गुजरात और बिहार के बीच कथित अटूट संबंध को हवा में उछालने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत और नीति पर सवाल तो खड़े होंगे ही। मोदी कुछ बोलने के पूर्व हानि-लाभ को तौल लेते हंै। इतिहास खंगालने की आदत भी है उनमें। कहते है कि वे सावधानी बरतते हैं, ताकि कुछ निरर्थक न बोल जाएं। किंतु इस बार चूक गये। गुजरात और बिहार के बीच ऐतिहासिक संबंध को रेखांकित करते हुए मोदी जब कहते हैं कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति गुजरात के सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया था, और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बिहार के जयप्रकाश नारायण ने बनवाया था तब तथ्य और मंशा को लेकर समीक्षकों की ललाटों पर पैदा सिकुडऩ स्वाभाविक है।
पहले चर्चा तथ्य की। यह सच है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू कभी नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनें। कारण, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अतुलनीय विद्वत्ता थी। विद्वत्ता के मामले में डॉ. प्रसाद हर क्षेत्र में नेहरू पर भारी पड़ते थे। इस बिंदु पर घोर कुंठा के शिकार नेहरूजी चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बनें। किंतु, संविधान सभा के सभापति के रूप में ऐतिहासिक व अतुलनीय योगदान देने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद की न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि विपक्ष सहित राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन की व्यापक स्वीकृति के समक्ष नेहरूजी की नहीं चली। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान स्वीकार किए जाने के बाद डॉ. प्रसाद को राष्ट्रपति बनाया गया। प्राय: हर महत्वपूर्ण राजनीतिक, गैर राजनीतिक मामलों में नेहरूजी को चुनौती देने वाले सरदार पटेल ने भी डॉ. राजेंद्र प्रसाद का साथ दिया था, यह ठीक है। किंतु, यह कहना गलत होगा कि डॉ. प्रसाद की नियुक्ति में पटेल की भूमिका निर्णायक थी। 1950 में ही 15 दिसंबर को सरदार पटेल का निधन हो गया। भारत के नए संविधान के अंतर्गत 1952 में संपन्न प्रथम आम चुनाव के बाद पुन: राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति चुन लिया गया। जानकार पुष्टि करेंगे कि तब भी नेेहरू ने राधाकृष्णन के लिए मन बना रखा था। किंतु राजेंद्र प्रसाद को मिल रहे व्यापक समर्थन के कारण नेहरू सफल नहीं हो पाए। नेहरू को सबसे बड़ा झटका तो 1957 के राष्ट्रपति चुनाव में लगा। नेहरू ने तब राधाकृष्णन के पक्ष में सहमति बनाने कीकोशिश की थी। उन्होंने दक्षिण के चारों प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर दक्षिण के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाए जाने की इच्छा जाहिर की थी। जाहिर है कि उनका ईशारा राधाकृष्णन की ओर था। नेहरूजी की इच्छा की अनदेखी करते हुए चारों मुख्यमंत्रियों ने जवाब दिया कि जब तक डॉ. राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, उन्हें ही दोबारा राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। राजेंद्र बाबू की ऐसी व्यापक स्वीकृति के आगे नतमस्तक, हताश नेहरू कुछ नहीं कर पाए। डॉ. प्रसाद 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। इन ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में नरेंद्र मोदी का दावा निश्चय ही खोखला लगता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बने थे तो अपनी योग्यता के कारण-किसी व्यक्ति विशेष के कारण नहीं।
नरेंद्र मोदी का दूसरा दावा भी सच से कोसों दूर है। उनका यह दावा बिल्कुल गलत है कि जयप्रकाश नारायण ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि 1977 में कें द्र में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बन रही थी तब जयप्रकाश नारायण प्रधानमंत्री के रूप में जगजीवन राम को देखना चाहते थे। जनता पार्टी के तत्कालिन अध्यक्ष चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे। किंतु जगजीवन राम और चंद्रशेखर के नामों पर आम सहमति नहीं बन पाने के कारण तीसरे मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बना दिया गया।
इस सचाई से अच्छी तरह अवगत होने के बावजूद नरेंद्र मोदी अगर इतिहास को झूठला रहे हैं तो निश्चय ही उनकी मंशा संदिग्ध हो उठती है। ये वही नरेंद्र मोदी हैं और वही बिहार है जिसके मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ने बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान चुनाव प्रचार के लिए मोदी को बिहार आने से वंचित कर दिया था। अभी हाल ही में नीतीशकुमार ने नरेंद्र मोदी को तगड़ा झटका देते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी का प्रबल विरोध किया था। ऐसे में बिहार के साथ गुजरात का कथित रूप से पुराना संबंध रेखांकित करने वाले नरेंद्र मोदी की मंशा साफ है। गुजरात से बाहर निकल राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की कोशिश करने वाले मोदी बिहार के महत्व से अच्छी तरह परिचित हंै। उनके ऐसे प्रयास पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपत्ति तो इस बात पर है कि मोदी ने बिहार के साथ संबंध स्थापित करने के लिए लचर क्षेत्रीयता का सहारा लिया। बेहतर हो मोदी ऐसे हथकंड़ों का सहारा न लें। सुकर्मों के द्वारा पहले अपनी छवि को राष्ट्रीय स्वीकृति दिलवाएं।