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Thursday, May 5, 2016

'पेड न्यूज' पर फैसला


पाठक कर तो सकते हैं, ब-शर्ते...!
जब आक्षेप पूरी की पूरी बिरादरी पर लगे तब बचाव में अग्रिम पंक्ति में खड़े नेतृत्व को ही सामने आना होगा। 'मीडिया मंडी' में प्रविष्ट 'कैंसर' - 'पेड न्यूज'- पर पिछले दिनों सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बहसें छिड़ीं तो बिरादरी का नेतृत्व भी सतर्क हो गया।
राष्ट्रीय हिन्दी दैनिकों में सर्वाधिक प्रसारित  'दैनिक भास्कर' ने अपने एक सम्पादकीय स्तंभ में विषय को उठाते हुए अपने तर्कों का निचोड़ यह निकाला कि 'पेड न्यूज' का फैसला पाठकों पर छोडऩा ही बेहतर होगा। अब नई बहस यह कि क्या पाठक अखबारों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर 'पेड न्यूज' पर फैसला कर पाएंगे? क्या अखबारी प्रबंधन पाठकों के साथ अपने इस अवैध गोपनीय व्यवहार को साझा करेंगे? क्या पाठकों को प्रबंधन यह अधिकार देगा कि वह उनके सम्पादकीय कक्ष में प्रवेश कर 'पेड न्यूज' संबंधी आवश्यक पूछताछ कर सके? संभव ही नहीं है।
चूंकि  'दैनिक भास्कर' ने पाठकों के पक्ष को रेखांकित करते हुए फिल्म जगत के 'बॉक्स ऑफिस' की मिसाल दी है, ऐसा प्रतीत होता है कि अखबार का आशय पाठकीय जागरुकता व प्रतिसाद को लेकर है। जिस प्रकार दर्शक किसी फिल्म का 'बॉक्स ऑफिस' पर निर्णय कर देते हैं, उसी प्रकार संभवत: 'दैनिक भास्कर' चाहता है कि पाठक अखबारों का भविष्य निर्धारित करें।  इस सोच और पहल को समर्थन और सम्मान मिले इसके लिए जरूरी है कि समाचार पत्रों की ओर से भी इस बिन्दू पर पाठकों को जागरुक करने का अभियान छेड़ा जाए। लखटकिया सवाल यह है कि क्या समाचार पत्र प्रबंधन इसकी इजाजत देगा? मूल्य और सिद्धांत के पक्षधर क्रांतिकारी पत्रकार तो इस हेतु कदमताल को तैयार हो जाएंगे किंतु जब तक प्रबंधन का समर्थन नहीं मिलता है विषय की तार्किक परिणति संभव नहीं। पत्रकार चाहे जितना भी दावा कर लें यह कड़वा सच मोटी रेखाओं से चिन्हित हो चुका है कि अब संपादकीय कक्ष पर प्रबंधन का पूरा नियंत्रण कायम हो चुका है। चूंकि 'अपवाद' शब्द अभी भी शब्दकोश में मौजूद है, हो सकता है कुछ इस निष्कर्ष को झुठला भी दें। परंतु संभावना धूमिल ही है।
बहस की शुरुआत अदालत के समक्ष सरकार द्वारा रखे गए उस प्रस्ताव को लेकर हुई जिसमें 'पेड न्यूज' पर अंकुश हेतु जनप्रतिनिधित्व कानून और भारतीय प्रेस परिषद कानून में संशोधन की बात कही गई है। प्रस्तावित संशोधन 'पीआरबी बिल 2015' को लेकर भी है जिसमें 'पेड न्यूज' छापनेवाले का प्रकाशन एक निश्चित अवधि तक निलम्बित किए जाने का सुझाव दिया गया है।  प्रेस की आजादी के नाम पर प्रस्ताव का विरोध करनेवालों का तर्क है कि  अगर तद्संबंधी कोई कानून बना दिए जाते हैं तो सरकार की ओर से ही कानून के दुरुपयोग की संभावना अधिक है।
अब सवाल यह कि क्या 'पेड न्यूज' सिर्फ चुनावों के समय ही प्रकाशित किए जाते हैं? शुरुआत तो ऐसी हुई थी किंतु अब हालत यह है कि चुनावों से इतर अन्य खबरों के लिए भी 'भुगतान' की मांंग की जाने लगी है। प्रबंधन और संपादकीय कक्ष इसका विरोध कर सकते हैं किंतु यह एक कटु सत्य है जो धीरे-धीरे अपना विस्तार करता जा रहा है। चाहे तो कोई सर्वेक्षण करा ले, ऐसी शिकायतों के अंबार लग जाएंगे। स्वयं 'प्रहरी' अभी पिछले ही दिनों ऐसी एक घटना से रूबरू हो चुका है।
मुंबई से प्रकाशित एक हिंदी 'दैनिक' को किसी संस्था ने एक कार्यक्रम से संबंधित सचित्र एक खबर प्रकाशनार्थ भेजी। दैनिक की ओर से उस खबर को प्रकाशित करने के लिए एक बड़ी रकम की मांग की गई। एक सार्वजनिक कार्यक्रम की खबर के प्रकाशन के लिए 'दैनिकश' द्वारा धनराशि की मांग किए जाने पर आयोजनकर्ता अचंभित रह गया। उन्होंने पैसे नहीं दिए। दिलचस्प परिणाम पर गौर करें। दो दिनों बाद उसी समूह के अंग्रेजी दैनिक में उक्त कार्यक्रम से संबंधित सचित्र एक बड़ी पूर्णत: नकारात्मक खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई। बिचारे आयोजक परेशान। अखबार के संपादकीय कक्ष से संपर्क स्थापित करने पर भी उन्हें कोई समाधान नहीं मिला। किसी की सलाह पर तब आयोजकों ने समूह के हिंदी दैनिक द्वारा पूर्व में मांगी गई धनराशि का भुगतान कर दिया। अब दिलचस्प यह कि कार्यक्रम की एक सचित्र बड़ी सकारात्मक खबर उक्त दैनिक में छप गई। समूह के ही अंग्रेजी संस्करण में प्रकाशित खबर के ठीक उलट समूह के हिंदी दैनिक में प्रकाशित खबर को देखने के बाद कोई भी समझ सकता है कि सारा मामला 'पेड न्यूज' का है। खबर किसी चुनाव या किसी राजनेता से संबंधित नहीं थी। यह एक उदाहरण पुष्टि करता है कि 'पेड न्यूज' का दायरा चुनावी परिधि से बाहर निकल सामान्य खबरों के क्षेत्र में विस्तार पा चुका है। इस पाश्र्व में अगर अदालत के समक्ष प्रस्तुत सरकारी सुझाव को अमली जामा पहनाते हुए कोई कानून बन भी जाता है तब उसकी उपयोगिता क्या होगी?
'दैनिक भास्कर' चाहता है कि इसका फैसला पाठक करें। हम सहमत हैं, बशर्ते इस दिशा में 'दैनिक' पहल करते हुए एक पाठकीय जागरण अभियान छेड़ें, बल्कि नेतृत्व करे। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि अंतत: इस कुप्रवृत्ति पर अंकुश पाठक ही लगा पाएंगे। जरूरत है इस विषय पर पाठकों को जागृत किया जाए, शिक्षित किया जाए, एहसास दिलाया जाए कि मुद्रित शब्दों की पवित्रता दांव पर है, इनके माध्यम से पाठकों के साथ छल किया जा रहा है।  पाठक जागें, प्रतिरोध करें। अखबारों के पाठकीय 'बॉक्स ऑफिस' पर सक्रीय प्रतिरोध के परिणामस्वरूप जब अखबारों के खाते में 'शून्य' नजर आएगा तब समाचार पत्र समूहों के मालिक चिंतन-मनन को विवश हो जाएंगे। प्रतिरोध सिर्फ प्रसार के क्षेत्र में न हो, विज्ञापन के मोर्चे पर भी हो। क्योंकि सभी जानते हैं कि प्रसार से होनेवाली आय संस्थान के लिए कोई मायने नहीं रखता है। वे तो विज्ञापन हैं जो किसी समाचार पत्र समूह के लिए आर्थिक संबल होता है। इस संबल पर चोट को प्रबंधन बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। पाठकों का यह अभियान तभी संभव हो पाएगा जब वे इस अभियान को एक आंदोलन का रूप देने में सफल हो पाएंगे। कठिन तो है, किंतु असंभव नहीं,  किसी को तो नेतृत्व करना होगा- विश्वसनीयता के पक्ष में! हां, यह यक्ष प्रश्न सामने जरूर खड़ा मिलेगा कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो कौन?

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