centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Monday, June 18, 2012

ममता की व्यथा, राजनीति का सच!


''... राजनीति में नीति और नैतिकता खत्म हो गई है... सिर्फ पैसे का खेल चल रहा है... पैसा, पावर, घोटाले का बोलबाला है। '' पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की इस व्यथा को क्या कोई चुनौती दे सकता है? संभव ही नहीं! ममता ने वर्तमान राजनीति के कड़वे सच को चिन्हित किया है। ममता की व्यक्तिगत ईमानदारी संदेह से परे है। समाज के प्रति उनका समर्पण और आमजन की सुख-समृद्धि की उनकी चाहत स्पष्टत: दृष्टिगोचर है। लंबे राजनीतिक संघर्ष के दिनों में भी पसीना बहा सड़कों पर आम कार्यकर्ता के साथ जनहित में मोर्चा संभालने वाली ममता पहले केंद्रीय मंत्री और अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बगैर किसी अहंकार के एक सामान्य महिला के रूप में शासन की बागडोर संभाल रही हैं। आलोचक उन्हें भले ही अक्खड़ कह लें, लेकिन ऐसा अक्खड़पन कोई ईमानदार व्यक्ति ही दिखा सकता है। हमेशा दोटूक बोलने वाली ममता ने जब वर्तमान राजनीति के सच को उकेरा है तब निश्चय ही अपने अनुभव के आधार पर ही। बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। आजादी के बाद शासन के आरंभिक दौर को छोड़ दें तब ऐसे आरोप लगाने में कोई भी नहीं हिचकेगा कि वर्तमान राजनीति नैतिकता की पुरानी नींव की जगह अनैतिकता की नई नींव पर खड़ी है। निजी बैठकों में या फिर सार्वजनिक मंच से नैतिकता की दुहाई देने वाले नेता मन ही मन स्वयं पर हंसते हैं। चूंकि वे सचाई से अवगत होते हैं, अपने 'अभिनय' की सराहना में मुदित तो होंगे ही। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी सुविधानुसार नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ लेते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि नैतिकता के 'छूत' से बचने के लिए आज प्राय: सभी राजदल छद्म धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, जातीयता और क्षेत्रीयता जैसी संकीर्ण विचारधारा को ढाल बना लेते हैं। सत्ता वासना के इस खेल में सभी शामिल हैं। किसी एक दल का कोई व्यक्ति विशेष आज किसी दूसरे दल की दृष्टि में अछूत हो सकता है, किन्तु वही व्यक्ति विशेष जब पाला बदल उनके दल में शामिल हो जाता है तब वह पवित्र बन जाता है। निश्चय ही ये सब पैसा, पावर और घोटाले के खेल के ही अंग हैं। देश ने वह काल भी देखा है जब 1996 में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में विजय पाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार तो बनाई किन्तु प्रधानमंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्ति के होने के बावजूद सरकार 13 दिन में ही गिर गई। तब 'सांप्रदायिक भाजपा' को समर्थन देने कोई दल सामने नहीं आया। किन्तु कुछ महीने बाद ही जब पुन: भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, तब लगभग दो दर्जन दल उसके सहयोगी बने। भाजपा अछूत से पवित्र बन गई। उसी काल में देश ने देखा कि कैसे सोनिया गांधी की कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की सरकार को इसलिए गिरा दिया कि उनके मंत्रिमंडल में द्रमुक भी शामिल थी। सोनिया गांधी के अनुसार, द्रमुक उनके पति राजीव गांधी की हत्या के लिए दोषी थी। लेकिन वही द्रमुक सोनिया गांधी के नेतृत्व में गठित संप्रग सरकार में आज भी शामिल है। ममता बिल्कुल सही हैं। नीति और नैतिकता को सभी दलों ने कूड़ेदान में डाल दिया है।
ममता यहां भी बिल्कुल सही हैं जब वे कहती हैं कि राजनीति में आज सिर्फ पैसे का खेल चल रहा है। लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद के लिए चयनित महानुभावों की सूचियों पर गौर करें। कुछ अपवाद छोड़ दें तो यही तथ्य उभर कर सामने आएगा कि इनके चयन के पीछे पैसा और सिर्फ पैसा का ही खेल रहा है। लोकसभा की तो छोड़ दें, विधान परिषद के चुनावों में भी करोड़ों का खेल होता है। क्या यह बताने की जरूरत है कि ऐसे धन का स्रोत कालाधन ही होता है? क्या यह भी बताने की जरूरत है कि ऐसे कालाधन भ्रष्टाचार द्वारा ही अर्जित किए जाते हैं? फिर ऐसे महान निर्वाचित प्रतिनिधियों से पवित्र लोकतंत्र की सुरक्षा अपेक्षा कोई करे तो कैसे? आज अगर पूरी की पूरी व्यवस्था सड़ कर बदबू पैदा कर रही है तो इसके लिए जिम्मेदार निश्चय ही हमारे ऐसे तथाकथित निर्वाचित प्रतिनिधि ही हैं। वे नाराज होंगे, खफा होंगे, उबलेंगे लेकिन यह कड़वा सच मोटी रेखाओं से चिन्हित रहेगा। और हां, अंत में ऐसे सच को एक सत्ता पक्ष की ओर से रेखांकित करने के लिए ममता बनर्जी को सलाम!

No comments: