उगले हुए शब्दों को वापस निगलने की क्रिया को कोई चाहे तो मजबूरी कह ले, चालबाजी कह ले, कूटनीति कह ले, किन्तु उन शब्दों का यथार्थ कायम रहता है। और, जब संदर्भ राजनीति का हो, कारक राजनीतिज्ञ हो तो तय मानिये कि घटना 'बेशर्म राजनीति' की बन जाती है। अपने हालिया बयान के लिए लालाकृष्ण आडवाणी अगर इसी कसौटी पर कसे जा रहे हंै तो आश्चर्य क्या!
एक त्वरित टिप्पणी आई है कि लालकृष्ण आडवाणी अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। भारतीय राजनीति व समाज में उनका योगदान, आयु और अनुभव को देखते हुए यह उचित तो नहीं लगता, किंतु राजनीतिक संदर्भ में आडवाणी का ताजा आचरण टिप्पणी की सचाई की चुगली करते हैं। वयोवृद्ध भाजपा नेता आडवाणी अगर अपनी वाणी व लेखनी पर नियंत्रण रखने में विफल हो रहे हैं तब उचित-अनुचित कयास से बचना संभव नहीं। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए 'नाजायज' दावेदारी करने वाले आडवाणी कभी पार्टी का 'चेहरा' रहे हैं। 2009 में प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार रहे आडवाणी जब कहते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ऐसी स्थिति में नहीं होगी कि इसका कोई व्यक्ति प्रधान मंत्री बन सके, तो इस भविष्यवाणी में छुपी 'नीयत' पर बहस तो होगी ही। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व की सरकार को संसद में 'नाजायज' निरूपित करने वाले आडवाणी शोर के आगे घुटने टेक जब अपने उगले शब्दों को वापस निगलते देखे गए तब इस धारणा की ही पुष्टि हुई कि वे 'स्वस्थ' नहीं हैं। उन्हें लौह पुरुष सरदार पटेल के समकक्ष बताने वाले अचानक नदारद हो गए। क्या हो गया है आडवाणी को? पदलोलुपता के लिए भी एक सीमा तो तय होती ही है। राजनीति में लगभग सब कुछ हासिल कर चुके आडवाणी को उनकी अंतिम इच्छा पूर्ति के लिए 2009 में पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था। लेकिन मतदाताओं को वे स्वीकार्य नहीं हुए। बल्कि, कठोर सत्य के रूप में यह दर्ज है कि प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी के कारण ही अनुकूल चुनावी स्थितियों के बावजूद भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। 2004 की तुलना में भाजपा को कम सीटों पर विजय मिली। आडवाणी के आयु वर्ग में पहुंच चुका कोई भी राजनीतिक चुनाव परिणाम में निहित संकेत को भांप राजनीतिक वनवास पर चला जाता। पदपिपासु आडवाणी ने ऐसा नहीं किया तो इसलिए कि वे 'लालच' का त्याग नहीं कर पा रहे। इस प्रकार भाजपा 2009 में केन्द्रीय सत्ता में आने का एक सुनहरा अवसर गंवाने को मजबूर हुई थी। दोषी आडवाणी ही थे। इसके पूर्व 2004 मेंं जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी तब भी असली कारण आडवाणी ही बने थे। 2002 में गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की इच्छा को दरकिनार कर तब के गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात में शांति स्थापना की दिशा में अपेक्षित कदम नहीं उठाये थे। वाजपेयी के 'राजधर्म' को उन्होंने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था। तब गुजरात का बदला मतदाताओं ने 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से बाहर कर लिया था। आडवाणी की एकल-एकपक्षीय सोच का खामियाजा पूरी पार्टी ने सत्ता गवांकर भुगता। जिद्दी और लालची आडवाणी अब अगर '....मैं नहीं तो और कोई नहीं' की तर्ज पर चलते हुए पार्टी के लिए कब्र खोद रहे हैं, तो भाजपा की राजनीति और भविष्य पर विलाप कौन करे!
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