Saturday, January 15, 2011
फिर फिसले मुलायम-बुखारी!
चलो, यह भी खूब रही। राजनीति के अखाड़े में तेजी से हाशिए की ओर बढ़ रहे मुलायम सिंह यादव को फिर बांग देने का मौका मिल गया। दिल्ली में जंगपुरा में अवैध रूप निर्मित नूर मस्जिद को प्रशासन ने ध्वस्त किया नहीं कि मुलायम की धर्मनिरपेक्षता ने जोर मारा और उन्हें अचानक अयोध्या के विवादित बाबरी ढांचे की याद आ गई। बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव के हश्र को देखते हुए बेचैन मुलायम नूर मस्जिद में अपने लिए नूर ढूंढऩे लगे। ताबड़तोड़ कांग्रेस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ दिया। मरहूम राजीव गांधी को कोस डाला कि उन्होंने वर्षों से बंद अयोध्या राम मंदिर का ताला क्यों खुलवा दिया था और नरसिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में कथित बाबरी मस्जिद कैसे ढहा दी गई। मुसलमानों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मुलायम कट्टरपंथी मौलाना बुखारी की शरण में पहुंच गए। कांग्रेस को संाप्रदायिक सौहार्द्र बिगाडऩे का दोषी करार देने वाले मुलायम के लिए मेरे दिल में सहानुभूति उमड़ रही है। उनके शब्दों का कोई खरीददार जो सामने नहीं आ रहा है। लेकिन देशहित के प्रति यह एक शुभ संकेत है। अयोध्या के राम मंदिर-बावरी मस्जिद विवाद पर अदालती फैसला आने के बाद सभी पूर्व आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए देश की हिंदू-मुस्लिम आबादी ने जिस प्रकार संयम का परिचय दिया था, ठीक इसी प्रकार के संयम का परिचय दिल्लीवासियों ने दिया। अन्यथा मुलायम-बुखारी की मंशा तो दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक देने की थी। लेकिन यह ताजा प्रकरण सिर्फ मुलायम-बुखारी तक सीमित नहीं है। स्वयं को धर्मनिरपेक्षता का झंडाबरदार व अल्पसंख्यकों का हितैशी बताने वाली कांगे्रस नेतृत्व से मैं यह पूछना चाहूंगा कि दिल्ली प्रदेश की कांग्रेसी सरकार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अदालती आदेश पर अवैध मस्जिद को गिराने के बाद भी लोगों को उस जमीन का इस्तेमाल करने और वहां नमाज अदा करने के लिए जामा मस्जिद के शाही इमाम सय्यद अहमद बुखारी के साथ मिलकर लोगों को हिंसक रूप से भड़काने की कोशिश क्यों की? धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विपरीत क्या शीला सांप्रदायिक राजनीति नहीं कर रही हैं? जंगपुरा क्षेत्र के लोग गवाह हैं शीला दीक्षित की कानून विरोधी हरकत की और सांप्रदायिकता को हवा देने की। अगले वर्ष पड़ोसी उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में सांप्रदायिक आधार पर अगर शीला अपनी कांग्रेस पार्टी के लिए जमीन तैयार करने की मंशा रखती हैं तो बेहतर है वे बिहार चुनाव की याद कर लें। बिहार के जागरूक मतदाता ने सभी सांप्रदायिक ताकतों और बाहुबलियों को उनकी औकात बता दी थी। अब का युवा मतदाता तो सांप्रदायिक आधार पर समाज को बांटने वाले तत्वों से घृणा करने लगा है। सभी राजनीतिक दल इस सचाई को जान लें, विशेषकर कांग्रेस। क्योंकि यह कड़वा सच इतिहास में दर्ज है कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी मुसलमानों का इस्तेमाल एक वोट बैंक के रूप में करती रही है। पार्टी ने उस वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से दूर रखा। स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता दिखावे के लिए यदा-कदा बड़े ओहदे उन्हें दिए गए लेकिन अल्पसंख्यंकों के उत्थान के लिए न तो कभी गंभीर प्रयास हुए न ही उन्हें अपेक्षित सम्मान मिला। इन तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद अगर शीला दीक्षित अल्पसंख्यकों को दिल जीतने के लिए अदालत की अवमानना करती हुईं ढहा दिए गए अवैध मस्जिद के पक्ष में खड़ी होती हैं तो शायद कांग्रेस की चाटुकार नीति से मजबूर होकर ही। संभवत: वे याद कर रही होंगी राहुल गांधी के उस बयान की जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में दिया था। तब कथित चुनाव में दिया था। तब कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के उपक्रम को आगे बढ़ाते हुए राहुल गांधी ने कहा डाला था कि अगर नेहरू-गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो बाबरी विध्वंस नहीं होता। राहुल का वही वक्तव्य शीला की परेशानी का सबब बना है। इस बार मस्जिद उस दिल्ली में गिराई गई जहां सरकार कांग्रेस की है और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हैं। बेचारी शीला अल्पसंख्यक समाज में मौजूद कट्टरपंथियों को यह तो नहीं बता सकतीं कि इसके लिए जिम्मेदार भाजपा-संघ परिवार अथवा शिवसेना है। अब यह कोई न कहे कि बाबरी मस्जिद तो बड़ा था, नूर मस्जिद छोटा है। मस्जिद या मंदिर छोटे-बड़े नहीं होते। आस्थाएं तो सड़क किनारे पड़े एक पत्थर में भी ईश्वर-अल्लाह ढूंढ़ लेती हैं।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
आस्थाएं तो सड़क किनारे पड़े एक पत्थर में भी ईश्वर-अल्लाह ढूंढ़ लेती हैं।
सत्य वचन...
Post a Comment