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Thursday, March 26, 2009

लोकतंत्र के ये कैसे शीर्ष पुरूष!


'नहीं मनमोहन सिंह नहीं! नहीं आडवाणी, नहीं!' दोनों अब भारतीय जनमानस की नजरों में गिर गए हैं. लोकतंत्र की गरिमा को खंडित करने के अपराधी बन गए हैं ये दोनों. विशाल भारतीय लोकतंत्र के ललाट पर इन दोनों ने उच्छृंखलता के आपत्तिजनक कृत्य को चस्पा दिया है. प्रधानमंत्री पद के अवमूल्यन के अपराधी बन गए हैं डॉ. मनमोहन सिंह. और प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने अपने शब्दों से स्वयं को सर्वथा अयोग्य करार दिया है. संसदीय लोकतंत्र की हिमायती, गरिमा की रक्षक भारतीय जनता का यही आकलन है. क्या लोकतंत्र में अपनी बात 'असभ्य' या गैर जिम्मेदार हुए बगैर नहीं रखी जा सकती? क्या बगैर कीचड़ उछाले अपने प्रतिद्वंद्वी से स्वयं को बेहतर नहीं बताया जा सकता? ये सवाल भारत की प्रबुद्ध जनता के हैं. लालकृष्ण आडवाणी तो पिछले 50 वर्षों से सार्वजनिक जीवन में हैं. अधिकांश समय विपक्ष की राजनीति करने वाले आडवाणी देश के उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद को सुशोभित कर चुके हैं. फिर असंयमित आचरण? देश के प्रधानमंत्री को तीखे शब्दों में सर्वथा अक्षम बताकर आडवाणी अपने पक्ष में कौन सा राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं? आडवाणी इस स्थापित सत्य को कैसे भूल गए कि दूसरे की अयोग्यता किसी की योग्यता नहीं बन सकती. 50 वर्षों के सार्वजनिक जीवन का महत्वपूर्ण दायित्व निभा चुके आडवाणी अपने प्रधानमंत्री को 10-जनपथ के 'आदेशपाल' के रूप में प्रस्तुत कर अपने साथ-साथ पूरे देश का मान मर्दन करने के अपराधी बन गए हैं. क्या यह अपराध नहीं? अगर कानूनी रूप से नहीं, तब नैतिक अपराध तो है ही. मनमोहन सिंह को अयोग्य साबित करने के क्रम में आडवाणी यह कैसे भूल गए कि वे किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री को विश्व समुदाय की नजरों में गिरा रहे हैं. घर के मुखिया की आलोचना बंद कमरे के अंदर होती है, सड़क-चौराहों पर नहीं!
इस अपराध के दोषी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैं. आडवाणी तो 'प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग' की भूमिका में हैं. मनमोहन तो प्राइम मिनिस्टर हैं. मनमोहन सिंह की अनेक आपत्तिजनक व हास्यास्पद बातों के बावजूद उन्हें देश की जनता संदेह का लाभ इस आधार पर देती रही कि वे कोई 'पॉलिटिशियन' नहीं, विशुद्ध अर्थशास्त्री हैं. उनका राजनीति प्रवेश तो एक दुर्घटना मात्र है. अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा मुद्दे पर उनके घोर आपत्तिजनक आचरण पर भी एक अर्थशास्त्री की सोच मानकर जनता ने क्षमा कर दिया था. लेकिन अब, जब वे भी आडवाणी की भाषा बोलने लगे तब क्या कहा जाए. बाबरी मस्जिद विध्वंस, संसद व लाल किले पर हमला तथा गुजरात दंगों के लिए आडवाणी को दोषी करार देते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए 'अयोग्य' करार देकर मनमोहन सिंह ने स्वयं के कद को छोटा कर लिया है. एक ज्ञानी 'भद्रजन' के रूप में पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुके मनमोहन सिंह ने अपने प्रशंसकों को निराश किया है. उनका इस तरह 'पॉलिटिशियन' बन जाना भारतीय लोकतंत्र के अनुकरणीय चरित्र पर भी सवालिया निशान लगा रहा है. ऐसा नहीं होना चाहिए था. भारतीय लोकतंत्र के ये दोनों शीर्ष पुरुष अति लघु बन कर रह गए हैं.
26 मार्च 2009

2 comments:

Pak Hindustani said...

कोई भी पद 'sacred' नहीं होता. उंचे चरित्र के लोग अपने सद्कार्यों और हिम्मत के द्वारा उसे sacred बनाते हैं. इसलिये प्रधानमंत्री मनमोहन अगर देश के शीर्षस्थ पद पर होते हुये भी अपने काम के अनुमोदन की तलाश में दिखें तो उस पद का भी क्या मतलब रह जाता है.

rajesh ranjan said...

sir, agar rajneta aapki apeksha ko aatmsat kar paye to bharat me wakai loktantra aa jayega.

rajesh ranjan
chief sub editor
amar ujala, panchkula.