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Saturday, April 4, 2009

टाइटलर मुक्त, सीबीआई कटघरे में!


1984 में सिख विरोधी दंगों के एक वीआईपी अभियुक्त जगदीश टाइटलर को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने क्लीन चिट दे दी है. होना तो यह चाहिए था कि देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी के इस कदम के बाद कोई बहस न हो. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. स्वयं दिल्ली का एक बहुत बड़ा वर्ग टाइटलर को 'बेकसूर' मानने को तैयार नहीं. सीबीआई द्वारा अदालत में दाखिल रिपोर्ट को लोग सही मानने को तैयार नहीं. हो सकता है, ऐसी सोच वाला वर्ग गलत हो. फिर भी इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि टाइटलर के मामले में सीबीआई की भूमिका संदिग्ध है. 'कानून में समानता' का बुनियादी सिद्धांत एक बार फिर तार-तार होता दिख रहा है. जिस जसबीर सिंह के आरोपों को सीबीआई ने अविश्वसनीय व बेकार मान खारिज कर दिया है, उनके आरोपों पर गौर करें. अब कैलिर्फोनिया (अमेरिका) में बसे जसबीर ने हलफनामा दाखिल कर बताया था कि 3 नवंबर 1984 को उन्होंने दिल्ली के सदर इलाके में टाइटलर को दंगाई भीड़ से यह कहते हुए सुना था कि ''.... यहां इतने कम लोग क्यों मारे गए?.... दूसरे इलाके में तो काफी लोग मारे गए.'' कहते हैं कि अपनी रक्षा के लिए जसबीर सिंह सपरिवार अमेरिका चले गए. बाद में ऐसी खबर आई थी कि पर्याप्त सुरक्षा मिलने पर वे गवाही देने को तैयार हैं. कोर्ट के आदेश पर सीबीआई अधिकारी अमेरिका तो गए, किंतु उनके द्वारा दाखिल रिपोर्ट से लोग भौंचक हैं. मामले का सर्वाधिक आश्चर्यजनक पहलू तो सीबीआई रिपोर्ट का 'लीक' होना है. सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट बंद लिफाफे में गुरुवार को अदालत में पेश की. लेकिन मंगलवार को ही मीडिया में यह खबर प्रसारित हो चुकी थी कि सीबीआई ने टाइटलर को क्लीन चिट दे दी है. गुरुवार को अदालत में लिफाफा खुलने पर मीडिया की खबर सच साबित हुई. क्या यह सीबीआई की कार्यप्रणाली पर शक पैदा नहीं करता? पूरे मामले पर गौर करें. सीबीआई कटघरे में खड़ी मिलेगी. 1984 के सिख विरोधी दंगों की जांच के लिए गठित नानावटी आयोग की सिफारिश पर सीबीआई ने टाइटलर के विरुद्ध मामला दर्ज किया था. जसबीर सिंह ने आयोग के समक्ष उपस्थित होकर टाइटलर के ऊपर रोंगटे खड़े करने वाले आरोप लगाए थे. नानावटी आयोग ने जसबीर की गवाही पर संज्ञान लिया था. सीबीआई ने जांच में टाइटलर को निर्दोष पाया. 29 सितंबर 2007 को सीबीआई ने टाइटलर के विरुद्ध मामले को बंद करने की इजाजत अदालत से मांगी. सीबीआई का कहना था कि दंगों में टाइटलर की लिप्तता का कोई प्रमाण नहीं है. सीबीआई के अनुसार गवाह जसबीर सिंह का कोई अता-पता नहीं मिला. लेकिन इस बीच एक समाचार पत्र ने अमेरिका में जसबीर सिंह के टेलीफोन नंबर के साथ उनसे हुई बातचीत के अंश प्रकाशित कर दिए. जिस जसबीर सिंह को सीबीआई 'बेपता' बता रही थी, उसे समाचार पत्र ने सामने खड़ा कर दिया. अदालती हस्तक्षेप के बाद सीबीआई जसबीर सिंह से पूछताछ के लिए अमेरिका तो गई, किंतु अपनी रिपोर्ट में उसे अविश्वसनीय और बेकार घोषित कर डाला. पूरे मामले से जनता के बीच यही संदेश गया कि सत्ता से जुड़े रसूखदार गंभीर आरोपों के बावजूद बच निकलते हैं- सीबीआई उन्हें बचा लेती है. जगदीश टाइटलर इसके ताजा उदाहरण हैं. यह खेदजनक है कि एक बार फिर सीबीआई की प्रतिष्ठा दागदार हुई है. इस संदर्भ में सिखों के कत्लेआम में शामिल 89 लोगों के खिलाफ आदेश देने वाले अतिरिक्त सेशन जज शिवनारायण धिंगड़ा के शब्दों पर गौर करें. 27 अगस्त 1996 को आदेश जारी करते हुए धिंगड़ा ने टिप्पणी की थी कि ''कानून में समानता के जो बुनियादी सिद्धांत संविधान में निरूपति हैं, वे देश में अब बेअसर हो चुके हैं.... अमीर-असरदार लोगों के खिलाफ मामले या तो अदालतों तक पहुंचते ही नहीं हैं और अगर पहुंचते भी हैं तो कभी-कभार एकाध मामले में ही सुनवाई हो पाती है. इनमें भी पीडि़तों की आवाज अनसुनी होकर रह जाती है. आपराधिक न्याय व्यवस्था ने पीडि़तों की मदद करने से ज्यादा उन्हें चोट पहुंचाई है.'' तो क्या सिख विरोधी दंगों के पीडि़तों की आवाजें भी हमेशा के लिए दबी रह जाएंगी? समान न्याय का बुनियादी सिद्धांत बेकार की 'वस्तु' बनी रहेगी? असरदार समाज और कानून को ठेंगा दिखा अट्टहास करने को स्वतंत्र रहेंगे? समाज- लोकतांत्रिक भारत के विशाल समाज- के इन सवालों का समाधानकारक जवाब कोई कभी देगा?

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