centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Thursday, July 15, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे! [4-अंतिम]

बावजूद इन व्याधियों के, पेशे को कलंकित करनेवाले कथित 'पेशेवर' की मौजूदगी के, पूंजी और बाजार के आगे नतमस्तक हो रेंगने की कवायद के, चर्चा में रामबहादुर राय जैसे कलमची भी मौजूद थे जिन्होंने सच को स्वीकार करते हुए निराकरण का मार्ग भी दिखाया। 'पेड न्यूज' को पत्रकारिता की साख पर संकट निरूपित करते हुए उन्होंने बिल्कुल सही मंतव्य दिया कि पत्रकारिता बचेगी तभी लोकतंत्र बचेगा। 'पेड न्यूज' के उद्गम स्थल को चिन्हित करते उन्होंने बिल्कुल ठीक सुझाव दिया कि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन हो और चुनाव आयोग को शिकायतों पर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए। इस सचाई से तो कोई इंकार नहीं करेगा कि चुनावों में उम्मीदवारों के लिए निर्धारित खर्च की सीमा व्यावहारिक नहीं है। मीडिया में विज्ञापन की दर, प्रचार सामग्री पर होनेवाले व्यय, परिवहन खर्च आदि को जोड़ा जाए तो खर्च की सीमा अव्यावहारिक लगेगी। प्रचार की मजबूरी ने उम्मीदवारों, राजदलों और मीडिया संचालकों को 'पेड न्यूज' का रास्ता दिखाया। कुछ पत्रकारों ने मालिकों द्वारा प्रवाहित 'गंगा' में हाथ धोने के लिए खबरों को भी बिकाऊ बना डाला। स्वयं को बेच डाला। नतीजतन चुनावों के दौरान कुछ अपवाद छोड़ पत्रकारों को राजदलों और उम्मीदवारों के आगे-पीछे घूमते कोई भी देख सकता है। सहज धन के आकर्षण में ये पत्रकारीय दायित्व व मर्यादा को भूल जाते हैं। चूंकि यह रोग महामारी का रूप लेता जा रहा है, इसके उद्गम स्थल पर ही बाड़ लगानी होगी। रामबहादुर राय का सुझाव बिल्कुल सही है। जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर चुनावी खर्च की सीमा व्यावहारिक रूप में निर्धारित की जाए। साथ ही 'पेड न्यूज' के जरिये कालेधन के प्रसार में मददगार उम्मीदवारों व मीडिया घरानों को दंडित किए जाने के लिए आवश्यक कानून बने। वर्तमान कानून बेअसर हैं। ऐसा कानून बने जिसमें दोषियों पर कठोर दंड का प्रावधान हो। चुनाव आयोग को ही अधिकार दिया जाए ताकि वह दोषी पाए जाने पर उम्मीदवार का निर्वाचन अवैध घोषित कर सके। 'पेड न्यूज' को संरक्षण देने वाले मीडिया संचालक व पत्रकारों को भी इस कानून के दायरे में लाया जाए। उन्हें भी कठोर दंड दिए जाने का प्रावधान हो। आयकर विभाग तो अपना काम करे ही, समानान्तर अर्थव्यवस्था के मददगार समाचार पत्रों व न्यूज चैनलों के निबंधन व लाइसेंस रद्द किए जाएं। संभवत: ऐसे कदमों से 'पेड न्यूज' के प्रचलन पर रोक लगाई जा सकती है। बेहतर हो स्वयं मीडिया संस्थान इस हेतु पहल करें। जब 'एक नंबर' का द्वार उपलब्ध होगा तो 'दो नंबर' के द्वार में प्रवेश से मीडिया बचना चाहेगा। संभवत: सतीश के.सिंह ने जिस 'सिस्टम' को तैयार करने का सुझाव दिया वह यही है।
अब बात आयोजन के मुख्य अतिथि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह की। मीडिया के चरित्र को लेकर दिग्विजय आरंभ से ही बेबाक रहे हैं। 'पेड न्यूज' के प्रचलन को अस्वीकार करते हुए दिग्विजय ने पूछा कि 'लॉबिंग' और विज्ञापन के बगैर अखबार व न्यूज चैनल चल सकते हैं क्या? यह ठीक है कि विज्ञापन के बगैर मीडिया जीवित नहीं रह सकता लेकिन विज्ञापन के नए बेईमान स्वरूप 'पेड न्यूज' के बगैर वह जीवित रह सकता है। अखबार और न्यूज चैनल विज्ञापन छापते-दिखाते हैं। देयक बनते हैं, संबंधित पक्ष 'एक नंबर' में भुगतान करता है। एक सामान्य सरल प्रक्रिया है। आज मीडिया घराने विज्ञापन प्रबंधन पर भारी राशि व्यय करते हैं। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, 'लॉबिंग'? यह भ्रामक शब्द है। यह तो पता नहीं दिग्विजय का आशय क्या था, लेकिन इस शब्द को चूंकि दलाली से जोड़कर देखा जाता है, आपत्तिजनक है। आधुनिक विषकन्या नीरा राडिया ने ए. राजा के लिए 'लॉबिंग' की थी। उसी क्रम में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त दो पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांघवी ने नीरा राडिया का हित साधने के लिए उच्च राजनेताओं के बीच 'लॉबिंग' की थी। जाहिर है कि इन सब के पीछे धन का आकर्षण अथवा धनलोलुपता थी। ऐसी 'लॉबिंग' से ही पत्रकार बिरादरी के माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। बिरादरी को समाज में शर्मसार होना पड़ता है।
यह तो एक उदाहरण है। सच तो यह है कि आज ऐसी 'लॉबिंग' के लिए पत्रकारों की मांग ने जोर पकड़ लिया है। राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं से लेकर अधिकारी व व्यापारी भी रसूखदार व्यापक संपर्क वाले पत्रकारों की सेवाएं ले रहे हैं। धन अथवा अन्य प्रकार के लाभ के एवज में की जाने वाली 'लॉबिंग' अनैतिक है। भ्रष्टाचार का एक अंग है। अगर दिग्विजय का आशय ऐसी 'लॉबिंग' से था तो इसे एक सिरे से खारिज कर दिया जाना चाहिए। हां, बगैर किसी स्वार्थ के कोई पत्रकार अपने रसूख से, अपने संपर्क से न्याय के पक्ष में किसी के लिए 'लॉबिंग' करता है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है। इसे मदद की श्रेणी में रखा जाएगा, दलाली की श्रेणी में नहीं। मैं अपनी बात दिग्विजय के शब्दों से ही समाप्त करना चाहूंगा। बात '90 के आरंभिक दशक की है जब दिग्विजय सिंह म.प्र. के मुख्यमंत्री थे। एक पत्रकार को दिये गए साक्षात्कार में उन्होंने दो टूक शब्दों में शासकीय प्रलोभन की बात को स्वीकार करते हुए पत्रकारों को चुनौती दी थी। उन्होंने कहा था कि 'हम सत्ता में हैं। अपनी और अपनी सरकार का महिमामंडन चाहूंगा, प्रचार-प्रसार चाहूंगा। इसके लिए हमारे पास पत्र-पत्रकारों को प्रभावित-आकर्षित करने के लिए अनेक संसाधन व मार्ग हैं। हम तो अखबारों-पत्रकारों को अपने पक्ष में करना चाहेंगे ही। अब यह अखबारों-पत्रकारों पर निर्भर करता है कि वे हमारे प्रलोभन के जाल में फंसते हैं या नहीं।' दिग्विजय द्वारा तब दी गई चुनौती आज भी प्रासंगिक है। सत्ता, व्यावसायिक घरानों और प्रशासन ने अगर भ्रष्टाचार का मार्ग उपलब्ध करा रखा है तो फैसला पत्रकारों के हाथों है कि वह उस मार्ग पर कदम रखें या फिर उस मार्ग को उखाड़ फेंकने का व्रत लें। पत्रकार फैसला कर लें।

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हर कोई बिकाऊ है बस कीमत माफिक हो.