मुलायम सिंह यादव के इन्कार पर भला कोई विश्वास करे तो कैसे? उनकी सफाई कि राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी को समर्थन के पीछे कोई 'सौदेबाजी' नहीं की गई है, अविश्वसनीय है। कोई और क्या, स्वयं मुलायम सिंह की आत्मा जानती होगी कि वे झूठ बोल रहे हैं। घोर अवसरवादी और वंशवादी राजनीति के प्रेरक-पोषक मुलायम यादव बगैर स्वार्थ के ऐसा कोई कदम उठा ही नहीं सकते। स्वार्थपूर्ति चाहे व्यक्तिगत हो, परिवार की हो या पार्टी की। सौदेबाज मुलायम स्वहित से ही प्रेरित होते हैं। अब चाहे इनके गुरु स्व. राम मनोहर लोहिया स्वर्ग में बैठे जितना भी आंसू बहा लें, मुलायम-परिवार का 'सुख-सागर' भरता ही जाएगा। ऐसी सौदेबाजी से मुलायम व उनका परिवार सदा लाभान्वित होता रहा है। ताजा राष्ट्रपति चुनाव तो उनके लिए अनेक अवसर लेकर आया है। शत-प्रतिशत अनुभवहीन पुत्र अखिलेश को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठा स्वयं केंद्र की राजनीति करने वाले मुलायम जानते हैं कि नदी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जा सकता। आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी का हश्र उनके सामने है। जगन ने कांग्रेस को चुनौती दी। आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में आनन-फानन में सीबीआई ने उन्हें जेल में डाल दिया। मुलायम के ऊपर ऐसे अनेक मामले वर्षों से लंबित हैं। लेकिन वे न केवल जेल के बाहर हैं बल्कि हर सत्ता सुख को भोग रहे हैं। राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार के मामले में पहले ममता बनर्जी के कंधे पर हाथ रखा, बाद में ठेंगा दिखा दिया। आशावान ममता को न केवल अकेला छोड़ दिया बल्कि उन्हें 'मेरा' और 'हमारा' के बीच फर्क का पाठ पढ़ाया गया। क्या यह कांग्रेस के साथ हुई सौदेबाजी का अंश नहीं? अखिलेश को उत्तर प्रदेश चलाने के लिए केंद्र का समर्थन चाहिए तो महत्वाकांक्षी मुलायम को ब-रास्ता दिल्ली राष्ट्रीय राजनीति में पैर फैलाने का अवसर। संप्रग और सरकार से ममता के अलग होने पर रिक्त रेल मंत्रालय सहित मंत्रिपरिषद के पांच पदों पर मुलायम की नजरें टिकी हैं। दोनों हाथों से मलाई खाने की इच्छा रखने वाले मुलायम जानते हैं कि फिलहाल सोनिया गांधी का साथ देकर ही वे जेल से बाहर रह सत्ता सुख भोग सकते हैं। अपनी अवसरवादी सौदेबाजी से मुलायम पहले भी लाभान्वित होते रहे हैं। 1995 के जून महीने में जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार अल्पमत में आ गई थी, तब बहुजन समाज पार्टी की मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेनी थी। शपथ के एक दिन पूर्व 2 जून 1995 की शाम मुलायम सिंह यादव के समर्थकों ने बसपा के कई विधायकों पर कथित रूप से हमले किए और कुछ विधायकों का अपहरण कर लिया। इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष को घटना संबंधी जांच का जिम्मा सौंपा। एक महीने बाद जांच रिपोर्ट सौंपी गई। रिपोर्ट में यह कहा गया था कि घटना में मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा शामिल थे। नैतिकता का तकाजा था कि मुलायम को मंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ध्यान रहे, तब मुलायम केंद्र में रक्षा मंत्री बन गए थे। लोगों को आज भी याद होगा कि उसी दौरान किस प्रकार देश के रक्षा मंत्री मुलायम ने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी बेनी प्रसाद वर्मा तथा अन्य नेताओं के साथ न केवल विरोधियों को ललकारा और धमकी दी, बल्कि प्रेस को भी नहीं बख्शा। उन्होंने एक लाल दस्ता (रेड ब्रिगेड) के गठन की घोषणा करते हुए ऐलान किया था कि इसके सदस्यों के हाथों में लाठियां होंगी। मुलायम तब केंद्रीय स्तर पर बाहुबल की राजनीति के प्रेरक बने थे। बाद में मामला अदालत में भी गया। रक्षा मंत्री देश की 10 लाख सशस्त्र सेनाओं का नेतृत्व करता है जो देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए जिम्मेदार है। किन्तु तब रक्षा मंत्री मुलायम यादव नैतिकता से दूर इस्तीफे से इन्कार करते हुए अपनी जिद पर अड़े रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी समाजवादी पार्टी की आशातीत सफलता से उनकी महत्वाकांक्षाएं और भी बलवती हो गई हैं। केंद्र में संप्रग सरकार की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हुए मुलायम यादव सौदेबाजी करने लगे हैं। सरकार को बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव की जरूरत के मद्देनजर केंद्र सरकार भी उन्हें चारा डालने को मजबूर है। दोनों पक्षों की जरूरतें ही हैं कि इस ताजा मामले में सौदेबाजी को मूर्त रूप दिया गया। मुलायम चाहे जितना इन्कार कर लें, देश जानता है कि उन्होंने अपने और अपने परिवार के निजी फायदे के लिए ऐसी सौदेबाजी की है।
Tuesday, June 19, 2012
'सौदेबाजी' तो हुई ही है, मुलायम जी!
मुलायम सिंह यादव के इन्कार पर भला कोई विश्वास करे तो कैसे? उनकी सफाई कि राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी को समर्थन के पीछे कोई 'सौदेबाजी' नहीं की गई है, अविश्वसनीय है। कोई और क्या, स्वयं मुलायम सिंह की आत्मा जानती होगी कि वे झूठ बोल रहे हैं। घोर अवसरवादी और वंशवादी राजनीति के प्रेरक-पोषक मुलायम यादव बगैर स्वार्थ के ऐसा कोई कदम उठा ही नहीं सकते। स्वार्थपूर्ति चाहे व्यक्तिगत हो, परिवार की हो या पार्टी की। सौदेबाज मुलायम स्वहित से ही प्रेरित होते हैं। अब चाहे इनके गुरु स्व. राम मनोहर लोहिया स्वर्ग में बैठे जितना भी आंसू बहा लें, मुलायम-परिवार का 'सुख-सागर' भरता ही जाएगा। ऐसी सौदेबाजी से मुलायम व उनका परिवार सदा लाभान्वित होता रहा है। ताजा राष्ट्रपति चुनाव तो उनके लिए अनेक अवसर लेकर आया है। शत-प्रतिशत अनुभवहीन पुत्र अखिलेश को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठा स्वयं केंद्र की राजनीति करने वाले मुलायम जानते हैं कि नदी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जा सकता। आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी का हश्र उनके सामने है। जगन ने कांग्रेस को चुनौती दी। आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में आनन-फानन में सीबीआई ने उन्हें जेल में डाल दिया। मुलायम के ऊपर ऐसे अनेक मामले वर्षों से लंबित हैं। लेकिन वे न केवल जेल के बाहर हैं बल्कि हर सत्ता सुख को भोग रहे हैं। राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार के मामले में पहले ममता बनर्जी के कंधे पर हाथ रखा, बाद में ठेंगा दिखा दिया। आशावान ममता को न केवल अकेला छोड़ दिया बल्कि उन्हें 'मेरा' और 'हमारा' के बीच फर्क का पाठ पढ़ाया गया। क्या यह कांग्रेस के साथ हुई सौदेबाजी का अंश नहीं? अखिलेश को उत्तर प्रदेश चलाने के लिए केंद्र का समर्थन चाहिए तो महत्वाकांक्षी मुलायम को ब-रास्ता दिल्ली राष्ट्रीय राजनीति में पैर फैलाने का अवसर। संप्रग और सरकार से ममता के अलग होने पर रिक्त रेल मंत्रालय सहित मंत्रिपरिषद के पांच पदों पर मुलायम की नजरें टिकी हैं। दोनों हाथों से मलाई खाने की इच्छा रखने वाले मुलायम जानते हैं कि फिलहाल सोनिया गांधी का साथ देकर ही वे जेल से बाहर रह सत्ता सुख भोग सकते हैं। अपनी अवसरवादी सौदेबाजी से मुलायम पहले भी लाभान्वित होते रहे हैं। 1995 के जून महीने में जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार अल्पमत में आ गई थी, तब बहुजन समाज पार्टी की मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेनी थी। शपथ के एक दिन पूर्व 2 जून 1995 की शाम मुलायम सिंह यादव के समर्थकों ने बसपा के कई विधायकों पर कथित रूप से हमले किए और कुछ विधायकों का अपहरण कर लिया। इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष को घटना संबंधी जांच का जिम्मा सौंपा। एक महीने बाद जांच रिपोर्ट सौंपी गई। रिपोर्ट में यह कहा गया था कि घटना में मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा शामिल थे। नैतिकता का तकाजा था कि मुलायम को मंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ध्यान रहे, तब मुलायम केंद्र में रक्षा मंत्री बन गए थे। लोगों को आज भी याद होगा कि उसी दौरान किस प्रकार देश के रक्षा मंत्री मुलायम ने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी बेनी प्रसाद वर्मा तथा अन्य नेताओं के साथ न केवल विरोधियों को ललकारा और धमकी दी, बल्कि प्रेस को भी नहीं बख्शा। उन्होंने एक लाल दस्ता (रेड ब्रिगेड) के गठन की घोषणा करते हुए ऐलान किया था कि इसके सदस्यों के हाथों में लाठियां होंगी। मुलायम तब केंद्रीय स्तर पर बाहुबल की राजनीति के प्रेरक बने थे। बाद में मामला अदालत में भी गया। रक्षा मंत्री देश की 10 लाख सशस्त्र सेनाओं का नेतृत्व करता है जो देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए जिम्मेदार है। किन्तु तब रक्षा मंत्री मुलायम यादव नैतिकता से दूर इस्तीफे से इन्कार करते हुए अपनी जिद पर अड़े रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी समाजवादी पार्टी की आशातीत सफलता से उनकी महत्वाकांक्षाएं और भी बलवती हो गई हैं। केंद्र में संप्रग सरकार की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हुए मुलायम यादव सौदेबाजी करने लगे हैं। सरकार को बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव की जरूरत के मद्देनजर केंद्र सरकार भी उन्हें चारा डालने को मजबूर है। दोनों पक्षों की जरूरतें ही हैं कि इस ताजा मामले में सौदेबाजी को मूर्त रूप दिया गया। मुलायम चाहे जितना इन्कार कर लें, देश जानता है कि उन्होंने अपने और अपने परिवार के निजी फायदे के लिए ऐसी सौदेबाजी की है।
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