हजम नहीं हो रहा !
देश के 14वें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ताजा बयान कि 'चुनाव जीतना भाजपा का राष्ट्रीय कर्तव्य है’, किसी को हजम नहीं हो रहा। चुनाव जीतना किसी राजनीतिक या राजदल का उद्देश्य हो सकता है, लक्ष्य हो सकता है, लेकिन राष्ट्रीय कर्तव्य? चूंकि, ये शब्द देश के प्रधानमंत्री के हैं, इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
प्रधानमंत्री मोदी वस्तुत: भारतीय जनता पार्टी के राज्य 'कोर ग्रुपों’ की एक बैठक को संबोधित कर रहे थे। अपने संबोधन के क्रम में उन्होंने अगले 30 वर्षों तक सत्ता में बने रहने की जरूरत को रेखांकित करते हुए ये बातें कहीं। जिस नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद स्वयं को प्रधानमंत्री
की जगह 'प्रधान सेवक’ और 'प्रमुख चौकीदार’ कहलाना पसंद किया था, वे प्रधानमंत्री अब अगर चुनाव जीतने को राष्ट्रीय कर्तव्य अर्थात राष्ट्रीय धर्म निरूपित करते हैं तब बुद्धिजीवी ही नहीं देश का आम नागरिक भी चकित है। त्वरित आकलन के रूप में यह आया कि प्रधानमंत्री अपने शासनकाल के अब तक की विफलताओं से परेशान , चिंतित, हताश हो उठे हैं। चुनाव जीतने को राष्ट्रीय कर्तव्य निरूपित किया जाना उनकी हताशा का परिचायक है। अगर इस आकलन का दहाई अंश भी सच है तो देश का चिंतित होना गलत नहीं। सभी जानते हैं कि हमारे देश में चुनाव कैसे लड़े जाते हैं? दुखद है किंतु कड़वा सच है कि भारत में लगभग प्रत्येक चुनावी कालखंड वर्जनाओं के कालखंड साबित होते रहे हैं। ऐसी वर्जनाएं जिनमें नकारात्मकता
प्रचुर मात्रा में मौजूद रहती हैं।विकास से लेकर प्रशासकीय व्यवस्था तार-तार हो किसी कोने में सिसकती नजर आती है। तब दलील दे दी जाती है कि ऐसी अवस्था अस्थायी है चुनाव पश्चात सबकुछ ठीकठाक हो जाएगा। लेकिन जब चुनाव में जीत को राष्ट्रीय कर्तव्य मान लिया जाए तब क्या वैसी दु:अवस्था को सादर आमंत्रित करना नहीं होगा? क्या वैसी दु:अवस्था अस्थायित्व का तमगा लगा प्रकट नहीं होगी? कोई भी ऐसी संभावनाओं से इनकार नहीं कर सकता। फिर नरेंद्र दामोदारदास मोदी जैसा अनुभवी, राष्ट्रहित के प्रति समर्पित, दूरद्रष्टा प्रधानमंत्री ऐसे 'कर्तव्य’ को चिन्हित कैसे कर गया? साफ है कि प्रधानमंत्री
हताश हैं और हताशा ऐसी कि, उनकी चिंतनशक्ति प्रतिकूल रूप से प्रभावित होने लगी है। भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसे लक्षण शुभ तो नहीं ही माने जाएंगे।
चकित मैं भी हूं। नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति हताश कैसे हो सकता है? यह ठीक है कि आकांक्षाओं, आशाओं और सपनों के जिस झूले पर सवार हो मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए हैं, जनता को संपूर्ण खुशहाली की जो हरियाली दिखाई गई थी उस पर विश्वास कर देश ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को सत्ता सौंपी थी। ठीक यह भी है कि देश में एक अजीब सी निराशा व्याप्त होती दिखने लगी है। सच यह भी है कि कमोबेश पूरा समाज स्वयं को ठगा सा महसूस करने लगा है। सच यह भी है कि विकास से लेकर रोजगार, उद्योग-धंधों, शिक्षा, कृषि, आंतरिक सुरक्षा व विदेश नीति पर भी सवालिया निशान जड़े जाने लगे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। पांच साल के कार्यकाल की आधी दूरीतय कर चुकी मोदी सरकार की दशा-दिशा का मूल्यांकन तो अब होगा ही। देश ने जब पूर्ण बहुमत दे सत्ता सौंपी है तो वह सुपरिणाम की अपेक्षा तो करेगा ही। मूल्यांकन की इस प्रक्रिया में कसौटी सफलता आधारित ही होती है। विशेषकर जब नरेंद्र मोदी एक राजनेता के रूप में और प्रधानमंत्री
के रूप में कसौटी पर कसे जा रहे हैं तब उनकी कथनी और करनी की भी पड़ताल स्वाभाविक है। मुझे याद है वह दिन जब प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे थे। जब उन्होंने स्वयं को प्रधानसेवक बताया तब पूरा देश उनके नेतृत्व में एक नये परिवर्तन का दीप जला बैठा था। प्रधानमंत्री के शब्दों में देश ने एक ऐसी ज्वाला देखी थी जो पिछली सरकारों के भ्रष्टाचार, कुशासन और अव्यवस्था को जलाकर भस्म कर देने में सक्षम प्रतीत हुई थी। देश उन कथित भ्रष्टाचार, कुशासन और अव्यवस्था से मुक्ति चाहता था।लेकिन अब उसे लगने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर मोर्चे पर विफल साबित होरहे हैं। अचानक उठी ऐसी 'राष्ट्रीय निराशा’ के बीच अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हताश दिखते हैं तो आश्चर्य तो नहीं। किंतु, दुर्भाग्यजनक अवश्य है। मुझे लगता है जिन आशाओं, अपेक्षाओं की लहर पर सवार हो मोदी ने सत्ता संभाली थी उसे पूरा करने में वे पूर्णत: विफल रहे, ऐसा नहीं है। हालांकि, देश का प्रचार तंत्र उनके साथ है किंतु, इन मुद्दों पर देश को आश्वस्त करने में वह विफल दिख रहा है। कहीं न कहीं संरचनात्मक त्रुटि हुईहै अवश्य। प्रधानमंत्री
को चाहिए कि इनकी पहचान कर निराकरण की कोशिश करें। मोदीसरकार ने मुख्य रूप से जिन दस मुद्दों पर सुशासन व विकास के वादे किए थे अगर उनकी निष्पक्ष विवेचना की जाए तो पूर्णत: विफल कहना अन्याय होगा। मोदी ने न्यूनतम सरकार-अधिकतम शासन, भ्रष्टाचार, काले धन की वापसी, महंगाई सेमुकाबला, इन्फ्रास्ट्रकचर, घुसपैठ, भूमि अधिग्रहण कानून, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राष्ट्रीयखेल प्रतिभा खोज प्रणाली और जन वितरण प्रणाली में सुधार के वादे किए थे। इनकी ईमानदार चीरफाड़ करेंगे तो पता चलेगा कि उपलब्ध संसाधनों व पूर्व की छिन्न-भिन्न व्यवस्था के मद्देनजर इन मुद्दों पर ईमानदार प्रयास शुरू किए गए। लेकिन, व्यवधान अथवा अवरोधक इतने कि अपेक्षित सुपरिणाम सामने नहीं आ सके । यह ठीक है। किंतु,अगर सरकार की नीयत की बात की जाए तो घोर मोदी आलोचक यह स्वीकार करेंगे किउनकी नीयत साफ है, कोई खोट नहीं है। हालांकि प्रतिद्वंद्वी जिन चश्मों से हर चीज कोदेखते हैं वे सहमत नहीं होंगे किंतु, यह सत्य है कि अनेक विपरीत परिस्तितियों केबावजूद मोदी सरकार ईमानदारी पूर्वक विकास मार्ग पर कदमताल करने में सफल रहीहै। चुनावी वादों से इतर यथार्थ के धरातल पर मूल्यांकन किया जाए तब इस पर सभीएकमत होंगे कि किसी भी नए शासन के आरंभिक दो-ढाई साल में शत प्रतिशत परिणामकी अपेक्षा अन्याय ही होगी। इस बिंदु पर महत्व नीयत को दिया जाना चाहिए। मोदी व उनकी सरकार इसकी हकदार है।
रही बात चुनाव जीत को 'राष्ट्रीय कर्तव्य’ निरूपित करने की तो मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'भावावेश’ के शिकार हुए हैं। चूंकि, वे अपनी पार्टी के कोर ग्रुप सदस्यों को संबोधित कर रहे थे, उन्होंने सत्ता और चुनाव को जोड़ चुनावी जीत को पार्टी 'कर्तव्य’ की जगह 'राष्ट्रीय कर्तव्य’ निरूपित कर डाला। उनका आशय राष्ट्रीय स्तर पर ‘पार्टी कर्तव्य’ अर्थात ‘पार्टी धर्म’ से रहा होगा। देश में व्याप्त प्रधान रोग गरीबी से मुक्ति की 'मोदी -इच्छा' सर्वविदित है। अनेक मुद्दों पर मोदी की नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखने के बावजूद मैं इस बिंदु पर प्रधानमंत्री के साथ हूं कि वे हर हाल में भारत देश को गरीब मुक्त विकसित देश बनाना चाहते हैं। इसके लिए वे ईमानदारी से प्रयत्नशील हैं। जिन बाधाओं,आलोचनाओं का सामना उन्हें करना पड़ रहा है वे लोकतंत्र में अजूबा नहीं। भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को अपदस्थ कर सत्ता में आई भाजपा व प्रधानमंत्री मोदी को ऐसी विषम परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए ही 'कर्तव्यपथ’ पर अग्रसर होना होगा। हां! यह शर्त अवश्य है कि कर्तव्य निर्धारण में संयमित वाणी व अल्पतम शब्द इस्तेमाल में लाए जाएं।