Monday, April 12, 2010
सदैव आरक्षित कांग्रेस अध्यक्ष पद!
यह फर्क तो है! गली-कूचों की दीवारों पर पोस्टर चिपकाने वाला कांग्रेस पार्टी में कभी राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बन सकता। कांग्रेस में यह पद आरक्षित है। आरक्षित है गांधी-नेहरू परिवार के लिए। सुविधानुसार, बल्कि मजबूरी है। यदा-कदा किसी 'यस मैन' को इस कुर्सी पर अवश्य बैठाया जाता है। किंतु उनका कार्यकाल 'परिवार' की इच्छा पर निर्भर रहता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी इस परंपरा की उपज हैं। राहुल गांधी प्रतीक्षा में हैं। गांधी-नेहरू परिवार से इतर यू.एन.ढेबर, के.कामराज, एस. निजलिंगप्पा और सीताराम केसरी अध्यक्ष बनते रहे, किंतु इनके अधिकार और इतिश्री की अपनी गाथा है। केसरी को तो कांग्रेस मुख्यालय के बाथरूम में बंद कर, धकिया कर निकाला गया था, जबकि वे कोई मनोनीत नहीं, निर्वाचित अध्यक्ष थे। शरद पवार जैसे कद्दावर नेता को पराजित कर केसरी अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। पार्टी इतिहास में दर्ज है कि गांधी-नेहरू परिवार के प्रति केसरी हमेशा समर्पित रहे। किंतु थोड़ी असहजता क्या हुई कि उन्हें धक्के मारकर निकाल-बाहर किया गया। कांग्रेस में अध्यक्ष पद के मामले को पिछले दिन भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उछाला। पत्रकार और टेलीविजन 'आइकन' रजत शर्मा के कार्यक्रम 'आप की अदालत' में एक सवाल का जवाब देते हुए गडकरी ने कांग्रेस की इस परंपरा का उल्लेख करते हुए अध्यक्ष पद पर अपनी नियुक्ति का उदाहरण दिया। गडकरी विद्यार्थी परिषद के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में चुनाव के दौरान दीवारों पर पोस्टर चिपकाया करते थे। लालकृष्ण आडवाणी भी कभी अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सहायक थे। बहरहाल, 52 वर्षीय गडकरी ने जब कांग्रेस की ऐसी अवस्था की चर्चा की तब वे निश्चय ही कांग्रेस पार्टी में लुप्त लोकतंत्र पर देश का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। सचमुच यसह एक विडंबना ही है कि देश की इस सबसे बड़ी पार्टी को गांधी-नेहरू परिवार के बाहर अध्यक्ष पद के लिए कोई योग्य पात्र नहीं मिलता। विडंबना तो यह भी कि जब-जब पार्टी का कोई व्यक्ति राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी व पार्टी के बाहर स्वीकृति की अवस्था प्राप्त करता है, उनकी असमय दुनिया से ही विदाई हो जाती है। राजेश पायलट और माधवराव सिंधिया के नाम यहां उदाहरण स्वरूप दिए जा सकते हैं। कुछ अन्य अबूझ कारणों से गांधी-नेहरू परिवार के समक्ष आत्मसमर्पण कर डालते हैं। तेजी से राष्ट्रीय क्षितिज पर कभी उभरने वाले तेज-तर्रार युवा दिग्विजय नारायण सिंह ज्वलंत उदाहरण के रूप में सामने हैं। पता नहीं, यह कैसा विधि-विधान है, जो गांधी-नेहरू परिवार के लिए रास्ता सुलभ करता रहता है। गडकरी ने तो आजादी पश्चात कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद की चर्चा की। किंतु इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलेगा कि आजादी पूर्व अर्थात गुलाम भारत में भी कांग्रेस में अध्यक्ष पद पर नेहरू की पसंद का व्यक्ति ही बैठ सकता था। जब कभी नेहरू की पसंद के विपरीत कोई व्यक्ति अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होता था, तब नेहरू की जिद के कारण वह इस्तीफा देने को मजबूर हो जाता था। महात्मा गांधी नेहरू की पसंद को समर्थन दे देते थे। पुरूषोत्तम दास टंडन और सुभाषचंद्र बोस जैसे निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष इस्तीफा देने को मजबूर कर दिए गए थे। लोकतंत्र की पैरोकार कांग्रेस का नेतृत्व सहजतापूर्वक कभी भी यह नहीं बता पाएगा कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की हत्याएं क्यों होती रही हैं। चूंकि कांग्रेस पार्टी दशकों तक देश पर राज करती रही है, आज भी केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही है, लोकतंत्र विरोधी किसी भी कदम पर देश का चिंतित होना स्वाभाविक है। जब किसी दल का नेतृत्व ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को हाशिए पर रखता रहे, तब उससे लोकतंत्र की रक्षा की अपेक्षा कोई कैसे करे! फिर क्या आश्चर्य कि आज कांग्रेस पार्टी में चाटुकारों की लंबी पंक्ति खड़ी दिखती है। क्या इसे दोहराने की जरूरत है कि ऐसी अवस्था में ही लोकतंत्र पराजित होकर 'पर-तंत्र' को आमंत्रित करता हैं। भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिए यह एक अशुभ संकेत हैं।
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2 comments:
बहुत ही सच्चा लेखा जोखा....
धारा 356 का जो दूर उपयोग किया गया था, उसे न भूले. पार्टी के बाहर भी अप्रिय लोग पसन्द नहीं. मोदी ताजा उदाहरण है.
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