centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Monday, July 12, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे!

नहीं! ऐसा बिल्कुल नहीं! पत्रकारिता नहीं बिक रही, बिक रहे हैं पत्रकार। ठीक उसी तरह जैसे कतिपय भ्रष्ट शासक-प्रशासक, जयचंद-मीर जाफर देश को बेचने की कोशिश करते रहे हैं, गद्दारी करते रहे हैं। किन्तु देश अपनी जगह कायम रहा। नींव पर पड़ी चोटों से लहूलुहान तो यह होता रहा है किन्तु अस्तित्व कायम। पत्रकारिता में प्रविष्ट काले भेडिय़ों ने इसकी नींव पर कुठाराघात किया, चौराहे पर अपनी बोलियां लगवाते रहे, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सौदेबाजी करते रहे, कलमें बेचीं, अखबार के पन्ने बेचे, टेलीविजन पर झूठ को सच-सच को झूठ दिखाने की कोशिश की, किसी को महिमामंडित किया तो किसी के चेहरे पर कालिख पोती, इसे पेशा बनाया, धंधा बनाया, चाटुकारिता की नई परंपरा शुरू की। बावजूद इसके, पत्रकारिता अपनी जगह कायम है, पत्रकार अवश्य बिकते रहे। प्रसून (पुण्य प्रसून वाजपेयी) निश्चय ही अपने शब्दों में संशोधन कर लेंगे।
खुशी हुई कि 'लॉबिंग, पैसे के बदले खबर और समकालीन पत्रकारिता' पर अखबारों और न्यूज चैनलों के कतिपय वरिष्ठ पत्रकारों ने (आत्म) चिंतन की पहल की। पत्रकारों के पतन पर चिंता जताई। अवसर था उदयन शर्मा फाउंडेशन द्वारा आयोजित संवाद का। इस पहल का स्वागत तो है किन्तु कतिपय शर्तों के साथ। एक चुनौती भी। पत्रकार, विशेषकर इस चर्चा में शामिल होने वाले पत्रकार पहले 'हमाम में सभी नंगे' की कहावत को झुठलाकर दिखाएं। इस बिंदु पर मैं पत्रकारीय मूल्य के पक्ष में कुछ कठोर होना चाहूंगा। बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी दुराग्रह के और बगैर किसी निज स्वार्थ के मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या संवाद में शामिल हो बेबाक विचार रखने वाले वरिष्ठ पत्रकारों ने मीडिया में प्रविष्ट 'रोग' के इलाज की कोशिशें की हैं? अवसर मिलने के बावजूद क्या ये तटस्थ नहीं बने रहे? बाजारवाद, कार्पोरेट जगत की मजबूरी आदि बहानों की ढाल के पीछे स्वयं कुछ पाने की कोशिश नहीं करते रहे? राजदीप सरदेसाई 'पेड न्यूज' के लिए बाजारीकरण को जिम्मेदार अगर ठहराते हैं तो उन्हें यह भी बताना होगा कि मीडिया पर बाजार के प्रभाव को रोका जा सकता है या नहीं? हां, राजदीप की इस साफगोई के लिए अभिनंदन कि उन्होंने स्वीकार किया कि आज मीडिया राजनेताओं को तो एक्सपोज कर सकता है लेकिन कार्पोरेट को नहीं। क्यों? बहस का यह एक स्वतंत्र विषय है। कार्पोरेट को एक्सपोज क्यों नहीं किया जा सकता? वैसे पत्र और पत्रकार मौजूद हैं जो निडरतापूर्वक कार्पोरेट जगत को एक्सपोज कर रहे हैं। अगर राजदीप का आशय पूंजी और विज्ञापन से है तो मैं चाहंूगा कि वे इस तथ्य को न भूलें कि पूंजी का स्रोत आम जनता ही है। हालांकि वर्तमान काल में पूंजी, जो अब कार्पोरेट जगत की तिजोरियों की बंदी बन चुकी है, हर क्षेत्र को 'डिक्टेट' कर रही है। स्रोत से जनता को जोड़कर देखने की चर्चा नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। किन्तु मीडिया जगत, मीडिया कर्मी जब स्वयं को औरों से पृथक, ज्ञानी, समाज-देश के मार्गदर्शक के रूप में पेश करते हैं तब उन्हें परिवर्तन और पहल के पक्ष में क्रांति का आगाज करना ही होगा। कार्पोरेट के सामने नतमस्तक होने की बजाय शीश उठाकर चलने की नैतिकता अर्जित करनी होगी। यह मीडिया ही कर सकता है। संभव है यह। सिर्फ सच बोलने और सच लिखने का साहस चाहिए।
(जारी...)

2 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

मीडिया केवल राजनेताओं को एक्‍सपोज करता है ना वो कारपोरेटस को करता है और ना ही नौकरशाही को। वह जानता है कि राजनेताओं को एक्‍सपोज करने में या उनके बारे में झूठ का पुलिन्‍दा भी प्रसारित करने में उन्‍हें कोई हानि नहीं होगी वरन एक फायदा हो गया है कि आज भ्रष्‍टाचार के मतलब राजनेता हो गया है और सारी जनता राजनेता टाइप इंसान को गाली देकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री समझ रही है। जबकि सच तो यह है कि जिस देश की जैसी जनता होती है वैसे ही राजनेता होते हैं। यह सम्‍भव ही नहीं हैं कि जनता तो स्‍वच्‍छ हो और राजनेता भ्रष्‍ट। लेकिन मीडिया ने ऐसा प्रचार किया है कि स्‍वच्‍छ छवि वाले व्‍यक्ति राजनीति में जाना चाहे तो भी ऐसी छवि के कारण जाने की हिम्‍मत नहीं कर सकते। मीडिया यदि दस प्रतिशत भी सुधर जाए तो शायद देश में कुछ सुधार की गुंजाइश हो। इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन आलेख और टिप्‍पणी में अन्‍तर होना चाहिए।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

भ्रष्टाचार कुछ लोगों तक ही सीमित क्यों रहे.. पत्रकार क्यों अपवाद बने रहें...