राहुल गांधी फिर भ्रमित दिख रहें हैं। कारण साफ है। सलाहकार चाहते ही हैं कि राहुल यूं ही भ्रमित दिखते रहें। जी हाँ, कांग्रेस संस्कृति का यह एक ऐसा पीड़ादायक सच है जिससे पूरा देश परिचित है। नेहरु युग के आरंभिक काल में पुत्री इंदिरा गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। तब इंदिरा गांधी को सलाहकारों ने लोकतंत्र को हाशिए पर रखकर निर्मम राजनीति का पाठ पढ़ाया था। हश्र इतिहास में दर्ज है। पॉयलट की नौकरी के दौरान स्वयं को राजनीति से कोसों दूर रखने का लगातार ऐलान करते रहनेवाले राजीव गांधी को जब प्रधानमंत्री के रुप में देश पर थोपा गया था, तब उनकी 'मिस्टर क्लीन' की छवि को सलाहकारों ने कुछ ऐसी गति दी कि जनता ने भ्रष्टाचार का मेडल उनके सीने पर जड़ कर अगले ही चुनाव (1989) में सत्ताच्यूत कर दिया था। फिर इंदिरा गांधी की तरह उन्हें भी जान की कुर्बानी देनी पड़ी थी। कांग्रेस दरबार के चाटुकारों ने तब सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की। सास और पति की 'कुर्बानी' से डरी-सहमी सोनिया ने तब सत्ता और संगठन से स्वयं को दूर रखा। चाटुकार फिर भी सक्रिय रहे। नेहरु-गांधी परिवार के अस्तित्व-भविष्य की दुहाई देकर वे सोनिया को कांग्रेस संगठन में लाने में सफल रहे। तब कवायद ऐसी हुई कि कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी को बाथरुम में बंद कर सोनिया को अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया गया था। तब लोकतांत्रिक पद्धति से इतर कांग्रेस की विशिष्ट संस्कृति की विजय हुई थी। आज जब सोनिया पुत्र राहुल गांधी यह कहते फिर रहे हैं कि राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है और कंाग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जहाँ आंतरिक लोकतंत्र है, तब टेढ़ी भौंह के साथ देश सवाल तो पूछेगा ही।
महाराष्ट्र का दौरा कर रहे राहुल गांधी वंशवाद के खिलाफ भी मुखर हैं। ऐलान करते फिर रहे हैं कि पार्टी में अब भाई-भतीजावाद नहीं चलेगा। वंशवाद के कारण योग्य पात्र अवसर से वंचित रह जाते हैं। दल में काम करनेवाले समर्पित लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी। इस मुकाम पर स्वाभाविक सवाल यह कि जो राहुल गांधी स्वयं पार्टी में वंशवाद की पौध हैं, क्या वे मजबूती से जड़ जमा चुकी कांग्रेस की इस परंपरा को बदल पायेंगे? वैसे राहुल ने स्वीकार किया है कि वे स्वयं 'मजबूत राजनीतिक पारिवारिक पाश्र्व' के कारण ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं। मैं यहां राहुल की नीयत पर संदेह का लाभ देने को तैयार हूं। हां, शर्त यह अवश्य कि वे स्वयं को वचन के प्रति ईमानदार प्रमाणित करें, आदर्श स्थापित करें। इसके लिए उन्हें सोनिया गांधी के 'त्याग' से अलग 'वास्तविक त्याग' करना होगा। सत्ता-शासन से आजीवन दूर रहने की घोषणा करनी होगी। नि:स्वार्थ देश सेवा का व्रत लेना होगा। जिस गांधी शब्द को उन्होंने अपने नाम साथ जोड़ रखा है तब उसकी सार्थकता प्रमाणित हो आदर्श के रुप में स्थापित होगी, पवित्रता कायम रहेगी। क्या राहुल इसके लिए तैयार हैं? भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए जिस तंत्र को बदलने का आह्वान राहुल कर रहे हैं, वर्तमान तंत्र का हिस्सा बनकर कभी नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी इस सचाई को जान लें कि आज उनकी कांग्रेस पार्टी जिस प्रकार वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्हें देश का भावी प्रधानमंत्री के रुप में पेश कर रहीं है, वह स्वयं उनके नए 'अवतार' को चुनौती है।
बावजूद इसके अगर वे सचमुच भ्रष्ट व्यवस्था की समाप्ति चाहते हैं, वंशवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाना चाहते हैं, जाति-धर्म-क्षेत्र-परिवार से अलग सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं तो उन्हें 'नकली गांधी' नहीं 'असली गांधी' के सच्चे अनुयायी के रुप में सामने आना होगा।
तब देशवासी सभी दु:खद, विरोधाभासी शब्द-प्रसंग भूल जायेंगे। गलती का एहसास कर समझदार सुधार कर लेते हैं। और जब बात व्यापक समुदाय-संगठन की हो तब 'आदर्श पहल' की जाती है। अर्थात् संबंधित व्यक्ति अपने कर्म से पहले स्वयं को नि:स्वार्थ, समाज के प्रति समर्पित साबित कर आदर्श स्थापित करता है। लोगों का विश्वास अर्जित करता है। समाज की नजरों में अगर वह 'सेवक' दिखा तब अनुसरण में करोड़ों पग कदमताल करने लगते हैं। आजादी पूर्व महात्मा गांधी और आजादी पश्चात् जयप्रकाश नारायण ऐसे 'आदर्श पुरुष' के रुप में स्थापित हो चुके हैं। राहुल गांधी अगर मन-वचन-कर्म से स्वयं को आदर्श प्रवर्तक के रुप में स्थापित करना चाहते हैं तो चुनौती है उन्हें कि वे पहले सत्ता-शासन से दूर नि:स्वार्थ देश सेवा का व्रत लें। देशवासी उन्हें अपने कंधों पर बिठा लेंगे। क्या राहुल इसके लिए तैयार होंगे???
1 comment:
क्या बात की आपने भी.
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