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Monday, August 6, 2012

अन्ना की सोच और 'राजनीति' का सच !



अन्ना हजारे न तो ईश्वर हैं, न अल्लाह हैं और न ही क्राइस्ट ! भगतसिंह भी नहीं हैं, चंद्रशेखर आजाद भी नहीं हैं ! मंगल पांडे भी नहीं हैं ! सुभाषचंद्र बोस भी नहीं हैं ! डा. भीमराव आंबेडकर भी नहीं हैं ! न तिलक हैं, न गोखले हैं! न तो पं. जवाहरलाल नेहरू हैं, न डा. राजेंद्र प्रसाद हैं और न ही सरदार पटेल हैं! और न ही जयप्रकाश नारायण हैं ! फिर ये चाल, चेहरा और चरित्र बदलकर अगले तीन वर्षों में भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी, विकेंद्रीकृत सुशासित भारत देश कैसे दे पायेंगे? ऐसा तो किसी 'चमत्कार' से ही संभव हैं!  समर्थक दावा कर सकते हैं कि चमत्कार कर अन्ना हजारे अपने दावे को पूरा कर सबों से कहीं उपर अपने लिए आसन प्राप्त कर लेंगे। बिल्कुल सही। सफलता की हालत में अन्ना हजारे सभी को छोडशीर्ष पर विराजमान हो जाएंगे! ईश्वर से भी उपर, क्योंकि स्वयं देवी-देवता भी भारत देश को भ्रष्टाचार मुक्त सुशासित बनाने में विफल रहे हैं।
अब सवाल यह कि अन्ना हजारे या उनकी टीम अपेक्षित 'चमत्कार' को कैसे  और किसके भरोसे अंजाम देने को सोच रही है? लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता के समथन के बगैर न तो ऐसा कोई 'चमत्कार'  और न ही क्रांति संभव है !
इस बिन्दु पर वास्तविकता चिन्हित है कि 16 माह पूर्व शुरु अन्ना आंदोलन को अब वह जन समर्थन नहीं मिल रहा जो आरंभ में मिला था। अर्थात, अन्ना को आवश्यक जन समर्थन प्राप्त नहीं है। फिर किसके भरोसे आंदोलन से आगे बढ़ 'राजनीतिक विकल्प' देने का वादा कर लिया अन्ना ने ! सीधे चुनावी राजनीति के आखाड़े मे कूद विकल्प देने का उनका दावा किसी भी कोण से व्यवहारिक नहीं दिखता।  अलंकारिक लफ्फाजी को छोड़ दें तो यह दावा घोर भ्रमित मस्तिष्क का प्रलाप साबित होगा। इतिहास गवाह है कि यह दावा बिल्कुल बेतुका है कि भ्रष्ट व्यवस्था की सफाई सत्ता में रह कर ही की जा सकती है। सच तो यह है कि सत्ताधारी-ईमानदार और बेईमान दोनों - अपने -अपने कारणों से ऐसी कोई सफाई चाहते ही नही हैं। उनके स्वार्थो की पूर्ति करने वाली भ्रष्ट व्यवस्था ही उन्हें, सुहाती है। बावजूद इसके इस 'रोग' से निजात संभव है। सत्ता की राजनीति नहीं, बल्कि सड़कों पर जनता की हुॅंकार से यह संभव है।
जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का उदाहरण सामने है। तत्कालीन भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ सड़कों पर जनसैलाब को उतार जयप्रकाश नारायण ने केंद्र में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन कर दिखाया था। लेकिन, जब 'आंदोलनकारी'  स्वयं सत्ता की कुर्सी पर बैठे तब कथित राजनीतिक मजबूरियों के नाम पर जनता द्वारा बनाई गई 'जनता सरकार' के नुमाइंदे उन्हीं राहों पर चल पड़े जिनकेे खिलाफ विद्रोह का बिगुल उन्होंने बजाया था। उसी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था के संरक्षक बन गए थे वे। जनता छली गई, देश छला गया। स्वयं जयप्रकाश नारायण भी विश्वासघात के शिकार हुए। राजनीति के इस कड़वे सच की मौजूदगी के बावजूद अन्ना हजारे राजनीति के द्वारा व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं, तो ईश्वर उनकी रक्षा करें।
भारत के पूर्व अर्टानी जनरल सोली जे. सोराबजी ने एक बार कहा था कि 'जब देवी -देवता किसी को बर्बाद करना चाहते हैं तो पहले उसे पागल बना देते हैं', तब संदर्भ अवश्य दूसरा था । किन्तु दिल्ली के जंतर-मंतर पर जब अन्ना ने घोषित 'आमरण अनशन' का त्याग कर देश को 'राजनीतिक विकल्प' देने की बात कही तब सोली सोराबजी के शब्दों की याद अनयास आ गई। मैं चाहॅूंगा कि अन्ना हजारे सफल हों, उनका स्वप्न पूरा हो। क्योंकि, ये देश की चाहत है। लेकिन संदेह के अनेक कारण विफलता की चुगली कर रहे हैं। सफल होने के लिए उन्हें रास्ता बदलना होगा। क्रांति संभव है। शर्त यह कि वह 'जन क्रांति' हो। अन्ना को एक और परामर्श। हर दृष्टि, हर कोण से जन-जन के हित-चिंतक, गुलाम भारत को आजाद भारत में परिवर्तित कराने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का स्मरण वे कर लें। आजादी के पूर्व ही भ्रष्टाचार से व्यथित महात्मा गांधी ने 24 सितंबर 1934 को 'हरिजन' के अंक में लिखा था कि, ''भ्रष्टाचार तब खत्म होगा जब बड़ी संख्या में लोग यह महसूस करने लगेंगे कि राष्ट्र का उनके लिए कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, लेकिन वे राष्ट्र के लिए हैं। इसके लिए उच्च आदर्शों वाले उन लोगों की ओर से कड़ी निगरानी रखने की जरुरत है, जो भ्रष्टाचार से एकदम मुक्त हों और भ्रष्ट लोगों पर अपना प्रभाव डाल सकें''। कोई आश्चर्य नहीं कि आजादी के पश्चात महात्मा गांधी ने कांग्रेस संगठन को भंग कर देने की ईच्छा जताई थी।

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