क्षमा करेंगे, शर्मसार तो हमारी मीडिया बिरादरी ने भी किया। गुवाहाटी की सड़क पर सरेआम एक किशोरी को बे-आबरू करने वाले मनचलों को उम्रकैद क्या,फांसी दे दो! कोई उफ नहीं करेगा। कानून-व्यवस्था की रखवाली पुलिस के महानिदेशक जयंत चौधरी को भी इस टिप्पणी के लिए दंडित किया जाए कि 'पुलिस कोई 'एटीएम' मशीन नहीं है', तो किसी को गम नहीं होगा। असम सरकार को भी बर्खास्त कर दिया जाए, लोग खुश होंगे। किंतु, इन सबों के साथ घटना-स्थल पर मौजूद, चश्मदीद मीडिया कर्मियों के खिलाफ भी अन्य लोगों के सदृश कड़ी कार्रवाई क्यों न हो? क्या कोई बताएगा कि किसी भी कोने से ऐसी मांग क्यों नहीं उठी? नागरिक अधिकारों की मांग करने वालों को नागरिक कर्तव्य और दायित्व की जानकारी भी होनी चाहिए। लोकतंत्र में जान-माल, आबरू की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य की तो है, किंतु नागरिक कर्तव्य भी चिंहित हैं।
इससे मुंह मोडऩे वालों को अपराधी क्यों न घोषित किया जाए? गुवाहाटी की सड़क पर जब उस किशोरी को एक दर्जन से अधिक दरिंदे नोच-खसोट रहे थे, निर्वस्त्र कर रहे थे,तब मीडिया कर्मियों सहित वहां मौजूद भीड़ ने उसे बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? तमाशबीन भीड़ का हिस्सा बने मीडिया कर्मी यह तर्क दे नहीं बच सकते कि वो अपनी 'ड्यूटी' कर रहे थे। जब लड़की को नोचा जा रहा था , पीटा जा रहा था, लड़की चीख-चिल्ला रही थी तब घटना को कैमरे में कैद करने की 'ड्यूटी' की सराहना नहीं की जा सकती । पीडि़त युवती ने भी आरोप लगाया है कि मिन्नत-चिरौरी करने के बावजूद घटना स्थल पर मौजूद मीडिया कर्मियों ने उसकी मदद नहीं की ।
नागरिक कर्तव्य का निष्पादन करते हुए उन्हें आगे बढ़ उस युवती को दरिंदों के हाथों से छुड़ाना चाहिए था। घटना की जो विडियो किल्पिंग सार्वजनिक हुई उस से साफ पता चलता है कि मीडिया कर्मियों की दिलचस्पी युवती को बचाने में नहीं बल्कि मनचलों की अश्लील हरकतों को कैमरे में कैद करने में थी। कैमरे की आंखें प्रतीक्षा कर रही थीं कि वह युवती कब और कैसे निर्वस्त्र की जाती है।
क्या यह 'ड्यूटी' हुई? बिल्कुल नहीं ! यह तो एक अश्लील कृत्य में भागीदार बनना हुआ। प्रतिदिन हर पल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार की दुहाई देने वाले मीडिया कर्मियों से गुवाहाटी ही नहीं बल्कि पूरा देश जानना चहेगा कि क्या आंखों के सामने हो रहे अपराध को रोकना उनका कर्तव्य नहीं है। अगर मीडिया कर्मियों को अपने नागरिक कर्तव्य का एहसास होता तो वे पहल करते -भीड़ भी उनका साथ देती-और तब निश्चय ही गुंडे युवती के साथ मनमानी नहीं कर पाते। मनचले-गुंडे घटना स्थल पर ही दबोच लिए जाते। मीडिया कर्मियों को 'खबर' तब भी मिल जाती। खेद है कि उन्होंने नपुंसक भीड़ का हिस्सा बनना पसंद किया। सन् 2002 में सूरत दंगों के दौरान भी मीडिया कर्मियों ने पूरी बिरादरी को शर्मशार कर दिया था। तब गुंडों के हाथों निर्वस्त्र हुई युवतियां सड़कों पर भाग रही थीं, गुंडे पीछा कर रहे थे। मीडिया कर्मी तब भी युवतियों को बचाने की जगह निर्वस्त्र युवतियों को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे। हो सकता है कि ऐसे मीडिया कर्मी कानून के अपराधी न हों, लेकिन समाज के अपराधी तो वे बन ही जाते हैं। गुवाहाटी की घटना पर तो हमारा सिर शर्म से झुक गया, मीडिया कर्मियों की 'नपुंसकता' पर तो हम बेजुबां बन बैठे हैं। अघोषित विशेषाधिकार से लैस मीडिया जगत क्या इस पर आत्मचिंतन करेगा?
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यर्थाथ
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