एक पूर्णत: गैरराजनीतिक आंदोलन को राजनीति का स्वरूप देने की मंशा जतानेवाले अन्ना हजारे देश व जनता को धोखा दे रहे हैं। आंदोलन की शुरुआत से ही सत्तारूढ कांग्रेस अन्ना व उनकी टीम पर 'राजनीतिक एजेंडा' चलाने का आरोप लगाती रही है। अन्ना टीम आरोप को हमेशा बेबुनियाद बताती रही। अब क्या सफाई देगी टीम? कमाल तो यह कि एक ओर मंच से अन्ना हजारे देश को राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल अनशन स्थल से ही एक वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी को यह बता रहे थे कि 'मैं जिंदगी में कभी राजनीति का हिस्सा नहीं बनूंगा, जो ऐसा कह रहे हैं वे बकवास कर रहे हैं' क्या यह छल नहीं? आज देश निराश है। अन्ना आंदोलन के हश्र को देख कर। भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जन लोकपाल के पक्ष में राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ आम जनता की सहानुभूति-समर्थन बटोरनेवाले अन्ना हजारे और उनकी टीम ने अभी कुछ घंटे पहले ही तो घोषणा की थी कि जब तक लोकपाल नहीं बनेगा तब तक अनशन जारी रहेगा। और यह भी कि अनशन कर वे आत्महत्या नहीं बल्कि बलिदान दे रहे हैं। क्या हुआ ऐसे वादों का? कहां मिला लोकपाल और कहां गया बलिदान? तो फिर देश यह क्यों न मान ले कि राजनीतिक एजेंडे संबंधी कांग्रेस का आरोप सही था। तो फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अन्ना ने झूठ बोला था, जबकि कांग्रेस ने सच।
अन्ना हजारे यह न भूलें कि अगर उनके आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला तो इसलिए कि आंदोलन को गैरराजनीतिक बताया जा रहा था। वे इस सच को हृदयस्थ कर लें कि राजनीतिक एजेंडे को लेकर बढऩेवाले उनके कदम एक मुकाम पर अकेले रह जाएंगे।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडऩे का लक्ष्य लेकर राजनीतिक दल बनाने के बाद अन्ना क्या अपने कथित अच्छे ईमानदार उम्मीदवारों को चुनाव में विजयी करवा पाएंगे? पूर्व में अनेक ईमानदार स्वच्छ छवि वाले विद्वान चुनाव लड़ अपनी जमानतें जब्त करवा चुके हैं। वयस्क मताधिकार के नाम पर भ्रष्ट तंत्र हमेशा सफल मनमानी करता आया है। शुरुआत तो प्रथम आम चुनाव से ही हो चुकी है। मुझे याद है 1952 के पहले आम चुनाव में देश के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. ज्ञानचंद 'सोशलिस्ट पार्टी' के उम्मीदवार के रुप में पटना से चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस की ओर से एक अशिक्षित किराणा व्यापारी राम (शरण/प्रसाद) साहू उनके विरूद्ध खड़े थे। इमानदार-विद्वान डॉ. ज्ञानचंद अशिक्षित व्यापारी साहू के हाथों चुनाव हार गए। संभवत: उनकी जमानत भी जब्त हो गई थी। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष मालवंकर के सर्वथा ईमानदार व शिक्षित पुत्र को इसी प्रकार गुजरात में पराजय का सामना करना पड़ा था। उनके पास चुनाव लडऩे के लिए आवश्यक धन उपलब्ध नहीं था। पोस्ट कार्ड पर पत्र लिखकर मतदाताओं से उन्होंने अपने लिए वोट मांगा था। जमानत जब्त हो गई। भारतीय चुनाव आयोग को सुर्खियों में लाने वाले भारत के तत्कालिन चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने भी चुनाव लड़ा, हार गए।
भारतीय सेना के तत्कालिन उप मुख्य सेनापति लेफ्ट. जनरल एस. के. सिन्हा की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की कसमें खाई जाती है। तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी वरियता को नजरअंदाज कर मुख्य सेनापति नहीं बनने दिया। सेना छोड़ जनरल सिन्हा ने लोकसभा चुनाव लड़ा -अपनी ईमानदारी, सुपात्रता और स्वच्छ छवि को सामने कर। वह भी चुनाव हार गए।
अच्छे योग्य लोगों को राजनीति में आने की वकालत करने वाले क्या बताएंगे कि ऐसे सुयोग्य उम्मीदवारों की हार कैसे होती रही? निश्चय ही भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट तंत्र के साथ-साथ मतदाता पर दबाव और प्रलोभन के हथकंडों के कारण चुनावों का मजाक बनता रहा। अच्छे लोगों का चयन कर राजनीतिक विकल्प देने की बात करने वाले अन्ना हजारे बेहतर हो पहले चुनावी इतिहास का अध्ययन कर लें। आम मतदाता की मानसिकता और मजबूरी को पहचानें। यह ठीक है कि वर्तमान भ्रष्ट शासन व्यवस्था ऐसी ही मानसिकता और मजबूरियों की देन है, किंतु इनसे निजात पाने का रास्ता राजनीति ही नहीं हो सकती। विकल्प तो जनता ही देगी। कोई भ्रमित आंदोलन या नेतृत्व तो कदापि नहीं।
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