'क्या भूख न लगने की कोई दवाई है? '
बाल मजदूर के रूप में कार्यरत एक छोटी सी बच्ची ने जब एक डॉक्टर से यह पूछा, तब स्वयं डॉक्टर भी फफक पड़े।
यह है वर्तमान भारत का वर्तमान कड़वा सच! मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसी स्थिति आज ही पैदा हुई है। यह तो प्रतिफल है दशकों पुरानी अनुपयोगी अथवा साजिश आधारित नीतियों का। हमारी प्राथामिकताओं का जो कभी भी वास्तविक आवश्यकता अनुरूप निर्धारित न की गई। राजनीतिक स्वार्थवश अवसरवादी नीतियां बनीं, बनाई जाती रही हैं। सच से मुंह मोड़ काल्पनिक सफलता के ढिंढोरे पीटे गए। ऐसे में आज भी जब कोई बच्ची भूख मारने की दवा ढूंढती है तब निश्चय ही यह अवस्था देश की तथाकथित उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाती है। हर शासनकाल में ऐसा हुआ, आज भी हो रहा है। राजनीतिक स्वार्थ ने हमारी प्राथमिकताएं बदल डाली हैं। निर्णय-नीतियां राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के पक्ष में जब तैयार की जाएं तब सामान्यजन तो भूखा रहेगा ही। खेद है परिवर्तन की लहर को साथ दे समाज-देश में आमूल-चूल परिवर्तन का स्वप्न देखनेवाली जनता के पाले में निराशा और निराशा ही आ रही है। क्या राजनीतिक स्वार्थ से ईतर, सत्ता सुख से ईतर, जाति- धर्म व संप्रदाय से ईतर वृहत्तर सामाजिक हित में निर्णय नहीं लिए जा सकते? नीतियां नहीं बनाई जा सकतीं? कहने-दिखाने को तो सभी ऐसा प्रदर्शित करते हैं किंतु, उनका अंतर्मन राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता साधना के वशीभूत निरंतर समाज-देश को ठगता रहता है। क्या कोई इस सत्य को, इस तथ्य को चुनौती दे सकता है? ईमानदार, नि:स्वार्थ चुनौती तो कभी सामने नहीं आएगी। अगर लगभग साठ दशक की आजादी की यही उपलब्धि है तो धिक्कार है ऐसी आजादी पर!
विशिष्ट क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए सम्मानित अथवा पुरस्कृत किए जाने की एक परम्परा रही है। ऐसे सम्मान पा लोग गौरवान्वित होते रहे हैं। समाज में इनकी एक विशिष्ट पहचान रही है। किंतु, राजनेताओं, राजदलों ने इनकी 'उपयोगिता' का भी राजनीतिकरण कर डाला। इनकी विशिष्ट पहचान का उपयोग राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए किया जाने लगा। भला राजनीतिकों को यह कैसे बर्दाश्त होता कि समाज में उनके अतिरिक्त किसी और की विशिष्ट पहचान हो? चतुर राजनीतिकों ने खेल खेला और दुर्भाग्य कि ये 'विशिष्ट' उनके जाल में फंसते चले गए। संभवत: जान-बूझकर भी । संभवत:, कारण इनकी अपनी स्वार्थ पूर्ति भी !
पिछले दिनों उच्च सदन अर्थात राज्य सभा के लिए महाराष्ट्र से सत्ता पक्ष ने दो विभूतियों का चयन किया। एक डॉक्टर विकास महात्मे और दूसरे छत्रपति संभाजी राजे। कहा गया कि चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने के कारण डॉ. महात्मे को उच्च सदन में भेजा गया। डॉ. महात्मे ने नेत्र विशेषज्ञ के रूप में गरीबों की नि:शुल्क चिकित्सा कर समाज में काफी सम्मान प्राप्त किया। एक अच्छे कुशल नेत्र विशेषज्ञ के साथ-साथ डॉ. महात्मे एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में समाज को हमेशा उपलब्ध रहे हैं। विगत दिनों इनके ऐसे योगदान के लिए ही भारत सरकार ने इन्हें पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया था। कोई आश्चर्य नहीं कि राज्यसभा में भेजे जाने की खबर से प्रशंसक प्रसन्न हुए थे। किंतु, तब सभी स्तब्ध रह गए, दुखी हुए जब उन्हें यह जानकारी मिली कि डॉ. महात्मे को राज्यसभा का सम्मान चिकित्सा एवं सामाजिक क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए नहीं बल्कि, उनकी जाति 'धनगर' के कारण मिला। धनगर जाति के लोग पिछले कुछ वर्षों से महाराष्ट्र में आरक्षण के लिए संघर्षरत हैं। मांग के पक्ष में धरना-प्रदर्शन भी होते रहे हैं। सच कि स्वयं डॉ. विकास महात्मे भी इनका नेतृत्व करते रहे हैं। डॉक्टर महात्मे की सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए इन्हें व्यापक समर्थन भी मिला और एक अवसर पर स्वयं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस भी धनगर समाज के एक आयोजन में सम्मिलित हुए। धनगर आरक्षण के पक्ष में आंदोलन ने पिछले दिनों महाराष्ट्र में गति प्राप्त कर ली है। किंतु, राजनीतिक मजबूरी ऐसी कि शाब्दिक सहानुभूति से अलग शासन फिलहाल आरक्षण देने में असमर्थ है। राजनीतिक पंडित बताते हैं कि धनगर समाज की मांग की तीव्रता को कम करने के उद्देश्य से डॉक्टर महात्मे को धनगर प्रतिनिधि के रूप में राज्य सभा के लिए चयन किया गया। इसकी पुष्टि भी तब हो गई जब स्वयं डॉक्टर महात्मे ने घोषणा की, कि जरूरत पड़ी तो धनगर समाज के आरक्षण के पक्ष में वे राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दे सकते हैं। ध्यान रहे, अभी राज्यसभा के सदस्य के रूप में शपथ लेना शेष है। ऐसे में इस्तीफे की बात कहकर स्वयं डॉक्टर महात्मे ने अपने चयन के महत्व को कम कर डाला। इस बिंदू पर डॉक्टर विकास महात्मे एक सफल चिकित्सक अथवा लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता नहीं बल्कि, एक जातीय नेता के रूप में प्रकट हुए हैं। राजनीतिक स्वार्थ का यही पक्ष विशिष्ट क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलिब्धयों को हाशिए पर रख देता है।
दूसरे नामित संभाजी राजे छत्रपति के साथ भी ऐसा ही हुआ। मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के वंशज और समाजसेवी के रूप में उन्हें राष्ट्रपति की ओर से तब नामित किया गया जब हरिद्वार के अखिल विश्व गायित्री परिवार के प्रमुख डॉक्टर प्रणव पंड्या ने अपना मनोनयन ठुकरा दिया था। तब डा. पंड्या की टिप्पणी थी कि राज्यसभा का माहौल उनके अनुकूल नहीं है। डा. पंड्या की भरपाई के रूप में संभाजी राजे का मनोननय किया गया। सामाजिक क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां रेखांकित की गईं किंतु, इस सच के उभरने में विलंब नहीं हुआ कि संभाजी राजे के मनोनयन का कारण भी उनकी जाति मराठा रही। राज्य का मराठा समाज भी अपने लिए आरक्षण के लिए संघर्षरत है। कांग्रेस नेतृत्व की पिछली महाराष्ट्र सरकार ने मराठा आरक्षण की घोषणा की भी थी किंतु, न्यायालय ने उसे अवैध घोषित कर दिया। मराठा आरक्षण को वर्तमान सरकार का भी समर्थन प्राप्त है, इसके लिए कानून पड़ताल जारी है। कहते हैं धनगर डॉक्टर महात्मे की तरह मराठा संभाजी राजे छत्रपति का राज्यसभा के लिए मनोनयन कर मराठा जाति को संतुष्ट करने की कोशिश की गई है।
आरक्षण का मुद्दा अपनी जगह, मेरी चिंता का कारण यह कि क्या ये उपक्रम विशिष्ट क्षेत्रों में विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा अर्जित विशिष्ट उपलब्धियों का 'राजनीतिक दैत्य' के समक्ष 'बौनाकरण' नहीं है? इनका अपमान नहीं है? दुख और चिंता यह भी कि ऐसे व्यक्ति स्वयं भी राजनीतिक स्वार्थ की बलि चढऩे को तत्पर दिख रहे हैं। राजनीतिक स्वार्थ की सीढिय़ां चढ़ सत्ता सुख भोगने की यह कैसी वासना, जो अपनी ही अर्जित उपलब्धियों को अग्निकुंड में स्वाहा कर दे।
क्या आश्यर्च कि पूरा देश, पूरा समाज राजनीति, राजनीति और सिर्फराजनीति प्रभावित है!
2 comments:
Nice analysis sir !!!!
सुन्दर और सटीक राजनीतिक पोस्ट...
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