हालांकि टिप्पणि अरुचिकर होगी, संभवत: न्यायालय की अवमानना भी, परंतु, आम लोगों की स्वस्फूर्त पहली प्रतिक्रिया देश के सामने आनी चाहिए। अपने लिए यह कर्तव्य भी है और दायित्व भी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री को सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत को लोग पचा नहीं पा रहे। केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) द्वारा मायावती के खिलाफ दायर एफआईआर को रद्द कर सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी आधार पर भले ही न्याय किया हो, किंतु न्याय होता हुआ नहीं दिख रहा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में लोग 'राजनीतिक हस्तक्षेप' की झलक देख रहे हैं। दबी जुबान से नहीं, बल्कि लोग खुलकर कह रहे हैं कि केंद्र, विशेषकर कांग्रेस, के साथ किसी 'समझौते' की ऐवज में मायावती को अदालती राहत मिली है। सत्ता के ईशारे पर नाचने वाली सीबीआई ने भले ही अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर मायावती के खिलाफ मामला दर्ज किया हो, परंतु यह तो पूछा ही जाएगा कि पिछले आठ वर्षों की अवधि में सीबीआई जांच की अनदेखी क्यों की गई। जबकि, जांच एजेंसी जांच की अद्यतन स्थिति से अदालत को हमेशा अवगत कराती रही। तब अदालत का मौन और अब मायावती को राहत से सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय की भूमिका पर भी संदेह पैदा होना स्वाभविक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आदेश देने वाले विद्वान न्यायधीशों ने अपने एक सहयोगी न्यायधीश की उस टिप्पणी को 'आदर्श' मान लिया जिसमें कहा गया था कि 'बुद्धिमान हमेशा हवा के रुख के साथ चलते हैं'। कांग्रेस को केंद्र में अपनी सत्ता बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ मायावती की भी जरूरत है, इसे सभी जानते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसी जरूरतें सौदेबाजी से ही पूरी की जाती रही हंै। राजदलों की जरूरतों की पूर्ति में न्यायपालिका की सहभागिता दुखद है । देशभर में न्यायपालिका के खिलाफ व्याप्त ऐसी कुशंका का निराकरण स्वयं न्यायपालिका को करना होगा। अब तो चर्चा यहां तक होने लगी कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद मुंबई का कुख्यात आदर्श घोटाला कांड भी कहीं दफन ना हो जाए। सीबीआई की ओर से महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और कतिपय अन्य प्रभावशाली राजनीतिकों तथा अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाले सीबीआई अधिकारी का 24 घंटे के अंदर तबादले में निहित संदेश साफ है। कांग्रेस शासित राज्य सरकार की ओर से अदालत में पहले ही चुनौती दी जा चुकी है कि मामले की जांच सीबीआई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। एफआईआर दर्ज कराने के बाद सीबीआई अधिकारी ने संकेत दिया था कि दो अन्य मुख्यमंत्री, जो अब केंद्र में मंत्री हैं, के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है। उक्त अधिकारी के तबादले से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि सीबीआई के जो अधिकारी निष्पक्षता, निडरता और ईमानदारी से काम करेंगे उन्हें दंडित होना होगा। कुछ दशक पूर्व बिहार में कुछ प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के घर सीबीआई के छापे पडऩे के बाद सीबीआई के संबंधित अधिकारी अरूल को तत्काल वापस उनके कैडर तमिलनाडू भेज दिया गया था। बोफोर्स कांड, सेंड किट्स मामला, एयर बस, हवाला मामले में जैन बंधुओं की डायरी का रहस्योद्घाटन, झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, पॉंडेचेरी लायसेन्स घोटाला, लखुभाई पाठक धोखाधड़ी कांड आदि ऐसे अनेक मामले सीबीआई पर 'राजनीतिक प्रभाव' की चुगली करते हंै। सीबीआई तो खैर एक सरकार नियंत्रित जांच एजेंसी है, चिंता न्यायपालिका को लेकर है। अगर न्यायपालिका भी सत्ता पक्ष के राजनीतिक हित साधने का माध्यम बन जाए तब लोकतंत्र के स्वरूप और भविष्य को लेकर बहस तो छिड़ेगी ही। कहते हंै कि कांग्रेस पर मायावती का दबाव था कि राष्ट्रपति चुनाव के पहले उनके खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के मामले को खत्म किया जाए। हो सकता है ऐसा नहीं हो, किंतु अदालती फैसले का समय अर्थात 'टाइमिंग' संदेह पैदा करने वाला है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई के इस्तेमाल से आगे बढ़ते हैं। जब राजनीतिक विरोधियों के समर्थन के लिए सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय का 'उपयोग' होने लगे तब सरकार व न्यायपालिका दोनों अविश्वसनीय बन जाएंगी। चंूकि, लोकतंत्र में सत्ता पर एकाधिकार संभव नहीं, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखने के साथ-साथ निष्पक्षता को भी चिन्हित करना होगा।
Sunday, July 8, 2012
न्यायपालिका भी हवा के 'रुख' के साथ !
हालांकि टिप्पणि अरुचिकर होगी, संभवत: न्यायालय की अवमानना भी, परंतु, आम लोगों की स्वस्फूर्त पहली प्रतिक्रिया देश के सामने आनी चाहिए। अपने लिए यह कर्तव्य भी है और दायित्व भी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री को सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत को लोग पचा नहीं पा रहे। केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) द्वारा मायावती के खिलाफ दायर एफआईआर को रद्द कर सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी आधार पर भले ही न्याय किया हो, किंतु न्याय होता हुआ नहीं दिख रहा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में लोग 'राजनीतिक हस्तक्षेप' की झलक देख रहे हैं। दबी जुबान से नहीं, बल्कि लोग खुलकर कह रहे हैं कि केंद्र, विशेषकर कांग्रेस, के साथ किसी 'समझौते' की ऐवज में मायावती को अदालती राहत मिली है। सत्ता के ईशारे पर नाचने वाली सीबीआई ने भले ही अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर मायावती के खिलाफ मामला दर्ज किया हो, परंतु यह तो पूछा ही जाएगा कि पिछले आठ वर्षों की अवधि में सीबीआई जांच की अनदेखी क्यों की गई। जबकि, जांच एजेंसी जांच की अद्यतन स्थिति से अदालत को हमेशा अवगत कराती रही। तब अदालत का मौन और अब मायावती को राहत से सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय की भूमिका पर भी संदेह पैदा होना स्वाभविक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आदेश देने वाले विद्वान न्यायधीशों ने अपने एक सहयोगी न्यायधीश की उस टिप्पणी को 'आदर्श' मान लिया जिसमें कहा गया था कि 'बुद्धिमान हमेशा हवा के रुख के साथ चलते हैं'। कांग्रेस को केंद्र में अपनी सत्ता बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ मायावती की भी जरूरत है, इसे सभी जानते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसी जरूरतें सौदेबाजी से ही पूरी की जाती रही हंै। राजदलों की जरूरतों की पूर्ति में न्यायपालिका की सहभागिता दुखद है । देशभर में न्यायपालिका के खिलाफ व्याप्त ऐसी कुशंका का निराकरण स्वयं न्यायपालिका को करना होगा। अब तो चर्चा यहां तक होने लगी कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद मुंबई का कुख्यात आदर्श घोटाला कांड भी कहीं दफन ना हो जाए। सीबीआई की ओर से महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और कतिपय अन्य प्रभावशाली राजनीतिकों तथा अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाले सीबीआई अधिकारी का 24 घंटे के अंदर तबादले में निहित संदेश साफ है। कांग्रेस शासित राज्य सरकार की ओर से अदालत में पहले ही चुनौती दी जा चुकी है कि मामले की जांच सीबीआई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। एफआईआर दर्ज कराने के बाद सीबीआई अधिकारी ने संकेत दिया था कि दो अन्य मुख्यमंत्री, जो अब केंद्र में मंत्री हैं, के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है। उक्त अधिकारी के तबादले से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि सीबीआई के जो अधिकारी निष्पक्षता, निडरता और ईमानदारी से काम करेंगे उन्हें दंडित होना होगा। कुछ दशक पूर्व बिहार में कुछ प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के घर सीबीआई के छापे पडऩे के बाद सीबीआई के संबंधित अधिकारी अरूल को तत्काल वापस उनके कैडर तमिलनाडू भेज दिया गया था। बोफोर्स कांड, सेंड किट्स मामला, एयर बस, हवाला मामले में जैन बंधुओं की डायरी का रहस्योद्घाटन, झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, पॉंडेचेरी लायसेन्स घोटाला, लखुभाई पाठक धोखाधड़ी कांड आदि ऐसे अनेक मामले सीबीआई पर 'राजनीतिक प्रभाव' की चुगली करते हंै। सीबीआई तो खैर एक सरकार नियंत्रित जांच एजेंसी है, चिंता न्यायपालिका को लेकर है। अगर न्यायपालिका भी सत्ता पक्ष के राजनीतिक हित साधने का माध्यम बन जाए तब लोकतंत्र के स्वरूप और भविष्य को लेकर बहस तो छिड़ेगी ही। कहते हंै कि कांग्रेस पर मायावती का दबाव था कि राष्ट्रपति चुनाव के पहले उनके खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के मामले को खत्म किया जाए। हो सकता है ऐसा नहीं हो, किंतु अदालती फैसले का समय अर्थात 'टाइमिंग' संदेह पैदा करने वाला है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई के इस्तेमाल से आगे बढ़ते हैं। जब राजनीतिक विरोधियों के समर्थन के लिए सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय का 'उपयोग' होने लगे तब सरकार व न्यायपालिका दोनों अविश्वसनीय बन जाएंगी। चंूकि, लोकतंत्र में सत्ता पर एकाधिकार संभव नहीं, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखने के साथ-साथ निष्पक्षता को भी चिन्हित करना होगा।
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1 comment:
सटीक सार्थक विश्लेषण
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