एक तरफ स्वाधीनता दिवस की खुशी, दूसरी तरफ विलासराव देशमुख के देहावसान का गम! इस खुशी और गम के बीच न चाहते हुए भी देश के साथ गद्दारी और आम जनता के साथ विश्वासघात की गहरी पीड़ा की चर्चा करने के लिए मजबूर हॅंू। पाठक क्षमा करेंगे, प्रसंग ही ऐसा है।
आंदोलन और सत्याग्रह के नाम पर देश और जनता के साथ एक और धोखा! आंदोलन, सत्याग्रह, क्रांति और महाक्रांति जैसे शब्द चौराहे पर नीलाम हुए। पढऩे-सुनने में बुरा तो लगेगा, लेकिन ये सच इतिहास के पन्नों में दर्ज तो हो ही गया कि इन पवित्र शब्दों को अपनी 'हवस' का शिकार बनाया गांधी टोपी धारकों ने,भगवा वस्त्रधारियों ने! हाँ, हवस! राजनीति की हवस, सत्ता की हवस, व्यक्तिगत इच्छापूर्ति की हवस। पहले अन्ना हजारे और अब ढोंगी योग गुरु रामदेव।
कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने जब इन्हें ठग निरूपित किया था, तब अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब उनकी बात सच प्रतीत होने लगी है। कांग्रेस अपनी जगह बिल्कुल ठीक है, जब वह कह रही है कि आंदोलन के नेतृत्व का मुखौटा अब उतरने लगा है। अन्ना हजारे और उनकी गठित टीम ने पिछले वर्ष आंदोलन की शुरूआत में दो टूक घोषणा की थी कि,आंदोलन गैर-राजनीतिक होगा। किसी भी राजनीतिक को मंच पर स्थान नहीं मिलेगा। फिर सहयोगियों को अंधकार में रख अन्ना ने कांग्रेस के एक मंत्री से गुप्त मुलाकात क्यों की? क्या यह आंदोलनकारियों के साथ गद्दारी नहीं? सहयोगियों के साथ धोखा नहीं था? अन्ना तभी पूरी तरह से अविश्वसनीय बन गये थे। उनके आंदोलन के हश्र, बल्कि मौत से यह प्रमाणित हो गया। कथित योग गुरु रामदेव भी हमाम से निकल सीधे सड़क पर आ गए-निर्वस्त्र! जी हॉं! बिल्कुल निर्वस्त्र! वस्त्र लाएं भी तो कहॉं से? पिछले वर्ष रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्रवाई से भयभीत रामदेव एक पतित कायर की तरह, किसी महिला के उतारे 'सलवार सूट' पहन दुबक कर भाग गए थे। स्वंय को संत कहलाने वाले रामदेव को यह जानकारी तो होगी ही कि एक बार भगवा (गेरूवा) वस्त्र धारण कर लेने के बाद कोई साधु-संत अन्य किसी वस्त्र को हाथ नहीं लगाता। रामदेव तब 'नग्र' हो गए थे।
पुन:,उसी रामलीला मैदान से 'मेरा कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है' की घोषणा के बाद खुले-आम राजनीति की बातें करते रामदेव विभिन्न दलों के राजनेताओं को गले लगा स्वागत करते दिखे। मुलायम, मायावती, शरद पवार जैसे दागी नेताओं के समर्थन की घोषणा कर अनुयायिओं से इन नेताओं के अभिनंदनार्थ तालियां बजवाते दिखे। रामदेव बताएं कि फिर वे किस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं? निर्णायक और आर-पार की कथित ऐतिहासिक लड़ाई की घोषणा के साथ रामलीला मैदान में बैठने वाले रामदेव ने अपने भक्तों की पीठ में नहीं, बल्कि सीने में तब खंजर घोंप दिया जब उन्होंने न केवल रामलीला मैदान छोड़ा, बल्कि यह भी घोषणा कर डाली कि अगले चुनाव तक अब कोई अनशन नहीं। 'अनशन' के ऐसे हश्र की कल्पना तो उन्हें पहले ही होगी। अब वह हरिद्वार जा कर चाहे कितनी ही डुबकी लगा लें, उनके झूठ के पाप के दाग छुटने वाले नहीं। ये वहीं रामदेव हैं जिन्होंने पिछले वर्ष अनशन से पूर्व गुप्त रूप से भारत सरकार के एक मंत्री को लिखित आश्वासन दिया था कि वे अपना अनशन व आंदोलन तीन दिनों में समाप्त कर देंगे। भक्तों को अनिश्चित कालिन अनशन पर बैठा, स्वंय सरकार के साथ 'गुप्त समझौता' करने वाले रामदेव तभी पाखंडी सिद्ध हो गए थे। वह तो दिल्ली पुलिस की मूर्खता थी जो कि उसने उसी रात अनशनकारियों पर लाठियाँ बरसा डालीं। वेश बदल भागते रामदेव को धर दबोचा। तब अगर पुलिसिया कार्रवाई नहीं होती तो रामदेव बे-नकाब, नंगे हो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। आज वही रामदेव फिर से बे-नकाब हो गए हैं तब देश यह सोचने को मजबूर हो गया है कि भ्रष्टाचार, कालाधन और कुशासन के खिलाफ वह किस आंदोलन अथवा नेता पर विश्वास करे! अन्ना हजारे व रामदेव के नंगे हो जाने के बाद क्या अब कोई तीसरा चेहरा सामने आएगा?
No comments:
Post a Comment