'विदर्भ वीर' जांबुवंतराव धोटे की कड़ी में अगर श्रीहरी अणे को विदर्भ के 'महानायक' के रूप में देखा जा रहा है, तो स्वाभाविक प्रश्न यह है कि क्या हश्र भी समान होगा? इस बिंदू पर हम स्पष्ट कर दें कि हम पृथक विदर्भ राज्य के निर्माण के पक्षधर हैं और रहेंगे। शत प्रतिशत जायज इस मांग के विरोधियों का विरोध भी करते रहेंगे, लेकिन पृथक विदर्भ राज्य के नए आंदोलन की हिंसक शुरूवात पर हमारी धारणा पृथक है।
महाराष्ट्र के पूर्व महाधिवक्ता श्रीहरी अणे जो कि स्वयं एक विधितज्ञ हैं, उन्हें आक्रामकता, उग्रता और हिंसा के बीच के फर्क की जानकारी अवश्य होगी। आक्रमक अथवा उग्र आंदोलन के मध्य अचानक उत्पन्न हिंसा को स्वभाविक परीणति में लिया जा सकता है। ऐसे आंदोलनों के साथ ऐसी परीणति के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। किंतु ऐलानिया हिंसक आंदोलन कानून और नैतिकता दोनों रूप से गलत है। सभ्य शिक्षित समाज में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। हिंसक आंदोलन का आह्वान कर श्रीहरी अणे चूक कर बैठे। विदर्भ के कण-कण से अच्छी तरह परिचित श्रीहरी अणे को आंदोलन के इतिहास से अज्ञानता पर चुनौती नहीं दी जा सकती। श्री धोटे के नेतृत्व में तब के उग्र आंदोलन और उसके बाद समय-समय पर प्रस्फुटित चिंगारियों से भी श्रीहरी अणे अच्छी तरह वाकिफ होंगे। ऐसे आंदोलनों के अवसरवादी नेतृत्व की जानकारी श्री अणे को अवश्य होगी। वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की महाराष्ट्र सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पर वादाखिलाफी का आरोप लगाने वाले श्री अणे को पिछली सरकारों की भूमिका की जानकारी होगी। कांग्रेस ने अपने लंबे शासनकाल के दौरान विदर्भ राज के निर्माण के लिए कभी गंभीर कदम नहीं उठाए। सत्ता से बाहर होने के बाद उनके नेताओं को पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाते देखा गया है। कांग्रेसी सांसद, विधायक व अन्य नेता जब वे सत्ता में नहीं होते पृथ्क विदर्भ के पक्ष में मुखर हो जाते हैं। जाहिर है विपक्ष में रहकर वे स्वयं को राजनीतिक रूप से जीवित रखने के लिए कथित विदर्भ आंदोलन का सहारा लेते हैं। भारतीय जनता पार्टी पर भी आरोप गलत नहीं हैं। दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि विपक्ष में रहते उन्होंने हमेशा पृथक विदर्भ के पक्ष में मत व्यक्त किए हैं। अब, जबकि उनकी पार्टी की सरकार है, उनके मुख्यमंत्री हैं, तब स्वाभाविक रूप से 'विदर्भ' एक राज्य के रूप में अपने पृथक अस्तित्व के प्रति आशान्वित होगा। लेकिन इस बिंदू पर भाजपा की अपनी राजनीतिक मजबूरियां भी हैं। 1995 की तरह इस बार भी प्रदेश में गठबंधन की सरकार है। तब नेतृत्व शिवसेना के हाथ में था और अब भाजपा के हाथों में। सर्वविदित है कि संयुक्त महाराष्ट्र की पक्षघर शिवसेना विदर्भ राज्य के निर्माण की वरोधी है। अपने अस्तित्व के रक्षार्थ, वर्तमान भाजपा नेतृत्व की गठबंधन की सरकार पृथक विदर्भ के लिए एकतरफा फैसला नहीं कर सकती। इस कड़वे यथार्थ की मौजूदगी में, पृथक विदर्भ राज्य का निर्माण कैसे संभव होगा? आंदोलन का नया नेतृत्व अगर 'हिंसक दबाव' के जरिए विदर्भ हासिल करने की सोच रहा है तो यह उसकी भूल है। प्रभावी दबाव के लिए व्यापक जनसमर्थन आवश्यक है। बेहतर हो विदर्भवादी नेता पहले ऐसे व्यापक जनसमर्थन को सुनिश्चित करें। एक ऐसे वातावरण, हिंसक नहीं, का निर्माण किया जाए जिससे यह संदेश निकले कि विदर्भ का बहुमत पृथक विदर्भ राज्य का आग्रही है। ऐसा सिर्फ कुछ नेताओं के जुबान से नहीं, प्रत्येक विदर्भ वासियों की जुबान से निकलना चाहिए। विदर्भवादी नेता पहल करें! इस हेतु मात्र मीडिया में सुर्खियां बटोर कर विदर्भ हासिल नहीं किया जा सकता। विदर्भ के दिल को टटोलें। सुनिश्चित करें कि उन दिलों से ईमानदारी पूर्वक प्रस्फुटित हो ''वेगळा विदर्भ पाहिजे''!
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