''.... मैं देख लूंगी!'' ये शब्द हैं तब की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के। लगभग 43 वर्ष पूर्व 1969 में इंदिरा गांधी ने ऐसी शाब्दिक चेतावनी अपनी ही कांग्रेस पार्टी की कार्यकारिणी समिति को दी थी। आज चार दशक बाद केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की गठबंधन सरकार की एक सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दहाड़ रही हैं कि ''.... मैं किसी से नहीं डरती, मैं किसी के आगे नहीं झुकूंगी।'' विडंबना यह कि ये चेतावनियां दोनों महिला राजनेताओं ने राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच दी। भारत की आजादी की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ''हम पुराने से नए में प्रवेश करते हैं, जब एक युग समाप्त होता है और लंबे समय से दबी हुई एक देश की आत्मा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती है।'' नेहरू की आत्मा आज निश्चय ही विलाप कर रही होगी, यह देख-सुन कर कि आज 'अभिव्यक्ति' को अवसरवादी संतुलन का हथियार बना दिया गया है।
सुविधानुसार नैतिकता और मर्यादा की बेडिय़ों से इसे बांध दिया जाता है। सत्तारूढ़ संप्रग द्वारा राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया में ममता बनर्जी कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलती हैं। बैठक पश्चात जब वह मीडिया को सोनिया की पसंद बताती हैं, तब कांग्रेस की ओर से उन पर मर्यादा भंग करने का आरोप लगता है। कहा गया कि उन्होंने विचाराधीन नामों को सार्वजनिक कर मर्यादा भंग की। ममता की ओर से स्पष्टीकरण आया कि सोनिया की सहमति से ही नाम सार्वजनिक किए गए। कांग्रेस मौन हो गई। साफ है कि आरोप गलत थे। मर्यादा और नैतिकता की बातें ममता के विरुद्ध वातावरण तैयार कर उन्हें नीचा दिखाने के लिए की गई थीं। मर्यादा की दुहाई देने वाले कांग्रेसी नेताओं को 1969 की याद कर लेनी चाहिए थी। आज तो मामला जटिल गठबंधन का है। तब केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार थी। अति महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेस संगठन की इच्छा को ठेंगे पर रखते हुए पार्टी द्वारा चयनित राष्ट्रपति उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ अपनी पसंद वी.वी. गिरी को खड़ा कर दिया था। दलीय अनुशासन और नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हुए इंदिरा गांधी ने तब अपनी ही कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ कथित 'अंतरात्मा की आवाज' पर मतदाता सांसदों और विधायकों से वोट डालने की अपील कर डाली। कांग्रेस इतिहास का वह एक सर्वाधिक काला अध्याय बन गया। सो, कम-अ•ा-कम कांग्रेस नैतिकता और मर्यादा की दुहाई तो न ही दे। पार्टी अनुशासन तोड़ कर मर्यादा का उल्लंघन कर तब इंदिरा गांधी अपने अभियान में सफल रही थीं- अपनी ही कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को पराजित कर।
आज जब कांग्रेस बल्कि संप्रग के पास अपने उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को जिताने के लिए आवश्यक बहुमत नहीं है, पार्टी और गठबंधन क्या अवसरवादी खेल नहीं खेल रहा? ज्ञात श्रोतों से अधिक आय और संपत्ति के मामले में सीबीआई जांच का सामना कर रहे मुलायम सिंह यादव, ऐसे ही आरोप से जूझ रहीं मायावती और कुख्यात चारा घोटाले के महानायक लालू प्रसाद यादव के सहयोग से अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति भवन में आसीन कराने की कवायद क्या अवसरवादिता और अनैतिक साठगांठ को चिन्हित नहीं करता? निश्चय ही छल-कपट आधारित इस कवायद की परिणति किसी सुखद पवित्रता के रूप में तो नहीं ही होगी। बंगाल की शेरनी के रूप में परिचित ममता बनर्जी जब अपनी 'निडरता' को रेखांकित कर रही हैं, तब यहां भी किसी सुखद अंजाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती। संप्रग की ओर से बंगाल के प्रणब मुखर्जी को आगे करना अगर अवसरवादी राजनीति की एक चाल है तो बंगाल की ममता बनर्जी द्वारा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को सामने करना भी सियासी चाल ही है। इस पूरे प्रकरण का सर्वाधिक दुखद पहलू है राष्ट्रपति पद की गरिमा को तार-तार करना। भारत जैसे गणराज्य का राष्ट्रपति तो सर्वमान्य होना चाहिए। इस पद और व्यक्ति को लेकर अवसरवादी सोच और सियासी चाल को स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए। डा. राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन की परंपरा को तोड़ व्यक्तिगत पसंद और नापसंद को महत्व दिये जाने का दुष्परिणाम ही है यह। दुखद रूप से देश ने फखरुद्दीन अली अहमद के रूप में ऐसा राष्ट्रपति भी देखा है जिसने संवैधानिक आवश्यकता को दरकिनार कर देश पर आपातकाल थोपने संबंधी आदेश पर आधी रात को हस्ताक्षर कर दिए थे। तब राष्ट्रपति भूल गए थे कि उनके हस्ताक्षर से आजाद भारत के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। तब आजादी की लड़ाई के लाडले जेलों में बंद कर दिए गए थे। जन अभिव्यक्ति का माध्यम 'प्रेस' की जुबान पर ताले जड़ दिए गये थे। यही नहीं, ज्ञानी जैल सिंह के रूप में भी देश ने एक ऐसे राष्ट्रपति को देखा जिसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ''अगर इंदिरा गांधी उन्हें राष्ट्रपति भवन में झाड़ू लगाने का काम देतीं तो उसे भी स्वीकार कर लेते।'' राष्ट्रपति और राष्ट्रपति पद की मर्यादा को तब रौंदा गया था।
हम अतीत की याद वर्तमान और भविष्य को सुधारने के लिए करते हैं। मर्यादा और नैतिकता की बातें करने वाले इतिहास के पन्नों को उलट सचाई को जान लें। अभी भी समय है। राष्ट्रपति पद को विवादों से दूर रखने के लिए आम सहमति बनाएं। किसी व्यक्ति विशेष को निशाने पर लेकर राजनीतिक लाभ साधने की कवायद का त्याग करें। और अंत में, महत्वपूर्ण यह भी कि देश फैसला करे कि हमें एक महान राष्ट्र का महान नागरिक बनना है, न कि एक महान राष्ट्र में तुच्छ नागरिक बन कर रहना है।
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