सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक आधार पर बदले की कार्रवाईयों में नेताओं को कटघरे में खड़ा करने के दृष्टांत मौजूद हैं। कितुं, मरणोपरांत एक निडर, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को ऐसी भावना के अंतर्गत सूली पर चढ़ाने की घटना संभवत: पहली बार सामने आई है। निडरता, कर्तव्यनिष्ठता और ईमानदारी को ऐसे 'पुरस्कार' की हम निंदा करते हैं।
हां, शहीद हेमंत करकरेएक ऐसे निडर, कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी थे जिन्होंने जान की परवाह किए बगैर हमलावर विदेशी आतंकियों का सामना किया। शहीद हो गए। वैसे शहीद करकरे की कर्तव्यनिष्ठता पर सवालिया निशान? उनकी निष्पक्षता पर वार? पूरा देश अस्वीकार करता है ऐसे लांछन को। धिक्कार है उस भ्रष्ट, चापलूस व्यवस्था को जो पूर्वाग्रही शासकों की कुत्सित इच्छाओं की पूर्ति के लिए करकरे जैसे शहीद का अपमान करने तत्पर हो जाएं। धिक्कार है उस राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का जो जांच की दिशा को सत्ता की इच्छानुसार परिवर्तित कर डाले।
मालेगांव विस्फोट जांच की परिणति तभी संदिग्ध हो गई थी, जब विशेष सरकारी अभियोजक रोहिणी सालियान ने पिछले वर्ष सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया था कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद एनआईए के अधिकारी उन पर हिंदुत्व के पक्षधर आरोपियों पर नरमी बरतने का दबाव बना रहे हैं। बाद में रोहिणी ने दबाव बनानेवाले अधिकारी का नाम भी सार्वजनिक किया था। तभी यह प्रतीत होने लगा था कि आरोपी छूट जाएंगे। लेकिन ऐसी आशा किसी ने नहीं की थी कि उन्हें छोडऩे की प्रक्रिया में हेमंत करकरे जैसे आतंक विरोधी दस्ता (एटीएस) के मुखिया की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता को लांछित किया जाएगा। मुंबई पुलिस के आयुक्त तथा गुजरात और पंजाब पुलिस के महानिदेशक रह चूके सुविख्यात पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो ने करकरे को सत्य की प्रतिमूर्ति निरूपित करते हुए दुखी मन से टिप्पणी की है कि 'ये शासक भी वस्त्रहीन निकले। ' करकरे की याद करते हुए रिबेरो कहते हैं कि सच्चे न्याय की चाहत रखने वाले लोग करकरे की ओर आशा की दृष्टि रखते थे। उनकी धमनियों में, उनकी हड्डियों में सच और सिर्फ सच था। करकरे जैसे अधिकारी पर सबूतों के साथ छेड़छाड़ या सबूत गढ़े जाने का आरोप लगाना सचाई को कटघरे में खड़ा करना है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय की उस टिप्पणी को देश अभी भी नहीं भूला है जिसमें देश की सबसे बड़ी खुफिया जांच एजेंसी सीबीआई को अदालत ने 'पिंजरे में कैद तोता' निरूपित किया था। क्या एनआईए स्वयं को ऐसी अवस्था में खड़ा करना चाहती है? ऐसे दृष्टांत मौजूद हैं जब सीबीआई एक दूसरी एजेंसी आईबी के अधिकारियों पर षड्यंत्र रचने के आरोप लगा चुकी है। इशरत जहां का मामला एक उदाहरण है। लेकिन यह पहला अवसर है जब एनआईए ने एक राज्य की एटीएस पर मालेगांव सरीखे संवेदनशील मामले में पूरी की पूरी जांच प्रक्रिया को न केवल कटघरे में खड़ा किया, बल्कि एटीएस पर षड्यंत्र रच आरोपियों के खिलाफ सबूत गढऩे के आरोप भी लगाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। देश के पूरे पुलिसबल का मनोबल इस घटना के बाद प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है। आपराधिक मामलों में अगर सत्ता पक्ष सत्ता का दुरुपयोग करते हुए जांच एजेंसियों को यूं ही प्रभावित करता रहा तो इनकी विश्वसनीयिता को लोग कूड़ेदान में फेंक देंगे। क्या हम आशा करें कि 'देर आयद दुरुस्त आयद' को चरितार्थ करते हुए अभी भी शासन अपने व्यवहार में संशोधन कर लेगा?
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