कोई तर्क-वितर्क, कुतर्कनहीं ! जिस प्रकार प्रकृति अपने साथ छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती, उसी प्रकार इतिहास भी स्वयं के साथ छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करता। देश समाज के विभिन्न कालखंडों में हर विधा के क्रियाकलापों, घटनाओं का प्रमाणित दस्तावेज होता है इतिहास। इतिहास से छेड़छाड़ का सीधा अर्थ होता है सचाई अथवा यथार्थ के साथ छेड़छाड़। इतिहास का विस्तार तो स्वभाविक है, किन्तु इतिहास में परिवर्तन बाध्यकारी परिस्थितियों में अपवाद स्वरूप ही हो सकते हैं। सत्ता परिवर्तन अथवा वैचारिक मतभेद के आधार पर इतिहास में परिवर्तन अपराध है। देश व समाज के साथ छल करने वाले ऐसे कदमों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इतिहास एक ऐसा दस्तावेज होता है जो बगैर कांट-छांट, संशोधन के घटनाओं और व्यक्तियों को प्रस्तुत करता है। ऐसी घटनाओं और व्यक्तियों की समीक्षा व आकलन का कार्य देश स्वयं करता है। शोधकर्ता तथ्यों के आधार पर विश्लेषण करते हैं और निष्कर्ष से समाज को अवगत कराते हैं। ऐसे निष्पादन न किसी पूर्वाग्रह से और न ही किसी राजनीति अथवा विचारधारा से प्रभावित होते हैं। सिर्फ यथार्थ की तटस्थ व निष्पक्ष प्रस्तुति होती है ऐसे विश्लेषणों से।
खबर मर्माहत करने वाली है कि राजस्थान की स्कूली पाठ्यपुस्तकों से देश के प्रथम प्रधानमंत्री, स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम नेताओं में से एक पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम हटा दिया गया है। अर्थात स्कूली छात्रों को इस जानकारी से वंचित कर दिया गया है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री कौन थे? यही नहीं, छात्र अब उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में भी नहीं जान पाएंगे। जबकि पं. नेहरू उन अग्रज नेताओं में रहे हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्त कराने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। जिस पं. नेहरु का नाम इतिहास में अन्य महान विभूतियों के साथ स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, उस नाम को इतिहास से हटाने का मकसद राजनीति और सिर्फ राजनीति ही हो सकती है। सच पर झूठ का ऐसा मुलम्मा! कोई राजनीति नहीं, कोई दुराग्रह नहीं, मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि इस 'पाप’ को अंजाम देने वाले राष्ट्रभक्त तो नहीं ही हो सकते। मैं व्यक्तिगत रूप से पं. नेहरूकी अनेक नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता, बल्कि अनेक मामलों में देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए उनकी कतिपय नीतियों को दोषी मानता हूं। मामला कश्मीर का हो, तिब्बत का हो या फिर 1962 के चीनी आक्रमण का हो, पं. नेहरू की गलत नीतियों व निर्णयों के कारण भारत को शर्मिंदा होना पड़ा। बावजूद इसके स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान व उनके त्याग को इतिहास कैसे भूल सकता है? पं. जवाहरलाल नेहरू नाम का व्यक्ति भारत देश का प्रधानमंत्री था, इस तथ्य को इतिहास के पन्नों से कैसे बाहर निकाला जा सकता है? इतिहास देश-समाज को शिक्षित करता है, अशिक्षित नहीं। ज्ञानी बनाता है अज्ञानी नहीं। इस पाश्र्व में राजस्थान सरकार का नेहरू विरोधी कदम एक अक्षम्य राष्ट्रीय अपराध माना जाएगा। निर्णयकर्ता किसी भ्रम में ना रहें। एक राज्य की पाठ्यपुस्तक से पं. नेहरू का नाम हटा देने से भारत देश पं. नेहरू को भूल नहीं जाएगा। विलंब अभी नहीं हुआ है। राज्य सरकार संशोधन कर लें ।
इतिहास में परिवर्तन सिर्फ पं. नेहरु के नाम के साथ नहीं हुआ है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में पं. मदन मोहन मालवीय और सरोजनी नायडू जैसी महान विभूतियों के नाम भी हटा दिये गये हैं। क्या पं. मालवीय और सरोजनी नायडू महान स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे? क्या उनके योगदान सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और हेमू कालानी से कम थे? डॉ. राजेंद्र प्रसाद का नाम देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में तो शामिल किया गया है, किंतु स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में उनके अतुल्य योगदान की उपेक्षा की गई है। ध्यान रहे वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही थे, जिनकी इच्छा और प्रयास से डॉ. भीमराव आम्बेडकर न केवल संविधान सभा के सदस्य बन पाये बल्कि संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष भी बने। वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही थे, जिन्होंने महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह की नींव रखी थी। वही चम्पारण सत्याग्रह जिसने महात्मा गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जमीन तैयार कर दी थी। स्वतंत्रता आंदोलन, भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष और राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के योगदान को कैसे विस्मृत कर सकते हैं? इतिहासकार देश के साथ गद्दारी करेंगे अगर ऐसे योगदान को इतिहास में शामिल नहीं किया गया। सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान को विस्तार में दर्ज कर उनके साथ न्याय तो किया गया किंतु उनकी पंक्ति में उनके समकक्ष कुछ अन्य नेताओं को शामिल करने पर सवाल खड़े होंगे।
सर्वाधिक आपत्तिजनक प्रसंग महात्मा गांधी के हत्यारे के रूप में नाथूराम गोडसे के नाम को हटाया जाना है। क्या राजस्थान सरकार चाहती है कि उनके छात्रों को इस सत्य की जानकारी से वंचित कर दिया जाए कि नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी? गुलाम भारत को निर्णायक आजादी दिलवाने वाले महात्मा गांधी की हत्या देश को आजादी मिलने के छह माह के अंदर नाथूराम गोडसे ने कर दी थी। इस सचाई पर परदा डालने वाले भारत देश और भारत के स्वतंत्रता संग्राम की सचाई पर परदा डालने का कुप्रयास कर रहे हैं। यह भी एक अक्षम्य अपराध है। राजस्थान सरकार तत्काल संशोधन कर ले।
यह ठीक है कि इतिहास लिखने- लिखवाने, तोडऩे-मरोडऩे का एक दुखद बल्कि आपराधिक दौर चल पड़ा है। लोकतंत्र में सरकारें आती हैं, जाती हैं । विचारधाराओं में संघर्ष होते हैं, थोपने के प्रयास होते हैं। विचारधाराओं के अनुरुप राजदल समाज को प्रभावित करने की कोशिशें करते हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किंतु सत्य के आइने के रुप में स्थापित इतिहास को विद्रूप करने की कोशिश स्वीकार नहीं की जा सकती। तथ्यानुसार सत्ता चाहे तो अपनी विभूतियों को इतिहास में समुचित स्थान दे दे, महिमामंडित भी कर दे, किंतु किसी अन्य को इतिहास के पन्नों से बाहर करने का दुष्कर्म न करे। जैसा कि मैने पहले कहा है, देश सक्षम है इतिहास पुरुषों के व्यक्तित्व, चरित्र का विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालने में। इतिहास तो वह कच्चा पदार्थ होता है जिसमें कोई मिलावट नहीं होती। विभिन्न कालखंड में उनका मूल्यांकन देश स्वयं करता है। मिलावटी पदार्थ तो भ्रम पैदा करते हैं। सत्य पर काली चादर डाल देते हैं।
ऐसे 'पाप’ की अपराधी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी बन चुकी हैं। वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने आपातकाल के दौरान लाल किले के प्रांगण में एक 'कालपात्र’ गड़वाकर भविष्य में इतिहास को प्रभावित करने की कोशिश की थी। 'कालपात्र’ में एक पक्षीय जानकारियां डाल नेहरु परिवार को ही भारत की आजादी के पाश्र्व में महिमामंडित करने की कोशिश की गई थी। 'कालपात्र’ में तब दी गई जानकारियों से डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित अनेक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों के नाम नदारद थे। 1977 में जनता पार्टी ने सत्तारूढ़ होने के बाद खुदाई कर 'कालपात्र’ को बाहर निकलवाया था। तब इंदिरा गांधी के नापाक मंसूबे का पर्दापाश हुआ था। एक वह और ताजातरीन राजस्थान का उदाहरण चुगली करता है उस हकीकत की, कि इतिहास को तोडऩे-मरोडऩे के प्रयास पहले भी हुए हैं और आज भी हो रहे हैं।
क्या राजदल या राजनेता ऐसे 'पाप’ से स्वयं को पृथक नहीं रख सकते? फैसला इस सच के आलोक में करें कि देश, इतिहास बदलने या तोडऩे-मरोडऩे के किसी भी प्रयास को कभी बर्दाश्त या स्वीकार नहीं करेगा।
खबर मर्माहत करने वाली है कि राजस्थान की स्कूली पाठ्यपुस्तकों से देश के प्रथम प्रधानमंत्री, स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम नेताओं में से एक पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम हटा दिया गया है। अर्थात स्कूली छात्रों को इस जानकारी से वंचित कर दिया गया है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री कौन थे? यही नहीं, छात्र अब उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में भी नहीं जान पाएंगे। जबकि पं. नेहरू उन अग्रज नेताओं में रहे हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्त कराने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। जिस पं. नेहरु का नाम इतिहास में अन्य महान विभूतियों के साथ स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, उस नाम को इतिहास से हटाने का मकसद राजनीति और सिर्फ राजनीति ही हो सकती है। सच पर झूठ का ऐसा मुलम्मा! कोई राजनीति नहीं, कोई दुराग्रह नहीं, मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि इस 'पाप’ को अंजाम देने वाले राष्ट्रभक्त तो नहीं ही हो सकते। मैं व्यक्तिगत रूप से पं. नेहरूकी अनेक नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता, बल्कि अनेक मामलों में देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए उनकी कतिपय नीतियों को दोषी मानता हूं। मामला कश्मीर का हो, तिब्बत का हो या फिर 1962 के चीनी आक्रमण का हो, पं. नेहरू की गलत नीतियों व निर्णयों के कारण भारत को शर्मिंदा होना पड़ा। बावजूद इसके स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान व उनके त्याग को इतिहास कैसे भूल सकता है? पं. जवाहरलाल नेहरू नाम का व्यक्ति भारत देश का प्रधानमंत्री था, इस तथ्य को इतिहास के पन्नों से कैसे बाहर निकाला जा सकता है? इतिहास देश-समाज को शिक्षित करता है, अशिक्षित नहीं। ज्ञानी बनाता है अज्ञानी नहीं। इस पाश्र्व में राजस्थान सरकार का नेहरू विरोधी कदम एक अक्षम्य राष्ट्रीय अपराध माना जाएगा। निर्णयकर्ता किसी भ्रम में ना रहें। एक राज्य की पाठ्यपुस्तक से पं. नेहरू का नाम हटा देने से भारत देश पं. नेहरू को भूल नहीं जाएगा। विलंब अभी नहीं हुआ है। राज्य सरकार संशोधन कर लें ।
इतिहास में परिवर्तन सिर्फ पं. नेहरु के नाम के साथ नहीं हुआ है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में पं. मदन मोहन मालवीय और सरोजनी नायडू जैसी महान विभूतियों के नाम भी हटा दिये गये हैं। क्या पं. मालवीय और सरोजनी नायडू महान स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे? क्या उनके योगदान सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और हेमू कालानी से कम थे? डॉ. राजेंद्र प्रसाद का नाम देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में तो शामिल किया गया है, किंतु स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में उनके अतुल्य योगदान की उपेक्षा की गई है। ध्यान रहे वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही थे, जिनकी इच्छा और प्रयास से डॉ. भीमराव आम्बेडकर न केवल संविधान सभा के सदस्य बन पाये बल्कि संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष भी बने। वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही थे, जिन्होंने महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह की नींव रखी थी। वही चम्पारण सत्याग्रह जिसने महात्मा गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जमीन तैयार कर दी थी। स्वतंत्रता आंदोलन, भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष और राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के योगदान को कैसे विस्मृत कर सकते हैं? इतिहासकार देश के साथ गद्दारी करेंगे अगर ऐसे योगदान को इतिहास में शामिल नहीं किया गया। सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान को विस्तार में दर्ज कर उनके साथ न्याय तो किया गया किंतु उनकी पंक्ति में उनके समकक्ष कुछ अन्य नेताओं को शामिल करने पर सवाल खड़े होंगे।
सर्वाधिक आपत्तिजनक प्रसंग महात्मा गांधी के हत्यारे के रूप में नाथूराम गोडसे के नाम को हटाया जाना है। क्या राजस्थान सरकार चाहती है कि उनके छात्रों को इस सत्य की जानकारी से वंचित कर दिया जाए कि नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी? गुलाम भारत को निर्णायक आजादी दिलवाने वाले महात्मा गांधी की हत्या देश को आजादी मिलने के छह माह के अंदर नाथूराम गोडसे ने कर दी थी। इस सचाई पर परदा डालने वाले भारत देश और भारत के स्वतंत्रता संग्राम की सचाई पर परदा डालने का कुप्रयास कर रहे हैं। यह भी एक अक्षम्य अपराध है। राजस्थान सरकार तत्काल संशोधन कर ले।
यह ठीक है कि इतिहास लिखने- लिखवाने, तोडऩे-मरोडऩे का एक दुखद बल्कि आपराधिक दौर चल पड़ा है। लोकतंत्र में सरकारें आती हैं, जाती हैं । विचारधाराओं में संघर्ष होते हैं, थोपने के प्रयास होते हैं। विचारधाराओं के अनुरुप राजदल समाज को प्रभावित करने की कोशिशें करते हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किंतु सत्य के आइने के रुप में स्थापित इतिहास को विद्रूप करने की कोशिश स्वीकार नहीं की जा सकती। तथ्यानुसार सत्ता चाहे तो अपनी विभूतियों को इतिहास में समुचित स्थान दे दे, महिमामंडित भी कर दे, किंतु किसी अन्य को इतिहास के पन्नों से बाहर करने का दुष्कर्म न करे। जैसा कि मैने पहले कहा है, देश सक्षम है इतिहास पुरुषों के व्यक्तित्व, चरित्र का विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालने में। इतिहास तो वह कच्चा पदार्थ होता है जिसमें कोई मिलावट नहीं होती। विभिन्न कालखंड में उनका मूल्यांकन देश स्वयं करता है। मिलावटी पदार्थ तो भ्रम पैदा करते हैं। सत्य पर काली चादर डाल देते हैं।
ऐसे 'पाप’ की अपराधी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी बन चुकी हैं। वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने आपातकाल के दौरान लाल किले के प्रांगण में एक 'कालपात्र’ गड़वाकर भविष्य में इतिहास को प्रभावित करने की कोशिश की थी। 'कालपात्र’ में एक पक्षीय जानकारियां डाल नेहरु परिवार को ही भारत की आजादी के पाश्र्व में महिमामंडित करने की कोशिश की गई थी। 'कालपात्र’ में तब दी गई जानकारियों से डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित अनेक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों के नाम नदारद थे। 1977 में जनता पार्टी ने सत्तारूढ़ होने के बाद खुदाई कर 'कालपात्र’ को बाहर निकलवाया था। तब इंदिरा गांधी के नापाक मंसूबे का पर्दापाश हुआ था। एक वह और ताजातरीन राजस्थान का उदाहरण चुगली करता है उस हकीकत की, कि इतिहास को तोडऩे-मरोडऩे के प्रयास पहले भी हुए हैं और आज भी हो रहे हैं।
क्या राजदल या राजनेता ऐसे 'पाप’ से स्वयं को पृथक नहीं रख सकते? फैसला इस सच के आलोक में करें कि देश, इतिहास बदलने या तोडऩे-मरोडऩे के किसी भी प्रयास को कभी बर्दाश्त या स्वीकार नहीं करेगा।
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