'जिज्ञासा’ और 'शंका’
दो सगी बहनें !
एक मां 'अंतर्मन’ की
संतान दो सगी बहनें!
जिज्ञासु जिज्ञासा
और शंकालु शंका दोनों के अंतर्मन समाधानकारक उत्तर को प्रतीक्षारत हैं! प्रश्न ऐसे
कि उत्तर जटिल मनोविज्ञान की पुस्तकों में ढूंढने की बजाय सरल समाज शास्त्र में ढूंढे
जाने चाहिए। संभवत: तभी सर्वमान्य उत्तर मिल पाएंगे। खोज की ऐसी जटिल स्थिति इस बार
स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पैदा कर दी है।
हाल के दिनों में समाज
में उत्पन्न घोर बल्कि, तनावपूर्ण साम्प्रदायिक और जातीय स्थिति के बीच प्रधानमंत्री
मोदी ने लगातार दो दिनों के बयान में देश में सक्रिय गोरक्षकों को आड़े हाथों लेते
हुए टिप्पणी कर दी कि ऐसे गोरक्षकों में 70-80 प्रतिशत ऐसे असामाजिक तत्व मौजूद हैं
जो रात के अंधेर में समाज द्वारा अमान्य कुकृत्यों में शामिल रहते हैं किंतु, दिन के
उजाले में गोरक्षक का चोला धारण कर लेते हैं। ये वस्तुत: गुंडे हैं जिनकी कुंडली विभिन्न
राज्य सरकारों को तैयार करनी चाहिए। गोरक्षा के नाम पर दलित समुदाय के लोगों को निशाने
पर ले हत्या तक कर दिए जाने की घटनाओं पर आक्रोश व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री मोदी
यहां तक कह गए कि गोली चलानी हो तो मुझ पर चलाओ, मेरे दलित भाइयों को प्रताडि़त मत
करो।
चूंकि ये शब्द, दुख, पीड़ा व चुनौती देश के प्रधानमंत्री के मुख
से निकले, राष्ट्रीय बहस स्वाभाविक है। निर्विवाद रूप से हाल के दिनों में दलित उत्पीडऩ
की घटनाओं में चिंतनीय वृद्धि हुई है। गोरक्षा के नाम पर उन्हें पीटा गया, मारा गया।
पूरे देश में संदेश गया कि केंद्र में सतातारूढ़ भारतीय जनता पार्टी दलित विरोधी है।
जातीय राजनीति करनेवाले, स्वयं को दलित हितचिंतक बतानेवाले राजनेताओं को अवसर मिला
और उन्होंने सरकार की घेरेबंदी शुरू कर दी। वे प्रधानमंत्री पर इस आरोप के साथ आक्रमण
करते रहे कि ऐसे महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दे पर मौन रहकर प्रधानमंत्री अपरोक्ष में
दलित विरोध को समर्थन प्रदान कर रहे हैं। विलम्ब से ही सही, प्रधानमंत्री ने मुंह खोला
और खूब खोला। लेकिन, 80 प्रतिशत गोरक्षकों को
'अपराधी’ बताकर प्रधानमंत्री ने स्वयं अपनी ही पार्टी व इसे जुड़ी संस्थाओं
को सकते में डाल दिया। ये किसी से छिपा नहीं है कि कथित गोरक्षक उन संगठनों से जुड़े
हैं जो हिंदुवादी संगठन के रूप में सक्रिय हैं। और हिंदुवादी संगठनों की डोर चूंकि
, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दरवाजे तक जाती है, मोदी के प्रहार की गूंज वहां तक भी
पहुंची। जिज्ञासा और शंका कि क्या प्रधानमंत्री ने संघ व उससे जुड़ी संस्थाओं को निशाने
पर लिया है? एक ऐसा असहज प्रश्न जिसका उत्तर सरल नहीं। अनेक पेंच इस जिज्ञासा और शंका
में मौजूद हैं। राजनीति शास्त्र का कोई साधारण छात्र भी इस सोच को साथ नहीं देगा कि
प्रधानमंत्री मोदी ने संघ को छेडऩे की कोशिश की है। लेकिन, कोई अनखुली गांठ तो मौजूद
है अवश्य। ध्यान रहे, पहले मोदी ने 70-80 प्रतिशत गो रक्षकों को असामाजिक करार दिया
किंतु, 24 घंटे के अंदर यह आंकड़ा 'मुट्ठीभर’ लोगों में समेट दिया। साफ है कि मोदी
के मुक्के से उत्पन्न प्रकम्पन को संघ द्वार ने स्वीकार नहीं किया।
और, आरोप और आंकड़ा
देश के प्रधानमंत्री की ओर से आया, देश जानकारी का 'स्त्रोत’ अगर पूछ रहा है तो, उचित
ही। सवाल यह भी कि जब देश के प्रधानमंत्री को इसकी जानकारी थी तो अब तक उन असामाजिक
तत्वों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई? समाज में विघटन पैदा करनेवालों की जानकारी
प्रधानमंत्री को हो और वे कार्रवाई नहीं करें तो, उन्हें कारण बता ही होगा। किसी सार्वजनिक
मंच से ऐसी विस्फोटक जानकारी का प्रधानमंत्री का सार्वजनिक किया जाना स्वयं में अनेक
सवाल खड़े करता है। क्या प्रधानमंत्री इतने कमजोर या लाचार हैं कि ' मुट्ठी भर’ असामाजिक
तत्वों के खिलाफ कार्रवाई न कर सार्वजनिक मंच
से अपनी पीड़ा या आक्रोश व्यक्त करने को मजबूर हो जाएं? यह संभव नहीं। पेंच जटिल है।
मैं यहां प्रधानमंत्री
के बयान के बाद विभिन्न गोरक्षक संगठनों, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा व राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की प्रतिक्रियाओं पर चर्चा न करते हुए उन संभावित शंकाओं को चिन्हित करना चाहूंगा जिनकी
झलक प्रधानमंत्री के शब्दों में स्पष्टत: परिलक्षित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास
मोदी एक समझदार, कुशल व चतुर राजनेता हैं। वैसे सामान्य राजनेता नहीं जो अपने किसी
तात्कालिक लाभ के लिए कुछ भी बोल दें। वैसे कहा यह जा रहा है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब
व गुजरात जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनावों को देखते हुए फिलहाल सत्ता
पक्ष से नाराज महत्वपूर्ण दलित समाज की सहानुभूति पाने के लिए प्रधानमंत्री ने ऐसा
बयान दिया। मैं इसे एक कारण तो मान सकता हूं, संपूर्ण नहीं। प्रधानमंत्री मोदी इस कड़वे
सच से अच्छी तरह परिचित हैं कि शनै: शनै: उनकी और उनकी पार्टी भाजपा का जनाधार खिसकता
जा रहा है। जनहित से जुड़े प्राय: हर मोर्चे
पर सरकार की विफलता से सामान्यजन निराश ही नहीं, क्रोधित भी है। विभिन्न सर्वेक्षण
पुष्टि करते हैं कि वर्तमान राजनीतिक वातावरण
मोदी व उनकी पार्टी के लिए असहज है। चूंकि, भाजपा संगठन का नेतृत्व मोदी के
विश्वस्त अमित शाह कर रहे हैं, सत्ता और संगठन
दोनों की विफलता के लिए दोष सीधे-सीधे नरेंद्र मोदी के सिर जाएगा। प्रधानमंत्री
मोदी इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैं। वे
इस कड़वे सच से भी वाकिफ हैं कि न केवल विपक्ष बल्कि, देश का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें
'संघ का गुलाम’ निरूपित कर रहा है। अति महत्वाकांक्षी व स्वाभिमानी नरेंद्र मोदी ऐसी जन-धारणा को स्वीकार करेंगे? मोदी को नजदीक
से जाननेवालों का बड़ा जवाब ' ना’ होगा। यह
जवाब वर्तमान भारतीय राजनीति और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए विकट है। जिस
वैश्विक शोर-शराबे और महिमामंडन के साथ मोदी सरकार अस्तित्व में आई और जिस सघन प्रचार
के घोड़े पर सवार यह दौड़ रही है, आलोच्य जिज्ञासा और शंका मार्ग-अवरोधक के रूप में
चुनौती बन खड़ी हैं।
वर्तमान का सच भविष्य के
खतरे का सूचक है। तो क्या मोदी भविष्य के खतरे से लडऩे के लिए किसी अभेद ' चक्रव्यूह’
का निर्माण कर रहे हैं? ऐसा चक्रव्यूह जिसमें सारी 'चुनौतियां’ गडमगड हो भटक जाएं और
वे एकल विजेता के रूप में स्थापित हो जाएं! यह तो नरेंद्र दामोदारदास मोदी बनाम शेष
की लड़ाई का आगाज होगा। क्या प्रधानमंत्री मोदी
ऐसी किसी लड़ाई का खाका तैयार कर रहे हैं। यह संभव है उस संभावना के आलोक में
जो चुगली कर रही है कि आनेवाले समय में नरेंद्र मोदी को ऐसी ही किसी विकट स्थिति का
सामना करना होगा जिसमें वे कौरवों की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर पांडवों की सेना
का नेतृत्व करने को विवश होंगे। कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है और इतिहास की
डोर वर्तमान की खिड़की से निकल आदिकाल के दरवाजे तक भी पहुंचती है, संभावना निर्मूल
नहीं है। नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक सफलता से ईष्र्या करनेवालों की संख्या कम नहीं है।
कौरवों की फौज में शामिल हो ये ईष्यालु मोदी के खिलाफ ताल ठोकेंगे यह तय है। और इतिहास
का कड़वा सच यह भी कि 'ईष्यालु’ अमूमन 'अपने’ ही होते हैं।
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