
देर आयद दुरुस्त आयद. कांग्रेस नेतृत्व को साधुवाद कि उसने जनभावना का सम्मान किया. यह दीगर है कि आम चुनावों ने पार्टी को मजबूर किया है. बावजूद इसके एक अर्से बाद 'जनभावना' के आदर पर मन तो प्रफुल्लित होंगे ही. भारत का जन-मन आज मुदित है. 1984 में सिख विरोधी दंगों के दो आरोपी दिग्गज कांग्रेसी जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को दी गई टिकट कांग्रेस ने वापस ले ली. खबर मिली थी कि सीबीआई ने अपनी जांच रिपोर्ट में टाइटलर को 'बेदाग' निरूपित किया है. हालांकि जांच रिपोर्ट एक बंद लिफाफे में अभी भी अदालत के पास लंबित है, सीबीआई सूत्रों के हवाले से ही मीडिया ने ऐसी खबर दे दी थी. सिख दंगों के पीडि़त ही नहीं, सिख समुदाय भी आहत हुआ. गुरुवार को जब दिल्ली की एक अदालत में टाइटलर के मामले की सुनवाई होनी थी, सिखों का उग्र प्रदर्शन सामने आया. देश भर की प्रतिक्रियाओं से यह संकेत साफ-साफ मिल गया कि अगर टाइटलर को चुनाव लडऩे की अनुमति कांग्रेस देती है, तब पार्टी को खामियाजा भुगतना पड़ेगा. पार्टी नेतृत्व की नींद टूटी और उसने न केवल टाइटलर, बल्कि दंगों के एक अन्य आरोपी सज्जन कुमार को भी चुनाव लडऩे से इनकार कर दिया. कांग्रेस को भय था कि अगर इन दोनों को चुनाव लडऩे की अनुमति दी गई, तब न केवल ये 2 सीटें, बल्कि अन्य 10-12 सीटें प्रतिकूल रूप से प्रभावित होंगी. 'करो या मरो' की चुनावी लड़ाई में भला कांग्रेस नेतृत्व यह खतरा क्यों मोल लेता! टाइटलर-सज्जन को कुर्बानी की बेदी पर चढ़ा दिया गया. लेकिन क्या सिख आक्रोश कांग्रेस के इस कदम से दब जाएगा? कदापि नहीं. पिछले 25 वर्षों से दंगा पीडि़त और सिख समुदाय न्याय के लिए प्रतीक्षारत है. 31 अक्तूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही सिख सुरक्षाकर्मियों ने कर दी थी. नतीजतन 31 अक्तूबर की शाम से 3 नवंबर 1984 तक राजधानी दिल्ली में योजनाबद्ध तरीके से सैकड़ों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया. हत्या, लूट, आगजनी और बलात्कार का एक बेहद क्रूर व घिनौना दौर तब चला था. सर्वाधिक शर्मनाक तो पुलिस व अन्य अधिकारियों की भूमिका थी. दंगे के दौरान वे सिर्फ मूक-दर्शक बने रहे थे. नेतागण भीड़ को उकसा रहे थे. कुछ इतना कि दंगा देश के अन्य शहरों में भी फैल गया. सरकारी आंकड़े के अनुसार ही लगभग 4,000 सिख मौत के घाट उतार दिए गए थे. इस बीच सरकार की भूमिका? सिख समुदाय और देश यह देखकर स्तब्ध था कि दंगों में शामिल अनेक नेता तो राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे. घटना के 12 वर्षों बाद 27 अगस्त 1996 को सिख विरोधी दंगों में शामिल 89 लोगों को सजा सुनाते समय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश शिवनारायण धिंगड़ा ने दंगे की सचाई को स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया था. उन्होंने अपने आदेश में कहा था कि 'यह अपने राजनीतिक आकाओं के आदेश पर पुलिस द्वारा दिखाई गई उदासीनता यानि दंगों के समय सरकार की अकर्मण्यता का मामला ही नहीं था, बल्कि उसके बाद भी सरकार का व्यवहार मारे गए लोगों के प्रति उसकी उदासीनता का परिचायक था. सरकार नागरिकों की रक्षा का अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी निभाने में असफल रही. साफ पता चलता है कि पुलिस दंगाइयों के साथ मिली हुई थी.' उन्हीं सफेदपोश नेताओं में से एक जगदीश टाइटलर को अगर सीबीआई क्लीन चिट देती है (जैसी कि खबर है) और कांग्रेस चुनाव लडऩे के लिए टिकट, तब समाज में उबाल तो आएगा ही. टिकट वापस लेकर कांग्रेस ने अपने विरुद्ध आक्रोश को कम करने की कोशिश की है. लेकिन यह काफी नहीं. 1984 की भूल का सही पश्चाताप तभी होगा, जब दंगों के आरोपियों को अर्थात् 4,000 सिखों के हत्यारों को वही सजा मिले, जो इंदिरा गांधी के हत्यारों को मिली थी. सरकार की 'नीयत' तब तक कसौटी पर रहेगी.
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