भाजपा नेतृत्व सावधान हो जाए! कभी बिहार को पूरे संसार की नजरों में 'कुख्यात' बना डालने वाले लालू प्रसाद यादव के पुराने सहयोगी और अब जदयू के 'लाडले' बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी उसी रणनीति को अंजाम दे रहे हैं जिसकी रूपरेखा उन्होंने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही तैयार कर ली थी। तब विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में नहीं आने देने की शर्त नीतीश ने यूं ही नहीं रखी थी। वे वस्तुत: भाजपा नेतृत्व को भड़का उसकी परीक्षा ले रहे थे। तब की राजनीतिक जरूरत के कारण भाजपा ने नीतीश की शर्त को मान लिया था। ना की हालत में नीतीश कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने वाले थे। अगर चुनाव परिणाम अप्रत्याशित नहीं होते, भाजपा को 91 सीटों के साथ बड़ी सफलता नहीं मिलती, तब नीतीश अपना रंग उसी समय दिखा देते। तब नरेंद्र मोदी को बिहार-प्रवेश से वंचित रखने में सफल नीतीश अब अगर राष्ट्रीय परिदृश्य से मोदी को अलग रखने का मंसूबा पाल रहे हैं, तो अपनी संकुचित अवसरवादी सोच के कारण ही।
दबाव का यह नया खेल क्षेत्रीय राजनीति का कोई तुक्का मात्र नहीं है। राष्ट्रीय दलों को एक सोची-समझी योजना के तहत ये गंभीर चुनौतियां हैं। कांग्रेस नेतृत्व की केंद्रीय सरकार की हर मोर्चे पर विफलता के कारण देश की जनता भाजपा को विकल्प के रूप में देख रही है। चूंकि अनेक राज्यों में जनाधार की कमी के कारण भाजपा अकेले दम पर केंद्र में सरकार का गठन नहीं कर सकती, क्षेत्रीय दलों का सहयोग-समर्थन अपरिहार्य है। भाजपा की इस जरूरत को ध्यान में रखकर ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी जदयू और शिवसेना ने भाजपा पर अपने दबाव बढ़ा दिए हैं। अब इसे भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) कहें या राजनीतिक अवसरवादिता, दोनों दलों ने विशेषकर जदयू ने आक्रामक रूप अपना लिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में इन दोनों ने आक्रमण को प्रहसन भी बना डाला है। जरा गौर करें। जदयू के एकमात्र मुख्यमंत्री बिहार के नीतीश कुमार और उनके प्रवक्ता शिवानंद तिवारी अब धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की न केवल नई परिभाषा गढऩे लगे हैं, बल्कि राजग के सबसे बड़े घटक भाजपा को परामर्श देने लगे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार कैसा हो। एक ताजा सर्वे के अनुसार, भारतीय नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदूवादी नेता निरूपित कर नीतीश और तिवारी ने यहां तक चेतावनी दे डाली थी कि अगर मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया जाता है, तब वे राजग से अलग हो जाएंगे। आरोप और चेतावनी दोनों हास्यास्पद हैं। अव्वल तो यह कि भाजपा ने किसी को भी अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। लोकसभा चुनाव में अभी दो वर्ष बाकी हैं। दूसरा यह कि 'हिंदूवादी नेता' से नीतीश-तिवारी का आशय क्या है? तीसरा यह कि ऐन राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर ऐसे विवादास्पद बयान क्यों आए? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढऩे से पहले नीतीश कुमार और शिवानंद तिवारी के अतीत के संबंध में जान लेना जरूरी है। ये दोनों कभी बिहार में कुख्यात हो चुके लालूप्रसाद यादव के सहयोगी रहे हैं- बल्कि बिहार में लालू मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके हैं। सच तो यह है कि 1990 में लालू जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब मंत्री नीतीश कुमार लालू के 'फ्रेंड-फिलास्फर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। लालू तब कोई भी फैसला बगैर नीतीश को विश्वास में लिये नहीं करते थे। नीतीश की स्वच्छ छवि का पूरा फायदा लालू ने तब उठाया था। ईमानदार और बेबाक नीतीश ने अंतत: स्वयं को लालू से अलग कर लिया। जदयू में गए, केंद्र में राजग सरकार में मंत्री बने, लालू के भ्रष्ट शासन के खिलाफ अभियान छेड़ा और भाजपा का सहयोग ले बिहार में मुख्यमंत्री बने।
अब बात शिवानंद तिवारी की। ब्रिटिश शासनकाल में एक सिपाही (कांस्टेबल), फिर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, कृपलानी और डा. राममनोहर लोहिया की समाजवादी पार्टी के सदस्य, बिहार की पहली गैरकांग्रेसी सरकार (1967) के गृहमंत्री, हर दृष्टि से ईमानदार रामानंद तिवारी के पुत्र हैं शिवानंद तिवारी। छात्र जीवन में उनकी गतिविधियों की अनेक रोचक गाथाएं आज भी पटना के गली-मोहल्लों में अक्सर चर्चा का विषय बनती हैं। नीतीश की तरह लालू को छोड़ जदयू में शामिल शिवानंद जब कहते हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सेक्युलर हो और यह कि जिस प्रकार प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री के रूप में महंगाई पर काबू पाया, सत्ता में रहकर भाजपा नहीं कर सकती थी, तब निश्चय ही हास्य-प्रसंग बनता है। राष्ट्रपति के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन की घोषणा करने वाले जदयू के नेता ने प्रणब का हास्यास्पद गुणगान कर दल की नीयत पर सवालिया निशान जड़ दिया है। हर दिन बढ़ रही कमरतोड़ महंगाई पर नियंत्रण का प्रमाणपत्र देकर प्रणब को हीरो बनाने वाले शिवानंद क्या जनता को बताएंगे कि देश के किस भाग में, किस मोहल्ले में, किस गली में, किस नुक्कड़ पर प्रणब ने महंगाई को थाम लिया है! देश की अर्थव्यवस्था को तार-तार कर देने वाली सरकार के अर्थ मंत्री प्रणब मुखर्जी स्वयं भी अपने लिये ऐसे महिमामंडन पर हंस रहे होंगे। रही बात सेक्युलर प्रधानमंत्री की, तो पहले शिवानंद यह बताएं कि सन 2002 में जिस गुजरात दंगे के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हुए जदयू मोदी का विरोध कर रहा है, उस समय भाजपा के अटल बिहारी मंत्रिमंडल में शामिल नीतीश कुमार ने विरोध स्वरूप मंत्री पद का त्याग क्यों नहीं कर दिया था? तब तो नीतीश ने एक शब्द भी मोदी के खिलाफ नहीं बोले थे। अगर बात दंगों की ही की जाए तब गुजरात से कहीं अधिक भयावह 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब का समर्थन नीतीश और शिवानंद क्यों कर रहे हैं। ये दोनों क्या भूल गए हैं कि कांग्रेस नेताओं की अगुवाई में हुए सिख विरोधी दंगे में अकेले दिल्ली में 3000 से अधिक सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की दुहाई देने वाले ये दोनों नेता आज जब कांग्रेस का साथ दे रहे हैं, तब समय आने पर जनता इनसे जवाब मांगेगी। नीतीश और शिवानंद अभी अपने अभियान के क्रम में लोकतंत्र की दुहाई देने से भी नहीं चूके हैं। जानबूझ कर इतिहास से मुंह मोड़ लेने वाले इन नेताओं को याद दिलाया जाना चाहिए कि वे उसी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं जिसने लोकतंत्र को रौंदते हुए देश पर आपातकाल थोपा था और आम जनता को उसके मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर दिया था। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसने पहले 1982 में बिहार प्रेस बिल के जरिये और फिर 1988 में 'प्रेस अधिनियम' के जरिये प्रेस का मुंह बंद कर संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने की कोशिशें की थी। तब स्वयं नीतीश और शिवानंद ने कांग्रेस सरकार के इन कदमों का चिल्ला-चिल्ला कर विरोध किया था। जाहिर है कि आज जब ये दोनों न केवल राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं बल्कि कांग्रेस का गुणगान कर रहे हैं, तब इनकी नीयत संदिग्ध है। कहीं पर निगाहें-कहीं पर निशाना की तर्ज पर ये गठबंधन की राजनीति के फायदे को अपने हित में हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
दबाव का यह नया खेल क्षेत्रीय राजनीति का कोई तुक्का मात्र नहीं है। राष्ट्रीय दलों को एक सोची-समझी योजना के तहत ये गंभीर चुनौतियां हैं। कांग्रेस नेतृत्व की केंद्रीय सरकार की हर मोर्चे पर विफलता के कारण देश की जनता भाजपा को विकल्प के रूप में देख रही है। चूंकि अनेक राज्यों में जनाधार की कमी के कारण भाजपा अकेले दम पर केंद्र में सरकार का गठन नहीं कर सकती, क्षेत्रीय दलों का सहयोग-समर्थन अपरिहार्य है। भाजपा की इस जरूरत को ध्यान में रखकर ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी जदयू और शिवसेना ने भाजपा पर अपने दबाव बढ़ा दिए हैं। अब इसे भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) कहें या राजनीतिक अवसरवादिता, दोनों दलों ने विशेषकर जदयू ने आक्रामक रूप अपना लिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में इन दोनों ने आक्रमण को प्रहसन भी बना डाला है। जरा गौर करें। जदयू के एकमात्र मुख्यमंत्री बिहार के नीतीश कुमार और उनके प्रवक्ता शिवानंद तिवारी अब धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की न केवल नई परिभाषा गढऩे लगे हैं, बल्कि राजग के सबसे बड़े घटक भाजपा को परामर्श देने लगे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार कैसा हो। एक ताजा सर्वे के अनुसार, भारतीय नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदूवादी नेता निरूपित कर नीतीश और तिवारी ने यहां तक चेतावनी दे डाली थी कि अगर मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया जाता है, तब वे राजग से अलग हो जाएंगे। आरोप और चेतावनी दोनों हास्यास्पद हैं। अव्वल तो यह कि भाजपा ने किसी को भी अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। लोकसभा चुनाव में अभी दो वर्ष बाकी हैं। दूसरा यह कि 'हिंदूवादी नेता' से नीतीश-तिवारी का आशय क्या है? तीसरा यह कि ऐन राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर ऐसे विवादास्पद बयान क्यों आए? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढऩे से पहले नीतीश कुमार और शिवानंद तिवारी के अतीत के संबंध में जान लेना जरूरी है। ये दोनों कभी बिहार में कुख्यात हो चुके लालूप्रसाद यादव के सहयोगी रहे हैं- बल्कि बिहार में लालू मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके हैं। सच तो यह है कि 1990 में लालू जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब मंत्री नीतीश कुमार लालू के 'फ्रेंड-फिलास्फर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। लालू तब कोई भी फैसला बगैर नीतीश को विश्वास में लिये नहीं करते थे। नीतीश की स्वच्छ छवि का पूरा फायदा लालू ने तब उठाया था। ईमानदार और बेबाक नीतीश ने अंतत: स्वयं को लालू से अलग कर लिया। जदयू में गए, केंद्र में राजग सरकार में मंत्री बने, लालू के भ्रष्ट शासन के खिलाफ अभियान छेड़ा और भाजपा का सहयोग ले बिहार में मुख्यमंत्री बने।
अब बात शिवानंद तिवारी की। ब्रिटिश शासनकाल में एक सिपाही (कांस्टेबल), फिर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, कृपलानी और डा. राममनोहर लोहिया की समाजवादी पार्टी के सदस्य, बिहार की पहली गैरकांग्रेसी सरकार (1967) के गृहमंत्री, हर दृष्टि से ईमानदार रामानंद तिवारी के पुत्र हैं शिवानंद तिवारी। छात्र जीवन में उनकी गतिविधियों की अनेक रोचक गाथाएं आज भी पटना के गली-मोहल्लों में अक्सर चर्चा का विषय बनती हैं। नीतीश की तरह लालू को छोड़ जदयू में शामिल शिवानंद जब कहते हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सेक्युलर हो और यह कि जिस प्रकार प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री के रूप में महंगाई पर काबू पाया, सत्ता में रहकर भाजपा नहीं कर सकती थी, तब निश्चय ही हास्य-प्रसंग बनता है। राष्ट्रपति के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन की घोषणा करने वाले जदयू के नेता ने प्रणब का हास्यास्पद गुणगान कर दल की नीयत पर सवालिया निशान जड़ दिया है। हर दिन बढ़ रही कमरतोड़ महंगाई पर नियंत्रण का प्रमाणपत्र देकर प्रणब को हीरो बनाने वाले शिवानंद क्या जनता को बताएंगे कि देश के किस भाग में, किस मोहल्ले में, किस गली में, किस नुक्कड़ पर प्रणब ने महंगाई को थाम लिया है! देश की अर्थव्यवस्था को तार-तार कर देने वाली सरकार के अर्थ मंत्री प्रणब मुखर्जी स्वयं भी अपने लिये ऐसे महिमामंडन पर हंस रहे होंगे। रही बात सेक्युलर प्रधानमंत्री की, तो पहले शिवानंद यह बताएं कि सन 2002 में जिस गुजरात दंगे के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हुए जदयू मोदी का विरोध कर रहा है, उस समय भाजपा के अटल बिहारी मंत्रिमंडल में शामिल नीतीश कुमार ने विरोध स्वरूप मंत्री पद का त्याग क्यों नहीं कर दिया था? तब तो नीतीश ने एक शब्द भी मोदी के खिलाफ नहीं बोले थे। अगर बात दंगों की ही की जाए तब गुजरात से कहीं अधिक भयावह 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब का समर्थन नीतीश और शिवानंद क्यों कर रहे हैं। ये दोनों क्या भूल गए हैं कि कांग्रेस नेताओं की अगुवाई में हुए सिख विरोधी दंगे में अकेले दिल्ली में 3000 से अधिक सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की दुहाई देने वाले ये दोनों नेता आज जब कांग्रेस का साथ दे रहे हैं, तब समय आने पर जनता इनसे जवाब मांगेगी। नीतीश और शिवानंद अभी अपने अभियान के क्रम में लोकतंत्र की दुहाई देने से भी नहीं चूके हैं। जानबूझ कर इतिहास से मुंह मोड़ लेने वाले इन नेताओं को याद दिलाया जाना चाहिए कि वे उसी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं जिसने लोकतंत्र को रौंदते हुए देश पर आपातकाल थोपा था और आम जनता को उसके मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर दिया था। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसने पहले 1982 में बिहार प्रेस बिल के जरिये और फिर 1988 में 'प्रेस अधिनियम' के जरिये प्रेस का मुंह बंद कर संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने की कोशिशें की थी। तब स्वयं नीतीश और शिवानंद ने कांग्रेस सरकार के इन कदमों का चिल्ला-चिल्ला कर विरोध किया था। जाहिर है कि आज जब ये दोनों न केवल राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं बल्कि कांग्रेस का गुणगान कर रहे हैं, तब इनकी नीयत संदिग्ध है। कहीं पर निगाहें-कहीं पर निशाना की तर्ज पर ये गठबंधन की राजनीति के फायदे को अपने हित में हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
2 comments:
कितना सटीक विश्लेषण किया है सरजी आपने, वास्तव मंे नीतीश कुमार की इस कदम से पूरा बिहार और देश दुखी है पर राजनीति तो स्वार्थ की होती है और नीतीश जी इसमें माहीर है..
विरोध के अपने राजनीतिक कारण हैं । साम्यवादियों को छोडकर कोई भी दल प्रणव दा का विरोध या समर्थन सिद्धांत के कारण नही बल्कि अपने राजनीतिक हित के कारण कर रहा है । साम्यवादियों मे सिर्फ़ सीपीएम सिद्धांतविहिन राजनीति कर रही है ।
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