क्या सत्ता में बने रहने का एकमात्र मार्ग अवसरवादी अनैतिक समझौता है? यह सवाल आज हृदय को वेध रहा है। देश के एक सामान्य नागरिक के रूप में मेरे सरीखे अनेक लोग इस सवाल का ईमानदार जवाब चाहेंगे। हां, ईमानदार जवाब चाहिए। क्या कोई जवाब के लिए आगे आएगा? 'हमाम में तो सभी नंगे' एक मुहावरा है। लेकिन ऐसा क्यों कि आज राजनीति का अखाड़ा हो, खेल का मैदान हो, व्यवसाय का दालान हो, शिक्षा का प्रांगण हो, उद्योग का विशाल परिसर हो या फिर मनोरंजन का महत्व, सभी जगह घोर निजी स्वार्थ से उपजा 'पाप' पूरी आभा के साथ विराजमान है। 'पाप' के साथ आभा जोडऩे के लिए क्षमा करेंगे। लेकिन ऐसे पापों के जनक और पोषकों को जब समाज में महिमा मंडित होते देखता हूं तब ऐसी मजबूरी पैदा हो जाती है। सर्वाधिक पीड़ादायक तथ्य यह कि ऐसे सभी पापों के सूत्र राजनीति से जुड़े होते हैं। राजनीति अर्थात्ï सत्ता की राजनीति-सत्ता वासना की पूर्ति के लिए 'पाप' की राजनीति। राजनीतिक समझौते व समर्पण निश्चय ही प्रतिदिन पाप को जन्म दे रहे हैं। सुशिक्षित-सभ्य समाज की अवधारणा को मुंह चिढ़ाने वाले आज के राजनीतिक तो समाज व देशसेवा की परिभाषा ही बदलने में जुट गए हैं। पिछले कुछ दिनों से चर्चित क्रिकेट महाघोटाले में जब सत्ता में मौजूद बड़े नाम बेनकाब होने लगे तब उनके बचाव के लिए समझौते का नया खेल शुरू हुआ। साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाई जा रही है। सिर्फ इसलिए कि कहीं सत्ता सिंहासन खिसक न जाए। दिखाने के लिए एक कनिष्ठ राज्यमंत्री शशि थरूर की बलि ले ली गई। लेकिन उनसे कहीं अधिक दोषी कद्दावर मंत्रियों पर हाथ डालने की हिम्मत प्रधानमंत्री नहीं जुटा पा रहे हैं। क्या सिर्फ इस भय से नहीं कि ऐसा करने पर सरकार का पतन हो सकता है? बिल्कुल इसीलिए। सत्ता देवी को अंकशायनी बनाए रखने के लिए वही समझौता। क्रिकेट प्रबंधन के बड़े खिलाड़ी ललित मोदी अपनी जुबान खोल देने की धमकियां देकर भयादोहन को रेखांकित कर रहे हैं। भारत का पूरा का पूरा क्रिकेट प्रबंधन नंगा होने के भय से मोदी को मौन रखने के हर हथकंडे अपना रहा है। आयकर प्रर्वतन निदेशालय, पुलिस आदि सरकारी यंत्रणाओं का इस्तेमाल कर डराने-धमकाने की कोशिश और क्रिकेट की लुभावनी दुनिया में कायम रखने का प्रलोभन। फिर वही अवसरवादी उपक्रम! बता दूं कि इस पूरे के पूरे नाटक में नायक-नायिका, खलनायिका, विदूषक सभी के सूत्र सत्ता की राजनीति से जुड़े हैं। जी हां! अगर निष्पक्ष-ईमानदार जांच हो तो यह सच अनावृत हो जाएगा।
एक और अवसरवादी राजनीतिक पाप की दास्तान, वह भी सत्ता में बने रहने के लिए। कांग्रेस के नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के साथ एक 'प्रेम करार' किया है। अंग्रजी में इसे 'लव डील' कहते हैं। पूरी तरह अवसरवादी भाजपा व वामपंथी दलों के प्रस्तावित वित्त विधेयक पर संसद में कटौती प्रस्ताव पर मतदान की स्थिति में मायावती की बहुजन समाज पार्टी के 21 विधायक अनुपस्थित रहेंगे। सरकार बच जाएगी, एवज में मायावती के ऊपर चल रहे भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में केंद्र सरकार उन्हें राहत देगी। अर्थात्ï भ्रष्ट मायावती भी बच जाएंगी। सत्ता में बने रहने के लिए लेन देन के ऐसे पाप के उदाहरणों से भारतीय राजनीति का इतिहास पटा हुआ है। मनमोहन सिंह की पिछली सरकार जब अमेरिका के साथ परमाणु करार ऊर्जा के मुद्दे पर पतन के मुहाने पर पहुंच चुकी थी तब सत्ता पक्ष के प्रबंधकों ने समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह को ऐसे ही अपने पक्ष में कर लिया था। फिर वही सवाल जेहन में कौंध जाता है कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में क्या पक्ष और विपक्ष, दोनों मिलकर मतदाता अर्थात्ï देश के साथ विश्वासघात नहीं कर रहे हैं? हां यह देश और देश के लोकतंत्र के साथ विश्वासघात ही है। अगर यह 'पाप' वर्तमान का शाश्वत सत्य बन चुका है तब क्यों न शब्दकोष से सत्य, ईमानदारी, निष्ठा, विश्वास, मूल्य, नैतिकता आदि को निकाल फेंकें? क्या जरूरत है इनकी? जब देश को लूट रहे भ्रष्ट अवसरवादी ही देश की सत्ता पर काबिज होते रहेंगे, तब इन शब्दों की मौजूदगी के क्या औचित्य! लोकतंत्र के नाम पर 'लोक' के साथ विश्वासघात का 'पाप' अस्थायी वेदना देता रहेगा।
2 comments:
नंगे होते फिर भी ठीक थे, ये तो नंगेपन को उचित ठहरा रहे हैं और कपड़े पहने लोगों को बीमार बताने पर उतारू हैं..
लोकतंत्र के नाम पर देश और जनता को बेवकूफ बनाकर लूटने का खेल अबाध रूप से जारी है. इस तरह के लोकतंत्र से तो अराजकता बेहतर है. वह कम से कम लोगों को अपना हक़ छीनने के लिए मजबूर तो करती है. यहाँ तो 'लोकतंत्र' की अफीम देकर सबको सुला दिया गया है. बड़ा रंगीन मुगालता है यह........
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