अगर सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने कथित संकल्प को अमली जामा पहनाना चाहती हैं, तो चुनौती है उन्हें कि वे पहले 'सीजर पत्नी' की भूमिका में स्वयं को पाक-साफ साबित करें। इमानदार, निर्दोष नेतृत्व ही सत्ता-समाज, दल-देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला सकता है, भ्रष्टाचारियों को दंडित कर सकता है। क्या सोनिया गांधी इसके लिए तैयार हैं? अगर हां तो पहली चुनौती यह कि वे बोफोर्स रिश्वत कांड संबंधी मामलों को बंद करने के 'सरकारी निर्णय' को वापस लें। इतालवी आरोपी ओत्तावियो क्वात्रोकी का प्रत्यर्पण करवा उसे भारत लाया जाए, गिरफ्तार किया जाए, मुकदमा चलाया जाए। क्या सोनिया गांधी ऐसा करने को तैयार हैं? कानून को अपना काम करते रहने की दुहाई देते रहने वाली सोनिया गांधी अगर ऐसा करती हैं तो इतिहास का निर्माण करेंगी। यह तथ्य सर्वविदित है कि सन 2004 के लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बावजूद शिवराज पाटिल को केंद्र में गृहमंत्री पद पर 'नियुक्त' किया था तो एक विशेष एजेंडा के तहत। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि वह एजेंडा ही था बोफोर्स कांड को मौत देने का और क्वात्रोकी को मुक्त कराने का। एजेंडा था, बोफोर्स कांड में संदिग्ध राजीव गांधी को निर्दोष साबित करवाने का। निष्ठावान शिवराज पाटिल ने एजेंडे को क्रियान्वित करते हुए क्वात्रोकी को बाइज्जत स्वदेश लौटवा दिया, उसके जब्त बैंक खातों को खुलवा दिया। सीबीआई ने कानूनी दांव-पेंच के ऐसे खेल खेले कि क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण संबंधी हर कानूनी मोर्चे पर भारत को शिकस्त मिलती रही। गृह मंत्रालय के अधीन सीबीआई कोई सबूत नहीं जुटा सकी। उसने अदालत में मामला बंद करने की अर्जी लगा दी। चूंकि सोनिया गांधी के पति तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स रिश्वत कांड के प्रकाश मेें आते ही (1987 में) संसद में बयान दे चुके थे कि बोफोर्स तोप खरीदी में कोई घोटाला नहीं हुआ, कोई रिश्वत या कमीशन का लेन-देन नहीं हुआ है, सरकारी जांच एजेंसियां उसी लाइन पर चलती रहीं। लेकिन घोटाले की सत्यता के प्रति आश्वस्त देश की जनता ने अपना फैसला सुना दिया। घोटाले के तत्काल बाद हुए 1989 के चुनाव में जनता ने राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका। जनता की अदालत का वह फैसला भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों को कड़ी चेतावनी थी। लेकिन नहीं। राजदल भला ऐसी घटनाओं से सीख कैसे लें? सिर्फ बीते वर्ष के कालखंड को ही लें, तो भ्रष्टाचार के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान चिन्हित होता दिखेगा। इतिहास ने इस कालखंड को एक ऐसी अवधि के रूप में दर्ज किया है। जब प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, बड़े नौकरशाह, बड़े-बड़े उद्योगपतियों सहित दुखद रूप से अनेक न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे दिखे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, जब एक साथ समाज के हर वर्ग के अग्रिम प्रतिनिधि भ्रष्टाचार के घेरे में आए। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने की घोषणा करने वालीं सोनिया गांधी अगर अपने संकल्प के प्रति गंभीर हैं, तब उन्हें अपनी 'नीयत' की शुद्धता प्रमाणित करनी होगी। स्वयं को 'शुद्ध' प्रमाणित करने के साथ ही ताजा घटनाएं उनकी नीयत को चुनौती दे रही हैं।
सोनिया गांधी को यह बताना होगा कि सदी के सबसे बड़े 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य संदिग्ध पूर्व मंत्री ए राजा को बचाने की कोशिश क्यों की जा रही है। जिस कैग (नियंत्रक और महालेखापरीक्षक) की रिपोर्ट के आधार पर राजा कटघरे में खड़े किए गए, उस रिपोर्ट को ही उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी कपिल सिब्बल ने 'बकवास' कैसे निरूपित कर डाला। प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं से घबरा कांग्रेस पार्टी ने भले ही स्वयं को सिब्बल के बयान से किनारा कर लिया हो, लोग यह भूले नहीं हैं कि अभी कुछ दिनों पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह भी 'कैग' को नसीहत दे चुके हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से परेशान प्रधानमंत्री ने तब टिप्पणी की थी कि 'कैग देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण संस्था तो है किन्तु दूध का दूध और पानी का पानी करने की प्रक्रिया में भूल और जानबूझ कर की गई गड़बड़ी में फर्क करना भी इसकी जिम्मेदारी है। कैग को यह भी देखने की जिम्मेदारी है कि कोई निर्णय किन परिस्थितियों में लिया गया।' प्रधानमंत्री ने तब कैग को पेशेवर क्षमता और कौशल को बढ़ाने का सुझाव भी दिया था। प्रधानमंत्री ने ऐसी टिप्पणी कर अपनी ओर से ए. राजा को संदेह का लाभ दे दिया था। अब जब सिब्बल ने यह कह डाला कि ए. राजा ने कोई भी घोटाला नहीं किया और स्पेक्ट्रम आवंटन से राजकोष को एक पैसे का भी नुकसान नहीं हुआ तो निश्चय ही पूरे घोटाले पर पर्दा डालने की यह शासकीय कोशिश है। फिर किस भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाना चाहती हैं सोनिया गांधी?
इसके पूर्व कांग्रेस के बड़बोले राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह भी ऐसा करतब दिखा चुके हैं। आयकर अपीलीय ट्रिब्युनल द्वारा यह बताए जाने पर कि बोफोर्स सौदे में क्वात्रोकी को कमीशन दिया गया था, दिग्विजय ने ट्रिब्युनल की खोज और उसकी नीयत पर ही सवालिया निशान जड़ दिए। संवैधानिक संस्थाओं के प्रति सत्ता पक्ष का यह व्यवहार निंदनीय है। यह तो भला हो अदालत का जिसने बोफोर्स मामले को बंद करने की सीबीआई की अर्जी को फिलहाल नामंजूर करते हुए जांच एजेंसी व सरकार से कुछ सवाल पूछे हैं। लेकिन अदालत की ये टिप्पणी कि सीबीआई की पहल (मामला बंद करने की) घोड़े के आगे गाड़ी को रखने सदृश है, मामले की असलियत को रेखांकित कर देता है। हालांकि, इसके पूर्व 1975 में स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने खिलाफ न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर न्यायपालिका की तौहीन कर चुकी हैं। समाजवादी राजनारायण (अब स्वर्गीय) की चुनाव याचिका को स्वीकार कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया था। बाद की घटनाएं इतिहास हैं। इंदिरा गांधी न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए इस्तीफा देने की जगह न केवल अपने पद पर बनी रहीं बल्कि जनाक्रोश को दबाने के लिए पूरे देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया। लोगों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर न्यायपालिका को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया गया था। अन्य बातों को न दोहराते हुए सिर्फ यह याद दिलाना चाहूंगा कि 1989 की तरह आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी और उनकी कांगे्रस सरकार को उखाड़ फेंका था।
अब परीक्षा के केंद्र में सोनिया गांधी हैं। उन्हें यह तो मालूम है कि देश की जनता भ्रष्ट शासन व शासक को बर्दाश्त नहीं करती। अब चूंकि वे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात कर रही हैं, उन्हें स्वयं की नीयत की पवित्रता साबित करनी होगी। देश की जनता उनके अथवा किसी अन्य के शब्दजाल में फंसने वाली नहीं। जनता भ्रष्टाचार एवं भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई चाहती है। अगर सोनिया गांधी में नैतिक साहस है, तब वे पहल कर बोफोर्स के अभियुक्त क्वात्रोकी और स्पेक्ट्रम के अभियुक्त ए. राजा के खिलाफ दंडात्मक कदम उठाएं।
No comments:
Post a Comment