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Sunday, April 4, 2010

'बाजार' नहीं बनने दूंगा!

क्या समझौता, आत्मसमर्पण और चाटुकारिता की आत्मघाती तिकड़ी के समक्ष मूल्य, सिद्धांत और प्रतिबद्धता का पवित्र मीनार नतमस्तक हो जाए? ऐसा पुनर्मंथन इसलिए कि मेरे अनेक पुराने मित्र, शुभचिंतक इस बहस के लिए मजबूर कर देते हैं। पिछले दिन रांची-दिल्ली में था। पहले रांची में मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने और अगले दिन दिल्ली में पुराने मित्र-शुभचिंतक केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने पूछ डाला कि - 'विनोदजी, आपकी यह यात्रा कब खत्म होगी?' सहाय ने तीन वर्ष पूर्व भी यह सवाल तब पूछा था जब मैंने न्यूज चैनल 'इंडिया न्यूज' में संपादक का पदभार संभाला था। कुछ ऐसी ही जिज्ञासा 'लोकमत समाचार' पत्र-समूह के अध्यक्ष सांसद विजय दर्डा ने सन् 2006 के मध्य में तब प्रकट की थी जब मैं नागपुर से दिल्ली गया था। उन्होंने पत्र लिखकर पूछा था कि ''.... जीवन में सबकुछ अपने मन मुताबिक नहीं होता विनोदजी। 'मन' अपना होता है और 'जग', जिस पर हम दूर से अपना अधिकार बताते हैं, वह किसका हुआ है जो आपका होगा? फिर क्यों 'मृगजल' की ओर आप भाग रहे हैं?'' सुबोधजी द्वारा पुन: इस सवाल के खड़ा किए जाने से मेरा मन पूर्व की ओर फिर व्यथित हो उठा। बार-बार जवाब को दोहराने की मजबूरी के बीच सुकून ढूंढ लेता हूं। अब यह किस-किस को कितनी बार बताता चलूं कि मैं पत्रकारिता की उन ऊंचाइयों को ढूंढता रहा हूं जिन्हें मैं बचपन में ही देख चुका हूं.... फिर यात्रा समाप्त हो तो कैसे? पत्रकारिता की वर्तमान दशा-दिशा से व्यथित होकर मैं समझौते को तैयार नहीं हूं। मूल्य-सिद्धांत और 'मिशन' की प्रतिबद्धता मेरे लिए सवोच्च है। सुबोधजी की ताजा जिज्ञासा इस 'दैनिक 1857' के प्रकाशन को लेकर थी। उनकी बेचैनी मैं समझ सकता हूं। एक सच्चे शुभचिंतक के नाते वे बेचैन थे। लेकिन जब लक्ष्य तय कर दिया तो फिर उस मुकाम पर पहुंचने की जिद से पीछे कैसे? सुबोधजी ने मेरे 'जीवट' को रेखांकित किया। हां, यह मेरी पूंजी है। और पूंजी है मेरा आत्मबल, मेरा आत्मविश्वास। लक्ष्य और लालसा है एक तटस्थ पाठकीय मंच की। एक ऐसा मंच जहां से सच और साहस प्रस्फुटित हो। लुप्त होती पत्रकारीय विश्वसनीयता जाज्वल्यमान हो। कलम पर कलंक न लगे। सच सुरक्षित रहे, साहस कायम रहे। संदेह की परछाई पाठकों के पास न फटके। राह कठिन तो है किन्तु इसे सुगम बनाने के प्रति कृतसंकल्प हूं। पत्रकारिता में अनेक विषाणुओं के प्रवेश के बावजूद नैतिकता एवं मूल्य पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं। दबाव एवं प्रलोभन के बावजूद युवा पत्रकारों की एक बड़ी फौज पाठकीय व सामाजिक हित के प्रति समर्पित है। यह वर्ग बिकने को तैयार नहीं। ऐसे में भला कोई निराश कैसे होगा? हां, यह ठीक है कि बाजार के दबाव व पूंजी के महत्व के बीच पत्रकारीय अपेक्षा की पूर्ति दिन-ब-दिन कठिन होती जा रही है। किन्तु मैं अपनी इस मान्यता पर कायम हूं कि बाजार और पूंजी के दबाव के बावजूद ऐसी विषम स्थिति का मुकाबला किया जा सकता है। उदाहरण मौजूद हैं कि पूंजीपतियों के अखबार भी बंद हो चुके हैं। अंबानी घराने का दैनिक 'बिजनेस एंड पालिटिकल आब्जर्वर', साप्ताहिक 'संडे आब्जर्वर' तथा रेमंड्स ग्रुप (सिंघानिया) का दैनिक 'इंडियन पोस्ट' बंद हो चुके हैं। प्रसंगवश दैनिक 'द इंडिपेंडेंट' का उदाहरण भी मौजूद है। इस अखबार का मुंबई से प्रकाशन टाइम्स आफ इंडिया के समीर जैन ने ही शुरू किया था। अपनी जिद में एक नई पृथक कल्पना के साथ अपने ही 'टाइम्स आफ इंडिया' के मुकाबले इस अंग्रेजी दैनिक को खड़ा किया था। अंतत: 'द इंडिपेंडेंट' अकाल मृत्यु का शिकार हुआ। निश्चय ही ये उदाहरण प्रमाण हैं कि अखबार सिर्फ बड़ी पूंजी से ही नहीं चलते। आपका यह अखबार भी इसी तथ्य के पाश्र्व में निकला है। इसका पूंजीधारक विशाल पाठकवर्ग है। संरक्षण का कवच उसने ही प्रदान कर रखा है। उनकी अपेक्षा और विश्वास के साथ ही मेरी यात्रा जारी है। जिस दिन लक्ष्य पर पहुंच जाऊंगा, यात्रा स्वत: समाप्त हो जाएगी। तब तक पत्रकारिता को 'बाजार' बनने से रोकने के लिए अपनी ऊर्जा व्यय करता रहंूगा।

2 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

अच्छी बात है. बधाई और शुभकामनाय़ें यही जज्बा औरों में भी आये..

Bhavesh (भावेश ) said...

काश इसी तरह का जज्बा इस देश के मुट्ठीभर और पत्रकारों में भी आ जाये तो देश को सही राह पकड़ते देर नहीं लगेगी.