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Sunday, October 23, 2016

राज-राजनीति से ,दूर रखें सेना को

राज-राजनीति से ,दूर रखें सेना को
हम शर्मिंदा है! राजनीति के भोंपूबाजों को छोड़ दें तो पूरा देश शर्मिंदा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि भारतीय सेना की एक रणनीतिक सैन्य कार्रवाई 'लक्षित हमलाÓ (सर्जिकल स्ट्राइक) को महिमा मंडित करने के क्रम में देश को विचारधारा के आधार पर विभाजित कर डाला गया हो। यही नहीं, जिस रूप में इस 'शौर्यÓ का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की जा रही है, उससे सिर्फ सेना का मनोबल ही नहीं, उनका अनुशासन भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता दिखने लगा है। राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए यह एक खतरनाक घटना विकासक्रम है।

पिछले दिनों पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर हमारी सेना के जवानों ने अकस्मात हमला कर उनके अनेक केंद्रों को ध्वस्त कर डाला। लगभग पांच दर्जन पाक सैनिक भी हताहत हुये। भारत सरकार की ओर से इसे पठानकोट-उरी हमलों के खिलाफ बदले की कार्रवाई बताया गया। आक्रोशित भारत के लोग ऐसी किसी कार्रवाई की पतीक्षा कर रहे थे। आक्रोश की तीव्रता और आम लोगों की आकांक्षा को देखते हुए प्रधानमंत्री के स्तर पर निर्णय ले लक्षित हमले को अंजाम दिया गया। भारत में सर्वत्र इस कार्रवाई का स्वागत हुआ। लेकिन, जब पाकिस्तान की ओर से बार-बार ऐसी किसी कार्रवाई का खंडन किया गया, तब घोर राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय देते हुए विपक्ष के कुछ राजनेताओं ने हमले के सबूत पेश किये जाने की मांग कर डाली। हालांकि, मांग का आशय था कि पाकिस्तान के झूठ को बेनकाब कर दिया जाए, किंतु गंदी राजनीति ने इसे तूल दे डाला। तिल का ताड़ बना डाला गया। वास्तविकता से इतर अपने घर के अंदर ही युद्ध का एक नया मोर्चा खोल दिया गया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। 
पूरे प्रकरण का सबसे दु:खद पहलू यह कि विपक्ष तो विपक्ष स्वयं सत्तारुढ़ राजदल ने भी इस मुद्दे को कुछ इस रूप में उछाला कि उन्हें आने वाले चुनाव में इसका राजनीतिक लाभ मिले। यह दु:खद एवं आश्चर्यजनक है कि 'सर्जिकल स्ट्राइकÓ से राजनीतक लाभ उठाने के लिए इसे जीवित रखने संजीवनी की व्यवस्था न केवल निम्न व मध्यवर्ग के राजनेता कर रहे हैं, बल्कि स्वयं देश के प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री भी कर रहे हैं। राजनीतिक लाभ उठाने के आरोप का बचाव करते हुए सत्ता पक्ष की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि जब 1971 में युद्ध का राजनीतिक लाभ तब के सत्तापक्ष कांग्रेस ने उठाया, तब आज की सत्ताधारी भाजपा क्यों न उठाए? समझ की बलिहारी! 1971 में भारत पाकिस्तान के बीच घोषित व निर्णायक युद्ध हुआ था। भारत ने पाकिस्तान का अंग-विच्छेद कर भूगोल बदल डाला था। पूर्वी पाकिस्तान की जगह एक नए बांग्लादेश का उदय हुआ था। फिर 1971 के युद्ध की तुलना 2016 के सर्जिकल स्टाइक से! कृपया राजदल पूरे देश की समझ को कम कर न आंकें। दूसरा यह कि कोई भी दल या राजनेता सेना के मनोबल को गिराने का पाप न करे। भारतीय सेना का गौरवशाली, यशस्वी इतिहास रहा है। सेना को राजनीति से दूर रखें। भारत और भारतीय कम अक्ल नहीं समझदार हैं, परिपक्व हैं। 

Friday, October 21, 2016

राष्ट्रीय ‘समझ’ को चुनौती देते राजनेता!

राष्ट्रीय ‘समझ’ को चुनौती देते राजनेता!
ओह! एक और शर्मिंदगी! लोकतांत्रिक भारत के चेहरे पर फिर शर्मिंदगी का मुलम्मा? सत्तापक्ष या सरकार के किसी कदम की ऐसी परिणति से सरकार या सत्तारूढ़ दल ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा देश शर्मिंदा होता है। मजाक बन जाता है पूरे विश्व में। चूंकि, बात महान भारत की है, विश्व में सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या यही है पूरे संसार में ज्ञानोदय कराने वाली सभ्यता संस्कृति का आदर्श? ‘सत्यमेव जयते’ का अनुयायी भारतवर्ष विपरीत आचरण का अपराधी बन कटघरे में बार-बार क्यों खड़ा हो रहा है? मैं यहां स्पष्ट कर दूं, ये सवाल भारत देश के किसी एक वर्ग विशेष का नहीं है। सिर्फ विपक्ष का नहीं है। व्यक्तिगत आधार पर पूर्वाग्रही सोच के धारकों का नहीं है। उन सभी लोकतंत्र के पक्षधरों का है, जो भारत को हर क्षेत्र में मुखिया की भूमिका में देखना चाहते हैं। खेद है कि पिछले कुछ दिनों से देश में कुछ ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है, जिस कारण हम उपहास के पात्र बनने को मजबूर हैं।



ताजा विवाद भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर के उस वक्तव्य से उठ खड़ा हुआ है जिसमें उन्होंने देश के रक्षा मंत्री और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को कटघरे में खड़ा कर दिया है। एक संसदीय समिति के समक्ष पूछे जाने पर जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय सेना पहले भी लक्षित हमले (सर्जिकल स्ट्राइल) करती रही है। विदेश सचिव का यह वक्तव्य रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के उन बयानों को झूठा साबित कर देता है जिसमें उन्होंने कहा था कि आजाद भारत के इतिहास में सेना ने पहली बार किसी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को अंजाम दिया है। अब सवाल यह कि ऐसी स्थिति आई तो क्यों? श्रेय! श्रेय लेने की होड़!! श्रेय लेने की ओछी राजनीति! दु:खद ही नहीं शर्मनाक भी कि सत्ता और विपक्ष दोनों इस होड़ में भूल गए कि उनके आचरण से न केवल भारतीय सेना का मनोबल गिर रहा है, बल्कि विश्व की नजरों में भारत उपहास का पात्र भी बनता जा रहा है।
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के राजनीतिकरण को मैं व्यक्तिगत रूप से एक सैन्य अपराध मानूंगा। कुछ मित्र चौंक सकते हैं, आपत्ति भी व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन मैं मजबूर हूं। मैं उस हर कदम का विरोधी हूं, जिसके अंतर्गत सेना के नाम पर राजनीति की जाए या राजनीति में सेना को घसीटा जाए। ये नहीं भूला जाना चाहिए कि 1962 के अप्रत्याशित चीनी आक्रमण को छोड़ दिया जाए तो 1965, 1971 और 1999 में भारतीय सेना ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए पडो़सी, किंतु दुश्मन, पाकिस्तान को उसकी औकात दिखा दी थी। 1971 में पाकिस्तान का अंग विच्छेद कर पूर्वी पकिस्तान को विश्व के नक्शे से हटा दिया। एक नये मित्र देश बांग्लादेश का उदय हुआ। उस सफल निर्णायक युद्ध के बाद भारत की वह पूर्वी सीमा सुरक्षित हो गई। सेना की वह एक अत्यंत ही रणनीतिक सफलता थी। वैसी सेना के मनोबल को अब जब प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने के उपक्रम हो रहे हैं, विरोध स्वाभाविक है।
स्पष्ट कारणों से ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को तूल देकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश अनुचित है। श्रेय हमेशा उपलब्धियों के पुष्प पर आसीन हो सुगंध बिखेरते हैं, विस्तार पाते हैं-यथार्थ उपलब्धियों पर। काल्पनिक उपलब्धियों पर श्रेय के शोर टिक नहीं पाते, विस्मृत कर दिए जाते हैं। पाक अधिकृत कश्मीर में जारी आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर लक्षित हमले करने का निर्णय ले प्रधानमंत्री मोदी व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने जिस दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया था, उस पर अनावश्यक राजनीतिक शोर ने पानी फेर दिया। कुछ ऐसा कि कतिपय गैरजिम्मेदार विपक्ष व राजनेताओं ने सेना पर ही सवालिया निशान जड़ दिए हैं। राजनीतिक गलत-सही अपनी जगह, सेना को इसमें घसीटना अपराध है। चूंकि, ऐसी अवस्था को जन्म सत्तापक्ष की ओर से दिया गया, वह अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते।
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एक अन्य कृत्य को लेकर भी कठघरे में हैं। पर्रिकर के अनुसार लक्षित हमले के लिए उन्हें और प्रधानमंत्री मोदी को संभवत: शक्ति प्राप्त हुई तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रशिक्षण के कारण। अगर ये सच भी है, तब भी देश के रक्षा मंत्री को किसी गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्था के नाम का उल्लेख एक सैन्य कार्रवाई के संदर्भ में नहीं करना चाहिए था। पूछा जाने लगा है कि क्या भारत अब सामरिक निर्णयों के लिए गैर सरकारी निजी संस्थाओं की सहायता लेगा? हास्यास्पद प्रतीत होता है यह। रक्षा मंत्री पर्रिकर ने और उनकी ओर से पार्टी के कुछ प्रवक्ताओं ने हालांकि स्पष्टीकरण दिए, किंतु तब तक विलंब हो चुका था। रक्षा मंत्री कठघरे में खड़े किए जा चुके थे।
रक्षा मंत्री पर्रिकर के प्रत्येक शब्द को ध्यानपूर्वक सुनने के बाद मुझे ऐसा लगा कि राहुल गांधी की ‘दलाली’ की तरह पर्रिकर का ‘आरएसएस प्रशिक्षण’ भी भाषायी अल्पज्ञान का शिकार हुआ है। राहुल की तरह पर्रिकर की हिन्दी की समझ सर्वविदित है। इसके पूर्व, 26/11 के हमले के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन गृह मंत्री आर आर पाटिल भी ऐसे ही भाषायी अल्पज्ञान के शिकार हुए थे। बेचारे पाटिल को तब मंत्री पद त्याग देना पड़ा था। हालांकि, यह संभव नहीं है फिर भी मेरा आग्रह है कि देश के सभी राजदल, राजनेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी जब भी ऐसी घटनाओं की चर्चा करें, ईमानदारीपूर्वक भाषायी विडंबना को ध्यान में रखकर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचें। भाषायी अल्पज्ञान किसी व्यक्ति विशेष की समझ या चरित्र के आकलन का आधार नहीं बनना चाहिए। इस बिंदु पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को संदेह का लाभ मिलना अपेक्षित है।
हां! राजदल हंै, राजनेता हैं, पक्ष-विपक्ष है, राजनीति तो होगी, किंतु पूरा देश तब सिरदर्द से पीडि़त हो उठता है, जब वोट के लिए धर्म, संप्रदाय, जाति की राजनीति शुरू होती है। पहले भी ऐसा होता रहा है, किंतु हाल के दिनों में जिस प्रकार इनका राजनीतिक इस्तेमाल किया जाने लगा है, तय मानिए अगर इन पर अंकुश नहीं लगा तो देश में ऐसी अराजक उन्मादी स्थिति पैदा हो जाएगी, जो खतरनाक रूप से समाज को अनेक भागों में विभाजित कर डालेगी।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। चूंकि, इस चुनाव के परिणाम आने वाले दिनों में न केवल केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के भविष्य को तय करेंगे, बल्कि देश की राजनीतिक दशा-दिशा को भी प्रभावित करेंगे। इस वास्तविकता के पाश्र्व में भाजपा सहित अन्य राजनीतिक दल सक्रिय, अतिसक्रिय हो उठे हैं। इस पर कोई आपत्ति नहीं। आपत्ति इस बात पर है कि प्राय: सभी दल धर्म, संप्रदाय, जाति की राजनीति बेशर्मी से करने पर आतुर हैं। उत्तर प्रदेश की एक पहचान अयोध्या और राम मंदिर को लेकर भी है। राम मंदिर निर्माण का मामला अदालत में लंबित है। बावजूद इसके सत्तापक्ष और इसके सहयोगी संगठनों की ओर से मंदिर निर्माण के पक्ष में जिस प्रकार राम-राम का जाप शुरू किया गया है, उससे बगैर किसी शक के लोग इस नतीजे पर पहुंचने पर मजूबर हो गए हैं कि चुनावी लाभ के लिए भगवान राम के नाम का दुरुपयोग किया जा रहा है। सभी संबंधित इस तथ्य की गांठ बांध लें कि प्रदेश की जनता अर्थात मतदाता ने इस नए उन्माद को अपनी ‘समझ’ के लिए चुनौती मान लिया है। और यह अकाट्य सत्य है कि जब-जब मतदाता ने अपनी ‘समझ’ का प्रयोग किया है, परिणाम ऐतिहासिक निकलते रहे हैं।

Monday, October 17, 2016

दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में 40 फीसदी भारतीय

दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में 40 फीसदी भारतीय'


भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से है, लेकिन यहां कुपोषित बच्चों की तादाद शर्मनाक रूप से बढ़ रही है. दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में 40 फीसदी भारतीय हैं. यह संख्या अफ्रीका से भी ज्यादा है. यूनिसेफ की रिपोर्ट है कि देश के साढ़े 5 करोड़ बच्चे यानी 5 साल से कम उम्र के लगभग आधे भारतीय बच्चे कुपोषित हैं.

फंड में कटौती से बच्चों की जान पर बनी
नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद से भारत की समाज कल्याण योजनाओं के फंड में काफी कटौती की गई है. लाखों बच्चों को खाना, साफ पानी और शिक्षा मुहैया कराने वाली इन योजनाओं के मद में कटौती करके सरकार सडक़, बंदरगाह और पुल बनाने पर खर्च बढ़ा रही है. लेकिन इन सडक़ों का इस्तेमाल करने लायक होने से पहले ही बच्चे जान से जा रहे हैं. मानवाधिकार आयोग ने पालघर में बच्चों की मौत को मानवाधिकारों का उल्लंघन माना है.

रंग लायेगा कुपोषण घोटाला
2014 के आंकड़ों के अनुसार 2 अरब लोग कुपोषित हैं पूरी दुनिया में

ऐसा ही नहीं कि डायरिया, निमोनिया और कुपोषण की चपेट में आने से अकेले श्योपुर जिले में ही मासूम बच्चे काल के गाल में समाये बल्कि इस मामले में भोपाल जिले में 587, बडवानी में 537, बैतूलमें332, विदिशा में 341, उज्जैन में 301, सतना में 346, मुरैना में 228, झाबुआ में 251, जबलपुर में 276, धार में 223, गुना में 207
यह आकंडा तो विधानसभा में दिये गये सरकारी आंकड़ा है लेकिन यह भी संभावना प्रबल दिखाई देती है कि उन सरकारी आंकड़ों से स्थिति कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि सरकार और राज्य शासन में बैठे अधिकारी तो अपनी जान बचाने के लिये सच्चाई छुपाने में लगे रहते है तो यह संभावनायें नजर आती है कि गैर सरकारी आंकडे भी सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक होगें। रावत के अनुसार श्योपुर में पिछले दो माह में 70 से अधिक बच्चों की मौत कुपोषण से हो चुकी है और हजारों बच्चे आज भी कुपोषण से पीडि़त है।

द्द रहीम खान
मध्य प्रदेश में यूं तो कुपोषण के नाम पर करोड़ों रुपये मुख्यमंत्रीजी शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल के दौरान खर्च किए गए, लेकिन मजे की बात यह रही कि कर्ज के बोझ से दबे प्रदेश का खजाना खाली होने के बावजूद ना सिर्फ इतनी भारी भरकम राशि खर्च की गई, वरन अन्य सरकारी योजनाओं की तरह इसमें भी मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारियों ने दिल खोलकर लूट खसोट का काम किया और उन्हें बच्चों और गर्भवती महिलाओं के निवाले को छीनने में जरा भी शर्म नहीं आई. यदि कुपोषण के मामले में की गई फर्जी कार्यवाहियों और इस मुद्दे पर किए गए खर्च की किसी निष्पक्ष एजेंसी से ईमानदारी से जांच करवाई जाए तो साफ हो जाएगा कि राज्य में मुख्यमंत्री की अच्छी मंशा को पलीता लगाने का काम जो मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारियों और ठेकेदारों के रैकेट द्वारा वर्षो से किया जा रहा है और वे देश के विकास और उसकी समृद्धि की चिंता करते हुए अपने हितों और लक्ष्मी दर्शन को ही सर्वाधिक वरीयता देते हैं. हालांकि, इस मुद्दे को लेकर राज्य के कांग्रेसी विधायक रामनिवास रावत ने मुख्यमंत्री चौहान को ब्यौरावार विवरण देते हुए एक लम्बी चौड़ी चिट्टी लिखी है. यह पत्र यह दर्शाता है कि मुख्यमंत्री के इर्दगिर्द और उनके चहेते उनकी आंखों के नूर अधिकारियों का जो काकस है, वह मुख्यमंत्री की छवि बनाने के बजाय उसमें पलीता लगाने में लगा हुआ है. हैरत इस पर अधिक है कि मुख्यमंत्री इस रैकेट का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं. अब इसके पीछे क्या कारण हैं, इसको लेकर लोगों के बीच अपनी-अपनी चर्चाएं हैं, अपने-अपने कयास हंै. रावत ने अपने पत्र में बताया है कि उन्होंने एक अप्रैल, 2014 से जनवरी, 2016 तक प्रदेश के अन्य कुपोषित कुपोषण का दंश झेल रहे क्षेत्र के नहीं बल्कि अकेले श्योपुर जिले में छह वर्ष तक की आयु तक के 1160 और छह से 12 वर्ष तक के 120 को मिलाकर कुल 1280 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हुई हैै. जिले में किये गये सर्वे के अनुसार 80,918 बच्चों में से 19,724 बच्चे कुपोषित पाए गए. अकेले श्योपुर जिले में ही पिछले 152 दिनों में कुपोषण से 132 बच्चों की मौत हुई, यानि प्रतिदिन एक बच्चा कुपोषण के कारण काल के गाल में समाता रहा. रामनिवास रावत के अनुसार, यह स्थिति केवल श्योपुर की है, लेकिन उनके द्वारा लिखे गये अपने पत्र में जो पूरे प्रदेश का ब्यौरा दिया है, वह इस बात का प्रमाण है कि मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारियों और ठेकेदारों के रैकेट के चलते इस प्रदेश में किस तरह से कुपोषण के नाम पर बेहिसाब गड़बड़झाला किया गया है और जिस कुपोषण के कलंक की चिंता से मुख्यमंत्री चितिंत है, उसे लेकर ही उनकी छवि को तार-तार किए जाने की साजिश रची गई है. यह बात और है कि इसके बावजूद मुख्यमंत्री उनकी छवि को दागदार करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही करने में असहाय हैं. इसको लेकर भी तरह तरह की चर्चाएं व्याप्त हैं. रावत द्वारा दिए गए आंकड़े में सरकार द्वारा उनके 18 जुलाई, 2016 को विधानसभा में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में जून, 2016 तक की अवधि में जिन 27 लाख 62 हजार 638 बच्चों का सर्वे किए जाने की जानकारी दी थी, उनमें से 13 लाख, 31 हजार, 88 बच्चे कुपोषित पाए गए. इन आंकड़ों में 80,918 में से 19724 बच्चे अकेले श्योपुर में मिले. इन आंकड़ों को देखने के बावजूद भी राज्य शासन द्वारा श्योपुर जिले में कुपोषण से जूझ रहे बच्चों के प्रति जरा भी संवेदना नहीं दिखाते हुए उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया, परिणामस्वरूप हाल ही में श्योपुर जिले में कुपोषण के शिकार बच्चों की एक के बाद मौत की घटनाएं घटित हुईं. प्रदेश में कुपोषण के नाम पर मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारियों द्वारा जो भ्रष्टाचार का नंगा नाच चंद ठेकेदारों के द्वारा खेला गया, उसकी कहानी भी रावत ने बखान की है कि बच्चों और गर्भवती महिलाओं के निवालों पर इन मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारियों द्वारा किस तरह से डाका डालने का काम किया है।

 उनके अनुसार एक जनवरी, 2016 से जून, 2016 तक 152 दिनों में प्रदेश में डायरिया, निमोनिया और कुपोषण से 9167 बच्चों की मौत हुई, यानि प्रतिदिन 60 बच्चे. आंकड़े यह भी साबित करते हैं कि यह सब खेल उच्चस्तरीय सांठगांठ की बदौलत ही राज्य में चलना संभव है. अब कुपोषण के नाम पर मिलने वाली भारी भरकम राशि पर डाका डालने में किस किसने हिस्सेदारी हासिल की है, इसका भी खुलासा होना चाहिए. उनका आरोप है कि बच्चों की पीड़ा का कारण सरकार है क्योंकि सरकार द्वारा बच्चों और महिलाओं को बांटे जाने वाला पूरक पोषण आहार एवं मध्यान्ह भोजन भारी भ्रष्टाचार के चलते उन तक पहुंच ही नहीं रहा है, वहीं भारी सूखे के बावजूद रोजगारमूलक काम शुरू हो पाने से गरीब आदिवासियों को दो जून का भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. और दूसरी तरफ लोगों को राहत पहुंचाने की बजाए प्रशासन बच्चों की मौत पर पर्दा डालने की कोशिश में लगा हुआ है. हालांकि, मुख्यमंत्री चौहान द्वारा हाल ही में कुपोषण के मामले में श्वेत पत्र जारी करने की घोषणा की गई है, जिसमें प्रदेश के कुपोषण के नाम पर उनके चहेते अधिकारियों की सांठगांठ से चल रहे कुपोषण के धंधे का काला सच को उजागर किए जाने की मांग कई स्वयंसेवी संगठनों और राजनेताओं के साथ-साथ भाजपा से जुड़े कई नेता भी दबी जुबान से कर रहे हैं. इन भाजपा नेताओं का यहां तक कहना है कि कम से कम मुख्यमंत्री श्वेत पत्र के बजाए यदि कुपोषण के नाम पर चल रहे उनके करीबी अधिकारियों के गोरखधंधे और सांठगांठ को काले चि_ के नाम पर उजागर करने की पहल ही कर दें तो उनकी छवि में काफी निखार आएगा और यह बात भी जनता के सामने आएगी कि मुख्यमंत्री किस तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने और दोषियों को नहीं बख्शने के अपने कथन पर कायम रहते हुए अपने ही इर्द गिर्द के अधिकारियों की छवि को बेनकाब करने में भी पीछे नहीं रहते हैं. इस तरह लोगों को इंतजार है मुख्यमंत्री द्वारा श्वेत पत्र के बजाय अधिकारियों के काले कारनामों का काला चि_ उजागर किए जाने का. देखना यह भी है कि मुख्यमंत्री भ्रष्ट अधिकारियों को बख्शे नहीं जाने के अपने दावे पर कायम भी रह पाते हैं या नहीं.

80.5 करोड़ ऐसे लोग हैं दुनिया भर में जिनके पास पर्याप्त खाना नहीं
कौन हैं पालघर में 600 बच्चों की मौत के जिम्मेदार
महाराष्ट्र में इस वर्ष भारत सरकार की वजह से 600 बच्चों की जान चली गई. इन मौतों का सीधा संबंध समाज कल्याण की योजनाओं में हुई फंड की कटौती से है. मामला पालघर जिले से जुड़ा है, जहां 600 बच्चों के इस वर्ष कुपोषण के कारण मरने की खबर है. असल में इन बच्चों की मौत की दोषी केंद्र सरकार है. ये बच्चे इसलिए मरे क्योंकि केंद्र सरकार ने कल्याण योजनाएं बंद कर दीं और राज्य सरकार ने उसकी योजनाओं के लिए फंड नहीं दिया. हैरत इस पर भी है क्योंकि भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई से पालघर की दूरी सिर्फ 100 किलोमीटर है, जहां बच्चे भूख से मर रहे हैं. पालघर के ज्यादातर बाशिंदे गरीबी हैं और पंडित बताते हैं कि ये लोग समाज कल्याण की सरकारी योजनाओं पर ही निर्भर हैं. इनमें स्वास्थ्य और दूसरी कई तरह की सेवाएं हैं. जिले में मेडिकल सुविधाएं बहुत कम हैं और पहुंच से लगभग बाहर हैं. सत्य है कि हमें नौकरियां उपलब्ध करानी हैं, गरीबी को भी दूर करना है लेकिन यह भी तो सुनिश्चित करना है कि बच्चों को खाना मिले. हमारे पास संसाधन तो हैं लेकिन इन बच्चों के लिए सहानुभूति नहीं है, इसलिए कोई कुछ नहीं करता.