उत्तराखंड में उठा राजनीतिक बवंडर हरीश रावत द्वारा शक्ति परीक्षण में विजय हासिल करने के साथ ही शांत तो हो गया किंतु यक्ष प्रश्न अभी भी अपने विकराल रूप में मौजूद है कि क्या वहां हुई लोकतंत्र की हत्या का 'पाप' धुल गया? चूंकि प्रदेश में तब थोपे गए राष्ट्रपति शासन को स्वयं उच्च न्यायालय ने अलोकतांत्रिक करार देते हुए टिप्पणी की थी कि राष्ट्रपति शासन वस्तुत: लोकतंत्र की हत्या का पाप है, भारत का लोकतंत्र अपने हत्यारे की पहचान भी जरूर चाहेगा। जनधारणा भी यही है। किसी भी निर्वाचित सरकार को आपत्तिजनक हथकंडे अपना बर्खास्त कर दिया जाना निश्चय ही जनादेश का अपमान और लोकतंत्र के गालों पर तमाचा है। नैनीताल उच्च न्यायालय ने इसे हत्या निरूपित किया था तो कुछ गलत नहीं।
अब जबकि कांग्रेस के हरीश रावत सर्वोच्च न्यायलय के आदेशानुसार बहुमत साबित कर पुन: सत्तासीन हो गए हैं, सवाल तो बरकरार ही रहेगा कि क्या हत्या के दोषी की पहचान कर उसे दंडित किया जाएगा? प्रश्न स्वाभाविक है, किंतु उत्तर अधर में ही रहेगा। यह हमारे लोकतंत्र का एक स्याह पहलू है कि विभिन्न राजदल अपने शासनकाल में संविधान की धारा 356 का कथित उपयोग अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु करते रहे हैं। केंद्र व राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के साथ यह प्रवृत्ति बढ़ती चली गई। केंद्र में सत्तारूढ़ शासकदल में एकाधिकार की इच्छा ने भी इस प्रवृत्ति को शक्ति प्रदान की है। दुर्भाग्यवश लोकतंत्र विरोधी इस प्रवृत्ति को सींचित किया लोकतांत्रिक राजदलों ने ही। लोकतंत्र के कथित पहरुओं ने लोकतंत्र विरोधी ऐसे हथकंडों को मजबूत किया।
सर्वाधिक दुखद पहलू तो यह कि संविधान की धारा 356 का पहला दुरुपयोग किसी और ने नहीं लोकतंत्र के एक प्रतीक प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही किया था। तब पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव के बहुमत की सरकार को केंद्र सरकार ने सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया था कि प्रधानमंत्री नेहरू मुख्यमंत्री भार्गव से किसी कारणवश नाराज थे। पुन: 1954 में नेहरू सरकार ने ही आंध्र प्रदेश की निर्वाचित बहुमत की सरकार को इस शंका के आधार पर बर्खास्त कर दिया था कि वहां 'कम्युनिस्ट' के अवतरण का भय पैदा हो गया था। फिर 1959 में केरल की निर्वाचित 'कम्युनिस्ट' सरकार भी केंद्र की नाखुशी के कारण बर्खास्त कर दी गई थी। कहने का तात्पर्य यह कि संविधान की धारा 356 के दुरुपयोग की कहानी पुरानी है। नंगा दुरुपयोग 1977 और 1980 में हुआ। तब जनता पार्टी और कांग्रेस ने केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद दूसरे दलों की राज्य सरकारों को बगैर किसी पर्याप्त कारण के बर्खास्त कर दिया था। एक संवैधानिक प्रावधान के साथ ऐसी घटनाएं अनाचार की हैं।
उत्तराखंड के मामले में चूंकि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के पक्ष में तीखी टिप्पणियां की हैं और केंद्र सरकार का दोहरा चरित्र सामने आया है, जरूरी है कि पूरा देश इस पर वैचारिक मंथन करे। लोकतंत्र में जनता की पसंद पर सरकारें आती हैं, जाती हैं। बहुदलीय लोकतंत्र का यह एक सुखद पहलू है कि देश की जनता जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप केंद्र व विभिन्न राज्यों में अलग-अलग दलों को सत्ता सौंपती रही है। ऐसे जनादेश देश के संघीय ढांचे की मजबूती को मोटी रेखाओं से चिन्हित करते रहे हैं। केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप परस्पर सहयोगात्मक संबंधों की जरूरतें बार-बार चिन्हित हुई हैं।
दुखद है कि केंद्र की वर्तमान भाजपा सरकार पर हाल के दिनों में आरोप लगे हैं कि वह येन-केन प्रकारेण गैर भाजपाई राज्य सरकारों को अपदस्थ करना चाहती है। अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में ऐसी कोशिश हुई। यह तो हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा निर्धारित प्रावधान हैं जिस कारण लोकतंत्र के रक्षार्थ न्यायपालिका दूध का दूध और पानी का पानी कर देती है। उत्तराखंड के मामले में भी राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति की दिशा में उठाए गए केंद्र सरकार के अनैतिक कदम को न्यायपालिका ने रोक दिया। इस प्रक्रिया में न्यायपालिका ने जो कठोर टिप्पणियां की है उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। राजनीति में स्वच्छता और शुचिता की पक्षधर भारतीय जनता पार्टी से अपेक्षा है कि वह न्यायपालिका की टिप्पणियों को सकारात्मक रूप में ग्रहण करते हुए संशोधनात्मक प्रयास शुरु करे। लोकतंत्र के सभी पायों को मजबूती प्रदान करना निर्वाचित सरकार का दायित्व होता है। उत्तराखंड के बहाने भाजपा की केंद्र सरकार समुचित कदम उठाकर यह सुनिश्चित करे कि लोकतंत्र में लोकभावना का आदर करते हुए किसी भी निर्वाचित सरकार को षड्यंत्रवश अपदस्थ करने की कोशिश नहीं की जाएगी।
अब जबकि कांग्रेस के हरीश रावत सर्वोच्च न्यायलय के आदेशानुसार बहुमत साबित कर पुन: सत्तासीन हो गए हैं, सवाल तो बरकरार ही रहेगा कि क्या हत्या के दोषी की पहचान कर उसे दंडित किया जाएगा? प्रश्न स्वाभाविक है, किंतु उत्तर अधर में ही रहेगा। यह हमारे लोकतंत्र का एक स्याह पहलू है कि विभिन्न राजदल अपने शासनकाल में संविधान की धारा 356 का कथित उपयोग अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु करते रहे हैं। केंद्र व राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के साथ यह प्रवृत्ति बढ़ती चली गई। केंद्र में सत्तारूढ़ शासकदल में एकाधिकार की इच्छा ने भी इस प्रवृत्ति को शक्ति प्रदान की है। दुर्भाग्यवश लोकतंत्र विरोधी इस प्रवृत्ति को सींचित किया लोकतांत्रिक राजदलों ने ही। लोकतंत्र के कथित पहरुओं ने लोकतंत्र विरोधी ऐसे हथकंडों को मजबूत किया।
सर्वाधिक दुखद पहलू तो यह कि संविधान की धारा 356 का पहला दुरुपयोग किसी और ने नहीं लोकतंत्र के एक प्रतीक प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही किया था। तब पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव के बहुमत की सरकार को केंद्र सरकार ने सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया था कि प्रधानमंत्री नेहरू मुख्यमंत्री भार्गव से किसी कारणवश नाराज थे। पुन: 1954 में नेहरू सरकार ने ही आंध्र प्रदेश की निर्वाचित बहुमत की सरकार को इस शंका के आधार पर बर्खास्त कर दिया था कि वहां 'कम्युनिस्ट' के अवतरण का भय पैदा हो गया था। फिर 1959 में केरल की निर्वाचित 'कम्युनिस्ट' सरकार भी केंद्र की नाखुशी के कारण बर्खास्त कर दी गई थी। कहने का तात्पर्य यह कि संविधान की धारा 356 के दुरुपयोग की कहानी पुरानी है। नंगा दुरुपयोग 1977 और 1980 में हुआ। तब जनता पार्टी और कांग्रेस ने केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद दूसरे दलों की राज्य सरकारों को बगैर किसी पर्याप्त कारण के बर्खास्त कर दिया था। एक संवैधानिक प्रावधान के साथ ऐसी घटनाएं अनाचार की हैं।
उत्तराखंड के मामले में चूंकि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के पक्ष में तीखी टिप्पणियां की हैं और केंद्र सरकार का दोहरा चरित्र सामने आया है, जरूरी है कि पूरा देश इस पर वैचारिक मंथन करे। लोकतंत्र में जनता की पसंद पर सरकारें आती हैं, जाती हैं। बहुदलीय लोकतंत्र का यह एक सुखद पहलू है कि देश की जनता जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप केंद्र व विभिन्न राज्यों में अलग-अलग दलों को सत्ता सौंपती रही है। ऐसे जनादेश देश के संघीय ढांचे की मजबूती को मोटी रेखाओं से चिन्हित करते रहे हैं। केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप परस्पर सहयोगात्मक संबंधों की जरूरतें बार-बार चिन्हित हुई हैं।
दुखद है कि केंद्र की वर्तमान भाजपा सरकार पर हाल के दिनों में आरोप लगे हैं कि वह येन-केन प्रकारेण गैर भाजपाई राज्य सरकारों को अपदस्थ करना चाहती है। अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में ऐसी कोशिश हुई। यह तो हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा निर्धारित प्रावधान हैं जिस कारण लोकतंत्र के रक्षार्थ न्यायपालिका दूध का दूध और पानी का पानी कर देती है। उत्तराखंड के मामले में भी राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति की दिशा में उठाए गए केंद्र सरकार के अनैतिक कदम को न्यायपालिका ने रोक दिया। इस प्रक्रिया में न्यायपालिका ने जो कठोर टिप्पणियां की है उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। राजनीति में स्वच्छता और शुचिता की पक्षधर भारतीय जनता पार्टी से अपेक्षा है कि वह न्यायपालिका की टिप्पणियों को सकारात्मक रूप में ग्रहण करते हुए संशोधनात्मक प्रयास शुरु करे। लोकतंत्र के सभी पायों को मजबूती प्रदान करना निर्वाचित सरकार का दायित्व होता है। उत्तराखंड के बहाने भाजपा की केंद्र सरकार समुचित कदम उठाकर यह सुनिश्चित करे कि लोकतंत्र में लोकभावना का आदर करते हुए किसी भी निर्वाचित सरकार को षड्यंत्रवश अपदस्थ करने की कोशिश नहीं की जाएगी।
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