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Sunday, February 6, 2011

अब ऐलान हो जाए 'जनयुद्ध' का!

यह भी खूब रही! विद्वान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अब इस बात का एहसास हुआ है कि भ्रष्टाचार से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। बेचारे प्रधानमंत्री ! जब पूरे देश में शीर्ष सत्ता और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोहराम मचादो है, गली-कूचों में आम आदमी भी आक्रोश व्यक्त कर रहा है, भारतीय संसद ठप की जा रही हो, मंत्री और मुख्यमंत्री के खिलाफ मामले दर्ज हो रहे हों, केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफे लिए जा रहे हों, विदेशी बैंको में भारतीयों द्वारा अकूत धनराशी जमा कराई जा रही हो, स्पेक्ट्रम जैसे घोटाले से एक झटके में पौने दो लाख करोड़ के वारे-न्यारे हो जाएं, राष्ट्रमंडल खेलों में दिन दहाड़े लूट की खबरें गुंजायमान हो, तब देश की छवि साबुत कैसे रह सकती है? भ्रष्टाचार संबंधी गतिविधियों पर वर्षों मौन रहनेवाले प्रधानमंत्री के ज्ञानचक्षु अब खुलते हैं और उन्हें समझ में आता है कि भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर प्रहार करता है, विकास की दिशा में रुकावट है! कारण साफ है। गठबंधन राजनीति के 'अधर्म' को सींचित कर सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से समझौते किए। कहीं उन्होंने आंखे मूंद रखीं, तो कहीं समर्पण कर भ्रष्ट आचरण-निर्णय के भागीदार बनते रहे। ऐसे में उनके मुख से निकले उपदेश उन्हें हास्यास्पद बना देते हैं, बहुरुपिया बना देते हैं। घोर गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अगर मजबूर हैं तो अपनी सत्ता वासना की पूर्ति के पक्ष में। सत्ता सुख का त्याग वे करना नहीं चाहते। देश की छवि को रसातल में पहुंचाने के बाद छवि की चिंता! बेहतर हो, सत्य को स्वीकार कर देशहित के पक्ष में वे सत्ता बंधन से मुक्त हो जाएं। अन्यथा ए. राजा और सुरेश कलमाड़ी की तरह एक दिन वे स्वयं को बलिवेदी पर निरीह लेटे पायेंगे।
भारत की विशाल आबादी के साथ सत्तापक्ष का ऐसा छल अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सत्ता की राजनीति करनेवाले इस संभावना की उपेक्षा न करें। केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रहे संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन (यूपीए)की अध्यक्ष सोनिया गांधी भी देश के साथ ऐसा ही छल कर रही हैं। सोनिया न तो संत हंै और न ही दार्शनिक! फिर इनके सदृश अभिनय क्यों? उन्होंने सत्ता और धन के लिए अंधी दौड़ पर चिंता जताई है। कहा है कि जीवन में धन ही सबकुछ नहीं होता, सत्ता ही सबसे बड़ा सुख नहीं। गांधी और विवेकानंद के ये शब्द सभी के मुख को अच्छे नहीं लगते। ऐसे में शब्द दमित हो जाते हैं, शब्द अपमानित हो जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि सोनिया गांधी के इन शब्दों का कोई खरीदार सामने नहीं आया। आज देश त्रस्त है, संतप्त है तो भ्रष्टाचार के दानव से। इस दानव की उत्पत्ति नई नहीं, किंतु आजादी के 64 वर्षों में इसे फलने-फूलने के लिए आवश्यक ऊर्जा क्या इन्हीं भ्रष्ट सत्ताधारियों और नौकरशाहों ने नहीं दी? स्वीस बैंक के डायरेक्टर ने जानकारी दी है कि लगभग 280 लाख करोड़ रुपए भारतीयों ने स्वीस बैंकों में जमा करा रखे हैं। क्या यह दोहराने की जरुरत है कि यह विशाल धनराशि राष्ट्रीय संपत्ति की लूट से परिवर्तित काला धन है। जरा गौर करें। 200 साल के शासनकाल के दौरान अंग्रेजों ने 1 लाख करोड़ लूटा था। और अब आजादी के बाद 64 सालों में 280 लाख करोड़! इस मोर्चे पर विदेशी अंग्रेजों को मात देनेवाले आजाद भारत के हमारे शासक, नौकरशाह, उद्योगपति किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित चिंतक नहीं कहे जायेंगे। इतिहास इन्हे राष्ट्रद्रोही के रूप में दर्ज करेगा। मिस्त्र में जारी 'जनयुद्ध' एक संकेत है। 80 के दशक में इरान के शाह को ऐसे ही जनयुद्ध ने सत्ता छोड़ पलायन के लिए मजबूर कर दिया था। मिस्त्र के होस्नी मुबारक को भी संभवत: ऐसे ही हश्र से रुबरु होना पड़े। कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता जब सड़क पर उतरती है तब राष्ट्रकवि (स्व.)रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां, ''... सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है...'' साकार हो उठती हैं। धन और सत्ता की अंधी दौड़ पर चिंता व्यक्त करनेवाली सोनिया को चाटुकारों ने भले ही त्याग मूर्ति बना डाला हो, वास्तविकता से सारा देश परिचित है। आम जनता का धैर्य अब टूटने लगा है। पिछले दिनों, एक दिन के लिए ही सही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की जनता सड़कों पर उतरी थी। वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ वह आयोजन 'जनयुद्ध' का पूर्व संकेत था। जनता कालरात्रि की समाप्ति चाहती है। उसे अब इस बात का पुन: एहसास हो गया है कि क्रांति और परिवर्तन की आवश्यकता आज बाहर से नहीं, स्वयं हमारे भीतर है। व्यक्ति का स्थान ले चुके समूह को चुनौतियां मिलनी शुरु हो चुकी हैं। व्यक्ति की अहमियत को रेखांकित करने के लिए समाज अंगड़ाई लेने लगा है। जोड़-तोड़ कर सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे शासक यह न भूलें कि विश्व की प्राय: सभी वैचारिक क्रांतियां मात्र अकेले व्यक्तियों के कारण ही सफल हुई हैं। अब चुनौती है भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर जन का। वे अब और प्रतीक्षा न करें। भ्रष्टाचार के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान सत्ता त्याग कर जन अदालत का सामना करने की जगह शासक अब ढोंगी संत-दार्शनिक की भूमिका में आ गए हैं। ऐसे में और विलंब नहीं! निर्णय की घड़ी मान 'जनयुद्ध' का ऐलान कर दिया जाए! परिणति के रुप में तब शासन-समाज निश्चय ही स्वच्छ छवि के साथ अवतरित होगा।'

Sunday, January 30, 2011

नकली नहीं, असली गांधी बनें राहुल!

राहुल गांधी फिर भ्रमित दिख रहें हैं। कारण साफ है। सलाहकार चाहते ही हैं कि राहुल यूं ही भ्रमित दिखते रहें। जी हाँ, कांग्रेस संस्कृति का यह एक ऐसा पीड़ादायक सच है जिससे पूरा देश परिचित है। नेहरु युग के आरंभिक काल में पुत्री इंदिरा गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। तब इंदिरा गांधी को सलाहकारों ने लोकतंत्र को हाशिए पर रखकर निर्मम राजनीति का पाठ पढ़ाया था। हश्र इतिहास में दर्ज है। पॉयलट की नौकरी के दौरान स्वयं को राजनीति से कोसों दूर रखने का लगातार ऐलान करते रहनेवाले राजीव गांधी को जब प्रधानमंत्री के रुप में देश पर थोपा गया था, तब उनकी 'मिस्टर क्लीन' की छवि को सलाहकारों ने कुछ ऐसी गति दी कि जनता ने भ्रष्टाचार का मेडल उनके सीने पर जड़ कर अगले ही चुनाव (1989) में सत्ताच्यूत कर दिया था। फिर इंदिरा गांधी की तरह उन्हें भी जान की कुर्बानी देनी पड़ी थी। कांग्रेस दरबार के चाटुकारों ने तब सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की। सास और पति की 'कुर्बानी' से डरी-सहमी सोनिया ने तब सत्ता और संगठन से स्वयं को दूर रखा। चाटुकार फिर भी सक्रिय रहे। नेहरु-गांधी परिवार के अस्तित्व-भविष्य की दुहाई देकर वे सोनिया को कांग्रेस संगठन में लाने में सफल रहे। तब कवायद ऐसी हुई कि कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी को बाथरुम में बंद कर सोनिया को अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया गया था। तब लोकतांत्रिक पद्धति से इतर कांग्रेस की विशिष्ट संस्कृति की विजय हुई थी। आज जब सोनिया पुत्र राहुल गांधी यह कहते फिर रहे हैं कि राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है और कंाग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जहाँ आंतरिक लोकतंत्र है, तब टेढ़ी भौंह के साथ देश सवाल तो पूछेगा ही।
महाराष्ट्र का दौरा कर रहे राहुल गांधी वंशवाद के खिलाफ भी मुखर हैं। ऐलान करते फिर रहे हैं कि पार्टी में अब भाई-भतीजावाद नहीं चलेगा। वंशवाद के कारण योग्य पात्र अवसर से वंचित रह जाते हैं। दल में काम करनेवाले समर्पित लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी। इस मुकाम पर स्वाभाविक सवाल यह कि जो राहुल गांधी स्वयं पार्टी में वंशवाद की पौध हैं, क्या वे मजबूती से जड़ जमा चुकी कांग्रेस की इस परंपरा को बदल पायेंगे? वैसे राहुल ने स्वीकार किया है कि वे स्वयं 'मजबूत राजनीतिक पारिवारिक पाश्र्व' के कारण ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं। मैं यहां राहुल की नीयत पर संदेह का लाभ देने को तैयार हूं। हां, शर्त यह अवश्य कि वे स्वयं को वचन के प्रति ईमानदार प्रमाणित करें, आदर्श स्थापित करें। इसके लिए उन्हें सोनिया गांधी के 'त्याग' से अलग 'वास्तविक त्याग' करना होगा। सत्ता-शासन से आजीवन दूर रहने की घोषणा करनी होगी। नि:स्वार्थ देश सेवा का व्रत लेना होगा। जिस गांधी शब्द को उन्होंने अपने नाम साथ जोड़ रखा है तब उसकी सार्थकता प्रमाणित हो आदर्श के रुप में स्थापित होगी, पवित्रता कायम रहेगी। क्या राहुल इसके लिए तैयार हैं? भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए जिस तंत्र को बदलने का आह्वान राहुल कर रहे हैं, वर्तमान तंत्र का हिस्सा बनकर कभी नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी इस सचाई को जान लें कि आज उनकी कांग्रेस पार्टी जिस प्रकार वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्हें देश का भावी प्रधानमंत्री के रुप में पेश कर रहीं है, वह स्वयं उनके नए 'अवतार' को चुनौती है।
बावजूद इसके अगर वे सचमुच भ्रष्ट व्यवस्था की समाप्ति चाहते हैं, वंशवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाना चाहते हैं, जाति-धर्म-क्षेत्र-परिवार से अलग सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं तो उन्हें 'नकली गांधी' नहीं 'असली गांधी' के सच्चे अनुयायी के रुप में सामने आना होगा।
तब देशवासी सभी दु:खद, विरोधाभासी शब्द-प्रसंग भूल जायेंगे। गलती का एहसास कर समझदार सुधार कर लेते हैं। और जब बात व्यापक समुदाय-संगठन की हो तब 'आदर्श पहल' की जाती है। अर्थात् संबंधित व्यक्ति अपने कर्म से पहले स्वयं को नि:स्वार्थ, समाज के प्रति समर्पित साबित कर आदर्श स्थापित करता है। लोगों का विश्वास अर्जित करता है। समाज की नजरों में अगर वह 'सेवक' दिखा तब अनुसरण में करोड़ों पग कदमताल करने लगते हैं। आजादी पूर्व महात्मा गांधी और आजादी पश्चात् जयप्रकाश नारायण ऐसे 'आदर्श पुरुष' के रुप में स्थापित हो चुके हैं। राहुल गांधी अगर मन-वचन-कर्म से स्वयं को आदर्श प्रवर्तक के रुप में स्थापित करना चाहते हैं तो चुनौती है उन्हें कि वे पहले सत्ता-शासन से दूर नि:स्वार्थ देश सेवा का व्रत लें। देशवासी उन्हें अपने कंधों पर बिठा लेंगे। क्या राहुल इसके लिए तैयार होंगे???

Sunday, January 23, 2011

प्रधानमंत्रीजी! धिक्कार है आपके भारतीय होने पर!

क्या हो गया है हमारे देश के विद्वान प्रधानमंत्री को! क्या वे किसी दबाव में हैं? किसी अदृश्य ताकत के हाथों की कठपुतली तो नहीं बन गए हैं? ऐसे असहज सवाल से आज पूरा देश रूबरू है। शंका के आधार मौजूद हैं। भला भारत जैसे लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री अपने ही देश के एक प्रदेश में राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराने के उपक्रम को 'राजनीति' से कैसे जोड़ सकता है? गणतंत्र दिवस पर देश के एक भाग में कोई तिरंगा फहराना चाहता है तो वह विभाजनकारी एजेंडा कैसे हो गया? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को इसका जवाब देना होगा। वे स्पष्ट करें कि उनकी पार्टी और सरकार जम्मू-कश्मीर को भारत का अंग मानती है या नहीं? यह जिज्ञासा दु:खदायी तो है किंतु इसके लिए प्रेरित स्वयं प्रधानमंत्री ने किया है। भारतीय जनता पार्टी की युवा शाखा द्वारा श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस के दिन तिरंगा फहराने के कार्यक्रम पर आपत्ति जड़ प्रधानमंत्री ने राष्ट्रविरोधी अलगाववादी ताकतों का साथ दिया है। डॉ. मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री पद पर आसीन विद्वान व्यक्ति अनजाने में तो ऐसी टिप्पणी नहीं कर सकता। सो इन्हें संदेह का लाभ भी नहीं मिल पाएगा। तिरंगा फहराने के कार्यक्रम को 'राजनीतिक फायदा' निरूपित कर उन्होंने वस्तुत: स्वयं राजनीति की हैं। जम्मू-कश्मीर के मामले में संयम बरतने की उनकी सलाह प्रधानमंत्री पद की गरिमा के विपरित है। इस क्रम में वे अपनी पार्टी द्वारा बार बार देश की एकता और अखंडता के पक्ष में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुर्बानी की याद दिलाए जाने की बात भूल गए। वे भूल गए कि उनका प्रदेश पंजाब जब अलगाववादी आतंक की आग में झुलस रहा था तब इंदिरा गांधी ने कड़े कदम उठाते हुए अलगाववादियों को कुचल डाला था। परिणति के रूप में उन्हें अपने प्राण गंवाने पड़े थे। शहीद हो गई थीं वे। फिर आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों के समक्ष घुटने क्यों टेक रहे हैं। तिरंगा फहराने का विरोध कर वे जम्मू कश्मीर को भारत से अलग चिन्हित कर रहे हैं। निश्चय ही इससे पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों की बांछें खिल गई होंगी। यही तो चाहते हैं वे। क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर अंतरराष्ट्रीय विवाद का मुद्दा बन कालांतर में भारत के एक और विभाजन का कारण बने। अगर प्रधानमंत्री की ऐसी नीयत है तब न तो उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने का हक है और न ही भारतीय। क्या वे ऐसी अवस्था के लिए तैयार हैं? अगर हां, तो वे तत्काल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर किसी और देश में शरण ले लें। अगर नहीं, तो वे देश से क्षमा मांग ले और तिरंगा फहराए जाने का विरोध करने वाले जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की सरकार को तुरंत बर्खास्त कर दें। उमर के पिता फारूख अब्दुल्ला को केंद्रिय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर कर दोनों पिता-पुत्र को गिरफ्तार कर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाएं। जब विनायक सेन देश के नक्सवादियों से संपर्क रखने के कारण राष्ट्रद्रोही घोषित कर दंडित किए जा सकते हैं, तब विदेशी आतंकवादियों के मनसूबों का साथ देने वाले क्यों नहीं? अगर ऐसा नहीं हुआ, तो क्षमा करेंगे, देशवासी धिक्कारेंगे प्रधानमंत्री भारतीय होने पर!

Saturday, January 22, 2011

जिसके पास 'बोफोर्स' वही राजा, वही रानी!

पूरे संसार के काले धन अर्थात बेईमानी के धन को अपने यहां सहेजकर रखनेवाला स्वीटजरलैंड धरती के स्वर्ग के रुप में विख्यात है। फिर इस कहावत पर चकित क्या होना कि बेईमानी का धन रखनेवाले ही फलते-फूलते हैं। ईमानदार पसीना बहाते रहें, खून सुखाते रहें, समाज में वे दीन-हीन ही बने रहते हैं। ईमानदार के रूप में कोई अगर चर्चित हुआ, तो पीठ पीछे उसे मूर्ख या विदूषक निरुपित करनेवालों की संख्या गिनी नहीं जा सकती। इस विलाप को किसी ओर ने नहीं स्वयं हमारे महान देश के ईमानदार अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंमत्रित किया है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 21 लाख हजार करोड़ रुपए काले धन के रुप में हमारे देश के कुछ महान लोगों ने विदेशी बैंकों में जमा करवा रखे हैं। इस धन को भारत वापस लाने और जमाकर्ताओं पर कार्रवाई करने की मांग संबंधी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी से बेचैन केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में चर्चा हुई। कुछ मंत्रियों की जिज्ञासा पर सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा के अनुरुप ही प्रधानमंत्री ने दो-टूक शब्दों में कह डाला कि सरकार के पास काले धन जमा करानेवालों के नाम तो उपलब्ध हैं किंतु वे बतायेंगे नहीं। दलील वही पुरानी कि खातों के बारे में जानकारी बाहरी सरकारों ने इसी शर्त पर उपलब्ध कराई है कि उनके नाम सार्वजनिक नहीं किए जायेंगे। अगर उन नामों का खुलासा कर दिया तब भविष्य में विदेश की कोई सरकार हमें ऐसी जानकारी नहीं देगी। हां, सरकार इन लोगों से टैक्स अवश्य वसूलेगी। सरकार की ओर से बार-बार दिए जा रहे तर्क को स्वीकार करने को देश तैयार नहीं। भारत सरकार का रवैया बिल्कुल हास्यास्पद है, बल्कि देशहित के खिलाफ है। विदेशी बैंको में जमा काले धन को टैक्स चोरी के रुप में लेकर भारत सरकार आखिर क्या संदेश देना चाहती है। कहीं यह तो नहीं कि चोरी-डकैती करते रहो, सिर्फ टैक्स भर दो, अपराध माफ !!! यह तो चोरी-डकैती रोकने की जगह उसे बढ़ावा देना हुआ। काले धन को जप्त करने, खाताधारकों को जेल भेजने की जगह उनसे टैक्स मात्र वसूल करने की बात करनेवाली सरकार देश की अर्थव्यवस्था को चौपट नहीं कर रही? जिस कथित संधि की आड़ में सरकार देश को लुटनेवालों का बचाव कर रही है, उस संधि को तोड़ क्यों नहीं दिया जाता? विदेशी बैंक कालाधन जमा करनेवालों की गोपनीयता संबंधी शर्त तब स्वत: तोड़ देंगे, और तब भारत सरकार विदेशी बंैकों को वहां की सरकारों के माध्यम से कह सकती है कि वे भारतीयों के खाते या तो न खोलें या भारत सरकार की पूर्वानुमति ले लें। पारदर्शिता की ऐसी अवस्था में राष्ट्रीय संपत्ति को लूटनेवाले विदेशी बैंकों का सहारा ले ही नहीं पायेंगे। भारत के उपर विदेशी कर्ज से लगभग 13 गुना अधिक विदेशी बैंको में जमा भारतीय काला धन क्या इस बात का आग्रही नहीं कि उसे तत्काल भारत वापस लाया जाए? इस प्रक्रिया में किसी भी तकनीकी अड़चन या संधि को सरकार स्वीकार न करें। बकौल सुप्रीम कोर्ट जब यह विशाल धनराशि राष्ट्रिय संपत्ति है, जिसे लुटा गया है, तब सभी कथित बंधनों को तोड़ यह धन भारत वापस लाया ही जाना चाहिए। भारत सरकार जिस प्रकार काले धन के अपराधियों का बचाव कर रही है उससे अनेक गलत संदेश समाज में जा रहे हैं। पूरे देश में चर्चा गरम है कि विदेशों में जमा काला धन किसी और के नहीं बल्कि राजनीतिक दलों एवं सत्ता से जुड़े बड़े-बड़े नेताओं, नौकरशाहो और बड़े व्यापारियों का है। लोग तो अब खुलकर यह भी कहने लगे हैं कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार सहित विपक्ष के भी बड़े नेताओं ने विदेशों में कालेधन जमा करा रखे हैं। ऐसी अवस्था में देश सचाई जानना चाहेगा। सत्ता-शासन की कमान संभाल रहे लोग लोकप्रतिनिधि हैं, कोई राजा या रानी नहीं। वे सभी लोक अर्थात जनता के प्रति जिम्मेदार हैं। फिर जनता को अंधकार में क्यों रखा जा रहा है? यह सरकार की ढुलमुल व रहस्य पूर्ण आचरण ही है कि लोग-बाग अब यह मान बैठे हैं कि जिसके पास जितना बड़ा 'बोफोर्स', वही राजा और वही रानी! क्या प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह इस मंतव्य पर सरकारी मुहर लगाना चाहेंगे? देश को जवाब चाहिए।

Thursday, January 20, 2011

देशद्रोही हैं काले धन के ये व्यापारी !

यह समझ से बिलकुल परे है और अनेक संदेहों का आमंत्रक है। आखिर भारत सरकार देश के खजाने को लूट विदेशी बैंकों में जमा कराने वाले 'डकैतों' के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं करना चाहती? शासन में पारदर्शिता का तो तकाजा है ही, लोकतांत्रिक अपेक्षा भी है कि सरकार उन 'डकैतों' के नाम न केवल सार्वजनिक करे, उन्हें कठोर दंड भी दे। देश की जनता को यह जानने का अधिकार है कि उनकी खून-पसीने की कमाई को लूटनेवाले कौन है! उनके सफेद धन को काले धन में परिवर्तित कर विदेशी बैंको में जमा करानेवाले राष्ट्रद्रोही कौन हैं? देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करनेवाले नकाबपोश आखिर हैं कौन? पूरे संसार में भारत देश को भ्रष्टतम की श्रेणी में रखनेवाले लोगों के चेहरों को सरकार बेनकाब क्यों नहीं करना चाहती? निश्चय ही केंद्र सरकार का यह रवैया देशहित के विरुद्ध है।
सर्वोच्च न्यायालय में सरकार की ओर से कहा गया कि वह विदेशी बैंकों में पैसे जमा करानेवालों के नाम कोर्ट को तो बता सकती है। मगर सार्वजनिक नहीं कर सकती, देश स्तब्ध रह गया। साफ है कि सरकार की नीयत में खोट है। यह तो सभी समझते हैं कि विदेशी बैंकों में धन कोई साधारण व्यक्ति जमा नहीं करा सकता। ऊंची पहुंच वाले, सामथ्र्यवान ही ऐसा कर सकते हैं। सरकार की हिचक का कारण भी स्पष्टत: यही है। वह ऐसे प्रभावशाली लोगों को बचाना चाहती है। यह न केवल सामथ्र्यवानों का बचाव है बल्कि राष्ट्रद्रोही हरकत भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन राष्ट्रीय संपत्ति की लूट है। ऐसे लुटेरों को आखिर भारत सरकार सामने क्यों नहीं लाना चाहती? सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे काले धन के आतंकी गतिविधियों में इस्तेमाल किए जाने की आशंका जगाकर मामले को और भी गंभीर बना दिया है। अगर आतंकवादियों द्वारा ऐसे धन के इस्तेमाल की बात पुष्ट होती है, तब क्या स्वयं भारत सरकार आतंकवादियों की सहयोगी नहीं बन जाएगी? वैसी स्थिति में निश्चय ही सरकार सत्ता में बने रहने का हक खो देगी। अपराधी कही जाएगी वह! आरोप है कि स्विस बैंकों में लगभग 21 लाख हजार करोड़ रुपए की राशि कुछ भारतीयों के नाम जमा है। क्या यह बताने की जरूरत है कि इस राशि के भारत में वापस लाए जाने के बाद देश की अर्थव्यवस्था सकारात्मक करवट ले विकास के क्षेत्र में क्रांति पैदा कर देगी! धनाभाव में रुकी योजनाएं दु्रत गति से अपने लक्ष प्राप्त कर लेंगी! इसी बात का तो अचरज है कि इन सब बातों की जानकारी के बावजूद भारत सरकार काले धन के अपराधियों का अब तक बचाव करती रही है। भारत सरकार की 'सीमा' संबंधी दलीलें किसी के गले उतरने वाली नहीं। देश हित के मार्ग में किसी सीमा, किसी संधि को स्वीकार नहीं किया जा सकता। साफ और सीधी बात यह है कि काले धन के इन व्यापारियों का बचाव कर सरकार देश के साथ छल कर रही है। खोट भरी अपनी नीयत से देश का अहित कर रही है। किसी लोकतांत्रिक देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ऐसा अधिकार कतई नहीं। अब भी समय है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश-अपेक्षा को राष्ट्रीय भावना समझ भारत सरकार अविलंब राष्ट्रीय संपत्ति को लूटनेवाले चेहरों को बेनकाब कर दे। अन्यथा दुखित-पीडि़त लोकतंत्र ने अगर अंगड़ाई ले ली तो उसके नीचे वे दब-कुचल जायेंगे।

Saturday, January 15, 2011

फिर फिसले मुलायम-बुखारी!

चलो, यह भी खूब रही। राजनीति के अखाड़े में तेजी से हाशिए की ओर बढ़ रहे मुलायम सिंह यादव को फिर बांग देने का मौका मिल गया। दिल्ली में जंगपुरा में अवैध रूप निर्मित नूर मस्जिद को प्रशासन ने ध्वस्त किया नहीं कि मुलायम की धर्मनिरपेक्षता ने जोर मारा और उन्हें अचानक अयोध्या के विवादित बाबरी ढांचे की याद आ गई। बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव के हश्र को देखते हुए बेचैन मुलायम नूर मस्जिद में अपने लिए नूर ढूंढऩे लगे। ताबड़तोड़ कांग्रेस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ दिया। मरहूम राजीव गांधी को कोस डाला कि उन्होंने वर्षों से बंद अयोध्या राम मंदिर का ताला क्यों खुलवा दिया था और नरसिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में कथित बाबरी मस्जिद कैसे ढहा दी गई। मुसलमानों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मुलायम कट्टरपंथी मौलाना बुखारी की शरण में पहुंच गए। कांग्रेस को संाप्रदायिक सौहार्द्र बिगाडऩे का दोषी करार देने वाले मुलायम के लिए मेरे दिल में सहानुभूति उमड़ रही है। उनके शब्दों का कोई खरीददार जो सामने नहीं आ रहा है। लेकिन देशहित के प्रति यह एक शुभ संकेत है। अयोध्या के राम मंदिर-बावरी मस्जिद विवाद पर अदालती फैसला आने के बाद सभी पूर्व आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए देश की हिंदू-मुस्लिम आबादी ने जिस प्रकार संयम का परिचय दिया था, ठीक इसी प्रकार के संयम का परिचय दिल्लीवासियों ने दिया। अन्यथा मुलायम-बुखारी की मंशा तो दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक देने की थी। लेकिन यह ताजा प्रकरण सिर्फ मुलायम-बुखारी तक सीमित नहीं है। स्वयं को धर्मनिरपेक्षता का झंडाबरदार व अल्पसंख्यकों का हितैशी बताने वाली कांगे्रस नेतृत्व से मैं यह पूछना चाहूंगा कि दिल्ली प्रदेश की कांग्रेसी सरकार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अदालती आदेश पर अवैध मस्जिद को गिराने के बाद भी लोगों को उस जमीन का इस्तेमाल करने और वहां नमाज अदा करने के लिए जामा मस्जिद के शाही इमाम सय्यद अहमद बुखारी के साथ मिलकर लोगों को हिंसक रूप से भड़काने की कोशिश क्यों की? धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विपरीत क्या शीला सांप्रदायिक राजनीति नहीं कर रही हैं? जंगपुरा क्षेत्र के लोग गवाह हैं शीला दीक्षित की कानून विरोधी हरकत की और सांप्रदायिकता को हवा देने की। अगले वर्ष पड़ोसी उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में सांप्रदायिक आधार पर अगर शीला अपनी कांग्रेस पार्टी के लिए जमीन तैयार करने की मंशा रखती हैं तो बेहतर है वे बिहार चुनाव की याद कर लें। बिहार के जागरूक मतदाता ने सभी सांप्रदायिक ताकतों और बाहुबलियों को उनकी औकात बता दी थी। अब का युवा मतदाता तो सांप्रदायिक आधार पर समाज को बांटने वाले तत्वों से घृणा करने लगा है। सभी राजनीतिक दल इस सचाई को जान लें, विशेषकर कांग्रेस। क्योंकि यह कड़वा सच इतिहास में दर्ज है कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी मुसलमानों का इस्तेमाल एक वोट बैंक के रूप में करती रही है। पार्टी ने उस वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से दूर रखा। स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता दिखावे के लिए यदा-कदा बड़े ओहदे उन्हें दिए गए लेकिन अल्पसंख्यंकों के उत्थान के लिए न तो कभी गंभीर प्रयास हुए न ही उन्हें अपेक्षित सम्मान मिला। इन तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद अगर शीला दीक्षित अल्पसंख्यकों को दिल जीतने के लिए अदालत की अवमानना करती हुईं ढहा दिए गए अवैध मस्जिद के पक्ष में खड़ी होती हैं तो शायद कांग्रेस की चाटुकार नीति से मजबूर होकर ही। संभवत: वे याद कर रही होंगी राहुल गांधी के उस बयान की जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में दिया था। तब कथित चुनाव में दिया था। तब कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के उपक्रम को आगे बढ़ाते हुए राहुल गांधी ने कहा डाला था कि अगर नेहरू-गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो बाबरी विध्वंस नहीं होता। राहुल का वही वक्तव्य शीला की परेशानी का सबब बना है। इस बार मस्जिद उस दिल्ली में गिराई गई जहां सरकार कांग्रेस की है और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हैं। बेचारी शीला अल्पसंख्यक समाज में मौजूद कट्टरपंथियों को यह तो नहीं बता सकतीं कि इसके लिए जिम्मेदार भाजपा-संघ परिवार अथवा शिवसेना है। अब यह कोई न कहे कि बाबरी मस्जिद तो बड़ा था, नूर मस्जिद छोटा है। मस्जिद या मंदिर छोटे-बड़े नहीं होते। आस्थाएं तो सड़क किनारे पड़े एक पत्थर में भी ईश्वर-अल्लाह ढूंढ़ लेती हैं।

काले धन के ये काले संरक्षक!

एक सीधा सवाल देश के हुक्मरानों से! कहां गई उनकी बहुप्रचारित शासन में पारदर्शिता? कथित रूप से पारदर्शिता लाने का श्रेय लेने वाली भारत सरकार जवाब दे कि जब चोर सामने हैं, उनके नाम-पता की पूरी जानकारी उन्हें है, तब फिर उनके पैर-हाथ में हथकडिय़ां क्यों नहीं डाली जा रहीं? उन्हें कटघरे में खड़ा क्यों नहीं किया जा रहा? अगर सचमुच हमारी एक लोकतांत्रिक सरकार है, पारदर्शी सरकार है तब निश्चय ही देश की जनता को इन चोरों के नाम-पते जानने का हक प्राप्त है। भारत सरकार इस अधिकार से जनता को वंचित क्यों कर रही है? देश को विश्वास में क्यों नहीं लिया जा रहा है? हमें जवाब चाहिए। विदेशी बैंकों में कालाधन रखने वाले भारतीयों के खिलाफ कार्रवाई और वैसे धन की भारत वापसी संबंधी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और फिर देश की जनता यह जानकर हतप्रभ रह गई कि कम से कम जर्मन सरकार वहां की बैंकों में काले धन जमा करवाने वाले भारतीयों की सूची तो भारत सरकार को उपलब्ध करा चुकी है, किन्तु सरकार किन्हीं कारणों से उसे सार्वजनिक नहीं कर रही है। क्या यह पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप है? कदापि नहीं। स्वयं सुप्रीम कोर्ट हैरान है कि नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किए जा रहे हैं। उनके नाम सार्वजनिक कर दिए जाने चाहिए। बावजूद इसके भारत सरकार हिचक रही है। उसका कहना है कि जर्मनी के साथ एक संधि के तहत वे उन नामों को सार्वजनिक नहीं कर सकते। सरकार की इस दलील को देश स्वीकार नहीं करेगा। यह कैसी संधि जो अपने देश के पैसे को कालाधन बना विदेशी बैंकों में जमा करवाने वालों को संरक्षण प्रदान करे! यह तो न केवल ऐसे काले धन धारकों का बचाव है बल्कि देश के साथ विश्वासघात भी है। देश के कानून के साथ धोखा भी है यह। पूरी की पूरी न्याय प्रक्रिया को ठेंगा दिखा भारत सरकार इन चोरों को बेनकाब करने से आखिर क्यों हिचकिचा रही है? लगभग 20 लाख करोड़ रुपए को काला धन बना विदेश भेज देने वाले लोग देशद्रोही ही तो हैं। काले धन से समानान्तर अर्थव्यवस्था का संचालन करने वाले ऐसे 'कालिए' ही देश की चरमराती अर्थव्यवस्था के जिम्मेदार हैं। ध्यान रहे, यह मामला केवल टैक्स चोरी का नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को चूर-चूर करने का षड्यंत्र है। यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसका दायरा व्यापक है। फिर इन्हें दंडित किए जाने की जगह सरकार संरक्षण प्रदान क्यों कर रही है? देश के अर्थशाी प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह इस मामले की गंभीरता व दुष्परिणाम से अनजान नहीं हो सकते। चूंकि विदेशी बैंकों में भारतीय खाताधारकों के नाम सरकार को मिल गए हैं, अविलंब मामले दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया जाए। कुछ दिनों पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से आश्वासन दिया गया था कि काले धन के राज से पर्दा उठा कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लेकिन विगत कल शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने जिस प्रकार खाताधारकों को संरक्षण प्रदान करने की कोशिश की, उससे निराशा हुई है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख से ऐसी आशा बंधी है कि अंतत: सरकार झुकेगी और काले धन के पोषकों के चेहरों से नकाब उतर जाएंगे। अगर सरकार सचमुच देश की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के पक्ष में विदेशों में जमा काले धन को वापस भारत लाने में सफल रहती है, खाताधारकों को दंडित करती है तब वह देश हित में अपनी अच्छी नीयत को रेखांकित करेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो शासक वर्ग यह हृदयस्थ कर ले कि देश की जनता वैसे अपराधियों के साथ-साथ उन्हें संरक्षण प्रदान करने वाली सरकार को दंडित करने में भी सक्षम है।

Friday, January 14, 2011

चोरों की बारात का दूल्हा!

पागल न तो राहुल गांधी हैं, न डी.पी. त्रिपाठी हैं और न ही प्रफुल्ल पटेल हैं। मूर्ख भी नहीं हैं ये। दोष राहुल गांधी का है कि उन्हें डी.पी. त्रिपाठी ने 'इटलीÓ की याद दिला दी। राहुल की मां सोनिया गांधी के विदेशी (इटली) मूल को मुद्दा बना कांग्रेस का त्याग करने वाले शरद पवार भले ही राजनीतिक सुविधा अथवा मजबूरी के कारण कांग्रेस के सहयोगी बन गए हों, किंतु उनके सीने का दर्द कम नहीं हुआ है। उनकी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस के अधिकृत प्रवक्ता डी.पी. त्रिपाठी ने जब टिप्पणी की कि गठबंधन धर्म को समझने के लिए राहुल गांधी को कम से कम इटली पर तो नजर डाल लेनी चाहिए थी, तो वस्तुत: शरद पवार के दर्द को ही रेखांकित किया गया था। कांग्रेस छोडऩे और सन् 2004 में कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार में शरद पवार के मंत्री बनने के बाद पहली बार उनकी पार्टी की ओर से इटली शब्द का उच्चारण किया गया। स्वयं को राजनीतिक रूप से परिपक्व घोषित कर चुके राहुल गांधी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे वस्तुत: अपरिपक्व ही हैं। कमरतोड़ महंगाई और कीर्तिमान स्थापित करते भ्रष्टाचार के आरोपों से भयभीत कांग्रेस अब पूर्णत: बचाव की मुद्रा में आ गई है। कांग्रेस की ओर से अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी तर्क-कुतर्क देकर स्थिति संभालने का असफल प्रयास करते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की ओर से घोषित भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने सब गुडग़ोबर कर दिया। पता नहीं किस मूर्ख की सलाह पर उन्होंने टिप्पणी कर दी कि गठबंधन की मजबूरियों के कारण महंगाई बढ़ी है। यह समझ से परे है कि महंगाई का गठबंधन की राजनीति से क्या संबंध है। गठबंधन की मजबूरियां निश्चय ही नीति निर्धारण को प्रभावित करती रही हैं। किंतु खाद्य पदार्थों सहित अन्य वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि के कारण कुछ और ही होते हैं। 1974-75 में तो इंदिरा गांधी नेतृत्व की कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि तब खाद्य पदार्थों की कीमत आसमान छूने लगी थी। महंगाई के लिए गठबंधन की राजनीति को जिम्मेदार बताने वाले राहुल गांधी को गठबंधन धर्म की परिभाषा और इससे जुड़े उद्धरण की जानकारी लेनी चाहिए। जब भाजपा के अटल बिहारी के नेतृत्व में लगभग 2 दर्जन दलों की गठबंधन सरकार बनी थी, तब स्वयं प्रधानमंत्री वाजपेयी ने देश को बता दिया था कि सरकार जिस एजेंडे को लेकर चल रही है, वह अकेले भाजपा का एजेंडा नहीं है बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का एजेंडा है। संविधान की धारा 370 को हटाने और राम मंदिर निर्माण की मांग पर उन्होंने ऐसा नीतिगत स्पष्टीकरण दिया था। लेकिन राजनीतिक रूप से घोर अपरिपक्व राहुल गांधी चूंकि चाटुकार सलाहकारों से घिरे हैं, जब भी मुंह खोलते हैं, नई-नई दुर्घटनाओं से उनका सामना हो जाता है। विशेषकर जब भी वे राजनीतिक रूप से गंभीर होने का स्वांग रचते हैं, उन्हें मुंह की खानी पड़ती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी के दर्शन से अनजान राहुल गांधी की ताजा कवायद ने उनकी मां सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे की दबी चिंगारी को ही हवा दे डाली। जिस युवा वर्ग के बलबूते राहुल सत्ता का नेतृत्व हथियाना चाहते हैं, वह युवा वर्ग किसी व्यक्तित्व के करिश्मा या स्टंट से प्रभावित नहीं होता। मैं यहां राहुल गांधी को हतोत्साहित करना नहीं चाहता। उनका श्रम, उनका उत्साह सराहनीय है। किंतु, उन्हें यह समझना होगा कि जिस बारात का नेतृत्व वे करना चाहते हैं, फिलहाल उसमें कतिपय अपवाद छोड़ चोरों की भरमार है। कोई आश्चर्य नहीं कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली केंद्र सरकार है, जिस पर प्राय: हर दिन भ्रष्टाचार में नए-नए आरोप लग रहे हैं। अत्यंत ही शातिर यह जमात अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए (देश हित की कीमत पर ही सही) बैंड-बाजे, रोशनी, आतिशबाजी की व्यवस्था कर एक ऐसे दूल्हे की तलाश में रहती है जो बारात की शोभा बढ़ा सके। बेनकाब ये बाराती नेहरू-गांधी परिवार के सामने नतमस्तक हो चरणवंदना करते हैं तो इस जरूरत की पूर्ति के लिए ही। अब फैसला राहुल गांधी करें कि चोरों की इस बारात का दूल्हा वे बनना चाहेंगे!

Wednesday, January 12, 2011

नौकर थे, नौकर हैं, नौकर ही रहेंगे!

अपने देश के प्रधानमंत्री को ऐसे आपत्तिजनक शब्द से नवाजा जाना सुसंस्कृत कतई नहीं। हमारी संस्कृति-सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। प्रधानमंत्री के अनादर की ऐसी कवायद को किसी विकृत मस्तिष्क की करतूत भी कह सकते हैं। किन्तु, जब पूरे देश में भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर हाहाकार मचा हो, समाज का हर क्षेत्र अभिशप्त दिख रहा हो, लोकतंत्र के पाये लडख़ड़ा रहे हों, संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता जमीन चाटती दिखे, अनुशासनहीनता पराकाष्ठा पर हो, चहुंओर अराजकता का बोलबाला हो, तब जिम्मेदारी सुनिश्चित किये जाने की प्रक्रिया के बीच असहज स्थिति का पैदा होना स्वाभाविक है। फिर असहज, असंस्कृत या फिर असभ्य श्रेणी के शब्दों का इस्तेमाल दिखे तो इसे अस्वाभाविक भी कैसे कह सकते हैं! पिछली रात दिल्ली के एक जिम्मेदार (निश्चय ही इमानदार भी) पत्रकार फोन पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को 'नौकर' के रूप में संबोधित कर रहे थे। तब संस्कृति से इतर उठी पीड़ा के कुछ और भी कारण थे। स्पष्ट कर दूं कि 'नौकर' जनता के नौकर के रूप में प्रतिपादित नहीं था, एक दुखद 'मानसिकता' को चिन्हित किया जा रहा था। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और भारतीय प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार के अलावा विश्व बैंक में काम कर चुके डा. मनमोहन सिंह सचमुच विशुद्ध 'नौकर मानसिकता' को ढोने वाले साबित हो रहे हैं। आज जब उनकी पार्टी कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी महंगाई के मोर्चे पर सरकार की विफलता के लिए गठबंधन की राजनीति पर दोष मढ़ रहे हैं, तो सिर्फ इसलिए कि हर मोर्चे पर विफल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बचाव किया जा सके। बात कड़वी लग सकती है। किन्तु इस कड़वे सच को दोहराना जरूरी है कि सन 2004 से प्रधानमंत्री पद पर आसीन डा. मनमोहन सिंह सिर्फ अपनी नेता के एजेंडे को लागू करने के प्रति गंभीर रहे। व्यक्तिगत रूप से उनकी नीयत, उनकी इमानदारी, उनके देशप्रेम पर संदेह नहीं किया जा सकता। लेकिन वैसी इमानदारी किस काम की, जिससे पूरी की पूरी सरकार भ्रष्टाचार के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करती दिखे, पूरा देश कमरतोड़ महगाई के तले सिसकने को मजबूर हो। जरा याद कीजिए 1991 के उन दिनों को, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने मनमोहन सिंह को देश का वित्तमंत्री नियुक्त किया था। तब उनकी नई उदारवादी आर्थिक नीति का कुछ ऐसा ढिंढोरा पीटा गया था जैसे आर्थिक क्षेत्र की नई क्रांति से आने वाले दिनों में देश में सिर्फ खुशहाली-खुशहाली का आलम होगा। लेकिन तभी गंभीर तटस्थ आर्थिक समीक्षकों ने चेतावनी दी थी कि मनमोहन सिंह की नई आर्थिक नीति से देश में मुद्रा स्फीति बढ़ेगी और आम जनता के सामने परेशानियों का अंबार खड़ा हो जाएगा। अगर मुझे ठीक से याद है तो समीक्षकों ने ऐसी दु:स्थिति के लिए 20 वर्ष की सीमा भी निर्धारित कर दी थी। आज 20 वर्षों बाद क्या हम ऐसी दु:स्थिति से नहीं गुजर रहे! आश्चर्य है कि तब अर्थशास्त्री वित्तमंत्री और अब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ऐसी स्थिति को क्यों नहीं भांप पाए थे। संदेह इस मुकाम पर प्रगाढ़ हो जाता है। एक अर्थशास्त्री के रूप में डा. मनमोहन सिंह की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि आज देश उनकी नीयत पर शक कर रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री निश्चय ही कुशलतापूर्वक अपने गुप्त एजेंडे को अंजाम देते रहे- लागू करने में सफल रहे। दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोहन धारिया अनेक अवसरों पर मनमोहन सिंह की नीति और नीयत को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं। एक अवसर पर चंद्रशेखर ने झल्लाकर टिप्पणी की थी कि मनमोहन सिंह के सुझावों पर अगर मैं अमल करता तो देश के साथ धोखा होता। खेद है, आज सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सच्चाई से मुंह मोड़ जनता के साथ धोखा कर रहा है। कुछ कारपोरेट घरानों, नौकरशाहों, राजनीतिकों का 'घर' भरने के लिए आम जनता की जेबें खाली की जा रही हैं।

Tuesday, January 11, 2011

... अब कपिल सिब्बल भी इस्तीफा दें!

नैतिकता का तकाजा है कि केंद्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल अविलंब अपने पद से इस्तीफा दे दें। यह सोच पूरे देश की है, जिसे मैं यहां शब्दांकित कर रहा हूं - बगैर किसी पूर्वाग्रह के। यह कोई निजी मांग नहीं, किसी विचारधारा विशेष की उपज नहीं। चूंकि तत्कालीन केंद्रीय संचार मंत्री ए. राजा को इस्तीफा देना पड़ा था 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले के आरोप लगने पर, अब जबकि नये संचार मंत्री सिब्बल ऐसे किसी घोटाले से इन्कार कर रहे हैं, उन्हें पद पर बने रहने का अधिकार नहीं। सिब्बल का यह कदम भ्रष्टाचार को संवैधानिक स्वीकृति प्रदान करने के समान है। आजाद भारत के इतिहास में इस सबसे बड़े घोटाले की जांच का आदेश भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है। संसद की लोकलेखा समिति उस 'कैग' रिपोर्ट पर मंथन कर रही है जिसने घोटाले का खुलासा किया था। पूरा का पूरा विपक्ष घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से कराने की मांग पर अड़ा है। संसद में इसे लेकर गतिरोध कायम है। ऐसे में एक जिम्मेदार (?) केंद्रीय मंत्री का ऐसा बयान! यह न केवल सर्वोच्च न्यायालय बल्कि भारतीय संसद की अवमानना का भी मामला है। सिब्बल भले ही तर्क-कुतर्क देते रहें, यह साफ है कि उन्होंने घोटाले की जांच को प्रभावित करने की कोशिश की है, पूर्व मंत्री ए. राजा को बचाने की कोशिश की है। यह तो सर्वोच्च न्यायालय और संसद को चुनौती भी है। एक ऐसा मामला जिसकी सीबीआई जांच सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में किए जाने संबंधी सुझाव स्वयं केंद्र सरकार दे चुकी है, एक मंत्री मामले पर फैसला सुना रहा है।
क्या हम प्रधानंमत्री डा. मनमोहन सिंह से आशा करें कि वे तत्काल कदम उठाते हुए या तो कपिल सिब्बल से इस्तीफा ले लें या फिर उन्हें बरखास्त कर देंगे? इसके पूर्व किसी केंद्रीय मंत्री ने कभी भी भारतीय संसद और सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी अवमानना नहीं की थी। लोकलेखा समिति के अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी और जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने बिल्कुल सही आलोचना की है। यह आश्चर्यजनक है कि दूरसंचार सचिव जब पीएसी के समक्ष पेश हुए थे, तब उन्होंने स्पेक्ट्रम आवंटन में संभावित नुकसान के आंकड़े पर कभी सवाल नहीं उठाया। विभागीय सचिव के विपरीत मंत्री सिब्बल ने नुकसान के आंकड़े को झूठा और काल्पनिक निरूपित कर स्वयं को मंत्री पद के अयोग्य प्रमाणित कर दिया है। इससे साथ ही सिब्बल ने अपने आचरण से केंद्र सरकार और अपनी कांग्रेस पार्टी को भी संदेहो के घेरों में ला दिया है। यह उचित समय है जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपनी चुप्पी तोड़ सिब्बल को तो पदमुक्त कर ही दें, स्पेक्ट्रम घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच को भी मंजूरी दे दें।

Sunday, January 9, 2011

सोनिया गांधी की 'नीयत' व चुनौती!

अगर सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने कथित संकल्प को अमली जामा पहनाना चाहती हैं, तो चुनौती है उन्हें कि वे पहले 'सीजर पत्नी' की भूमिका में स्वयं को पाक-साफ साबित करें। इमानदार, निर्दोष नेतृत्व ही सत्ता-समाज, दल-देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला सकता है, भ्रष्टाचारियों को दंडित कर सकता है। क्या सोनिया गांधी इसके लिए तैयार हैं? अगर हां तो पहली चुनौती यह कि वे बोफोर्स रिश्वत कांड संबंधी मामलों को बंद करने के 'सरकारी निर्णय' को वापस लें। इतालवी आरोपी ओत्तावियो क्वात्रोकी का प्रत्यर्पण करवा उसे भारत लाया जाए, गिरफ्तार किया जाए, मुकदमा चलाया जाए। क्या सोनिया गांधी ऐसा करने को तैयार हैं? कानून को अपना काम करते रहने की दुहाई देते रहने वाली सोनिया गांधी अगर ऐसा करती हैं तो इतिहास का निर्माण करेंगी। यह तथ्य सर्वविदित है कि सन 2004 के लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बावजूद शिवराज पाटिल को केंद्र में गृहमंत्री पद पर 'नियुक्त' किया था तो एक विशेष एजेंडा के तहत। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि वह एजेंडा ही था बोफोर्स कांड को मौत देने का और क्वात्रोकी को मुक्त कराने का। एजेंडा था, बोफोर्स कांड में संदिग्ध राजीव गांधी को निर्दोष साबित करवाने का। निष्ठावान शिवराज पाटिल ने एजेंडे को क्रियान्वित करते हुए क्वात्रोकी को बाइज्जत स्वदेश लौटवा दिया, उसके जब्त बैंक खातों को खुलवा दिया। सीबीआई ने कानूनी दांव-पेंच के ऐसे खेल खेले कि क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण संबंधी हर कानूनी मोर्चे पर भारत को शिकस्त मिलती रही। गृह मंत्रालय के अधीन सीबीआई कोई सबूत नहीं जुटा सकी। उसने अदालत में मामला बंद करने की अर्जी लगा दी। चूंकि सोनिया गांधी के पति तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स रिश्वत कांड के प्रकाश मेें आते ही (1987 में) संसद में बयान दे चुके थे कि बोफोर्स तोप खरीदी में कोई घोटाला नहीं हुआ, कोई रिश्वत या कमीशन का लेन-देन नहीं हुआ है, सरकारी जांच एजेंसियां उसी लाइन पर चलती रहीं। लेकिन घोटाले की सत्यता के प्रति आश्वस्त देश की जनता ने अपना फैसला सुना दिया। घोटाले के तत्काल बाद हुए 1989 के चुनाव में जनता ने राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका। जनता की अदालत का वह फैसला भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों को कड़ी चेतावनी थी। लेकिन नहीं। राजदल भला ऐसी घटनाओं से सीख कैसे लें? सिर्फ बीते वर्ष के कालखंड को ही लें, तो भ्रष्टाचार के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान चिन्हित होता दिखेगा। इतिहास ने इस कालखंड को एक ऐसी अवधि के रूप में दर्ज किया है। जब प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, बड़े नौकरशाह, बड़े-बड़े उद्योगपतियों सहित दुखद रूप से अनेक न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे दिखे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, जब एक साथ समाज के हर वर्ग के अग्रिम प्रतिनिधि भ्रष्टाचार के घेरे में आए। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने की घोषणा करने वालीं सोनिया गांधी अगर अपने संकल्प के प्रति गंभीर हैं, तब उन्हें अपनी 'नीयत' की शुद्धता प्रमाणित करनी होगी। स्वयं को 'शुद्ध' प्रमाणित करने के साथ ही ताजा घटनाएं उनकी नीयत को चुनौती दे रही हैं।
सोनिया गांधी को यह बताना होगा कि सदी के सबसे बड़े 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य संदिग्ध पूर्व मंत्री ए राजा को बचाने की कोशिश क्यों की जा रही है। जिस कैग (नियंत्रक और महालेखापरीक्षक) की रिपोर्ट के आधार पर राजा कटघरे में खड़े किए गए, उस रिपोर्ट को ही उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी कपिल सिब्बल ने 'बकवास' कैसे निरूपित कर डाला। प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं से घबरा कांग्रेस पार्टी ने भले ही स्वयं को सिब्बल के बयान से किनारा कर लिया हो, लोग यह भूले नहीं हैं कि अभी कुछ दिनों पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह भी 'कैग' को नसीहत दे चुके हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से परेशान प्रधानमंत्री ने तब टिप्पणी की थी कि 'कैग देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण संस्था तो है किन्तु दूध का दूध और पानी का पानी करने की प्रक्रिया में भूल और जानबूझ कर की गई गड़बड़ी में फर्क करना भी इसकी जिम्मेदारी है। कैग को यह भी देखने की जिम्मेदारी है कि कोई निर्णय किन परिस्थितियों में लिया गया।' प्रधानमंत्री ने तब कैग को पेशेवर क्षमता और कौशल को बढ़ाने का सुझाव भी दिया था। प्रधानमंत्री ने ऐसी टिप्पणी कर अपनी ओर से ए. राजा को संदेह का लाभ दे दिया था। अब जब सिब्बल ने यह कह डाला कि ए. राजा ने कोई भी घोटाला नहीं किया और स्पेक्ट्रम आवंटन से राजकोष को एक पैसे का भी नुकसान नहीं हुआ तो निश्चय ही पूरे घोटाले पर पर्दा डालने की यह शासकीय कोशिश है। फिर किस भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाना चाहती हैं सोनिया गांधी?
इसके पूर्व कांग्रेस के बड़बोले राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह भी ऐसा करतब दिखा चुके हैं। आयकर अपीलीय ट्रिब्युनल द्वारा यह बताए जाने पर कि बोफोर्स सौदे में क्वात्रोकी को कमीशन दिया गया था, दिग्विजय ने ट्रिब्युनल की खोज और उसकी नीयत पर ही सवालिया निशान जड़ दिए। संवैधानिक संस्थाओं के प्रति सत्ता पक्ष का यह व्यवहार निंदनीय है। यह तो भला हो अदालत का जिसने बोफोर्स मामले को बंद करने की सीबीआई की अर्जी को फिलहाल नामंजूर करते हुए जांच एजेंसी व सरकार से कुछ सवाल पूछे हैं। लेकिन अदालत की ये टिप्पणी कि सीबीआई की पहल (मामला बंद करने की) घोड़े के आगे गाड़ी को रखने सदृश है, मामले की असलियत को रेखांकित कर देता है। हालांकि, इसके पूर्व 1975 में स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने खिलाफ न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर न्यायपालिका की तौहीन कर चुकी हैं। समाजवादी राजनारायण (अब स्वर्गीय) की चुनाव याचिका को स्वीकार कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया था। बाद की घटनाएं इतिहास हैं। इंदिरा गांधी न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए इस्तीफा देने की जगह न केवल अपने पद पर बनी रहीं बल्कि जनाक्रोश को दबाने के लिए पूरे देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया। लोगों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर न्यायपालिका को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया गया था। अन्य बातों को न दोहराते हुए सिर्फ यह याद दिलाना चाहूंगा कि 1989 की तरह आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी और उनकी कांगे्रस सरकार को उखाड़ फेंका था।
अब परीक्षा के केंद्र में सोनिया गांधी हैं। उन्हें यह तो मालूम है कि देश की जनता भ्रष्ट शासन व शासक को बर्दाश्त नहीं करती। अब चूंकि वे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात कर रही हैं, उन्हें स्वयं की नीयत की पवित्रता साबित करनी होगी। देश की जनता उनके अथवा किसी अन्य के शब्दजाल में फंसने वाली नहीं। जनता भ्रष्टाचार एवं भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई चाहती है। अगर सोनिया गांधी में नैतिक साहस है, तब वे पहल कर बोफोर्स के अभियुक्त क्वात्रोकी और स्पेक्ट्रम के अभियुक्त ए. राजा के खिलाफ दंडात्मक कदम उठाएं।

Wednesday, January 5, 2011

जांच हो दिग्विजय के मुंबई संबंधों की!

पूरे देश को ठेंगे पर रखने की सत्तापक्ष की कवायद के क्या कहने! मामला चाहे आपातकाल की ज्यादतियों के लिए संजय गांधी को दोषी ठहराने का हो, बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव को कटघरे में खड़ा करने का हो, बोफोर्स कांड के अभियुक्त क्वात्रोकी को बाइज्जत बरी करवाने का हो, भोपाल महात्रासदी के अभियुक्त एंडरसन को देश से पलायन करवा देने का हो, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री को पाक साफ निरूपित किये जाने का हो या फिर राष्ट्रमंडल खेलों और मुंबई के आदर्श घोटाले में अशोक चव्हाण की बलि लेने का हो। सत्तापक्ष चतुराई के साथ सांप-सीढ़ी का खेल खेलता हुआ स्वयं को बचाता रहा। ताजा मामला तो और भी दिलचस्प है।
रोचक है 'दिग्विजय-पुराण' में जुड़ा नया अध्याय। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अपने जादू के पिटारे से भारत संचार निगम के टेलीफोन का वह विवरण निकाल लाए जो पहले आधिकारिक तौर पर, जी हां आधिकारिक तौर पर, उपलब्ध नहीं था। किसी और ने नहीं स्वयं दिग्विजय ने कहा था कि निगम 'फोन कॉल्स' का एक साल से अधिक का रिकार्ड नहीं रखता। फिर अब वे इसका विवरण कहां से और कैसे ले आए? इस विवरण के आधार पर दिग्विजय अपने उस दावे की पुष्टि कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि 26/11 की घटना के कुछ घंटों पूर्व शहीद पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे ने उन्हें फोन पर बताया था कि देश के हिंदू संगठन उन्हें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं। जाहिर है दिग्विजय के बयान पर राजनीतिक बवंडर पैदा हुआ और स्वयं कांग्रेस पार्टी ने उनसे इस मुद्दे पर किनारा कर लिया। करकरे की पत्नी के खंडन के बाद दिग्विजय बचाव की मुद्रा में आ गये थे। स्वयं महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने विधानसभा में बयान दे डाला था कि दिग्विजय के साथ करकरे की बातचीत का कोई रिकार्ड सरकार के पास नहीं है। दिग्विजय पर आरोप लगा कि वे झूठ बोल रहे हैं, जानबूझकर देश का ध्यान बंटाने के लिए हिंदू संगठनों को निशाने पर ले रहे हैं। भगवा आतंकवाद का शिगूफा छोड़ दिग्विजय देश का ध्यान बंटा रहे हैं। अब टेलीफोन के दस्तावेज को लहराते हुए दिग्विजय उन लोगों से माफी मांगने को कह रहे हैं, जिन्होंने उन्हें झूठा करार दिया था। लेकिन दिग्विजय इस शाश्वत सत्य को नजरअंदाज कर गये कि झूठ का छुुपाने का चाहे जितना प्रयत्न किया जाए, वह बेनकाब हो ही जाता है। इस मामले में ऐसा ही हो रहा है। लोगों को यह अच्छी तरह याद है कि दिग्विजय ने स्वयं कहा था कि उन्होंने अपने फोन से करकरे को फोन किया था। बाद में पलटते हुए कहा था कि फोन शहीद करकरे ने उन्हें किया था। अब जो दस्तावेज वे सार्वजनिक कर रहे हैं उसका कमाल देखें। इसके अनुसार दिग्विजय के बीएसएनएल फोन नम्बर 09425015461 पर 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पुलिस एटीएस के लैंडलाइन नम्बर 022-23087336 से फोन आया था। गौर करें, एटीएस के जिस लैंडलाइन नम्बर से दिग्विजय के नम्बर पर फोन किया गया, वह करकरे का सीधा नम्बर नहीं था। वह एटीएस कार्यालय का नम्बर है। क्या दिग्विजय यह प्रमाणित कर सकते हैं कि उस नम्बर से करकरे ने ही उनसे बात की थी? यह संदिग्ध है। सवाल यह भी कि एटीएस प्रमुख करकरे को अगर अपनी जान पर खतरा नजर आ रहा था तो उन्होंने इसकी जानकारी अपने प्रदेश महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या फिर प्रधानमंत्री को न देकर कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह को क्यों दी? करकरे न तो दिग्विजय के मित्र थे और न ही दिग्विजय के हाथों में कोई ऐसी एजेंसी थी जो करकरे के लिए सुरक्षा मुहैया करवा सकती थी। बल्कि अब जांच इस बात की हो कि दिग्विजय सिंह के फोन पर मुंबई पुलिस एटीएस के नम्बर से किसने फोन किया। एटीएस कार्यालय से दिग्विजय से संपर्क करने वाला व्यक्ति कौन था? 26/11 के हमले के कुछ घंटों पूर्व दिग्विजय से संपर्क क्यों साधा गया? चूंकि 26/11 का मुंबई पर हमला 2001 में संसद पर हमले के बाद सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था, दिग्विजय सिंह और मुंबई एटीएस कार्यालय के बीच हुई बातचीत के ब्यौरे की जानकारी जरूरी है। हाल के दिनों में दिग्विजय सिंह देश में हिंदू और मुसलमान के बीच न केवल खाई पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि हिंदू संगठनों को निशाने पर लेकर हिंदू आतंकवाद के नये जुमले को प्रचारित-प्रसारित भी कर रहे हैं। अत्यंत ही पीड़ा के साथ ऐसी टिप्पणी करने को मैं मजबूर हूं कि दिग्विजय नारायण सिंह की ये हरकतें राष्ट्र विरोधी हरकतों की श्रेणी की हैं। दिग्विजय इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे, यह आश्चर्यजनक है। अगर वे हाल के दिनों में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस सरकार की ओर से जनता का ध्यान बंटाना चाहते हैं तो क्षमा करेेंगे, यह हरकतें बचकानी हैं। चूंकि दिग्विजय कोई बच्चे नहीं हैं, लगता है जाने-अनजाने वे किसी बड़ी साजिश के मोहरे बन गये हैं। बेहतर हो दिग्विजय शांति से इस पर चिंतन-मनन करें और स्वयं के तथा देश हित में धर्म संप्रदाय के नाम पर राजनीति की तलवार से समाज को बांटने की कोशिश न करें।

Tuesday, January 4, 2011

बोफोर्स का 'जिन्न' फिर बाहर!

बोतल फोड़ फिर बाहर निकले बोफोर्स के 'जिन्न' को क्या पुन: कैद कर पाएगी केंद्र सरकार? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तो अपनी ओर से 'बोफोर्स' को स्थायी मौत दे चुके हैं। प्रधानमंत्री तो 'बोफोर्स' मामले के जारी रहने को देश की छवि के खिलाफ निरूपित करते हुए यहां तक टिप्पणी कर चुके हैं कि किसी को परेशान करना अच्छी बात नहीं है। प्रधानमंत्री का आशय क्वात्रोकी से ही था। प्रधानमंत्री यह बताने से भी नहीं चूके थे कि क्वात्रोकी के खिलाफ कोई पुख्ता मामला नहीं है और पूरी दुनिया कह रही है कि हमारे पास भी क्वात्रोकी के खिलाफ कोई मामला नहीं हैं। तब भारत सरकार ने क्वात्रोकी को इंटरपोल के रेडकॉर्नर नोटिस की सूची से बाहर निकलवा दिया था और फ्रीज किए गए क्वात्रोकी के विदेशी बैंक खातों को भी खुलवा दिया था। देश को यह भी मालूम है कि इसके पूर्व किस प्रकार भारत के अभियुक्त क्वात्रोकी को देश से बाहर निकल जाने दिया गया था। तब विश्लेषकों ने टिप्पणी की थी कि सन् 2004 में सत्तारूढ़ हुई सोनिया गांधी के नेतृत्व की संप्रग सरकार का एजेंडा ही था 'बोफोर्स' को मौत दे क्वात्रोकी को आजाद कराना! अपने वफादार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मार्फत सोनिया गांधी अपने एजेंडे को क्रियान्वित करने में तब सफल हुई थीं। जिस 'बोफोर्स' कांड ने 1989 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सरकार की बलि ले ली थी, उस कांड के ऐसे हश्र पर पूरा देश चकित था। सत्ता शक्ति के दुरुपयोग की मिसाल के रूप में बोफोर्स के हश्र को चिन्हित किया गया। पूरा देश इस तथ्य से अवगत है कि सोनिया गांधी का नजदीकी क्वात्रोकी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल से प्रधानमंत्री के आवास में ही रहा करता था। लेकिन आज इन्कमटैक्स ट्रिब्यूनल विभाग के खुलासे के बाद भारत सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या जवाब देंगे? ट्रिब्यूनल ने साफ शब्दों में कह दिया है कि ओत्तावियो क्वात्रोकी और एक अन्य दलाल विन चड्ढïा को बोफोर्स सौदा करवाने के एवज में बोफोर्स कंपनी की ओर से करोड़ों रुपए की रिश्वत मिली थी। ट्रिब्यूनल ने यह भी रेखांकित किया है कि रक्षा सौदों में भारत में दलाली गैरकानूनी है। यही नहीं क्वात्रोकी और चड्ढïा भारत में इन्कमटैक्स न चुकाने के भी अपराधी हैं। क्या अब भी भारत सरकार, उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहेंगे कि सौदे में कोई दलाती नहीं दी गई थी? जनहित में क्वात्रोकी के खिलाफ मुकदमा वापिस लेने की अर्जी दाखिल करनेवाली सीबीआई के माथे पर भी ट्रिब्यूनल के इस खुलासे के बाद एक और काला धब्बा लग गया है। इस बिन्दु पर मैं यह चिन्हित करना चाहंूगा कि स्वयं सीबीआई दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में मामला बंद करने की अर्जी दिए जाने के पूर्व एक अर्जी दाखिल कर चुकी थी कि इस मामले में अगर कोई क्लोजर रिपोर्ट दाखिल होता है तो उसे खारिज कर दिया जाये।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर स्वयं को मसीहा के रूप में प्रस्तुत करनेवाली सोनिया गांधी को चुनौती है कि वे क्वात्रोकी के मामले को पुन: खुलवाएं। चुनौती है प्रधानमंत्री को भी और भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी को भी कि वे जनहित में और देशहित में बोफोर्स कांड के मुख्य आरोपी क्वात्रोकी को भारत वापस ला कानून के हवाले करें। किसी भी भ्रष्टाचारी को न बख्श दिए जाने की घोषणा पर अमल करते हुए क्वात्रोकी को दंडित किया जाए।
यह मामला दलाली अथवा रिश्वत की दखल का ही नहीं, रक्षा सौदों में व्याप्त भ्रष्टाचार का है। केंद्र सरकार की ही नहीं बल्कि पूरे देश की छवि व साख का मामला है यह! चूंकि ताजा खुलासा किसी विपक्षी दल ने नहीं बल्कि भारत सरकार की ही एक एजेंसी ने किया है, उम्मीद है कि कम से कम इसे झुठलाने की कोशिश भारत सरकार नहीं करेगी।

Monday, January 3, 2011

प्रधानमंत्री की 'विदाई' की पटकथा!

देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सावधान हो जाएं। कांग्रेस के 'वफादारों' ने उनकी विदाई की पटकथा लिखनी शुरू कर दी है। अब इसे कांग्रेस संस्कृति का अंग कहें या षडय़ंत्र! कांग्रेसी दीवार पर लिखी जा रहीं ताजा इबारतें उनकी विदाई की चुगली कर रही हैं। आखिर कांग्रेस को भी तो भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता के प्रहार से बचने के लिए कोई बलि का बकरा चाहिए ही! जेहन में कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं जिनके जवाब कांग्रेसी खेमे से चाहिए। नैतिक रूप से पराजित नेतृत्व तो जवाब नहीं ही देगा, पार्टी में मौजूद कुछ विचारवानों-बुद्धिमानों से अपेक्षा है कि वे आगे आएं। वे बताएं कि क्या केंद्रीय वित्तमंत्री व पार्टी के वरिष्ठतम नेता प्रणब मुखर्जी वास्तव में सठिया गये हैं? क्या उनकी स्मरणशक्ति ने काम करना बंद कर दिया है? क्या उन्होंने अपनी बुद्धि को गिरवी रख दिया है? क्या वे चाटुकारों का ही नेतृत्व करना चाहते हैं? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी बड़े राजनैतिक खेल के एक प्यादे के रूप में नेतृत्व उनका इस्तेमाल कर रहा है। कांग्रेस पार्टी के ताजा प्रकाशित 'इतिहास' के संपादक के रूप में अपनी फजीहत करा चुके मुखर्जी एक बार फिर 'हास्य-नाटक' के नायक बन उभरे हैं। संसदीय लोकलेखा समिति (पीएसी) के समक्ष हाजिर होने की पेशकश के कुछ दिन बाद प्रणब मुखर्जी का बयान आता है कि प्रधानमंत्री को समिति के सामने पेश नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे लोकसभा के प्रति जिम्मेदार हैं, किसी समिति के प्रति नहीं। कांग्रेस पार्टी की कार्यप्रणाली और कायदे-कानून का जानकार कोई भी व्यक्ति दावे के साथ इस पर टिप्पणी करेगा कि यह विचार प्रणब मुखर्जी का न होकर कांग्रेस पार्टी का है। कांग्रेस नेतृत्व ने प्रणब का इस्तेमाल कर उनके माध्यम से प्रधानमंत्री को सलाह दी है। अब सवाल यह कि प्रणब ने सार्वजनिक तौर पर ऐसी सलाह क्यों व कैसे दी। वे प्रधानमंत्री से प्रत्यक्ष मिलकर अकेले में ऐसी सलाह दे सकते थे। भला एक मंत्री प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए किसी ऐतिहासिक कदम पर सार्वजनिक आपत्ति कैसे जता सकता है? जाहिर है कांग्रेसी नाट्ïयमंच पर परदे के पीछे कोई बड़ी साजिश रची गई है। साजिश को अंजाम देने की प्रक्रिया में प्रणब मुखर्जी को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया है। जरा गौर करें। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग पर अड़ा हुआ है। किन्हीं कारणों से कांग्रेस जेपीसी जांच नहीं चाहती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी जेपीसी जांच के खिलाफ बोल चुके हैं। पूरा का पूरा कांग्रेसी कुनबा एकजुट हो जेपीसी जांच की मांग का विरोध कर रहा है। पिछले माह कांग्रेस महाअधिवेशन में जेपीसी जांच की मंाग को निरर्थक निरूपित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए स्वयं को पीएसी के सामने पेश होने की पेशकश कर डाली। उन्होंने यह भी कह डाला था कि वे पीएसी अध्यक्ष डा. मुरलीमनोहर जोशी को पत्र लिखकर अपनी इच्छा बताएंगे। प्रधानमंत्री ने मुरलीमनोहर जोशी को पत्र लिख भी डाला। अब प्रणब मुखर्जी यह कैसे कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने बगैर पार्टी से परामर्श किए ऐसा फैसला किया? यह रहस्यपूर्ण है। प्रणब की यह बात भी हास्यास्पद है कि 'अगर प्रधानमंत्री मुझसे इस बारे में विमर्श करते तो मैं उन्हें ऐसा प्रस्ताव न देने की सलाह देता।' प्रणब की ऐसी अपेक्षा कि प्रधानमंत्री किसी निर्णय के पूर्व उनसे परामर्श करें, स्वयं में रहस्य से भरा हुआ है। प्रणब का तर्क कि प्रधानमंत्री सिर्फ लोकसभा के प्रति जिम्मेदार हैं, किसी समिति के प्रति नहीं, स्वीकार्य नहीं। जिस संयुक्त संसदीय समिति की मांग विपक्ष कर रहा है वह संसद का ही प्रतिनिधित्व करती है। लोकलेखा समिति के मुकाबले जेपीसी के पास व्यापक अधिकार होते हैं। इस तथ्य की अनदेखी कर जब प्रणब मुखर्जी जैसा अनुभवी सांसद, राजनेता बच्चों सरीखी दलील देता दिखता है तब निश्चित ही दाल में काला रेखांकित होता है। पिछले कुछ समय से कांग्रेस खेमे से ऐसे संकेत मिलने शुरू हो गए हैं कि नेतृत्व अब प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर किसी अन्य को बिठाना चाहता है। क्या यह मात्र संयोग है कि पिछले कुछ समय से प्रणब मुखर्जी व कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह यह दोहराते घूम रहे हैं कि राहुल गांधी में प्रधानमंत्री पद की सारी पात्रता मौजूद है, राहुल अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं। भ्रष्टाचार व कुशासन के आरोपों से घिरी कांग्रेस नेतृत्व की केंद्र सरकार इन दिनों बचाव की मुद्रा में है। कांग्रेस हर मोर्चे पर पराजित हो रही है। अपनी सारी शक्ति लगा देने के बावजूद पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में वहां उसका लगभग अस्तित्व ही समाप्त हो गया। ऐसे में कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस नेतृत्व सरकार में भ्रष्टाचार, कुशासन और पार्टी की चुनावी विफलताओं का ठीकरा प्रधानमंत्री के सिर फोड़ उनकी बलि लेने की सोच रहा है? कांग्रेस और विशेषकर नेहरू-गांधी परिवार का इतिहास इसके पक्ष में चुगली कर रहा है। अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के राजनीतिक महत्व ही नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षार्थ कांग्रेस पार्टी कोई बड़ा दांव खेल सकती है। क्या आश्चर्य कि उस चुनाव के पूर्व ही मनमोहन सिंह को विश्राम दे 'युवराज' की ताजपोशी कर दी जाए! और तब युवा नेतृत्व, युवा शक्ति की हवा चला कांग्रेस मतदाता के सामने गिड़गिड़ाती दिखे!

Saturday, January 1, 2011

सदी का सबसे बड़ा झूठ!

पूरा देश आहत है सदी के इस सबसे बड़े झूठ पर। झूठ ही नहीं सदी के सबसे बड़े अपराध के रूप में भी यह चिन्हित किया जाएगा। मैं यहां अभी-अभी समाप्त हुए वर्ष में गुंजायमान भ्रष्टाचार व महाघोटालों की चर्चा नहीं कर रहा। हजारों-लाखों करोड़ के सरकारी खजाने पर डाके की बात नहीं कर रहा। मैं यहां राष्ट्रपिता महात्मा के त्याग और मूल्यों की अवमानना की चर्चा कर रहा हूं। सामथ्र्यवानों द्वारा इतिहास भी लिखवाए जाने के इस युग में ऐसा अपराध किया है केंद्रीय सत्ता की कमान संभालने वाली कांग्रेस ने। अपनी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की तुलना महात्मा गांधी से कर कांग्रेस ने न केवल महात्मा गांधी बल्कि आजादी की लड़ाई में शहीद हुए राष्ट्रभक्तों और अन्य सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान किया है। महात्मा गांधी के त्याग की तुलना सोनिया गांधी के कथित त्याग से कोई सिरफिरा ही कर सकता है। सच्चा इतिहासकार ऐसा कभी भी नहीं कर सकता। सोनिया गांधी के कथित त्याग की बात अभी कल की ही है। केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी के संपादन में प्रस्तुत कथित इतिहास 'कांग्रेस एंड द मेकिंग आफ द इंडियन नेशन' चाहे जो दावा कर ले, देशवासी इस सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं कि प्रधानमंत्री पद का कथित त्याग सोनिया गांधी की मजबूरी थी। उनकी कायरता थी। परिवार की सुरक्षा को लेकर एक भयभीत मां का कायराना निर्णय था वह। देश में विद्रोह की संभावना से डरी हुई एक पार्टी अध्यक्ष का फैसला था वह। अगर प्रधानमंत्री पद के प्रति उनके मन में कोई मोह नहीं था, वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थीं, तब उन्होंंने स्वयं को कांग्रेस संसदीय दल का नेता क्यों चुने जाने दिया? सभी जानते हैं कि कांग्रेस में संसदीय दल का नेता कैसे और किसकी इच्छा पर चुना जाता है। अगर सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थीं तो पार्टी के सांसद उन्हें कभी भी नेता नहीं चुनते। यही नहीं, इससे आगे बढ़ते हुए उन्होंने क्या स्वयं को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का नेता नहीं चुनवाया? यूपीए ने सोनिया को नेता चुना तो उनकी इच्छा से। उस काल में पूरे देश ने टेलीविजन पर देखा था-सुना था ताजा विमोचित इतिहास के संपादक प्रणब मुखर्जी को ऐलान करते हुए कि ''सोनिया गांधी हमारी निर्विवाद नेता हैं और वे राष्ट्रपति के समक्ष सरकार बनाने का दावा करेंगी। ... सोनियाजी ही प्रधानमंत्री बनेंगी।'' उस समय तो सोनिया गांधी की ओर से ऐसा कोई वक्तव्य नहीं आया था कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं। फिर किस त्याग का दावा कांग्रेस कर रही है? वह तो सुषमा स्वराज व उमा भारती के बागी तेवर थे जिससे सोनिया भयभीत हो उठी थीं। सुषमा व उमा ने तब घोषणा कर दी थी कि अगर सोनिया को प्रधानमंत्री बनाया गया तब वे अपने सिर के बाल मुंडवा विधवा के सफेद वस्त्र धारण कर सड़क पर निकल पड़ेंगी। देश में एक राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ा जाएगा। अगर ऐसा हो जाता तब देश की भावुक जनता भारत और भारतीयता के पक्ष में बगावत पर उतर जाती। इसी भय ने सोनिया को कदम पीछे लेने पर मजबूर किया और तब त्याग का नाटक रचा गया। सोनिया ने स्वेच्छा से कोई त्याग नहीं किया था। निश्चय ही आने वाली पीढ़ी को गुमराह करने की यह साजिश है। उसी तरह की साजिश जैसी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने की थी। तब देश के इतिहास को तोड़-मरोड़कर सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार को महिमामंडित करने वाली सामग्री को एक कालपात्र मेें रख लाल किले में गाढ़ दिया गया था। बाद में जनता पार्टी सरकार ने उसे निकलवा फेंक नई पीढ़ी को गुमराह होने से बचा लिया था। प्रणब मुखर्जी संपादित इस इतिहास में भारतीय लोकतंत्र के सर्वाधिक स्याह काल आपातकाल के लिए एक अकेले संजय गांधी को दोषी करार देकर असली अपराधियों को बचाने की कोशिश की गई है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में संजय गांधी एक संविधानेतर सत्ता के रूप में उभरे थे तो इंदिरा गांधी के आशीर्वाद से ही। लेकिन आपातकाल का निर्णय क्या संजय ने लिया था? अगर हां तो यह पूछा जाएगा कि फिर उन्हें ऐसा अधिकार किसने प्रदान किया था? सरकार में न होते हुए भी अगर संजय सरकार का संचालन कर रहे थे तो कैसे? अगर आपातकाल में सारी ज्यादतियों के लिए संजय दोषी थे तो उन्हें अधिकार किसने दिए थे? तब संजय के विशेष चहेते प्रणब मुखर्जी और अंबिका सोनी आज केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हैं। इनसे बेहतर तो कोई जान नहीं सकता। प्रणब जहां तब संजय की चाटुकारी किया करते थे वहीं अंबिका सोनी तो हमेशा साये की तरह संजय के साथ रहती थीं। आपातकाल की घोषणा से लेकर जयप्रकाश नारायण सहित सभी बड़े नेताओं व पत्रकारों की गिरफ्तारी के लिए अगर कोई जिम्मेदार था तो वह इंदिरा गांधी थीं। जिस लोकतंत्र की दुहाई आज कांग्रेस दे रही है, उस लोकतंत्र के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से जनता को वंचित करने वाली इंदिरा गांधी ही थीं। प्रेस सेंसरशिप लागू कर जनता को बेजुबान करने की कोशिश तब इंदिरा गांधी ने ही की थी। देश को दूसरी गुलामी की जंजीरों से जकडऩे वाली इंदिरा गांधी ही थीं। कांग्रेस इतिहास का यह दावा सरासर झूठ है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी की ज्यादतियों से देश की जनता परेशान हुई थी। सच तो यह है कि तब इंदिरा सरकार के कुशासन, भ्रष्टाचार और आपातकाल की ज्यादतियों से विद्रोह कर देश की जनता ने इंदिरा को उखाड़ फेंका था। ब्रिटिश शासन काल की तरह आपातकाल के दौरान लापता आज भी अनेक नाम प्रकाश में नहीं आ पाए। आपातकाल की ज्यादतियों की कथा अनंत है। इन ज्यादतियों के लिए एक अकेले संजय गांधी को कटघरे में खड़ा कर कांग्रेस नेे झूठ तो बोला ही है, राष्ट्रीय अपराध भी किया है। संजय ही क्यों? उत्तर सरल है। संजय गांधी की विधवा मेनका गांधी व पुत्र वरुण गांधी आज प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। वह भाजपा जो कांग्रेस के लिए कड़ी चुनौती बन रही है। चूंकि स्वयं इंदिरा गांधी ने संजय गांधी की असामयिक मौत के बाद अपनी जवान विधवा बहू मेनका और अबोध बालक वरुण को घर से निकाल दिया था, नेहरू-गांधी परिवार उन्हें अछूत मानने लगा है। खेद है कि कांग्रेस के इतिहास ने सोनिया को महिमामंडित करने के क्रम में इन और इन जैसे असहज पहलुओं पर जानबूझकर परदा डाल दिया। इस मुकाम पर मैं चाहूंगा कि, कांग्रेस आपातकाल के अपने 'कालपात्र' की याद कर ले। संभवत: आलोच्य इतिहास का हश्र भी कहीं 'कालपात्र' की तरह न हो जाए।

Saturday, December 25, 2010

'1989' के पुनर्मंचन की ओर !

ईमानदारी का लबादा ओढ़ देश को भ्रष्टाचार के दलदल में आकं ठ डुबो चुके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह में अगर थोड़ी भी शर्म बाकी है, नैतिकता का एक कतरा भी उनमें शेष है, देश और जनता के हक में थोड़ी भी हमदर्दी है और इन सबों से ऊपर अगर वे स्वयं को सभ्य मानव अथवा मनुष्य मानते हैं तो वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें। सिर्फ इस्तीफा ही न दें बल्कि एक भारतीय नागरिक का हक अदा करते हुए तमाम घोटालों, भ्रष्टाचारों के सच को स्वयं अनावृत कर दें। घोटालों, भ्रष्टाचार के दोषियों के चेहरों से नकाब नोच उनकी असलियत को बेपर्दा कर दें। चूंकि अनेक भ्रष्टाचार उनकी जानकारी (मजबूरी में ही सही) में ही हुए हैं, उनमें लिप्त लोगों के लिए दंड क ी राह वे खुद दिखाएं। सत्ता मोह त्याग कर मनमोहन सिंह उन चेहरों को भी बेनकाब करें जो सीधे सत्ता में न होते हुए भी सत्ता संचालन कर रहे हैं और परदे के पीछे रहक र अब तक उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा और संरक्षण देते रहे हैं। हां, यहां मेरा इशारा कांग्रेस अध्यक्ष और संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की ओर ही है।
निष्पक्ष, तटस्थ हर व्यक्ति इस बात की पुष्टि करेगा कि सोनिया की अध्यक्षता वाली संप्रग सरकार में जिस पैमाने पर घोटाले हुए वैसा कभी नहीं हुआ। आम जनता के धन से निर्मित सरकारी कोष को दोनों हाथों से लूटा गया। नियम-कानून को धता बताया गया, सरकारी तंत्रों का स्वहित में इस्तेमाल किया गया, अधिकारों का दुरुपयोग किया गया, संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन कि या गया, देश में घाटालेबाजों और दलालों का बोलबाला हो गया, न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिशें की गईं और यहां तक कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मान्य मीडिया को भी प्रलोभन के जाल में फंसा भ्रष्ट करने की कोशिशें की गईं। और ये सब देश-समाज विरोधी कार्रवाइयां होती रहीं प्रधानमंत्री की जानकारी में। फिर क्या अचरज कि विश्वमहाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत आज महाभ्रष्ट- घोटालेबाजों-दलालों के देश के रूप में देखा जाने लगा है। आज पूरा संसार भारत का नाम ले हंस रहा है कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में मंत्रियों की नियुक्तियां भी पतित दलालों की अनुशंसाओं पर की जाती हैं! दलाल सोने-चांदी के सिक्कों से न केवल सरकारी अधिकारियों बल्कि महिमामंडित मीडियाकर्मियों को भी खरीद रहे हैं? विषकन्यायुक्त ऐसी दलाल मंडली का भरपूर उपयोग बड़े औद्योगिक घरानों सहित राजनीतिज्ञ भी कर रहे हैं। इस पाश्र्व मेंं भारत देश आज गर्व करे तो किस बात पर? हमारी सारी उपलब्धियां भ्रष्टाचार के गंदले तालाब मेंं समा गई हैं। निश्चय ही इन सबों के लिए हमारे प्रधानमंत्री सीधे जिम्मेदार हैं। अपनी पार्टी अध्यक्ष और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं से ईमानदारी का प्रमाणपत्र ले प्रधानमंत्री भले खुश हो लें, देश की नजरों में वे गिर चुके हैं, आम आदमी उन्हें देश का गुनाहगार मान रहा है। हाल के चर्चित घोटालों से उत्पन्न राष्ट्रीय आक्रोश के प्रति उनकी असंवेदनशीलता निंदनीय है। उनसे अब ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं। दो टूक बात यह कि वे तत्काल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दें और पापों के प्रायश्चित के लिए भ्रष्टाचार के विरोध में स्वयं सड़क पर निकलें। क्षमाशील देश संभवत: उन्हें क्षमा कर देगा। अन्यथा, देश की मान-मर्यादा-गरिमा के पक्ष में लोकतंत्र के प्रति समर्पित जनता 1989 को दोहरा देगी। उन्हें याद दिलाने के लिए दोहरा दूं कि तब बोफोर्स घोटाले की चित्कार के बीच जनता ने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार को उखाड़ फेंका था। 2014 अधिक दूर नहीं।

Tuesday, December 21, 2010

गलतबयानी कर रहे हैं प्रधानमंत्री!

अशिष्ट, असभ्य, असंस्कृति निरुपित किए जाने की पीड़ादायक संभावना के बीच मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूँ कि हमारे विद्वान अर्थशास्त्री, ईमानदार प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने झूठ बोला है, देश को गुमराह किया है और संसद का अपमान किया है। कांग्रेस महाअधिवेशन के अंतिम दिन सोमवार को उनके भाषण से ऐसा लगा ही नहीं कि उन्हें देश या संसद की चिंता है। हो भी कैसे? एक दिन पूर्व ही तो उनकी प्रेरणास्त्रोत सोनिया गांधी उन्हें ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बता चुकी थीं! फिर वे किसी और के प्रमाणपत्र की चिंता करें तो क्यों? आखिर उन्हें प्रधानमंत्री बनाया तो सोनिया ने ही! आम मतदाता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि भी तो नहीं हैं वे! फिर जनता की परवाह क्यों करें? भारत जैसे महान शक्तिशाली देश के डा. मनमोहन सिंह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो बगैर लोकसभा का चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बनते आ रहे हैं। आजादी पश्चात संसदीय लोकतंत्र की परिकल्पना को मूर्त रुप देनेवाले हमारे दिवंगत राष्ट्रनिर्माता परलोक में चाहे सौ-सौ आंसू बहा लें, लोकतंत्र के साथ 'छलÓ का यह शर्मनाक उदाहरण इतिहास में दर्ज हो चुका है। लोकतंत्र का यह एक स्याह पक्ष है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति देश के मतदाता के प्रति सीधे जिम्मेदार नहीं। फिर कौन सा मूल्य? कैसा सिद्धांत? और कैसी पारदर्शिता? फिर क्या अचरज कि पार्टी अधिवेशन के मंच से उन्होंने घोषणा कर डाली कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए वे परंपरा तोड़कर संसदीय लोकलेखा समिति के सामने पेश होने को तैयार हैं। वे कुछ छुपाना नहीं चाहते। इस बिन्दु पर प्रधानमंत्री को एक सीधी चुनौती। जब वे परंपरा तोड़कर लोकलेखा समिति के सामने पेश होने को तैयार हैं, तब वे स्थापित परंपरा को आगे बढ़ाते हुए घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से करवाने से क्यों भाग रहे हैं? अचरज है कि प्रधानमंत्री ने यह घोषणा संसद के अंदर क्यों नहीं की - पार्टी के मंच से क्यों किया? क्या यह संसदीय प्रणाली की अवमानना नहीं! सभी जानते हैं कि लोकलेखा समिति (पीएसी) के अधिकार सीमित हैं। यह समिति सिर्फ नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के दायरे में ही जांच कर सकती है। पीएसी के सामने पेश होने की मंशा को जाहिर कर तालियां बटोरने वाले प्रधानमंत्री अगर इस तथ्य से अपरिचित हैं, तब प्रधानमंत्री पद की गलतबयानी कर रहे हैं प्रधानमंत्री! उनकी पात्रता पर ही सवाल खड़े हो जायेंगे।
जेपीसी की विपक्ष की मंाग को राजनीति से जोड़कर प्रधानमंत्री ने देश की संसदीय प्रणाली का मखौल उड़ाया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी सरकार को पाक-साफ बताने के क्रम में प्रधानमंत्री गलतबयानी करते चले गए। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला व अन्य घोटालों के संदर्भ में प्रधानमंत्री का यह बयान कि उन्होंने ऐसे मामलों में तुरंत कार्रवाई करते हुए केवल संदेह के आधार पर ही मंत्री और मुख्यमंत्री हटाए, बिल्कुल गलत है। झूठ बोला है प्रधानमंत्री ने! स्पेक्ट्रम घोटाले को ही लें। संप्रग - 1 की उनकी सरकार के समय से ही यह घोटाला चर्चित था। तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए-राजा के खिलाफ भ्रष्टाचार व अनियमितता के आरोप लगाए जा रहे थे। लेकिन तब प्रधानमंत्री मौन रहे। कोई कारवाई नहीं की। संप्रग - 2 मंत्रिमंडल में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ए. राजा को न केवल शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग दे डाला! क्यों और कैसे देश इसे अब जान चुका है। सत्ता और कार्पोरेट क्षेत्र की एक दलाल के प्रभाव में ए. राजा उपकृत किए गए। दलाल और उसके दलालों को उपकृत क्यों किया प्रधानमंत्रीने? स्पेक्ट्रम की नीलामी अथवा आवंटन के लिए गठित मंत्रियों के समूह के अधिकारों में संशोधन कर स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को मनमानी करने की छूट दी थी। इस मामले में घोटालों की गूंज की अनदेखी क्या प्रधानमंत्री लगातार नहीं करते रहे? वर्षों चुप बैठने के बाद ए.राजा के खिलाफ कारवाई तब की गई जब मीडिया ने इस मामले को प्रतिदिन उछालना शुरु किया और सीएजी की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई। तब तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मौन क्या घोटाले पर परदा डालना साबित नहीं करता? प्रधानमंत्री चाहे जितना इन्कार कर लें, देश की जनता अब जान चुकी है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला अगर हुआ तो प्रधानमंत्री की जानकारी में!
जेपीसी की मांग को ठुकराना और विपक्ष पर संसद का वक्त जाया करने का आरोप लगाना स्वयं प्रधानमंत्री की नीयत को संदिग्ध बनाता है। भ्रष्टाचार के आरोपों पर त्वरित कारवाई करने का प्रधानमंत्री का आरोप भी खोखला है। पूर्व केंद्रीय मंत्री कुंवर नटवर सिंह का उदाहरण देना हास्यास्पद हैं। तेल के बदले अनाज घोटाले में लिप्तता के आरोप में नटवर सिंह को तो हटाया गया किंतु तब यह साफ-साफ दिख रहा था कि स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उस मामले में संदिग्ध भूमिका अदा की थी। नटवर सिंह को तो बलि का बकरा बनाया गया था। भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़कर फेंकने और भ्रष्टाचारियों को दंडित किए जाने का दावा करनेवाले प्रधानमंत्री क्या यह बतायेंगे कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले के लिए अशोक चव्हाण की बलि तो ली गई किंतु उसी घोटाले में संदिग्ध विलासराव देशमुख और सुशिलकुमार शिंदे अभी तक उनके मंत्रिमंडल में कैसे बने हुए हैं? कहां गया संदेह पर तुरंत कारवाई का उनका दावा? प्रधानमंत्री से देश यह भी जानना चाहेगा कि जब यह बात सार्वजनिक हो गई कि हाईकोर्ट के एक जज ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर सूचित किया था कि एक केंद्रीय मंत्री ने फोन कर उन्हें कुछ आरोपियों को जमानत देने को कहा था और धमकाया था, तब उन्होंने पारदर्शिता के पक्ष में उस मंत्री की पहचान कर उन्हें दंडित क्यों नहीं किया? देश को बताया क्यों नहीं? भारत के सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का मामला तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी को सरकारी प्रश्रय सरंक्षण दिए जाने का ज्वलंत उदाहरण ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा लताड़े जाने के बावजूद प्रधानमंत्री खामोश हैं। बताएंगे क्यों? निश्चय ही प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार को संवैधानिक मान्यता देने का अपराध करते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके शब्द दिखावा मात्र हैं। यह आक्रोश व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय भावना का प्रदर्शन है। परिपक्व भारतीय नागरिक ऐसे छलावे में अब नही आयेंगे। देश ने अगर अपने लिए संविधान का निर्माण कर लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली को अपनाया है तो वह जिम्मेदारी सुनिश्चित करने में भी सक्षम है। आम जनता को मूर्ख और उसकी स्मरणशक्ति को कम आंकने की भूल प्रधानमंत्री न करें।

Sunday, December 19, 2010

मुस्लिम वोट बैंक की खतरनाक राजनीति!

कभी स्वयं के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी की अभिलाषा रखने वाले दिग्गी राजा अर्थात् दिग्विजय सिंह पर तरस खाने को जी चाहता है। इस हकीकत को जान लेने के बाद कि प्रधानमंत्री पद नेहरू-गांधी वंश के लिए आरक्षित हो चुका है, दिग्विजय ने इसका मोह तो त्याग किन्तु चाटुकारिता को इस हद तक अंगीकार कर लिया कि उनके चाहने वाले भी भौचक हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 10 वर्षों तक शासन करने के बाद अपनी कांग्रेस पार्टी को वहां स्थायी मौत दे चुके दिग्विजय आखिर चाहते क्या हैं? दिग्विजय कहीं किसी अदृश्य एजेंडे पर तो नहीं काम कर रहे? उनके करीबी इस जिज्ञासा पर रहस्यमय मौन साध लेते हैं। इनके रिश्तेदार अर्जुन सिंह ने छात्र जीवन में अपने पिता की चिता के समक्ष कसम खाई थी कि वे कांगे्रस को समाप्त कर देंगे। चूंकि उस घटना की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ , आज विस्तार में नहीं जा रहा। नियति ने उन्हें उसी कांग्रेस के घर पनाह लेने को मजबूर कर दिया था, जिस घर को ध्वस्त करने की कसम खाई थी। कांग्रेस ने उनका इस्तेमाल किया, जम कर इस्तेमाल किया और आज अर्जुन सिंह की वर्तमान दुर्दशा को क्या बताने की जरूरत है। हाँ, यह जरूर है कि उनके रिश्तेदार दिग्विजय सिंह की अनुकंपा से मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने कफन अवश्य ओढ़ लिया। वही दिग्विजय सिंह आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रवाद की तुलना जर्मन तानाशाह हिटलर के राष्ट्रवाद से कर संघ परिवार को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित कर रहे हंै। लोगों की त्वरित प्रतिक्रिया यही आई कि वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। लेकिन, मैं इससे सहमत नहीं। निश्चय ही दिग्विजय अर्जुन सिंह की कसम को राष्ट्रीय स्तर पर पूरा हुआ देखना चाहते हैं। सरस्वती शिशु मंदिर पर हिंसा और विद्वेेश फैलाने का आरोप लगाकर दिग्विजय निश्चय ही मदरसों में जारी आतंकवादी गतिविधियों का बचाव कर रहे हैं।पूर्वानुमान को सच साबित करते हुए कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी ने हर तरह के आतंकवाद को देश के लिए खतरा बताया, किन्तु दिग्विजय ने साफ शब्दों में हिंदू संगठनों को ज्यादा खतरनाक निरूपित किया। अमेरिकी राजदूत से राहुल गांधी ने यही तो कहा था। कांग्रेस महाधिवेशन में दिग्विजय का पूरा भाषण हिंदुओं के खिलाफ था। अपने संबोधन में एक बार भी दिग्विजय ने किसी मुस्लिम संगठन का नाम नही लिया। उन्होंने यह तो पूछा कि विस्फोट की कुछ घटनाओं में जो हिन्दू पकडे गए वे सभी संघ परिवार के क्यों है, किन्तु यह बताना भूल गए कि संसद पर हमले से लेेकर मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, वाराणसी ही नहीं बल्कि पूरे संसार में आतंकी हमले में पकड़े गए सभी आतंकी मुसलमान कैसे निकले? इस तरह का उदाहरण देना और चर्चा करना उचित तो नहीं किन्तु दिग्विजय सिंह के मार्फत कांग्रेस की असली मंशा को चिन्हित करने के लिए दु:खी हृदय में इसे दोहराना पड़ रहा है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। दिग्विजय मुसलमानों को खुश करने अर्थात् कांग्रेेस पार्टी के हाथों से खिसक चुके वोट बैंक पर पुन: कब्जा करने के लिए मुसलमान-मुसलमान का रट लगाते हुए बाबरी मस्जि़द को गिराये जाने की घटना की याद करना भी नहीं भूले। देश के माथे पर इसे धब्बा बताते हुए इसे मिटाने का संकल्प लेने की बात उन्होंने कही। बता दूँ कि कतिपय कट्टरपंथियों को छोड़ कर देश का व्यापक मुस्लिम समाज अपने लिए तुष्टिकरण की कांग्रेसी नीति से घृणा करने लगा है। मुस्लिम इसे अपना अपमान समझते हंै। बिहार का ताजा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। कांग्रेस अब चाहे लाख कोशिश कर ले मुस्लिम समाज कांग्रेस के लिए वोट बैंक हरगिज नहीं बनेगा। हिंदू और मुसलमानों के बीच कथित रूप से बढ़ती खाई के लिए संघ परिवार को जिम्मेदार ठहराने वाले शिक्षित दिग्विजय उस समय बिलकुल अशिक्षित लगे जब उन्होंने न्यायपालिका, नौकरशाही और भारतीय सेना में संघ परिवार के घुसपैठ की जानकारी दी। हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई को कांग्रेस ही बड़ा कर रही है। दोनों समुदाय के बीच घृणा का जहर घोल रही है वह। इस तरह की बातें कोई जिम्मेदार व्यक्ति तो कर ही नहीं सकता। साफ है कि दिग्विजय कोई और ही लक्ष्य साध रहे हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के जनक के रूप में भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन का नाम लेकर दिग्विजय ने जिस पाप को छिपाने की कोशिश की है वह मोटे अक्षरों में चिन्हित हो गया। एक चोर दूसरे को चोर बताकर स्वयं चोरी के अपराध से मुक्त नहीं हो जाता। दिग्विजय अपने गुप्त एजेंडे को लागू करें, कांग्रेेेस का बंटाधार करें अपनी बला से। अनुरोध है कि इस प्रक्रिया में वे देश व समाज में सामप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा न दें। जाति-धर्म की राजनीति से घृणा करने वाली युवा पीढ़ी को भ्रमित तो नहीं ही करंे। हां, एक बात और बता दूं। अगर दिग्विजय समय रहते नहीं चेते तो उनका हश्र भी कांग्रेस में वही होगा जो अर्जुनसिंह का हुआ। पहले इस्तेमाल और फिर कूड़ादान!

Saturday, December 18, 2010

अल्पज्ञान का मंडराता खतरा!

एक पुरानी मान्यता है कि अज्ञानी से कहीं अधिक खतरनाक अल्पज्ञानी होते हैं। क्योंकि होते तो हैं वे अल्पज्ञानी, किन्तु स्वांग भरते हैं पूर्ण ज्ञानी होने का। फिर क्या आश्चर्य कि प्रधानमंत्री सहित कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत राहुल गांधी आज चौतरफा प्रहार झेल रहे हैं। अगर राहुल को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया गया होता तो संभवत: इतना बवाल नहीं मचता। चाटुकारिता के कंधों पर रखी वंशवाद की सीढ़ी चढ़ देश के नेता बने राहुल गांधी अपनी रणनीति की विफलता के बावजूद गलतियों को दोहराते रहने का परिणाम भुगत रहे हैं। एक अल्पज्ञानी ही ऐसी दुर्घटना का शिकार हो सकता है। सलाह चाहे दिग्विजय सिंह ने दी हो या किसी अन्य ने, अल्पसंख्यक कार्ड का 'राहुल प्रयोग' अबतक विफल ही नहीं, प्रति-उत्पादक भी सिद्ध होता रहा है। सन् 2007 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान करोड़ों खर्च कर राहुल के लिए 'रोड शो' अर्थात् 'सड़क तमाशे' आयोजित किये गए थे। तमाशे के लिए जगह-जगह भीड़ भी जुटाए गए थे। क्या यह बताने की जरूरत है कि ऐसी भीड़ में अज्ञानियों व अल्पज्ञानियों की ही बहुतायत होती है! ऐसी ही भीड़ों को तब संबोधित करते हुए राहुल गांधीने अपने 'ज्ञान' का बखान करते हुए कह डाला था कि अगर 1992 में नेहरू परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जि़द का विध्वंस नहीं होता। उन्हीं सड़क तमाशों के बीच एक बार राहुल यह भी कह गए थे कि बांग्लादेश उदय का श्रेय उनकी दादी इंदिरा गांधी को जाता है। इस मुकाम पर उनके 'ज्ञान' पर स्वयं कांग्रेसी हतप्रभ रह गए थे। पहले मामले में जहां राहुल अल्पसंख्यक समुदाय की सहानुभूति बटोरना चाहते थे वहीं दूसरे मामले में अल्पसंख्यक समुदाय को आहत कर डाला। राहुल को ज्ञान देने वाले इस कठोर सत्य को बताना भूल गए थे कि अल्पसंख्यक समुदाय पूर्वी पाकिस्तान की जगह बांग्लादेश के निर्माण को आजतक पचा नहीं पाया है। नतीजतन, राहुल के तमाम तामझाम और कांग्रेस के दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगे्रस का सफाया हो गया। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाने के लिए राहुल के सलाहकारों ने फिर अल्पसंख्यंक कार्ड खेला। प्रदेश अध्यक्ष के पद पर अल्पसंख्यक व्यक्ति की नियुक्ति की गई। राहुल गांधी, सोनिया गांधी व स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिहार के तूफानी दौरे किये। अपने हर संबोधन में राहुल ने अल्पसंख्यक मतदाता को रिझाने की कोशिश की। एक बार तो यहां तक पूछ डाला कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए नीतीश सरकार ने अबतक जमीन आवंटन क्यों नहीं किया। संघ परिवार व भाजपा को निशाने पर लेते हुए राहुल चुनाव प्रचार के दौरान यह दोहराते रहे कि इन कट्टर पंथियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को मतदाता समर्थन दें। आरएसएस को प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी के समकक्ष रख अपने ज्ञान का जलवा दिखाने वाले राहुल गांधी का सारा ध्यान केंद्रित था तो कथित हिंदू कट्टरवाद के मुकाबले अल्पसंख्यक वोट पर। जदयू-भाजपा सरकार को भ्रष्ट, निकृष्ट, अकर्मण्य निरूपित कर कांग्रेस की सफलता की भविष्यवाणी करने वाले राहुल गांधी को तब मुंह छुपाना पड़ा जब बिहार के मतदाता ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। राहुल का अल्पसंख्यक कार्ड एक बार फिर बेजान साबित हुआ। कथित कट्टरपंथी हिंदू संगठनों को आतंकवाद का पर्याय बन चुके लश्कर-ए-तैयबा से अधिक खतरनाक बताने वाले राहुल गांधी की 'नीयत' अब कटघरे में है। आज रविवार को राहुल ने इस पर सफाई देने का संकेत दिया है। जाहिर है उनके सलाहकार लीपापोती का प्रयास करेंगे। आतंकवाद की व्यापकता को रेखंाकित कर राहुल अपने उगले हुए शब्दों पर परदा डालने की कोशिश करेंगे। लेकिन भारत का परिपक्व लोकतंत्र, परिपक्व आबादी उनके झांसे में आएंगे यह संदिग्ध है। राहुल के 'ज्ञान' से यह देश अब निर्देशित होने वाला नहीं। बिहार का चुनाव परिणाम पूरे देश के लोकतांत्रिक भविष्य के सूचक के रूप में सामने आया है। जाति, धर्म और संप्रदाय के मुकाबले उसने विकास के पक्ष में फैसला सुनाया है। बेहतर हो राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी बिहार के सबक को स्वीकार कर लें। इस देश की परिपक्व युवा पीढ़ी इन सब व्याधियों से दूर रहना चाहती है। अपने प्रस्तावित संबोधन में राहुल सावधानी बरतें। शब्दों का मायाजाल अब नहीं चलेगा। वास्तविकता को पहचान विकास और सुशासन के पक्ष में ध्यान केंद्रित करें राहुल। वोट की राजनीति के लिए अल्पसंख्यक कार्ड खेलना तो बंद कर ही दें। देश की बहुसंख्यक आबादी इस खेल से उब चुकी है। देश के आंतरिक मामलों की चर्चा वे देश में देश के साथ करें। अमेरिका या किसी अन्य के साथ नहीं। अन्यथा, देश अपने उपर मंडराते अल्पज्ञान के खतरे से निजात पाने का अपना तरीका ढूंढ लेगा।

Friday, December 17, 2010

...तब अंग्रेज, आज कांग्रेस

देश सावधान हो जाए। एक बार फिर सांप्रदायिक आधार पर देश को बांटने की तैयारी हो रही है। बिल्कुल ब्रिटिश शासकों की तर्ज पर। इस मामले में दु:खद यह कि ताजा प्रयास गुलाम भारत में अंग्रेजों की तरह नहीं, बल्कि आजाद भारत में अपने ही लोगों द्वारा हो रहा है। वह भी, वोट और सिर्फ वोट की राजनीति के लिए। अंग्रेजों ने शासन कायम रखने के लिए वह पाप किया था, आज राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए ऐसा पाप कर रहे हैं।
अगर कांग्रेस की दृष्टि में लश्कर-ए-तैयबा से कहीं अधिक खतरनाक कट्टरवादी हिंदू संगठन हैं, तो क्षमा करेंगे, इस दल के नए नेतृत्व को न तो हिंदुस्तान की पहचान है और न ही हिंदुस्तानी सोच की। देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी को प्रस्तुत करनेवाली कांग्रेस दु:खद रूप से स्वयं अपने इतिहास को भूल रही है। भविष्य के लिए लक्ष्य निर्धारित करने की प्रक्रिया में अतीत की याद की जाती है। समझदार अतीत से सबक भी लेते हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे शाश्वत सत्य को कांगे्रस नजरअंदाज क्यों कर रही हैं? पार्टी के नीति निर्धारक इतने नासमझ कैसे हो गए? मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि केंद्रीय सत्ता पर काबिज पार्टी की कमान मूर्खों की कोई मंडली संभाल रही है। मैं चाहूंगा कि मेरा आकलन गलत साबित हो। लेकिन फिलहाल यह शब्दांकित करने के लिए विवश हूँ कि कहीं कोई शातिर दिमाग है जो देश के इस अभिभावक दल के कंधों पर बंदूक रख लक्ष्य साध रही है। इस अदृश्य शक्ति की पहचान जरुरी है। इतिहास गवाह है कि व्यापार के नाम पर भारत पहुंचे अंग्रेजों ने अपनी कुटिलता, साजिश और अत्याचार के हथियार से भारत को गुलाम बनाया तथा धर्म संप्रदाय के विष का फैलाव कर फुट डालो और राज करो की नीति अपनाकर हम पर शासन करते रहे।
कोई दो...चार...दस साल नहीं, लगभग 200 वर्षों तक धूर्त अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाए रखा। इस बीच उन्होंने सांप्रदायिक आधार पर समाज को जिस तरह बांटा उसकी परिणति आजादी के साथ देश विभाजन के रूप में हुई, यही नहीं लगभग 10 लाख लोग उस आग की बलि चढ़ गए थे। आजादी के 63 वर्षों बाद भी उसकी तपिश समय-समय पर हमें झुलसा जाती है।
विकिलिक्स के खुलासे के अनुसार, कांगे्रस महासचिव राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत को बताया था कि ''लश्कर-ए-तैयबा जैसे इस्लामिक आंतकी संगठनों को कुछ मुसलमानों का समर्थन मिला हुआ है। लेकिन देश को उससे बड़ा खतरा कट्टरपंथी हिंदू संगठनों से है। ये संगठन धार्मिक तनाव व राजनैतिक वैमनस्य पैदा कर रहे हैं।'' ध्यान रहे इसी क्रम में राहुल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे भाजपा नेताओं द्वारा फैलाए जा रहे तनाव का भी जिक्र किया था। देश में ''भावी प्रधानमंत्री कांगे्रस की नजर में'' की यह सोच तो निंदनीय है ही, आपत्तिजनक भी कि उन्होंने अपनी ऐसी सांप्रदायिक सोच की जानकारी अमेरिका को दी। कांगे्रस की ओर से दिया गया स्पष्टीकरण बचकाना है। राहुल ने सिर्फ हिन्दू संगठनों और भाजपा की चर्चा की है। इससे तो साफ तौर पर प्रमाणित होता है कि कांग्रेस बिल्कुल ब्रिटिश शासकों की तर्ज पर देश में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाना चाहती है - धर्म व जाति के आधार पर समाज को बांटने पर तत्पर है। क्या यह देशद्रोही आचरण नहीं। पिछले दिनों मुंबई में 26/11 के शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की शहादत को एक अन्य कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कथित हिंदू सांप्रदायिकता से जोडऩे की कोशिश की थी। इसके पहले राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित मुस्लिम आतंकी संगठन ''सिमी'' से कर चुके हैं। इस पाश्र्व में राहुल गांधी या कांग्रेस को संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता। राहुल गांधी को ''राहुल बाबा'' निरुपित कर क्षमा करना एक बड़ी भूल होगी। अगर वे सचमुच ना-समझ या भोले हैं तब यह संदेह और भी प्रगाढ़ हो जाता है कि कहीं कोई अदृश्य ताकत उनका इस्तेमाल कर रही है।
दोनों ही हालत में देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि दिग्विजय सिंह के रूप में कांग्रेस के अंदर लंबी हो रही चाटुकारों की पंक्ति 'राहुल सोच' को पार्टी की नीति-सिद्धांत मान आगे बढऩे को उद्दत है। भगवा आतंक और हिंदूवादी भाजपा का मंत्रजाप कर कांग्रेस सिर्फ वोट की राजनीति ही नहीं कर रही, एक और देश विभाजन का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इसे रोकना होगा और तत्काल रोकना होगा।

Tuesday, December 14, 2010

किसकी 'छवि' की चिंता करे मीडिया?

पढऩे-सुनने में यह कड़वा तो लगेगा, किंतु सच यही है कि इंडिया और भारत नाम के हमारे देश में एक ओर जहां सामथ्र्यवानों को हजारों-लाखों करोड़ लुटने की छूट मिली हुई है, वहीं दूसरी ओर आम आदमी झूठ, फरेब और धूर्तता की विशाल शासकीय चट्टान के नीचे दब छटपटा रहा है। इसकी सुननेवाला, सुध लेनेवाला कोई नहीं। दुखी मन से निकली इस टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे कि न्यायपालिका का आचरण (अपवादस्वरूप ही सही) भी सामथ्र्यवानों का पक्षधर दिखने लगा है। कुख्यात नीरा-राडिया टेप प्रकरण में टाटा उद्योग समूह के अध्यक्ष रतन टाटा की एक याचिका पर सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय मीडिया को नसीहत देता है कि ''वह छवि खराब न करे।'' क्या यह बताने की जरूरत है कि किसकी 'छवि' की चिंता न्यायालय को है? दलाल नीरा राडिया और रतन टाटा के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत के टेप सार्वजनिक होने के बाद अब तक बेदाग, चमकदार आभामंडल वाले रतन टाटा की न केवल व्यक्तिगत छवि बल्कि टाटा उद्योग समूह की छवि भी खराब हुई है। रतन टाटा इस दलील के साथ सर्वोच्च न्यायालय में राहत के लिए गए कि बातचीत के प्रकाशन से उनके निजता के अधिकार का हनन हुआ है। यह ठीक है कि किसी के 'बेडरूम' में झांकने से उसकी निजता भंग होती है। किंतु जब वहां विदेशी खुफिया एजेंसियों के लिए कथित रूप से काम करनेवाली विषकन्या मौजूद हो, भारत सरकार के मंत्रियों, अधिकारियों की चर्चा हो रही हो, लाइसेंस के आबंटन की बातें हो रही हों, देश के नियम-कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हों तब मामला निजी कैसे हुआ? बल्कि रतन टाटा जैसा कद्दावर व्यक्तित्व अगर छींकता भी है तो उसकी सार्वजनिक चर्चा होती है। अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित रतन टाटा न केवल उद्योग जगत बल्कि देश के युवाओं के लिए एक रोल मॉडल हैं। इन्हें तो पूर्णत: पारदर्शी होना चाहिए। निजता के नाम पर वैसे प्रसंग पर परदा नहीं डालना चाहिए जिससे देश की राजनीति, व्यापार ही नहीं बल्कि देश की सुरक्षा का मामला भी जुड़ा हो। मीडिया ने इस मामले को सार्वजनिक कर हर दृष्टि से देश का हित साधा है। इस प्रक्रिया में रतन टाटा या अन्य किसी की छवि धूमिल होती है तो जिम्मेदार वे स्वयं हैं! अदालत का संरक्षण प्राप्त करने की उनकी कोशिश उन्हें और भी संदिग्ध बना देती है। हजारों-लाखों करोड़ का घपला और विदेशों के लिए जासूसी जैसे मामलों में जो भी नाम आएगा वह बेदाग नहीं रह सकता। चाहे वे रतन टाटा हों, बरखा दत्त हों, वीर सांघवी हों या फिर प्रभु चावला और पूर्व मंत्री ए. राजा ही क्यों न हों। स्वयं को पाक-साफ साबित करने की जिम्मेदारी इनकी ही है। फिलहाल तो यह कटघरे में हैं और तब तक रहेंगे जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता।
'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ' का उद्ïघोष करनेवाली सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चिंतित हैं तो किसी आम आदमी के लिए नहीं बल्कि बड़े उद्योगपतियों के लिए। एक अत्यंत ही हास्यास्पद टिप्पणी में उन्होंने टेलीफोन टैपिंग को (संदर्भ: नीरा राडिया प्रकरण) राष्ट्रहित में उचित तो ठहराया किंतु जड़ दिया कि इसका दुरुपयोग न हो! भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी कि है कि हमारे प्रधानमंत्री को यह भी पता नहीं होता है कि उनके मंत्रिमंडल में क्या हो रहा है। राडिया के टेलीफोन की टैपिंग का आदेश उन्हीं के गृहमंत्री ने दिया था, तो क्या गृहमंत्री ने अधिकार का दुरुपयोग किया? अगर प्रधानमंत्री का इशारा मीडिया द्वारा टेलीफोन वार्तालाप को सार्वजनिक किए जाने पर है तब हमारी प्रतिक्रिया वही है जो हमने ऊपर सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ में की है। यह पीड़ादायक है कि प्रधानमंत्री ने भी चिंता औद्योगिक घरानों के पक्ष में व्यक्त की है। उद्योग घरानों की ङ्क्षचता से स्वयं को वाकिफ तो बताया किंतु इस 'महाघोटाले' पर वे मौन रह गए। आम आदमी की जेबों से एकत्रित हजारों करोड़ की राशि राजनेताओं, अधिकारियों व दलालों द्वारा डकार लिए जाने पर वे अनभिज्ञ बने रहे। प्रधानमंत्री ने चिंता व्यक्त की तो इर पर कि टेलीफोन टैपिंग के वार्तालाप 'लीक' कैसे हुए? संसद में घोटाले की जेपीसी से जांच कराए जाने की पूरी विपक्ष की मांग ठुकराने वाले मनमोहन सिंह ने 'लीक' कांड की जांच का आदेश ताबड़तोब जारी कर दिया! अर्थात् थानेदार इस बात के लिए चिंतित नहीं दिख रहा कि डकैती किसने और कैसे की बल्कि वह चिंतित है तो इसलिए कि डकैती की जानकारी मीडिया और उसके माध्यम से देश को क्यों और कैसे हो गई?

भ्रष्टाचार के हमाम में 'तू भी नंगा, हम भी नंगे'!

निर्वाचित जनप्रतिधियों के जनविरोधी ऐसे आचरण पर लोकतंत्र एक बार फिर कलंकित हुआ। कांग्रेस व सत्तारूढ़ संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाजपा को भ्रष्टाचार का आईना दिखा स्वयं के पाप पर परदा डालने की कोशिश की है- 'तू भी नंगा, हम भी नंगे' की तर्ज पर। तो क्या हमाम के इन नंगों के भ्रष्टाचार को देश स्वीकार कर स्वयं को लुटता देखता रहे? कदापि नहीं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, भ्रष्टाचार के इनके कारनामों को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इन्हें बचाने की कोशिश करने वाले भी भ्रष्टाचार के पाप में बराबर के हिस्सेदार हैं। सोनिया गांधी ने जब भाजपा पर प्रहार करते हुए पूछा कि भ्रष्टाचार की नसीहत देने वाले ये कौन होते हैं, तब बरबस उनकी सास स्व. इंदिरा गांधी की याद आ गई। सत्तर के दशक में जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व की केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिर चुकी थी, तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या निरूपित कर इस महारोग को मामूली बताने की कोशिश की थी। बात इतिहास की है, दोहरा दूं। तब जब संसद व कानून भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कारगर साबित नहीं हुआ था तब एक व्यक्ति जयप्रकाश नारायण के रूप में सामने आया। सत्ता को चुनौती दी और उसके पीछे-पीछे पूरे देश की जनता सड़कों पर उतर आई। शासन ने अपनी निरंकुशता का विकृत चेहरा भी सामने लाया, जनता के दमन के लिए संविधान प्रदत्त उसके मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, जेपी सहित अनेक बड़े नेता जेलों में डाल दिए गए। हजारों बेकसूर जनता के साथ। किन्तु अतत: विजयी लोकतंत्र हुआ, जनता हुई। इंदिरा शासन जनता के हुंकार में उड़ गया था। आज सोनिया गांधी विपक्ष को भी भ्रष्ट बताकर क्या भ्रष्टाचार को शासकीय स्वीकृति प्रदान नहीं कर रही हैं? लगभग एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जांच करवाए जाने की विपक्षी मांग को अनुचित बता सरकार खारिज क्यों कर रही है? सरकार इस तथ्य को क्यों भूल जाती है कि संसद जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सर्वोच्च मंच है? संविधान ने संसद को लोकतंत्र मेें सर्वोच्च स्थान दे रखा है। फिर इसकी उपेक्षा अथवा इस पर अविश्वास क्यों? इस संदर्भ में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का आचरण भी निंदनीय है। संदिग्ध भी। स्पेक्ट्रम घोटाले पर संसद में जारी गतिरोध पर उन्होंने मौन तोड़ा तो विदेशी धरती पर! समीक्षक इसे भारतीय संसद का अपमान बता रहे हैं तो ठीक ही है। लोगबाग स्तब्ध हैं प्रधानमंत्री के उन शब्दों को लेकर जिसके द्वारा उन्होंने कहा कि वे संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। प्रधानमंत्री का यह बयान घोर आपत्तिजनक है। आखिर उनके दिमाग में चल क्या रहा है? विश्व की सर्वश्रेष्ठ-सफल भारतीय संसद प्रणाली के भविष्य पर यह कैसी चिंता? जेपीसी की विपक्षी मांग को एक सिरे से खारिज करने वाले प्रधानमंत्री जब यह दलील देते हैं कि मौजूदा संसदीय तंत्र (अर्थात् सरकार द्वारा घोषित एक सदस्यीय जांच समिति) वही कर सकता है जो जेपीसी कर सकती है तब देश उनसे जानना चाहेगा कि फिर संसदीय कार्यप्रणाली में जेपीसी का प्रावधान ही क्यों रखा गया? अगर इसकी जरूरत नहीं तब क्यों नहीं इस प्रावधान को ही हटा दिया जाए? अगर हिम्मत है तो सरकार तत्संबंधी प्रस्ताव संसद में लाए। विपक्ष की जेपीसी संबंधी मांग बिल्कुल न्यायोचित है। स्पेक्ट्रम घोटाले से संबंधित जो तथ्य उभरकर बाहर आ रहे हैं वे अत्यंत ही विस्फोटक हैं। रिश्वत व कमीशन के लेनदेन से आगे बढ़ता हुआ यह घोटाला विदेशों के लिए जासूसी से भी जुड़ चुका है। बड़े-बड़े राजनेताओं, उद्योगपतियों, पत्रकारों और नौकरशाहों की संलिप्तता सीधे-सीधे शासन को चुनौती है। प्रधानमंत्री अगर संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो बेहतर हो वे संदर्भ में परिवर्तन कर लें। हमारी संसदीय प्रणाली का भविष्य अगर संकट में है तो किसी राजदल विशेष के कारण नहीं बल्कि सत्ता मेें मौजूद भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों व दलालों के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो ऐसे भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण प्रदान किए जाने के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो सत्ता पक्ष द्वारा संसद की उपेक्षा के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो गठजोड़ की राजनीति की उस मजबूरी के कारण जहां सत्ता वासना के पक्ष में समझौते-दर-समझौते किए जा रहे हैं- नग्न हो सत्ता की देवी भ्रष्टाचार के दानवों के समक्ष समर्पित होने को मजबूर है। अगर प्रधानमंत्री व उनका दल संसदीय प्रणाली अर्थात्ï लोकतंत्र को सुरक्षित रखना चाहता है तब वह सत्ता मोह त्याग देशहित में भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों आदि के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें जेल के सीखचों के पीछे भेजे। क्या सोनिया गांधी और उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे? सत्ता का त्याग करने को तैयार होंगे ये? अगर नहीं तब फिर ये लोकतंत्र के भविष्य के प्रति चिंता का नाटक न करें। जनता स्वयं भ्रष्टों को दंडित कर लोकतंत्र को सुरक्षित, कायम रखने में सक्षम साबित होगी।

Sunday, December 12, 2010

'वॉच डॉग' की भूमिका खतरनाक कैसे?

'वॉच डॉग' की भूमिका का निर्वाह करने वाला मीडिया भला 'खतरनाक' कैसे हो सकता है? निष्ठापूर्वक अपने इन कर्तव्य का पालन-अनुसरण करने वाले मीडिया को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने खतरनाक प्रवृत्ति निरूपित कर वस्तुत: लोकतंत्र के इस चौथे पाये की भूमिका और कर्तव्य निष्ठा को कटघरे में खड़ा किया है। वैसे बिरादरी से त्वरित प्रतिक्रिया यह आई है कि चव्हाण की टिप्पणी ही वस्तुत: लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। मुख्यमंत्री चव्हाण ने मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटाले के संदर्भ में ऐसी विवादास्पद टिप्पणी की। चव्हाण के अनुसार 'मीडिया ट्रायल' के कारण ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण परेशानी में पड़े। यहां तक तो ठीक है। किन्तु इसमें 'खतरनाक' क्या है। मीडिया ने आदर्श सोसाइटी घोटाले का पर्दाफाश कर अपने कर्तव्य का ही तो निष्पादन किया। लोकतंत्र में ऐसे ही 'प्रहरी' की भूमिका मीडिया से अपेक्षित है। घोटालों-घपलों में अंतर्लिप्तता के कारण अगर कोई मुख्यमंत्री हटता है या हटाया जाता है तो इसके लिए मीडिया को पुरस्कृत किये जाने की जगह उसे 'खतरनाक' बताना अनुचित है। मीडिया ने कोई राजनीति नहीं की बल्कि नियम-कानूनों को धता बता, कारगिल के शहीदों-पीडि़त परिवारों के हक पर सामथ्र्यवानों द्वारा डाका डाले जाने की बात को सार्वजनिक किया। राजनीति तो राजनीतिक कर रहे हैं। अशोक चव्हाण ने एक और पूर्व मंत्री पर आरोप जड़ दिया कि उन्हें हटाने के लिए आदर्श के नाम की सुपारी दी गई थी। राजनीतिक राजनीति करें अपनी बला से, हमारी आपत्ति मीडिया की कर्तव्य-परायणता को खतरनाक निरूपित किये जाने पर है।
मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण सहित सभी राजनीतिक क्या इस बात से इन्कार करेंगे कि यह मीडिया ही है जो सरकार के स्तर पर हो रहे ऐसे बड़े घोटालों का पर्दाफाश कर लोकतंत्र की अपेक्षा की पूर्ति कर रहा है? मामला चाहे 50 के दशक का सिराजुद्दीन कांड हो या 70 के दशक का पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला हो, 80 के दशक का बोफोर्स-फेयर फैक्स कांड हो, 90 के दशक का सांसद रिश्वत कांड हो, बिहार का चारा घोटाला कांड हो, या फिर ताजातरीन 2-जी स्पेक्ट्रम का घोटाला हो। इन सभी पापों को अनावृत किया तो मीडिया ने ही। संसद हो या राज्य विधानसभाएं, सांसदों-विधायकों के लिए मुद्दे मीडिया ही देता आया है- लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी के रूप में। फिर इसे कटघरे में कैसे खड़ा किया गया? जिस संदर्भ में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने ऐसी टिप्पणी की है वह अत्यंत ही गंभीर है। आदर्श सोसाइटी घोटाला कांड के सिलसिलें में केंद्रीय जांच ब्यूरो नेताओं-अधिकारियों के नाम के साथ प्राथमिकी दर्ज कराने की तैयारी में है। जो तथ्य उभर कर सामने आए हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि नेताओं-अधिकारियों ने अपनी पूर्ण जानकारी में नियम-कानून की धज्जियां उडऩे दीं। फ्लैटों के वास्तविक हकदार युद्ध पीडि़तों-विधवाओं के हक पर डाका डाला गया है। इस अपराध को सार्वजनिक करने वाले मीडिया को तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए। लगता है मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण या तो विषय को समझ न पाये या फिर उन्हें गलत तथ्य उपलब्ध करवाये गये। अपनी कुशल प्रशासकीय क्षमता के लिए मशहूर मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण केंद्र में अनेक जटिल शासकीय समस्याओं को सुलझाने में सफल रहे हैं। आदर्श सोसाइटी घोटाला तो हर दृष्टि से शासकीय अकर्मण्यता व साजिश का ज्वलंत उदाहरण है। अपने साथी अशोक चव्हाण का दुख अगर उन्हें साल रहा है तो उसकी भरपाई राजनीतिक स्तर पर हो सकती है- मीडिया ट्रायल को खतरनाक निरूपित कर कदापि नहीं।

Friday, December 10, 2010

अभिव्यक्ति की यह कैसी आजादी?

अगर लोकतंत्र में वाणी स्वतंत्रता का यही अर्थ है, यही अंजाम है, यही रूप है, यही चरित्र है तो बगैर समय गंवाए इसे मौत दे दी जाए। देश को नहीं चाहिए ऐसी वाणी स्वतंत्रता। नहीं चाहिए अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी जो पूरे देश के चरित्र पर ही सवालिया निशान जड़ दे। उस भारत देश का चरित्र संदिग्ध दिखे जिसकी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति पूरे संसार के लिए आदर्श है, अनुकरणीय है।
70 के दशक में आपातकाल के दिनों में मशहूर और अब जनता पार्टी के एकल नेता सुब्रह्मïण्यम स्वामी ने गुरुवार (9 दिसंबर) को कहा कि 'कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भ्रष्टाचार की गंगोत्री हैं, विषकन्या हैं और धार्मिक ग्रंथों की ताड़का हैं' तो पूरे देश को स्वयं के चरित्र पर संदेह होने लगा। अभी कुछ ही दिनों पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक के. सुदर्शन ने जब टिप्पणी की थी कि सोनिया गांधी सीआईए एजेंट हैं और इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी की हत्या के षडय़ंत्र में वे शामिल थीं, तब भी ऐसी शंका उठी थी। अतीत में चलें तब लगभग 4 दशक पूर्व तब के एक कांग्रेसी नेता सी.एम. इब्राहिम ने टिप्पणी की थी कि इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय '....' हैं, तब भी देश स्तब्ध रह गया था। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर स्वाभाविक है। कभी सबूतों के साथ तो कभी बगैर सबूतों के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाते रहे हैं। संसद, विधान मंडलों और बाहर भी इन पर चर्चा होती है, हंगामा होता है, कभी-कभी जांच आयोग और जांच समितियां भी गठित हो जाती हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन जब मर्यादा का अतिक्रमण कर व्यक्तिगत चरित्र पर अश्लील लांछन लगाए जाते हैं तब उसे स्वीकार करना संभव नहीं। सुब्रह्मïण्यम स्वामी ऐसे ही अपराध के दोषी बन गए हैं। सोनिया गांधी को भ्रष्टाचार की गंगोत्री निरूपित करने तक को एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु उन्हें विषकन्या व ताड़का अर्थात्ï राक्षसी बताना अक्षम्य अपराध की श्रेणी का है। सुशिक्षित सुब्रह्मïण्यम स्वामी विषकन्या और ताड़का के अर्थ से अपरिचित नहीं हो सकते। यह हमारी भारतीय संस्कृति को चुनौती भी है। अगर बात भ्रष्टाचार की की जाए तब शायद सुब्रह्मïण्यम स्वामी कुछ सबूत पेश भी कर दें। लेकिन क्या वे सोनिया गांधी को विषकन्या व ताड़का साबित कर पाएंगे? शत प्रतिशत आधारहीन ऐसे आरोप को हमारी संस्कृति स्वीकार नहीं करती। फिर स्वामी ने ऐसे आरोप लगाए तो कैसे? अगर वे अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं, तो इलाज करवाया जाना चाहिए। अगर नहीं तब चुनौती है कि वे सोनिया के खिलाफ इस्तेमाल किए गए अश्लील शब्दों के औचित्य को साबित करें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तब न केवल पूरे देश से माफी मांगें, बल्कि प्रायश्चित के लिए हिमालय की किसी गुफा में चले जाएं। जब पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन अपने बयान के बाद अलग-थलग पड़ गए थे, तब उन्होंने भी क्षमा मांग ली थी। स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने उनके बयान से स्वयं को अलग कर लिया था। इंदिरा गांधी के चरित्र पर उंगली उठाने वाले इब्राहिम का मामला अवश्य विचित्र है। एक विस्मयकारी (रहस्यमय भी कह सकते हैं) निर्णय लेते हुए इंदिरा गांधी ने इब्राहिम को कांग्रेस में वापस ले लिया था। तब फुसफुसाहटों में अनेक सवाल पूछे गए थे। लेकिन इंदिरा गांधी के आभा मंडल के तेज में वे सब निस्तेज बन गए थे। वैसे सोनिया गांधी को लेकर ताजा विवाद के बीच कुछ कोनों से, दबी जुबान में ही सही, ऐसे सवाल अवश्य उभर रहे हैं कि सुदर्शन या फिर सुब्रह्मïण्यम स्वामी कोई सड़कछाप नेता तो हैं नहीं। फिर इन्होंने सड़कछाप वक्तव्य दिए तो कैसे? पड़ताल, हां पड़ताल की जरूरत है।

Tuesday, December 7, 2010

पराजय राहुल गांधी की, विजय गडकरी की !

''... कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को बिहार की जनता ने उनका असली मुकाम दिखा दिया।'' बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशीलकुमार मोदी के इन शब्दों में वैसे नया तो कुछ नहीं किन्तु भविष्य के लिए कुछ संकेत अवश्य निहीत हैं। साथ ही राजनीतिक समीक्षकों के लिए एक चुनौती भी। ध्यान रहे, जब पिछले वर्ष नागपुर के नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तब प्राय: सभी समीक्षकों ने नियुक्ति को कांग्रेस के युवा महासचिव और कांग्रेस के घोषित 'भविष्य' राहुल गांधी के मुकाबले युवा गडकरी को मैदान में उतारने की बातें कही थीं। आकलन सही भी था। तब राहुल गांधी के 'रोड शो' और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राएं सुर्खियां बन रही थीं। समाचारपत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में राहुल गांधी ही छाये हुए थे। उनके 'श्रम' की प्रशंसा करते मीडियाकर्मी थकते नहीं थे। अपवादस्वरूप कुछ वैसे अवश्य थे जो 'राहुल-श्रम' के टायं-टायं फिस्स होने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। लेकिन इनकी संख्या नगण्य थी। जब बिहार चुनाव की घोषणा हुई तब समीक्षकों ने राहुल और गडकरी दोनों के लिए इसे अग्नि परीक्षा निरूपित कर डाला था। राहुल गांधी के पक्ष में जहां कहा गया था कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करेगी, परिणाम के बाद वह 'किंगमेकर' की भूमिका में रहेगी, वहीं गडकरी के लिए कहा गया था कि भाजपा के लिए सीटें कम होंगी और तब दिल्ली की चौकड़ी उन पर नए सिरे से प्रहार शुरू कर देगी। बिहार चुनाव को वस्तुत: राहुल बनाम गडकरी के रूप में प्रचारित किया गया। अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला चुनाव गडकरी के लिए सचमुच अग्नि परीक्षा ही था। विफलता की हालत में अपने हश्र से वे अच्छी तरह परिचित थे। अपनी सांगठनिक कुशलता के लिए विख्यात गडकरी ने अपने ढंग से जंग की रणनीति तैयार की, उसे क्रियान्वित किया। परिणाम आने के बाद न केवल कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया, बल्कि राहुल गांधी के कथित करिश्मे का भी पर्दाफाश हो गया। औंधे मुंह गिरे वे। देहातों में लोगों ने टिप्पणी की कि ''राहुल को गडकरी ने धोबिया पछाड़ दे डाला।'' स्वयं भाजपा के अनेक बड़े नेता बगले झांकने लगे। ऐसे अप्रत्याशित परिणाम की कल्पना उन्होंने नहीं की थी। लेकिन गडकरी की सफल रणनीति ने सभी के मुंह पर ताला जड़ दिया। आश्चर्यजनक रूप से मीडिया के उन समीक्षकों को भी लकवा मार गया जिन्होंने चुनाव को राहुल बनाम गडकरी निरूपित किया था। सत्ता के पक्ष में भौं-भौं कर अपने लिए कुछ सुनिश्चित करने का मीडिया चरित्र एक बार फिर कलंक के रूप में सामने आया। जब युद्ध राहुल बनाम गडकरी था तब परिणाम के बाद राहुल की पराजय पर परदा डाल उनका बचाव क्यों किया गया? साफ है कि चुनाव में राहुल को एक सिरे से बिहार की जनता ने नकार दिया। उनके 'रोड शो' के तमाशे से वहां की जनता प्रभावित नहीं हुई। गरीबों के घरों में जाकर भोजन-भजन को नौटंकी से ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। राहुल और कांग्रेस के लिए यह एक ऐसी सीख है जिसे शायद वे भूल नहीं पाएंगे। राजनीतिक समीक्षको के गालों पर भी परिणाम एक तमाचे के रूप में आया है। अगर समीक्षक अपने शब्दों के प्रति ईमानदार हैं तब उन्हें देश को यह बताना चाहिए कि मतदाता ने राहुल गांधी की जगह नितिन गडकरी को स्वीकार किया है। गडकरी की घोषित 'विकास की राजनीति' पर मतदाता ने मुहर लगाई है। जाति, वर्ग, धर्म से पृथक गडकरी के शब्दों पर विश्वास किया गया। इसे कोई अतिरंजना के रूप में न ले। बिहार की धरती का यह सच एक बार फिर उजागर हुआ कि जब वहां की जनता करवट लेती है तब वह पूरे देश के लिए आदर्श को स्थापित करती है। अगर कांग्रेस और राहुल गांधी ने जमीनी हकीकत से पुन: हाथ झटकने की कोशिश की तो आज इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है कि आने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव में भी 'बिहार-परिणाम' दोहराया जाएगा। राहुल गांधी के सलाहकार सच को स्वीकार कर रणनीति बनाएं। आज देश का मतदाता परिपक्व हो चला है। वह किसी 'हवा' के साथ चल मतदान नहीं करता। नई पीढ़ी जात-पात-धर्म से दूर विकास देखना चाहती है। बिहार में यह सिद्ध भी हो गया। जातीयता के ज्वर से अब तक पीडि़त बिहार ने ठंडे पानी से स्वयं को धो डाला है। विकास की रोशनी देख उसने स्वयं के लिए विकास की राजनीति को अंगीकार किया है। राहुल गांधी और कांग्रेस की विडंबना यह है कि वे चाटुकारिता की संस्कृति का त्याग नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन भविष्य का उनका नेता गलत सलाह और नीति के कारण बिहार में औंधे मुंह गिर चित हो गया। जंग में विजयी नितिन गडकरी रहे।

Friday, December 3, 2010

शासक के लिए जरूरी है 'हार्ट', 'हेड', 'टंग'!

असंवेदनशीलता और संस्कृति की अवमानना की पराकाष्ठा की इस नई जानकारी पर पूरा भारत देश शर्मिंदा है। दुख के क्षणों में संवेदना और सहानुभूति की एक विशिष्ट परंपरा भारतीय संस्कृति में समाहित है। कठोर हृदय भी ऐसे अवसरों पर मोम बन द्रवित हो जाता है। शैतान मनमस्तिष्क धारक भी तब मौन रहता है। फिर स्वयं को देश का अभिभावक दल बताने वाली कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी इतनी निर्मम-कठोर-असवंदेनशील कैसे? ताजा जानकारी हृदयभेदी है।
आंध्रप्रदेश के विद्रोही कांग्रेसी सांसद जगनमोहन रेड्डी ने जिन परिस्थितियों में कांग्रेस का त्याग किया उससे सोनिया गांधी का एक नया चेहरा सामने आया है। मानव का मानव के प्रति कठोरता व संवेदनशून्यता का यह मामला एक राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। जगन के पिताजी वाई.एस. राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के सर्वमान्य, सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात उनके गांव में अनेक लोग इतने शोकाकुल हुए कि उन्होंने अपने प्राण दे दिए, आत्महत्या कर ली थी उन लोगों ने! जगन ने तब उस गांव की यात्रा कर मृतकों के आत्मजनों से मिलने का निर्णय लिया था। बहुप्रचारित ''ओदरपू'' यात्रा की योजना तभी बनी थी। पता नहीं क्या कारण थे जो सोनिया गांधी ने जगन को यात्रा से मना कर दिया। कांग्रेस की ओर से साफ-साफ कह दिया गया कि जगन यात्रा पर नहीं जा सकता। चंूकि जगन ने मृतकों के परिवारों से वादा किया था, वे अड़े रहे। अपनी मां को लेकर जगन सोनिया गांधी से मिले। उनकी मां विजयालक्ष्मी ने गिड़गिड़ति हुए सोनिया गांधी से विनती की कि 'पिता की आत्मा की शांति' के लिए जगन को यात्रा की अनुमति प्रदान करें। सोनिया की त्वरित प्रतिक्रिया विस्मयकारी थी। जगन की मां की गिड़गिड़ाहट पर भी वे ने केवल अडिग रहीं बल्कि उपेक्षा व अपमान की मुद्रा में टिप्पणी कर बैठीं कि ''सो वॉट?'' (तो क्या?) क्या कोई संवेदनशील भारतीय नारी किसी मृतात्मा के संदर्भ में ऐसी अपमानजनक टिप्पणी कर सकती है? और मृतात्मा कौन? उन्हीं की कांग्रेस पार्टी का मुख्यमंत्री! कहते हैं तब जगन की मां रो पड़ी थीं। सोनिया का दिल फिर भी नहीं पिघला। मां की गिड़गिड़ाहट तथा रूदन को देख जगन ने तभी पार्टी छोडऩे का मन बना लिया था! क्या सोनिया गांधी का आचरण महान भारतीय संस्कृति-सभ्यता के विपरीत नहीं? सोनिया गांधी निश्चय ही इस बिंदु पर भारत और भारतीयता की अपराधी बन जाती हैं। मैं यहां जगनमोहन रेड्डी की पैरवी नहीं कर रहा। सोनिया गांधी की असंवेदनशीलता से आहत मेरा मन पाठकों के साथ पीड़ा बांटने को मजबूर है। राज और राजनीति से दूर मन इस टिप्पणी के लिए भी बाध्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अब 'भारतीय' नहीं रह गई है! अन्यथा हिंदुस्तानी कांग्रेस की हिन्दुस्तानी संस्कृति सोनिया गांधी को एक 'दुखी विधवा', उसके पुत्र की भावना और मृतात्मा का उपहास उड़ाने की इजाजत नहीं देती।
ऐसी घटनाएं अंतत: आत्मघाती सिद्ध होती हैं। इस संदर्भ में एक उदाहरण... 60 के दशक में बिहार में कृष्णवल्लभ सहाय नाम के एक दबंग मुख्यमंत्री हुआ करते थे? वे हमेशा कहा करते थे कि एक शासक में तीन चीजों का होना जरूरी है - 'हार्ट' (दिल), 'हेड' (मस्तिष्क) व 'टंग' (जुबान)। विडंबना यह कि इनमें से एक 'जुबान' ने ही सहाय की ही नहीं बल्कि कांग्रेस की भी गद्दी छीन ली थी। बिहार सरकार के अराजपात्रित कर्मचारी हड़ताल पर थे। हड़ताली कर्मचारियों ने सचिवालय जा रहे मुख्यमंत्री सहाय का घेराव कर पूछा कि, ''आप हमारी मांगों की पूर्ति क्यों नहीं करते? हमारे बच्चे तब क्या करेंगे?'' क्रोधित सहाय ने तब चिल्लाकर जवाब दिया था कि, ''उनसे (बच्चों से) मूंगफलियां बिकवाओ!'' आग की तरह फैली सहाय की उस टिप्पणी से बिहारवासी स्तब्ध रह गए थे। उसके बाद हुए आम चुनाव (1967) में पराजित होकर कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। कृष्णवल्लभ सहाय स्वयं भी चुनाव हार गए थे। उन्होंने बाद में स्वीकार किया कि उनके पास
'हार्ट' और 'हेड' तो है किंतु 'टंग' नहीं! नतीजतन जनता ने उन्हें रास्ता दिखा दिया। बदजुबानी की ऐसी परिणति हर काल में चिन्हित होती रही है- कांग्रेस और सोनिया गांधी इसे याद रखें!

Thursday, December 2, 2010

भ्रष्ट को तोहफा, भ्रष्टाचार को संरक्षण!

क्षमा करेंगे। एक 'कमजोर व दबाव में काम करने वाले प्रधानमंत्री' की अपनी छवि से निजात पाना तो दूर, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसे बार-बार मोटे अक्षरों में लिख स्वयं ही चिन्हित कर रहे हैं। अब तक कुख्यात हो चुके 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेल घोटालों में अपनी संलिप्तता को अनावृत कर चुके प्रधानमंत्री केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर एक दागदार अधिकारी पी.जे. थॉमस की नियुक्ति और बाद में उनके बचाव के कारण पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र सदमे में है। थामस का ताजा मामला लोकतंत्र व संविधान के रक्षकों, संसद व न्यायपालिका के गालों पर तमाचे मार रहा है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मामले में भी अपनी संदिग्ध भूमिका से इन्कार कर पाएंगे? तर्कसंगत शब्दों के सहारे तो कदापि नहीं। कुतर्क या झूठ की बात कुछ और है। लेकिन अंतत: ये अपने मुंह के बल ही गिरते हैं। भारत के सतर्कता आयुक्त के पद पर नियुक्ति से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को मानते हुए केंद्र सरकार ने लोकतांत्रिक भावना का आदर करते हुए एक स्वस्थ प्रक्रिया अपनाई थी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और नेता विपक्ष की समिति को नियुक्ति की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस प्रक्रिया को सम्मान दिया गया। किन्तु थॉमस के मामले में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की बिल्कुल जायज आपत्ति को नजरअंदाज कर नियुक्ति कर दी गई। थॉमस के दागदार पाश्र्व के आलोक में सुषमा ने थॉमस की नियुक्ति के खिलाफ मंतव्य दिया था। भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोप में जमानत पर चल रहे थॉमस जैसे व्यक्ति को भला भारत का सतर्कता आयुक्त नियुक्त कैसे किया जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति पर सवालिया निशान जड़ते बिल्कुल सही टिप्पणी की थी कि जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हों वह दूसरों के भ्रष्टाचार की जांच कैसे कर सकता है? साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने थॉमस की पात्रता को अयोग्य घोषित कर दिया। इसके बावजूद अगर थॉमस पद पर बरकरार हैं तब निश्चय ही पूरा का पूरा मामला एक महाघोटाले की चुगली कर रहा है। आखिर वह कौन सी मजबूरी है जिसके दबाव में प्रधानमंत्री थॉमस को हटा नहीं पा रहे हैं? सर्वोच्च न्यायालय के मंतव्य की उपेक्षा और नियुक्ति पैनल की सदस्य नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की आपत्ति को दरकिनार कर भ्रष्ट पी.जे. थॉमस को पुरस्कृत करना निश्चय ही भ्रष्टाचार को संरक्षण प्रदान करना माना जाएगा। चाहे कोई कितना भी इन्कार कर ले, प्रधानमंत्री किसी दबाव में हैं अवश्य। क्या यह बताने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री पर दबाव कौन बना सकता है? यह एक अत्यंत ही खतरनाक घटना विकासक्रम है। पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र आज दांव पर लगाया जा रहा है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि सत्तर के दशक के आरंभ में जब लोकतांत्रिक संस्थाओं को दबाने और अवमूल्यन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी तब परिणति स्वरूप ही देश में आंतरिक आपातकाल लगा। संवैधानिक संस्थाएं तक कैद हो बिलखने को मजबूर थीं। अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित नागरिक दूसरी गुलामी की जिंदगी जीने को बाध्य थे। वह तो भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव थी जिसने लोकतंत्र को पुनर्जीवित कर दिया था। आज संसद और न्यायपालिका के अवमूल्यन का प्रयास अगर हो रहा है तो इस प्रवृत्ति को तुरंत दफना दें। पी.जे. थॉमस की यह घोषणा कि वे पद पर कायम हैं, लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रही है। और केंद्र सरकार का यह निर्णय कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच की निगरानी से केंद्रीय सतर्कता आयुक्त थॉमस दूर रहेंगे, कमजोर प्रधानमंत्री और कमजोर सरकार के आरोप को ही सही ठहरा रहा है। बेहतर हो थॉमस को तुरंत हटा दिया जाए अन्यथा देश का मजबूत लोकतंत्र जब अंगड़ाई लेगा तब एक बार फिर इतिहास दोहराया जाएगा। भारत देश भ्रष्ट को पुरस्कृत किए जाने और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के कृत्य को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।

Wednesday, December 1, 2010

तब विदर्भ 'भिखारी' नहीं रहेगा!

हर दृष्टि से, जी हां, हर दृष्टि से समृद्ध, सक्षम विदर्भ भिखारी क्यों बना रहे? चुनौती है विदर्भवीरों को कि वे विदर्भ को सदैव भिखारी बना रखने की चाल को निरस्त्र कर दें। हमें 'भिखारी' का विशेषण स्वीकार्य नहीं। अगर 'अखंड महाराष्ट्र' किसी का धर्म है तो स्वाभिमान विदर्भ की अस्मिता। इस पर कोई समझौता नहीं। मैं यहां न तो अलगाववाद को हवा दे रहा हूं, और न ही पृथक विदर्भ की जायज मांग को उठा रहा हूं। मैं चर्चा कर रहा हूं उस राजनीति की जिसने छल-प्रपंच से विदर्भ को पराश्रित बना रखा है। अपेक्षित विकास से इस क्षेत्र को दूर कर रखा है। किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है। और प्रत्येक वर्ष सर्दियों में विधानमंडल के मंच से विदर्भ को आश्वासनों का झुनझुना थमाया जाता रहा है। क्या कभी इन व्याधियों की निरंतरता पर पूर्णविराम लग सकेगा? भारतीय जनता पार्टी के तेजतर्रार युवा विधायक देवेन्द्र फडणवीस ने जब विधानसभा में टिप्पणी की थी कि विदर्भवासियों के साथ महाराष्ट्र में भिखारियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है, तब निरीह विदर्भ रो पड़ा था। प्रतिक्रियास्वरूप पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में सभी एकमत हुए थे। अपवादस्वरूप कुछ को छोड़ पक्ष-विपक्ष दोनों के तरफ से स्वतंत्र विदर्भ राज्य के पक्ष में आवाजें उठी थीं। विकास के क्षेत्र में उपेक्षा और अन्याय से क्षुब्ध विदर्भवासी पूछने लगे कि तब हम महाराष्ट्र के साथ रहें तो क्यों? रेखांकित कर दूं कि पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में इस सोच को हवा मिली तो विदर्भ के प्रति राज्य सरकार की सौतेजी नीति के कारण! आज भी ऐसा ही हो रहा है। हवा रुकी नहीं, चल ही रही है! जब नागपुर करार के तहत विधानमंडल के नागपुर अधिवेशन की चर्चा करते हैं तब मजबूरी और छलावा जैसे शब्द अधिवेशन का मजाक उड़ाते दिखते हैं। मुंबई से नागपुर पहुंची सरकार आगमन के साथ ही प्रस्थान की तैयारियों में जुट जाती है। अधिवेशन की औपचारिकता को मजबूरी माननेवाले असहज विधायक, मंत्री व सरकारी कर्मचारी अधिवेशन के प्रति अपनी अगंभीरता छुपाने की कोशिश भी नहीं करते। विदर्भ के विधायकों की मांगों पर सहानुभूति प्रदर्शित कर सरकार आश्वासनों की झड़ी तो लगा देती है, किंतु दस्तावेज गवाह हैं कि व्यवहार के स्तर पर न तो घोषित आश्वासनों की पूर्ति हो पाती है और न ही विकास के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति! विदर्भ विकास के प्रति यह सरकारी उदासीनता ही है जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही है। ऐसी आत्महत्याओं में निहीत कारणों की जानकारी के बावजूद सरकार की उदासीनता आश्चर्यजनक है। राज्य के बाहर स्तंभित समीक्षक इस सवाल का हल ढूंढते रहते हैं कि आर्थिक रूप से दमित उत्तर भारत के किसान तो आत्महत्या नहीं करते फिर मजबूत आर्थिक आधार वाले महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या के लिए मजबूर क्यों हो जाते हैं? महाराष्ट्र सरकार के नीति नियामकों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए। क्योंकि किसान आत्महत्या के संदर्भ में विदर्भ की जमीनी सचाई से ये अच्छी तरह परिचित हैं। सिंचाई सुविधा, नगदी फसल की प्राथमिकता, इनके लिए आवश्यक जलस्रोतों का पिछले कुछ दशकों में क्षरण, वैकल्पिक फसलों के प्रति उदासीनता, अर्थव्यवस्था में किसानों की भूमिका का अभाव, वेतनभोगी वर्ग का प्रादुर्भाव और क्षेत्र का जीवनस्तर आदि पहलुओं का ईमानदार विश्लेषण वास्तविकता को सामने ला देगा। क्षेत्र के लिए कृषि संबंधी योजना बनाते वक्त अगर इन बातों का ध्यान रखा जाए तब क्षेत्र का न केवल अपेक्षित उल्लेखनीय विकास होगा बल्कि किसान आत्महत्या पर भी पूर्णविराम लग जाएगा। शर्त यह कि राज्य सरकार ईमानदारी से विदर्भ विकास के पक्ष में योजनाएं बनाये, धनराशि मुहैया कराए और कड़ाई से उन्हें क्रियान्वित करे। क्या विदर्भवासी अपेक्षा करें कि चालू विधानमंडल अधिवेशन के दौरान सरकार की ओर से ऐसी पहल की जाएगी? 'हां' की हालत में तब डंके की चोट पर ऐसी मुनादी की जा सकेगी कि विदर्भ कभी भिखारी नहीं बनेगा।