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Friday, August 5, 2016

जरूरत 'संदेहमुक्त' न्यायपालिका की!

तब अनेक भौहें टेढ़ी हुईं थीं! असहज सवाल पूछे जाने लगे थे- भारत की न्यायिक व्यवस्था को लेकर, न्यायापालिका की आजादी, निष्पक्षता को लेकर सामथ्र्यवानों के पक्ष में न्याय के कथित झुके पलड़े को लेकर।
प्रश्न स्वाभाविक, क्योंकि कारण मौजूद थे। उन्हीं संदर्भों में आज पुन: सवाल खड़े हो रहे है। मुख्य सवाल, क्या न्याय सचमुच सभी के लिए समान है? निर्बल-सबल दोनों को समान पलड़े पर तौला जाता है या अपवाद स्वरुप ही सही, क्या कभी न्याय बड़ों के वजन की तरफ झुक जाता है?
सवाल गंभीर और बेचैन करने वाले हैं। किंतु लोकतांत्रिक भारत में सवाल पूछने और जवाब जानने के हक के साथ आम भारतीय सवाल पूछ रहा है तो उसकी जिजासा को शांत तो करना ही होगा।
ताजा सवाल खड़ा हुआ है सर्वोच्च न्यायलय अर्थात सुप्रीम कोर्ट की उस व्यवस्था के साथ कि गुजरात के सोहराबुद्दीन मठभेड़ कांड में अमित शाह की कथित लिप्तता के मामले की पुन: जांच नहीं की जा सकती। दूसरा मामला उस खबर को लेकर है जिसके अनुसार केरल के राज्यपाल, भारत के पूर्व प्रधान न्यायधीश पी सदाशिवम को उपराष्ट्रपति बनाने की संभावना बताई गई है। चूंकि दोनों मामलों में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के ऊपर कतिपय असहज टिप्पणियां की जा रही हैं, निराकरण जरुरी है। मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि इस विषय पर चर्चा के दौरान संदर्भवश प्रस्तुत कतिपय घटनाओं की जानकारियां शंका और निराकरण के लिए दी जा रही हैं, किसी पूर्वाग्रह अथवा व्यक्तिगत आरोप या विद्वेष आधारित नहीं हैं। विशुद्ध पत्रकारीय दायित्व निर्वहन की दिशा में जिज्ञासा व निराकरण का प्रयास है। सत्ता और न्याय से जुड़े सर्वोच्च पदों की विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए भी यह जरुरी है। सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों को दाग व शंका से मुक्त रहना ही पड़ेगा।
सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड मामले को पुन: खोलने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने बिलकुल सही कहा है कि कोई मामला निरंतर अथवा अनिश्चितकाल तक नहीं चल सकता। इस पर दो मत नहीं है। किंतु, चूंकि अब अमित शाह सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके हैं और शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं तो सर्वमान्य समाधान की अपेक्षा स्वाभाविक है। निराकरण ऐसा हो कि जिसे पूरा देश स्वीकार कर विवाद पर स्थायी पूर्ण विराम लगा दे।
सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड की पूरी कहानी किसी भी कसौटी पर सामान्य नहीं कही जाएगी। मामले में तब अमित शाह के खिलाफ सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल किया था। उन पर कत्ल, अपरहण, सबूत मिटाने जैसे गंभीर आरोप लगे थे। सीबीआई ने अपनी ओर से पूरी जांच कर आरोप लगाए और चार्जशीट दाखिल की थी। चार्जशीट के अनुसार गुजरात एटीएस के तत्कालीन प्रमुख डी जी वंजारा 26 नवंबर 2005 को अहमदाबाद सर्कल और विशाला सर्कल के टोल पाइंट पर सुबह तड़के 4 बजे राजस्थान पुलिस के अधीक्षक एम. एन. दिनेश के साथ पहुंचे। वहीं पर एक कांस्टेबल अजय परमार और राजस्थान पुलिस का एक सब इंस्पेक्टर सहित चार पुलिस इंस्पेक्टरों ने सोहराबुद्दीन पर गोलियां दाग दी। सोहराबुद्दीन की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। तब अमित शाह गुजराज के गृह राज्यमंत्री थे। आरोप लगा था कि वंजारा ने शाह के कहने पर ही सोहराबुद्दीन का सफाया किया था। चार्जशीट में कथित हत्या के कारण की विस्तृत जानकारी दी गई थी। चार्जशीट में एक अन्य आईपीएस अधिकारी अभय चूड़ास्मा का भी नाम  शामिल था। चार्जशीट के अनुसार गुजरात और राजस्थान की मार्बल लॉबी ने अमित शाह से सोहराबुद्दीन द्वारा की जा रही वसूली की शिकायत की थी। वह लॉबी गुजरात और राजस्थान में राजनीतिक पार्टियों के लिए धन कुबेर की तरह काम करती थी। उस लॅाबी को उपकृत करने के लिए ही सोहराबुद्दीन को रास्ते से हटाया गया। मुठभेड़ का इकलौते चश्मदीद गवाह तुलसी प्रजापति को भी सोहराबुद्दीन के साथ ही उठाया गया था। लेकिन उसे पुलिस गवाह बनाकर छोड़ दिया गया था। बाद में राजस्थान पुलिस ने दूसरे मामले में उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। उसी वक्त मामला मीडिया में आया और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केस सीआईडी के पास आया तो सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड से जुड़े लोग घबरा गये। उन्हें लगा कि प्रजापति ने मुंह खोल दिया तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। सो एक और मुठभेड़ ! तुलसी प्रजापति भी कथित मुठभेड में मारा गया। सीआईडी की जांच ने पुलिस द्वारा गढ़ी गई मुठभेड़ की कहानी को झूठा पाया था। सीआईडी की तत्कालीन आईजी गीता जौहरी की रिपोर्ट के अनसुार बाद में सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी को भी ठिकाने लगा दिया गया। सीआईडी के अनुसार खुद एटीएस के अफसरों ने कौसर बी को मारकर उसका शव जला दिया था। हालांकि कोई बताना नहीं चाहता की कौसर बी को मारा कैसे गया ? तब यह कहा गया था कि कानून के रखवालों ने ही उस महिला को सिर्फ इसलिए मार डाला क्योंकि अगर उसे छोड़ते तो सोहराबुद्दीन के कत्ल का राज खुल जाता।
मामले में चूंकि गुजरात के गृह राज्यमंत्री शाह का नाम आया था, सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को सुनवाई के लिए अहमदाबाद से मुंबई की एक अदालत को 2012 में स्थानांतरित कर दिया। दिसंबर 2014 में, जब केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार बनी, मुंबई की सीबीआई अदालत ने शाह को इस टिप्पणी के साथ बरी कर दिया कि 'सीबीआई ने राजनीतिक कारणों से भाजपा अध्यक्ष को मामले में घसीटा था। '
सीबीआई ने उक्त आदेश अर्थात अपने खिलाफ की गई  टिप्पणी के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की। इतना ही नहीं सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन ने पहले तो आदेश को चुनौती दी किंतु, बाद में चुनौती को वापस ले लिया। एक सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मांदेर ने अमित शाह को बरी किए जाने को बोम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी मामले को पुन: खोले जाने से इनकार कर दिया।
सवाल शेष कि, आखिर तब सीबीआई ने जो चार्जशीट दाखिल की थी , खारिज होने के बाद सीबीआई ने अपील क्यों नहीं दायर की? सीबीआई अदालत ने जिस 'राजनीतिक कारण' के आधार पर शाह को बरी किया था, क्या वह 'राजनीतिक कारण' अब मौजूद नहीं है? लोगों के मन में उठे इस सवाल का जवाब तो ढूंढऩा ही होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज तो किया परंतु, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं दी जिससे शक का समाधानकारक उत्तर मिल सके। क्या यह हमारी न्यायिक व्यवस्था का एक कमजोर पहलू नहीं है?
दूसरा मामला केरल के राज्यपाल पी. सदाशिवम का। सदाशिवम जब भारत के प्रधान न्यायाधीश थे, तब उन्होंने ही अमित शाह के खिलाफ फर्जी मुठभेड़ मामले में दायर दूसरी एफआईआर को रद्द कर दिया था। भारत के प्रधान न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार ने उन्हें केरल का राज्यपाल नियुक्त कर दिया था। यह पहला अवसर था जब भारत के किसी प्रधान न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यपाल बनाया गया। विडम्बना यह कि राज्यपाल का पद वरीयता में भारत के प्रधान न्यायाधीश से नीचे आता है। उनकी नियुक्ति पर तब अनेक सवाल खड़े किए गए थे। राजदलों को छोड़ दें तो स्वयं केरल और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी सदाशिवम की नियुक्ति के खिलाफ राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपकर कहा था कि, ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त किया जाना अनुचित है जो भारत के प्रधान न्यायाधीश रह चुके हों। लेकिन भारत में, दुखद रूप से, विरोध के स्वर को सम्मान तभी मिलता है जब उसे समर्थन सड़कों से भी मिले।
 चूंकि ऐसा कुछ नहीं हुआ, सदाशिवम राज्यपाल बने हुए हैं और अब भारत के उपराष्ट्रपति पद के आकांक्षी हैं।
रोग पुराना है। या यूं कह लीजिए 'दंश' बहुत पहले से लगते आ रहे हैं। कुख्यात फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' मामले को याद करें। अमृत नाहटा निर्मित उक्त फिल्म के सभी प्रिंट (रील) को जला देने का आरोप तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल और इंदिरा गांधी के बेटे बहुचर्चित संजय गांधी पर लगे। विशेष अदालत ने  उन्हें दोषी पाया जिसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की गई थी। 1979 में अपील पर सुनवाई शुरू हुई।  इसी दौरान आम चुनाव हो गए। केंद्र में सरकार बदली और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। नई सरकार ने विशेष सरकारी वकील राम जेठमलानी को हटा दिया और उनकी जगह जे.एस. वासु को लाया गया। अपील पर सुनवाई 26 नवंबर 1979 को शुरु हुई थी। संजय गांधी, वी. सी. शुक्ल की और से तर्क रखे गए। सुनवाई फरवरी 1980 के आखिरी हफ्ते में पूरी हुई। सीबीआई की ओर से तर्क रखने की बारी आई तो, सीबीआई के नये वकील वासु ने 15 मिनट में अपने तर्कपूरे कर दिए। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति कौशल ने जब वासु से पूछा था कि जिन तारीखों में फिल्म को जला डालने की घटनाओं की बात की गई है उस दौरान संजय गांधी की गैरहाजिरी के बारे में क्या वे बचाव पक्ष के तर्कों का जवाब दे सकते हैं? पीठ के जजों ने पूछा था कि क्या आप उस बिंदु की व्याख्या करेंगे? वासु ने बेखटके जवाब दिया था कि 'फिल्म को जलाए जाने का कोई सबूत नहीं 'है।' यह दोहराना ही होगा कि संजय गांधी और शुक्ल बरी कर दिए गए। तब राम जेठमलानी ने फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'जजों ने रोशनी में अपनी आंखें बंद कर ली हैं, जबकि रोशनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। सुप्रीम कोर्ट की गरिमा पर यह भारी आघात है, जिसके परिणाम बहुत ही दुखद होंगे।'
तब इंदिरा गांधी की नई सरकार में संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल  बरी हुए थे। आज नरेंद्र मोदी की नई सरकार में जब अमित शाह बरी हुए हैं तब बड़ों के पक्ष में झुकी न्याय की तराजू चिन्हित तो होगी ही। मामलों की तार्किक परिणती के अभाव में लोकतांत्रिक व्यवस्था की जिम्मेदार न्यायपालिका पर सवाल खड़े होना दुर्भाग्यपूर्ण है। 'न्याय होता हुआ दिखे भी' इसे सुनिश्चित करने की अंतिम जिम्मेदारी न्यायपालिका की ही तो है। न्यायपालिका मौन न रहे। सवाल देश की जनता पूछ रही है, न्यायपालिका को जवाब देना ही होगा। क्योंकि भारत का लोकतंत्र एक पूर्णत: 'संदेहमुक्त' न्यायपालिका का आग्रही है।

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