Saturday, April 10, 2010
चिदंबरम के इस्तीफे का नाटक और मीडिया!
अब चाहे इसे देर आयद दुरुस्त आयद की श्रेणी में रखा जाए या फिर विशुद्ध राजनीतिक नाटक निरूपित करें, इसका फैसला समय कर देगा। लेकिन इस पूरे खेल में एक बार फिर हमारी अपनी बिरादरी पक्षपात की अपराधी बन गई, अज्ञान फैलाने की भी। मैं बात कर रहा हूं केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के कथित इस्तीफे की पेशकश, प्रधानमंत्री द्वारा इन्कार और एक खबरिया चैनल पर इसके कवरेज की। जब चिदंबरम ने नक्सलवादियों को 'कायरÓ कह ललकारा था तब भी और जब नक्सलियों ने जवाब में 76 निर्दोष सीआरपीएफ के जवानों को मौत दे दी थी तब मैंने नैतिकता के आधार पर चिदंबरम से इस्तीफे की अपेक्षा प्रकट की थी। चिदंबरम के इन्कार की स्थिति में प्रधानमंत्री की ओर से कार्रवाई की मांग की थी। तब कुछ नहीं हुआ। आज घटना के चार दिनों बाद अचानक चिदंबरम की ओर से नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की पेशकश और प्रधानमंत्री द्वारा तत्काल इन्कार कर दिए जाने से तो देश में यही संदेश गया कि सब कुछ पूर्वनियोजित था, नाटक था। अगर चिदंबरम में सचमुच नैतिकता होती, मानवीय संवेदना की समझ होती तब वे दंतेवाड़ा नरसंहार के दिन ही इस्तीफा दे देते और प्रधानमंत्री के इन्कार की स्थिति में भी वे इस्तीफा वापस नहीं लेते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। शुक्रवार को उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की और अपेक्षानुरूप प्रधानमंत्री ने अस्वीकार कर दिया। साफ है कि चिदंबरम ने ऐसा कदम देश में हो रही अपनी आलोचना के बाद उठाया। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने प्रधानमंत्री को भी विश्वास में ले लिया हो। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पूर्व जानकारी दे दी हो। वर्तमान राजनीति के गंदले पानी में हाथ धोने के ऐसे अनेक वाकये पहले भी हो चुके हैं। चिदंबरम दबाव में थे। स्वयं कांग्रेस के अनेक मंत्री व नेता दंतेवाड़ा की घटना के लिए चिदंबरम को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। चिदंबरम के बड़बोलेपन पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य आपत्ति दर्ज कर चुके हैंं। अनेक कांग्रेसी नेता अप्रसन्नता प्रकट कर रहे थे कि चिदंबरम का अपनी जुबान पर काबू नहीं है। उनकी भाषा आपत्तिजनक है। इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि चिदंबरम की भाषा की सराहना कभी हुई भी है क्या? एक घटना की याद दिलाना चाहूंगा। तब चिदंबरम एक गैरकांग्रेसी राज्यसभा सदस्य थे। उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा राज्यसभा के सभापति के रूप में सदन की कार्यवाही संचालित कर रहे थे। डॉ. शर्मा द्वारा बार-बार मना करने के बावजूद चिदंबरम एक गैरजिम्मेदार सदस्य के रूप में सदन की कार्यवाही में व्यवधान पैदा कर रहे थे। सभापति डॉ. शर्मा के अनुरोध-आदेश को बलाए ताक रख चिदंबरम आपत्तिजनक शब्दों के साथ अपनी बात बोलते गए। सभापति डॉ. शर्मा तब चिदंबरम के आचरण से इतने आहत हुए कि उन्हें अस्पताल में चिकित्सा के लिए जाना पड़ा। ऐसे चिदंबरम से 'अच्छी भाषाÓ की अपेक्षा करना ही मूर्खता होगी। नक्सलियों को 'कायरÓ कह भड़काने वाले चिदंबरम भाषा के नाम पर अपना बचाव नहीं कर सकते। हालांकि यह लोकतांत्रिक भारत के लिए शर्म की बात है कि देश का गृहमंत्री ऐलानिया यह स्वीकार कर चुका है कि उन्हें राजभाषा अर्थात्ï सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी का ज्ञान नहीं है। मैं यह दोहरा दूं कि राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय के अधीन आता है और यह गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वह राजभाषा हिन्दी को व्यवहार के स्तर पर पूरे देश में स्थापित करना सुनिश्चित करे। लेकिन अफसोस कि मंत्रालय का मुखिया स्वयं हिन्दी नहीं जानता। यह अलग बहस का विषय है कि ऐसे व्यक्ति को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी आखिर दी ही क्यों गई? निश्चय ही यह संविधान की मूल भावना का अपमान है। खैर! मैं बात कर रहा था गृहमंत्री पद से चिदंबरम के कथित इस्तीफे की पेशकश की और इससे संबंधित मीडिया कवरेज की भी। प्रसिद्ध पत्रकार रजत शर्मा के खबरिया चैनल 'इंडिया टीवीÓ पर चिदंबरम के कथित इस्तीफे के कवरेज को देख निराशा हुई। रजत शर्मा एक पत्रकार के रूप में अपने ज्ञान और अपनी समझ के लिए सुख्यात हैं। उनकी राजनीतिक जानकारी और दोटूक विश्लेषणों की सराहना होती रही है। लेकिन आलोच्य मामले में उनके चैनल ने निराश किया। चैनल के प्रबंध संपादक विनोद कापडिया चिदंबरम की खबर पर बीच-बीच में टिप्पणी करते देखे गए। खबरिया चैनल में खबरों की जरूरत के अनुसार ऐसी विशेषज्ञ टिप्पणियां प्रसारित की जाती हैं। लेकिन दुख और आश्चर्य तो तब हुआ जब विनोद कापडिया चिदंबरम के वकील की तरह न केवल गृहमंत्री के रूप में उनका महिमामंडन करते रहे बल्कि लोगों अर्थात्ï दर्शकों को गलत जानकारी दे भ्रमित भी करते रहे। कापडिया ने अपनी टिप्पणी में बताया कि नैतिकता के आधार पर लालबहादुर शास्त्री के बाद पिछले 50 वर्षों में किसी मंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया। यह चिदंबरम हैं जिन्होंने ऐसी पेशकश कर मिसाल पेश की है। बता दूं कि ऐसी टिप्पणी कापडिया प्रधानमंत्री द्वारा चिदंबरम के इस्तीफे को अस्वीकार किए जाने की खबर आने के पहले कर रहे थे। कापडिया ने अपने दर्शकों को यह भी बताया कि आजतक देश में चिदंबरम जैसा योग्य व्यक्ति गृहमंत्री नहीं बना है। और ऐसा कोई व्यक्ति दिख भी नहीं रहा जो गृहमंत्री की जिम्मेदारी संभाल सके। एक जिम्मेदार न्यूज चैनल के प्रबंध संपादक के मुख से ऐसी बातें! कोई आश्चर्य नहीं कि मीडिया पर पक्षपात के आरोप इन दिनों खुलेआम लग रहे हैं। विनोद कापडिया तो बिल्कुल एक पक्ष की बातें कर रहे थे। पत्रकारिता की अपेक्षित निष्पक्षता की उन्होंने ऐसी की तैसी कर दी। बिल्कुल चिदंबरम के वकील की तरह उन्होंने स्वयं को पेश किया। और वकील भी ऐसा जो गलत तथ्य देकर अपनी अज्ञानता प्रकट कर रहा था। पूरा देश जानता है कि तत्कालीन रेलमंत्री नीतीश कुमार और माधवराव सिंधिया नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे चुके थे। तब इन दोनों की तुलना लालबहादुर शास्त्री से की गई थी। रही बात गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम के बेमिसाल होने की तब कापडिया बेहतर है कि इतिहास के पन्नों को पलट लें। लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को छोड़ भी दें तो गृहमंत्री के रूप में गोविंदवल्लभ पंत और लालकृष्ण आडवाणी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध रखने वाले पंत अपनी दूरदृष्टि और देश में आंतरिक सुरक्षा तथा कानून-व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए विख्यात थे। केंद्र और राज्यों के बीच मजबूत तालमेल पंत की देन थी। लालकृष्ण आडवाणी को भी सरदार पटेल के बाद गृहमंत्री के रूप में 'लौह पुरुषÓ का दर्जा प्राप्त था। कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने के साथ-साथ आतंक विरोधी कानूनों को अंजाम आडवाणी ने ही दिए। पता नहीं कापडिया किन कारणों से सच पर परदा डाल गए। एक वकील तो अपने मुवक्कील से अच्छे 'फीसÓ की आशा में झूठ को सच बनाने की कोशिश करता है। तो क्या विनोद कापडिया ने भी किसी फीस की आशा में ऐसा किया? मैं चाहूंगा कि मेरी आशंका गलत साबित हो ताकि बिरादरी पर भी कलंक नहीं लगे लेकिन ऐसा साबित तो कापडिया को ही करना होगा! आज जब मीडिया विश्वसनीयता के संकट की असहज दौड़ से गुजर रहा है, 'इंडिया टीवीÓ का ताजा मामला खेदजनक है। रजत शर्मा जैसे संपादक के नेतृत्व में तो यह कतई स्वीकार्य नहीं।
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2 comments:
यह तो चलता ही रहता है. द ग्रेट इंडियन ड्रामा..
इस्तीफा, वापसी, प्रेस कांफ्रेंस और चिन्ता जाहिर करना...
मीडिया की निष्पक्षता पर सवालिया निशान तो हैं आखिर उन्हें अपना धंधा चलाने के लिए सरकार का कुछ हद तक साथ देना ही होता है और जहां तक गृहमंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवानी जी का संबंध है उनके शासन के दौरान आतंकवादी गतिविधियां बढी थी और देश में अल्पसंख्यकों के मन में पोटा के रूप्ा में जो भय बिठाया गया और उसका गलत इस्तेमाल हुआ उसे आप समझ नहीं पाएंगे। गुजरात दंगों को कभी कोई भूल नहीं सकता जो इन्हें गृहमंत्री के शासनकाल में हुए थे। आप इस बात को मान के चलिए कि इस देश में जब तक डंडा नहीं पडता तब तक कोई काम नहीं करता।
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