यह भी खूब रही! विद्वान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अब इस बात का एहसास हुआ है कि भ्रष्टाचार से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। बेचारे प्रधानमंत्री ! जब पूरे देश में शीर्ष सत्ता और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोहराम मचादो है, गली-कूचों में आम आदमी भी आक्रोश व्यक्त कर रहा है, भारतीय संसद ठप की जा रही हो, मंत्री और मुख्यमंत्री के खिलाफ मामले दर्ज हो रहे हों, केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफे लिए जा रहे हों, विदेशी बैंको में भारतीयों द्वारा अकूत धनराशी जमा कराई जा रही हो, स्पेक्ट्रम जैसे घोटाले से एक झटके में पौने दो लाख करोड़ के वारे-न्यारे हो जाएं, राष्ट्रमंडल खेलों में दिन दहाड़े लूट की खबरें गुंजायमान हो, तब देश की छवि साबुत कैसे रह सकती है? भ्रष्टाचार संबंधी गतिविधियों पर वर्षों मौन रहनेवाले प्रधानमंत्री के ज्ञानचक्षु अब खुलते हैं और उन्हें समझ में आता है कि भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर प्रहार करता है, विकास की दिशा में रुकावट है! कारण साफ है। गठबंधन राजनीति के 'अधर्म' को सींचित कर सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से समझौते किए। कहीं उन्होंने आंखे मूंद रखीं, तो कहीं समर्पण कर भ्रष्ट आचरण-निर्णय के भागीदार बनते रहे। ऐसे में उनके मुख से निकले उपदेश उन्हें हास्यास्पद बना देते हैं, बहुरुपिया बना देते हैं। घोर गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अगर मजबूर हैं तो अपनी सत्ता वासना की पूर्ति के पक्ष में। सत्ता सुख का त्याग वे करना नहीं चाहते। देश की छवि को रसातल में पहुंचाने के बाद छवि की चिंता! बेहतर हो, सत्य को स्वीकार कर देशहित के पक्ष में वे सत्ता बंधन से मुक्त हो जाएं। अन्यथा ए. राजा और सुरेश कलमाड़ी की तरह एक दिन वे स्वयं को बलिवेदी पर निरीह लेटे पायेंगे।
भारत की विशाल आबादी के साथ सत्तापक्ष का ऐसा छल अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सत्ता की राजनीति करनेवाले इस संभावना की उपेक्षा न करें। केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रहे संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन (यूपीए)की अध्यक्ष सोनिया गांधी भी देश के साथ ऐसा ही छल कर रही हैं। सोनिया न तो संत हंै और न ही दार्शनिक! फिर इनके सदृश अभिनय क्यों? उन्होंने सत्ता और धन के लिए अंधी दौड़ पर चिंता जताई है। कहा है कि जीवन में धन ही सबकुछ नहीं होता, सत्ता ही सबसे बड़ा सुख नहीं। गांधी और विवेकानंद के ये शब्द सभी के मुख को अच्छे नहीं लगते। ऐसे में शब्द दमित हो जाते हैं, शब्द अपमानित हो जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि सोनिया गांधी के इन शब्दों का कोई खरीदार सामने नहीं आया। आज देश त्रस्त है, संतप्त है तो भ्रष्टाचार के दानव से। इस दानव की उत्पत्ति नई नहीं, किंतु आजादी के 64 वर्षों में इसे फलने-फूलने के लिए आवश्यक ऊर्जा क्या इन्हीं भ्रष्ट सत्ताधारियों और नौकरशाहों ने नहीं दी? स्वीस बैंक के डायरेक्टर ने जानकारी दी है कि लगभग 280 लाख करोड़ रुपए भारतीयों ने स्वीस बैंकों में जमा करा रखे हैं। क्या यह दोहराने की जरुरत है कि यह विशाल धनराशि राष्ट्रीय संपत्ति की लूट से परिवर्तित काला धन है। जरा गौर करें। 200 साल के शासनकाल के दौरान अंग्रेजों ने 1 लाख करोड़ लूटा था। और अब आजादी के बाद 64 सालों में 280 लाख करोड़! इस मोर्चे पर विदेशी अंग्रेजों को मात देनेवाले आजाद भारत के हमारे शासक, नौकरशाह, उद्योगपति किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित चिंतक नहीं कहे जायेंगे। इतिहास इन्हे राष्ट्रद्रोही के रूप में दर्ज करेगा। मिस्त्र में जारी 'जनयुद्ध' एक संकेत है। 80 के दशक में इरान के शाह को ऐसे ही जनयुद्ध ने सत्ता छोड़ पलायन के लिए मजबूर कर दिया था। मिस्त्र के होस्नी मुबारक को भी संभवत: ऐसे ही हश्र से रुबरु होना पड़े। कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता जब सड़क पर उतरती है तब राष्ट्रकवि (स्व.)रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां, ''... सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है...'' साकार हो उठती हैं। धन और सत्ता की अंधी दौड़ पर चिंता व्यक्त करनेवाली सोनिया को चाटुकारों ने भले ही त्याग मूर्ति बना डाला हो, वास्तविकता से सारा देश परिचित है। आम जनता का धैर्य अब टूटने लगा है। पिछले दिनों, एक दिन के लिए ही सही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की जनता सड़कों पर उतरी थी। वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ वह आयोजन 'जनयुद्ध' का पूर्व संकेत था। जनता कालरात्रि की समाप्ति चाहती है। उसे अब इस बात का पुन: एहसास हो गया है कि क्रांति और परिवर्तन की आवश्यकता आज बाहर से नहीं, स्वयं हमारे भीतर है। व्यक्ति का स्थान ले चुके समूह को चुनौतियां मिलनी शुरु हो चुकी हैं। व्यक्ति की अहमियत को रेखांकित करने के लिए समाज अंगड़ाई लेने लगा है। जोड़-तोड़ कर सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे शासक यह न भूलें कि विश्व की प्राय: सभी वैचारिक क्रांतियां मात्र अकेले व्यक्तियों के कारण ही सफल हुई हैं। अब चुनौती है भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर जन का। वे अब और प्रतीक्षा न करें। भ्रष्टाचार के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान सत्ता त्याग कर जन अदालत का सामना करने की जगह शासक अब ढोंगी संत-दार्शनिक की भूमिका में आ गए हैं। ऐसे में और विलंब नहीं! निर्णय की घड़ी मान 'जनयुद्ध' का ऐलान कर दिया जाए! परिणति के रुप में तब शासन-समाज निश्चय ही स्वच्छ छवि के साथ अवतरित होगा।'
1 comment:
भारत में सम्भव नहीं, हरएक की स्वार्थप्रियता के चलते..
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