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Sunday, February 20, 2011

मीडिया के गाल पर यह कैसा तमाचा?

क्या सचमुच, मीडिया इतना दागदार हो चुका है कि जब भी कोई चाहे, उसके मुंह पर थूक दे? 'दलाली' और 'दारू' का यह कैसा दौर, कि मीडिया को सड़क-चौराहों पर निर्वस्त्र किया जाता रहे? यह सवाल अब जनता नहीं कर रही, मीडिया की वह युवा पीढ़ी कर रही है, जो ईमानदारी और मूल्यों की पूंजी ले, सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ मीडिया में आयी है। अपवाद स्वरूप, मौजूद वे वरिष्ठ मीडियाकर्मी, इन सवालों से रू-ब-रू हैं जिन्होंने पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांत के साथ कभी समझौते नहीं किए। फिर आज ऐसा क्यों, कि एक समाचारपत्र के मालिक, केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख ने आरोप लगा दिया कि 'टीवी चैनलों के लोग अपने कार्यालयों में बैठ कर नेताओं को नीचा दिखाने के लिए समूह-चर्चाएं आयोजित कर रहे हैं और यही लोग रात को जमकर शराब पीते हैं'
विलासराव की गिनती सड़क छाप नेताओं में नहीं होती। एक गंभीर राजनीतिक और सुलझे हुए व्यक्ति के रूप में इनकी विशिष्ट पहचान है, चिंतनीय यही है। जब विलासराव मीडिया को नंगा कर रहे हैं तो यह बहस का आग्रही तो है ही। इसके पूर्व, महाराष्ट्र के ही उपमुख्यमंत्री अजित पवार भी सार्वजनिक रूप से 'मीडिया पर अंकुश' की जरूरत बता चुके हैं। विडम्बना यह, कि अजित पवार भी एक समाचारपत्र समूह से जुड़े हुए हैं। ऐसे में, सामान्यजन तो यही कहेगा, कि ये दोनों अपनी बिरादरी अथवा परिवार का 'सच' बयान कर रहे हैं। लेकिन, हमें यह मान्य नहीं।
हां, मीडिया के लिए इसे एक चुनौती के रूप में हम अवश्य स्वीकार करेंगे। चुनौती है विश्वनीयता की। यह एक लांछन है, चरित्र पर दाग है। यह सच है कि एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, किंतु सच यह भी है कि उसी तालाब में निर्भीक विचरनेवाली मछलियां गंदले-दूषित पानी से ऊपर निकलकर स्वच्छ वायु को ग्रहण भी करती हैं। दलाली संबंधित अतिगंभीर आरोपों के नायिका-नायक बन उभरे बरखा दत्त और वीर संघवी ही मीडिया नहीं है। अल्पसंख्या के बावजूद, पुराने अनुभवी और नये युवा मीडियाकर्मियों की बड़ी पंक्ति, मीडिया के मूल्य व सिंद्धांत की रक्षार्थ चिह्नित की जा सकती है। चूंकि यह वर्ग अंतर्मुखी है, वाचाल नहीं, सुर्खियों में नहीं आ पाता, इनकी उपलब्धियों की चर्चा अपेक्षानुरूप इसलिए भी नहीं हो पाती, क्योंकि महानगरों में लॉबीइंग नहीं हो पाती। इसलिए विलासराव देशमुख के आरोप को या अजित पवार की मांग को हम संपूर्णता में स्वीकार नहीं कर सकते। मैं विलासराव को यह बताना चाहूंगा कि नदी या तालाब की गहराई नापने के लिए उनके तल में पैठने वाले पत्रकार मौजूद है और इन्हीं पत्रकारों के श्रम और निर्भीकता के कारण आज संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र यहां सुरक्षित है। राजनीति के सड़े, गंदले तालाब में उसे खंगालने का काम यही वर्ग तो कर रहा है! लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुरुपयोग कर पूरी की पूरी शासकीय व्यवस्था को भ्रष्ट-कलंकित करने वाले चेहरों को बेनकाब यही वर्ग तो कर रहा है? अगर यह नहीं रहते तब निश्चय जानिए भारतीय लोकतंत्र के साथ दिनदहाड़े सड़क-चौराहों पर बलात्कार कर ये राजनीतिक पूरे के पूरे देश को कब का नीलाम कर चुके होते, बेच देते ये भारत देश को। क्योंकि, तब ऐसे बेलगाम शासकों को अंकुश लगानेवाला कोई भी नहीं होता।
मैं यह कह चुका हूं कि मीडिया के तालाब में सड़ी मछलियों की कमी नहीं। लेकिन आभा बिखेरती वैसी स्वच्छ मछलियां भी मौजूद हैं जो पूरी ईमानदारी के साथ लोकतंत्र की अपेक्षा पर खरी उतरती हुई 'वॉच डॉग' की भूमिका में सक्रिय हैं। यह समूह चर्चा आयोजित करते हैं: लोकतंत्र के पायों को मजबूती प्रधान करने के लिए, यह चर्चाएं करते हैं: संविधान बदल नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए, यह चर्चाएं करते हैं अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। यह चर्चाएं करते है, व्यवस्था को भ्रष्ट बनानेवाली ताकतों यथा-राजनेताओं नौकरशाहों को बेपर्दा करने के लिए। यह वर्ग चर्चा करता है राष्ट्रीय संपत्ति को दोनों हाथों लूटनेवाली राष्ट्रविरोधी ताकतों से मुकाबला करने के लिए। देशमुख या फिर अजित पवार चूंकि मीडिया बिरादरी की उपज हैं, मीडिया समूहों का संचालन करते हैं, वे ऐसे 'सच' से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैंं? किसी मीडियाकर्मी-विशेष या खबर-विशेष से आहत हुआ जा सकता है, किंतु इस कारण मीडिया संसार को लांछित तो नहीं किया जा सकता है। विलासराव देशमुख के शब्दों में व्यक्तिगत पीड़ा का आभास मिलता है उसे दूर किया जाना चाहिए, लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता और चरित्र को शराब के एक पेग के कारण संदिग्ध तो नहीं ठहराया जा सकता। बावजूद इसके, आरोप अथवा लांछन पर बहस तो होनी ही चाहिए। विश्वसनीयता की गारंटी तो मीडिया को ही देनी होगी!

Thursday, February 17, 2011

गठबंधन धर्म की आड़ में भ्रष्टाचार, बेईमानी!

जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से यह कहे कि गठबंधन धर्म की मजबूरी के कारण वे भ्रष्टाचार को सिंचित करते रहे, अनियमितताओं की अनदेखी करते रहे, हजारों करोड़ों की राष्ट्रीय संपत्ति की लूट को आंख मूंद देखते रहे तो क्या उन्हें पद पर बने रहने का हक है? कतई नहीं। देश ऐसे मजबूर, असहाय व्यक्ति के हाथों में शासन की बागडोर नहीं छोड़ सकता। उन्हें बर्दाश्त करने का अर्थ होगा, भ्रष्टाचार को स्वीकार करना। डॉ. मनमोहन सिंह पर आरंभ से ही कठपुतली और सबसे कमजोर प्रधानमंत्री होने के आरोप लगते रहे हैं। विपक्ष के ऐसे आरोपों को राजनीतिक निरूपित कर मनमोहन सिंह को संदेह का लाभ मिलता रहा। लेकिन अब तो हद हो गई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ऐसा ऐलान करने, स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि वे मजबूर है, असहाय हैं। राष्ट्रधर्म की कीमत पर गठबंधन धर्म का पालन करने वाले प्रधानमंत्री भला विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के प्रधानमंत्री कैसे बने रह सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होना, भला होना एक बात है, प्रधानमंत्री के रूप में देश पर शासन करना कुछ और। एक प्रधानमंत्री यह कैसे कह गया कि उसके अपने ही विभाग में लिए गये निर्णय की जानकारी उन्हें नहीं मिली। और जब मिली तब विलंब से। इस विंदु पर पूर्व में जाहिर वह शंका उभर कर सामने आती है कि अनेक महत्त्वपूर्ण संचिकाएं प्रधानमंत्री की जानकारी के बगैर अधिकारी और कतिपय मंत्री कहीं और पहुंचा देते हैं, आदेश या सुझाव वहीं से ले लिए जाते हैं। देवास मल्टीमीडिया को एस बैंड आवंटन की प्रक्रिया में कहीं अधिकारियों ने ऐसा ही कुछ तो नहीं किया। देवास के मुख्य कार्यकारी अधिकारी खुलासा कर चुके हैं कि आवंटन की सारी प्रक्रिया में वरिष्ठ अधिकारी और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री शामिल थे। आश्चर्य है कि इन लोगों ने प्रधानमंत्री को जानकारी क्यों नहीं दी? कहीं वे किसी अदृश्य हाथों के इशारे पर तो नहीं चल रहे थे? भ्रष्टाचार, महंगाई, 2जी स्पेक्ट्रम और एस बैंड आवंटन के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री तक की नियुक्ति में गठबंधन धर्म की आड़ ले स्वयं को मजबूर असहाय बताकर मनमोहन सिंह ने भारत जैसे विशाल देश की शासन व्यवस्था का मजाक उड़ाया है। प्रधानमंत्री पद की गरिमा, मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा और राष्ट्रहित के साथ खिलवाड़ किया है। हमारा सिर शर्म से झुक गया जब हमने प्रधानमंत्री को गिड़गिड़ाते देखा कि, '...मैंने गलतियां की हैं लेकिन वैसी नहीं, जैसा दिखाया जा रहा है।' शर्म, शर्म! क्षमा करें प्रधानमंत्रीजी!, मीडिया भारत को घोटालों का देश बताकर देश का आत्मविश्वास कम नहीं कर रहा है, बल्कि आत्मनिरीक्षण कर रहा है।
एक तरफ तो आप प्रधानमंत्री को सीजऱ की पत्नी की तरह बेदाग देखे जाने की वकालत करते हैं और दूसरी ओर गलती का इजहार करने के बावजूद पद पर बने रहने की घोषणा भी! आप कैसे प्रधानमंत्री हैं जो नैतिक जिम्मेदारी का एहसास होने की बात तो करते हैं किन्तु अनैतिक कर्मों की पुष्टि के बावजूद नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने से साफ इनकार कर जाते हैं। प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लालच का त्याग करने में असमर्थ डॉ. मनमोहन सिंह अपने अतीत के मजबूत पाश्र्व को ही झुठला रहे हैं। अब बहुत हो चुका डॉ. मनमोहन सिंहजी। स्वयं को मजबूर, असहाय प्रधानमंत्री स्वीकार करने के बाद आप को पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं। राष्ट्रधर्म और राजधर्म के पक्ष में या तो मनमोहन सिंह तत्काल इस्तीफा दे दें, या फिर कथित गठबंधन धर्म की मजबूरियों के मुद्दे के साथ जनता की अदालत में जाएं। क्या मनमोहन सिंह इतनी हिम्मत दिखा पाएंगे? शायद नहीं। जो व्यक्ति बगैर जनादेश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर चिपका रह सकता है, उससे ऐसे आदर्श की अपेक्षा ही बेमानी है।

Sunday, February 6, 2011

... तब कोई साबुत नहीं बचेगा!

दु:खद व पीड़ादायक यह नहीं कि केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रही यूपीए की भारत सरकार देश की जनता को 'धैर्यवान मूर्ख' मानती है। खतरनाक यह है कि हम अर्थात् भारतवासी स्वयं को पेश ही इसी रूप में कर रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि भारत सरकार सर्वोच्च न्यायालय में झूठा हलफनामा दायर करती है, संसद में और संसद के बाहर गलत बयानी करती है, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन जैसे अतिगंभीर मुद्दों पर देश को गुमराह करती रही है। धिक्कार इस बात पर भी कि केंद्र कि ऐसी चालबाजियों को मदद करनेवाले देश विरोधी लालची हाथ भी समय-समय पर प्रकट हो जाते हैं।
विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के मामले में भी केंद्र ऐसे ही राष्ट्रविरोधी खेल को अंजाम दे रही है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कड़ी पूछताछ और कड़ी टिप्पणियों के बाद एक विदेशी बैंक में जमा काले धन के कुछ खाताधारकों के नाम बड़ी धूर्तता के साथ एक पत्रिका के द्वारा 'लीक' करा दिये गये। सर्वाेच्च न्यायालय व देशवासियों की आखों में धूल झोंकते हुए जिस तरह छोटी मछलियों के नाम सार्वजनिक किये गये हैं, उससे यह साबित हो गया कि भारत सरकार बड़ी मछलियोंं को बचाना चाहती है। भारत सरकार का यह कृत्य निश्चयही राष्ट्रविरोधी है। सर्वोच्च न्यायालय यह टिप्पणी कर चुका है कि विदेशी बैंकों में काला धन जमा कराने की कार्रवाई वस्तुत: राष्ट्रीय संपदा की लूट है। अर्थात ऐसे सभी खाताधारक इस लूट के अपराधी हैं। सरकार के ताजा कदम से आम जनता के बीच मौजूद यह शंका और भी बलवती हुई है कि विदेशी बैंकों में बड़े -बड़े राजनेताओं ने काला धन जमा करा रखा है। यह भी कहा जा रहा है कि भारत का वर्तमान शीर्ष राजनीतिक परिवार भी इस अपराध में शामिल है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की क्या हिम्मत कि उनकी सरकार असली अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई कर सके। खेद है कि सरकार की इस कवायद में 'सहयोगी हाथ' (जो मीडिया बिरादरी के हैं) कटघरे में खड़े दिख रहे हैं। यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि जिस पत्रिका में कथित खाताधारकों के नाम प्रकाशित किए हैं, पूर्व के उसके सभी स्टिंग ऑपरेशन कांग्रेस के हित साधनेवाले साबित होते रहे हैं। यह सवाल मौजू है कि वह पत्रिका और उसकी वेब साईट सत्ता में मौजूद व उससे जुड़ी बड़ी मछलियों का स्टिंग क्यों नहीं करती। जब पूरे देश में यह चर्चा जोरों पर है कि नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों ने भी विदेशी बैंकों में खाते खोल रखे हैं तब उनका स्टिंग क्यों नहीं कर रहे हैं वे। रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी के एक पूर्व अधिकारी जब यह सार्वजनिक कर चुके हैं कि स्वयं सोनिया गांधी का विदेशी बैंक में एक पुराना खाता (संभवत: तब अल्प वयस्क राहुल के नाम) मौजूद है , अब तक आरोप की जांच क्यों नहीं हुई। वह पत्रिका क्या इसका कोई स्टिंग करेगी? नीरा राडिया टेप प्रकरण में अनेक बड़े पत्रकारों के नाम दलाल के रूप में सामने आ चुके हैं। इस पाश्र्व में उक्त पत्रिका और वेबसाईट की भूमिका संदिग्ध है। ध्यान रहे देश की युवा पीढ़ी अब सतर्क हो, सभी राष्ट्रविरोधी हरकतों पर नजरें रख रही हैं। देश की वर्तमान विकृत छवि पर यह वर्ग चिंतित है। मिस्त्र की घटना पर उसकी निगाहें हैं। 70 के दशक के जन आंदोलन के पन्नों को वह उलट रही है। जिस दिन वर्तमान भ्रष्टाचार व कुशासन के खिलाफ लडऩे को तैयार कोई 'जननायक' उसे मिल जाएगा, युवापीढ़ी 'जनयुद्ध' का ऐलान कर देगी। और तब निश्चय मानें, राष्ट्रिय शुद्धिकरण की प्रक्रिया में कोई भी 'दागदार' साबुत नहीं बचेगा।

अब ऐलान हो जाए 'जनयुद्ध' का!

यह भी खूब रही! विद्वान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अब इस बात का एहसास हुआ है कि भ्रष्टाचार से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। बेचारे प्रधानमंत्री ! जब पूरे देश में शीर्ष सत्ता और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोहराम मचादो है, गली-कूचों में आम आदमी भी आक्रोश व्यक्त कर रहा है, भारतीय संसद ठप की जा रही हो, मंत्री और मुख्यमंत्री के खिलाफ मामले दर्ज हो रहे हों, केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफे लिए जा रहे हों, विदेशी बैंको में भारतीयों द्वारा अकूत धनराशी जमा कराई जा रही हो, स्पेक्ट्रम जैसे घोटाले से एक झटके में पौने दो लाख करोड़ के वारे-न्यारे हो जाएं, राष्ट्रमंडल खेलों में दिन दहाड़े लूट की खबरें गुंजायमान हो, तब देश की छवि साबुत कैसे रह सकती है? भ्रष्टाचार संबंधी गतिविधियों पर वर्षों मौन रहनेवाले प्रधानमंत्री के ज्ञानचक्षु अब खुलते हैं और उन्हें समझ में आता है कि भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर प्रहार करता है, विकास की दिशा में रुकावट है! कारण साफ है। गठबंधन राजनीति के 'अधर्म' को सींचित कर सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से समझौते किए। कहीं उन्होंने आंखे मूंद रखीं, तो कहीं समर्पण कर भ्रष्ट आचरण-निर्णय के भागीदार बनते रहे। ऐसे में उनके मुख से निकले उपदेश उन्हें हास्यास्पद बना देते हैं, बहुरुपिया बना देते हैं। घोर गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अगर मजबूर हैं तो अपनी सत्ता वासना की पूर्ति के पक्ष में। सत्ता सुख का त्याग वे करना नहीं चाहते। देश की छवि को रसातल में पहुंचाने के बाद छवि की चिंता! बेहतर हो, सत्य को स्वीकार कर देशहित के पक्ष में वे सत्ता बंधन से मुक्त हो जाएं। अन्यथा ए. राजा और सुरेश कलमाड़ी की तरह एक दिन वे स्वयं को बलिवेदी पर निरीह लेटे पायेंगे।
भारत की विशाल आबादी के साथ सत्तापक्ष का ऐसा छल अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सत्ता की राजनीति करनेवाले इस संभावना की उपेक्षा न करें। केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रहे संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन (यूपीए)की अध्यक्ष सोनिया गांधी भी देश के साथ ऐसा ही छल कर रही हैं। सोनिया न तो संत हंै और न ही दार्शनिक! फिर इनके सदृश अभिनय क्यों? उन्होंने सत्ता और धन के लिए अंधी दौड़ पर चिंता जताई है। कहा है कि जीवन में धन ही सबकुछ नहीं होता, सत्ता ही सबसे बड़ा सुख नहीं। गांधी और विवेकानंद के ये शब्द सभी के मुख को अच्छे नहीं लगते। ऐसे में शब्द दमित हो जाते हैं, शब्द अपमानित हो जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि सोनिया गांधी के इन शब्दों का कोई खरीदार सामने नहीं आया। आज देश त्रस्त है, संतप्त है तो भ्रष्टाचार के दानव से। इस दानव की उत्पत्ति नई नहीं, किंतु आजादी के 64 वर्षों में इसे फलने-फूलने के लिए आवश्यक ऊर्जा क्या इन्हीं भ्रष्ट सत्ताधारियों और नौकरशाहों ने नहीं दी? स्वीस बैंक के डायरेक्टर ने जानकारी दी है कि लगभग 280 लाख करोड़ रुपए भारतीयों ने स्वीस बैंकों में जमा करा रखे हैं। क्या यह दोहराने की जरुरत है कि यह विशाल धनराशि राष्ट्रीय संपत्ति की लूट से परिवर्तित काला धन है। जरा गौर करें। 200 साल के शासनकाल के दौरान अंग्रेजों ने 1 लाख करोड़ लूटा था। और अब आजादी के बाद 64 सालों में 280 लाख करोड़! इस मोर्चे पर विदेशी अंग्रेजों को मात देनेवाले आजाद भारत के हमारे शासक, नौकरशाह, उद्योगपति किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित चिंतक नहीं कहे जायेंगे। इतिहास इन्हे राष्ट्रद्रोही के रूप में दर्ज करेगा। मिस्त्र में जारी 'जनयुद्ध' एक संकेत है। 80 के दशक में इरान के शाह को ऐसे ही जनयुद्ध ने सत्ता छोड़ पलायन के लिए मजबूर कर दिया था। मिस्त्र के होस्नी मुबारक को भी संभवत: ऐसे ही हश्र से रुबरु होना पड़े। कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता जब सड़क पर उतरती है तब राष्ट्रकवि (स्व.)रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां, ''... सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है...'' साकार हो उठती हैं। धन और सत्ता की अंधी दौड़ पर चिंता व्यक्त करनेवाली सोनिया को चाटुकारों ने भले ही त्याग मूर्ति बना डाला हो, वास्तविकता से सारा देश परिचित है। आम जनता का धैर्य अब टूटने लगा है। पिछले दिनों, एक दिन के लिए ही सही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की जनता सड़कों पर उतरी थी। वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ वह आयोजन 'जनयुद्ध' का पूर्व संकेत था। जनता कालरात्रि की समाप्ति चाहती है। उसे अब इस बात का पुन: एहसास हो गया है कि क्रांति और परिवर्तन की आवश्यकता आज बाहर से नहीं, स्वयं हमारे भीतर है। व्यक्ति का स्थान ले चुके समूह को चुनौतियां मिलनी शुरु हो चुकी हैं। व्यक्ति की अहमियत को रेखांकित करने के लिए समाज अंगड़ाई लेने लगा है। जोड़-तोड़ कर सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे शासक यह न भूलें कि विश्व की प्राय: सभी वैचारिक क्रांतियां मात्र अकेले व्यक्तियों के कारण ही सफल हुई हैं। अब चुनौती है भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर जन का। वे अब और प्रतीक्षा न करें। भ्रष्टाचार के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान सत्ता त्याग कर जन अदालत का सामना करने की जगह शासक अब ढोंगी संत-दार्शनिक की भूमिका में आ गए हैं। ऐसे में और विलंब नहीं! निर्णय की घड़ी मान 'जनयुद्ध' का ऐलान कर दिया जाए! परिणति के रुप में तब शासन-समाज निश्चय ही स्वच्छ छवि के साथ अवतरित होगा।'