मनिरपेक्षता का ताना-बाना तैयार किया जाता है। मुस्लिमों के लिए तुष्टीकरण के दाने तैयार करने वाले ये छद्मधर्मनिरपेक्षी ही हैं जो 'वोट बैंक' का दिवाला नहीं निकलने देते। इसे समृद्ध बनाए रखते हैं। मुस्लिमों के मन में भय पैदा कर उन्हें अलग-थलग रखने का षडय़ंत्र रचने वाले राजनीतिक इस्लाम के मूल तत्व पर भी परदा डाल देते हैं। दुखद रूप से कतिपय मुस्लिम नेता-संगठन भी, संभवत: असुरक्षा की भावना के कारण, इस्लाम की वास्तविकता की अनदेखी कर जाते हैं। इस सचाई को दरकिनार कर दिया जाता है कि इस्लाम एक सुसंगठित मजहब है। एक पैगंबर हजरत मोहम्मद के द्वारा ईश्वर के इशारे पर बोली गई कुरान पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए एकल आस्था है। मुसलमान कुरान को अल्लाह के वचन मानते हैं। इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे में कुरान की ही इस उक्ति को सतह पर क्यों नहीं आने दिया जाता कि ''सारे मनुष्य एक समुदाय हैं।'' हालांकि इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मनुष्य के एक समुदाय वाली बात को राजनीतिक स्वार्थ में फंसे मुस्लिम धर्म प्रचारक भी जानबूझकर दबा देते हैं। वस्तुत: ये तत्व राजनीतिकों के हाथों में खेलते होते हैं। हालांकि 'एक' ईश्वर की बात करने वाले हिन्दू धर्म प्रचारक भी आदर्श और व्यवहार में फर्क करने लगे हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट बैंक ने पूरी की पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रखा है, मुस्लिम समुदाय को उनके वांछित हक से वंचित कर रखा है। मैं चाहूंगा कि अब और बगैर विलंब के सांप्रदायिकता से दूर मुस्लिम संप्रदाय राष्ट्र की मुख्य धारा का अविभाज्य और महत्वपूर्ण अंग बन जाए। याद दिला दूं कि जब संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष दर्जा का प्रस्ताव आया था तब मोहम्मद करीम छागला ने लगभग रूदन करते हुए संविधान निर्माताओं से विनती की थी कि उन्हें (मुसलमानों को) राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग न किया जाए। अर्थात् समझदार मुस्लिम राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ ही बना रहना चाहता है। भारतीय जनता पार्टी पर भी कथित धर्मनिरपेक्ष तत्व सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन परिवर्तन की बयार में सामने आ भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मुस्लिम समुदाय के विकास के लिए उल्लेखनीय पहल की है। मुस्लिम समाज के विकास और सशक्तिकरण की उनकी पहल को सही परिपे्रक्ष्य मेें लेते हुए निर्णायक कदम उठाए जाएं। गडकरी ने वक्फ संपत्तियों के प्रभावी ढंग से इस्तेमाल का सुझाव दिया है। उनके अनुसार 1.20 लाख करोड़ की वक्फ संपत्ति का सही इस्तेमाल किया जाए तो तकरीबन 12 हजार करोड़ रु. की वार्षिक आमदनी हो सकती है। यह एक बहुत बड़ी राशि है। इसका सही इस्तेमाल कर मुस्लिम समुदाय के आर्थिक और सामाजिक विकास के क्षेत्र में क्रांति लाई जा सकती है। समुदाय की जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है। रोजगार के नए-नए द्वार खुल सकते हैं। राजनीतिक शंकाओं की पर्वाह न करते हुए गडकरी ने जब ऐसी पहल की है तब मुस्लिम समुदाय इस अवसर को हाथ से न निकलने दे। तुष्टीकरण और 'वोट बैंक' की राजनीति करने वाले तत्वों को दरकिनार कर गडकरी के सुझावों पर अमल करे। इससे समुदाय का विकास तो होगा ही, दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास की रेखा मिटेगी, विश्वास का नया इतिहास रचेगा। यह सब संभव है बशर्ते दोनों संप्रदाय पूर्वाग्रह और कुंठाओं को दफना दें।
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