केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम इस कड़वे सच को स्वीकार कर लें कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 6 अप्रैल 2010 की सुबह 76 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के जवानों की नक्सलियों के हाथों मौत के लिये वे सीधे जिम्मेदार हैं। दंतेवाड़ा के इस नरसंहार को 'बर्बर' बताने वाले चिदंबरम निश्चय ही 'कायर' शब्द के अर्थ को जानते होंगे। अगर नहीं, तो उन्हें गृहमंत्री पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। वैसे भी इस बर्बर कांड के बाद उन्हें स्वयं ही इस्तीफा दे देना चाहिए। नक्सलियों के इस दुस्साहस को सरकार किस रूप में लेती है, इस पर कौन सी कार्रवाई करती है, इसकी प्रतीक्षा रहेगी। बहरहाल जो सच रेखांकित हुआ है वह यह कि नक्सलियों की यह कार्रवाई केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम के उस बयान की परिणति है जिसमें उन्होंने नक्सलियों को कायर (डरपोक) निरूपित किया था। अब पूरा देश चिदंबरम के बयान पर क्रोधित है। केंद्रीय गृहमंत्री को ऐसा भड़कानेवाला बयान नहीं देना चाहिए था। देश में बढ़ते नक्सली प्रभाव पर काबू पाने का यह 'चिदंबरम तरीका' स्वीकार्य नहीं है।
एक ओर जब नक्सली खुलेआम घोषणा कर रहे हैं कि सन् 2050 तक वे देश की केंद्रीय सत्ता पर कब्जा कर लेंगे, केंद्रीय गृहमंत्री के भड़काऊ बयान को एक 'अपरिपक्व मस्तिष्क की उपज' की श्रेणी में डाला जाएगा। गंभीर नक्सली चुनौती का गंभीर-कारगर उपायों से सामना किया जाना चाहिए, ना कि बचकाने राजनीतिक बयानों से। देश के अनेक राज्य आज नक्सली आतंक के साये में हैं। केंद्र सरकार के साथ-साथ प्रभावित राज्य सरकारें भी विशेष योजना बनाकर इन्हें समाप्त करने में जुटी हैं। बंदूकों के साथ-साथ आपसी बातचीत के जरिये भी समस्या समाधान के उपाय ढूंढे जा रहे हैं। यह तो निर्विवाद है कि नक्सल समस्या एक सामाजिक समस्या है, इसका निदान समस्या के कारणों को चिन्हित कर निराकरण से ही संभव है। बंदूक स्थायी हल नहीं हो सकते। नक्सल इतिहास के जानकार पुष्टि करेंगे कि हथियारों के जरिये सामाजिक शोषण व अन्याय से मुक्ति का रास्ता नक्सलियों ने कथित तौर से अंतिम उपाय के रूप में अपनाया है। इसकी सचाई पर बहस हो सकती है किंतु संपूर्णता में इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। चिदंबरम नक्सलियों को डरपोक बताते समय यह भूल गये कि उनके शब्द प्रति उत्पादक सिद्ध होंगे और नक्सली अपनी कथित 'कायरता' को गलत साबित करने के लिये 'बर्बर' बन जाएंगे।
गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम बिल्कुल अयोग्य साबित हो रहे हैं। एक व्यक्ति के रूप में उनकी सज्जनता और एक शासक के रूप में वांछित योग्यता असंदिग्ध है। फिर उन्होंने ऐसी बचकानी हरकत कैसे कर डाली? या तो उनके मस्तिष्क में अहंकार प्रवेश कर चुका है या फिर वे भी उस बड़बोलेपन के शिकार हो चुके हैं, जिसके लक्षण केंद्रीय मंत्रिमंडल के अनेक मंत्रियों में इन दिनों पाए गए हैं।
शरद पवार, ममता बनर्जी, शशि थरूर, एन. कृष्णा, मणिशंकर अय्यर, रमेश जयराम आदि मंत्रीगण अपने घोर गैरजिम्मेदार बयानों के लिये कुख्यात हो चुके हैं। हर कोई 'अपनी डफली, अपना राग' की तर्ज पर बयानबाजी कर रहा है। मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा को चुनौती देते हुए ये कभी सरकार की नीतियों का मखौल उड़ाते हैं तो कभी अपने सहयोगियों की कार्यप्रणाली का। स्वयं को दूसरे से अधिक ज्ञानी साबित करने की होड़ में यह प्राय: भूल जाते हैं कि वे भारत सरकार के एक मंत्री हैं, उनकी सामूहिक जिम्मेदारी है, सरकार की नीतियों को क्रियान्वित करने के लिये वे शपथबद्ध हैं। इसके बावजूद जब वे प्रतिकूल आचरण करते दिख रहे हैं, तब निश्चय ही वे अहंकार ग्रसित हो चुके हैं। यही वह अहंकार था, जिसके वशिभूत केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम ने नक्सलियों को कायर करार दे आफत मोल ली। राजधर्म का निर्वहन आसान नहीं होता। इस कसौटी पर अयोग्य पात्र को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिलना चाहिए।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह क्या कभी इस पात्रता के मर्म को समझ पाएंगे? राजधर्म की चुनौती उनके सामने भी है, बल्कि उन पर ज्यादा है। दंतेवाड़ा नरसंहार के बाद अगर गृहमंत्री पी. चिदंबरम नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नहीं देते, तब स्वयं प्रधानमंत्री कार्रवाई करें। तत्काल पी. चिदंबरम से इस्तीफा ले लें, अन्यथा चुनौती स्वयं उनकी पात्रता को ही मिलेगी।
2 comments:
सही लिखा है. यही टिप्पणी शिवजी के ब्लाग पर की है, दुहराता हूं>
बुद्धिजीवी मतलब बुद्धि बेच कर जीने वाला...
पूरे देश में नक्सल वाद फैलने वाला है और देश गृहयुद्ध की भट्टी में जलने वाला है..
शोषण, पक्षपात, अन्याय, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नेताओं का देश को विध्वंस करने का रवैया
अफसरों का राजाओं जैसा व्यवहार
कानून को पंगु बनाने वाले लोग...
माननीय बहुत जल्द यह पूरे देश में फैलेगा बस चेहरे अलग होंगे.
हत्यारों को पहचान पाना अब बड़ा मुश्किल है/ अक्सर वह विचारधारा की खाल ओढ़े मंडराते रहते है राजधानियों में या फिर गाँव-खेड़े या कहीं और../ लेते है सभाएं कि बदलनी है यह व्यवस्था दिलाना है इन्साफ.../ हत्यारे बड़े चालाक होते है/खादी के मैले-कुचैले कपडे पहन कर वे/ कुछ इस मसीहाई अंदाज से आते है/ कि लगता है महात्मा गांधी के बाद सीधे/ये ही अवतरित हुए है इस धरा पर/ कि अब ये बदल कर रख देंगे सिस्टम को/ कि अब हो जायेगी क्रान्ति/ कि अब होने वाला ही है समाजवाद का आगाज़/ ये तो बहुत दिनों के बाद पता चलता है कि/ वे जो खादी के फटे कुरते-पायजामे में टहल रहे थे/और जो किसी पंचतारा होटल में रुके थे हत्यारे थे./ ये वे ही लोग हैं जो दो-चार दिन बाद / किसी का बहता हुआ लहू न देखे/ साम्यवाद पर कविता ही नहीं लिख पते/ समलैंगिकता के समर्थन में भी खड़े होने के पहले ये एकाध 'ब्लास्ट'' मंगाते ही माँगते है/ कहीं भी..कभी भी..../ हत्यारे विचारधारा के जुमलों को/ कुछ इस तरह रट चुकते है कि/ दो साल के बच्चे का गला काटते हुए भी वे कह सकते है / माओ जिंदाबाद.../ चाओ जिंदाबाद.../ फाओ जिंदाबाद.../ या कोई और जिंदाबाद./ हत्यारे बड़े कमाल के होते हैं/ कि वे हत्यारे तो लगते ही नहीं/ कि वे कभी-कभी किसी विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले/ छात्र लगते है या फिर/ तथाकथित ''फेक'' या कहें कि निष्प्राण-सी कविता के / बिम्ब में समाये हुए अर्थो के ब्रह्माण्ड में/ विचरने वाले किसी अज्ञातलोक के प्राणी./ हत्यारे हिन्दी बोलते हैं/ हत्यारे अंगरेजी बोल सकते हैं/ हत्यारे तेलुगु या ओडिया या कोई भी भाषा बोल सकते है/ लेकिन हर भाषा में क्रांति का एक ही अर्थ होता है/ हत्या...हत्या...और सिर्फ ह्त्या.../ हत्यारे को पहचानना बड़ा कठिन है/ जैसे पहचान में नहीं आती सरकारें/ समझ में नहीं आती पुलिस/उसी तरह पहचान में नहीं आते हत्यारे/ आज़ाद देश में दीमक की तरह इंसानियत को चाट रहे/ लोगों को पहचान पाना इस दौर का सबसे बड़ा संकट है/ बस यही सोच कर हम गांधी को याद करते है कि/ वह एक लंगोटीधारी नया संत/ कब घुसेगा हत्यारों के दिमागों में/ कि क्रान्ति ख़ून फैलाने से नहीं आती/ कि क्रान्ति जंगल-जंगल अपराधियों-सा भटकने से नहीं आती / क्रांति आती है तो खुद की जान देने से/ क्रांति करुणा की कोख से पैदा होती है/ क्रांति प्यार के आँगन में बड़ी होती है/ क्रांति सहयोग के सहारे खड़ी होती है/ लेकिन सवाल यही है कि दुर्बुद्धि की गर्त में गिरे/ बुद्धिजीवियों को कोई समझाये तो कैसे/ कि भाई मेरे क्रान्ति का रंग अब लाल नहीं सफ़ेद होता है/ अपनी जान देने से बड़ी क्रांति हो नहीं सकती/ और दूसरो की जान लेकर क्रांति करने से भी बड़ी/ कोई भ्रान्ति हो नहीं सकती./ लेकिन जब खून का रंग ही बौद्धिकता को रस देने लगे तो/ कोई क्या कर सकता है/ सिवाय आँसू बहाने के/ सिवाय अफसोस जाहिर करने कि कितने बदचलन हो गए है क्रांति के ये ढाई आखर जो अकसर बलि माँगते हैं/ अपने ही लोगों की/ कुल मिला कर अगर यही है नक्सलवाद/ तो कहना ही पड़ेगा-/ नक्सलवाद...हो बर्बाद/ नक्सलवाद...हो बर्बाद/ प्यार मोहब्बत हो आबाद/ नक्सलवाद...हो बर्बाद....
vinodji, aap chahe to yah kavitaa akhbaar me bhi de sakate hai,
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