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Thursday, March 31, 2016

फिलहाल कारगर 'कम दाग, अधिक स्वच्छता !



नितिन गडकरी
एक केन्द्रीय मंत्री...!
पुण्यप्रसून वाजपेयी
एक पत्रकार...!
गडकरी कहते हैं 'आज कोई भी 'परफेक्ट' नहीं। न तो समाज, न लीडर, न पत्रकार'।
प्रसून कहते हैं, 'आज पत्रकार की प्राथमिकता सत्ता नहीं, बल्कि कार्पोरेट घराने हैं।
साफ है कि दोनों ने साफगोई से काम लिया है। इनके शब्द और इनमें निहित संकेत-संदेश चुनौती से परे हैं। दलीय अथवा गुटीय आधार पर छद्म पेशेवर चुनौती देने सामने आएंगे किंतु, व्यापक समाज उनकी चुनौतियों को गंभीरता से नहीं लेगा। गडकरी एक राजनेता के रूप में और प्रसून एक पत्रकार के रूप में अपने लंबे अनुभवों के आधार पर अगर कड़वे सच को चिन्हित करते हैं तब उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। बल्कि, इससे भी आगे बढ़ते हुए संबंधित बिरादरी अर्थात राजदल और पत्रकार इनके शब्दों पर चिंतन-मनन करें। चिन्हित सच आज की राजनीति और पत्रकारिता का सच है।
भला इससे कौन इनकार कर सकता है कि आज सकारात्मक राजनीति अथवा सकारात्मक पत्रकारिता के लिए एक-दूसरे का पूरक बनने की जगह निज-स्वार्थ सिद्धि के लिए ये दोनों परस्पर पूरक बन गए हैं? राजनीतिकों को गालियां तो बहुत पहले से ही पडऩी शुरू हो चुकी है। राजनेता इसके आदी हो गए हैं। बल्कि उनकी चमड़ी मोटी हो गई है। पिछले कुछ वर्षों से पत्रकारों को भी ऐसी दु:स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। पूरी की पूरी बिरादरी तो नहीं किंतु, उनका बहुसंख्यक इस वर्ग में शामिल है। शनै:-शनै: यह वर्ग भी बेशर्म होता जा रहा है। दु:स्थिति के लिए जिम्मेदार वे स्वयं हैं। उन्होंने स्वयं ऐसी स्थिति को आमंत्रित किया है-अपने संदिग्ध आचरण से, लांछन-योग्य कर्मों से ।
  अभी कुछ वर्ष पूर्व नीरा राडिया प्रकरण ने पत्रकारिता क्षेत्र के कुछ बड़े हस्ताक्षरों, यथा  बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला के चेहरों से नकाब उतार दिया था। बड़े व्यावसायिक घराने के बिचौलिए के रूप में इनके नाम दर्ज हो गए थे। युवा पत्रकारों के लिए आदर्श के रूप में स्थापित इन लोगों ने तब पूरी की पूरी पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा कर दिया था। परंतु, परिणाम? शून्य! कोई आत्मचिंतन नहीं, कोई संशोधन नहीं और कोई पछतावा नहीं !
कोई आश्चर्य नहीं कि वे एक अन्य रूप में 'मार्गदर्शक व प्रेरक' बन गए। प्रसून ने इसे विस्तारित कर दिया कि आज के पत्रकार सत्ता से जुडऩे की बजाय व्यवसायिक घरानों से जुडऩा ज्यादा पसंद करने लगे हैं।  
कारण अथवा लोभ बताने की जरुरत नहीं। साफ-साफ सामने हैं- अर्थलाभ। और इससे जुड़ा वैभव-ऐश्वर्य। फिर क्या आश्चर्य कि, बकौल प्रसून, 'आज दिल्ली में सौ से अधिक पत्रकार कार्पोरेट घरानों के लिए काम कर रहे हैं।' यहां स्पष्ट कर दूं कि 'कार्पोरेट घरानों के लिए काम करना और कार्पोरेट घरानों में काम करना' में फर्क है। किसी कार्पोरेट घराने द्वारा संचालित मीडिया संस्थान से जुड़ अपने दायित्व का निर्वाह करना एक बात है और मीडिया घरानों के हित के लिए पत्रकारिता से इतर स्याह-सफेद  करना दूसरी बात। प्रसून का आशय इस दूसरे पक्ष से है। और यह सच भी है। पाठक व दर्शक पत्रकारों से अपेक्षा करता है तथ्याधारित सच्ची खबर की और तटस्थ-निष्पक्ष विश्लेषण की।  इस अपेक्षा की पूर्ति एक पत्रकार तभी कर सकता है जब वह सत्ता और कार्पोरेट घरानों से पृथक रहकर कलम उठाए। राज्यसभा की सदस्यता की चाहत या कार्पोरेट घरानों के 'ऐश्वर्य' की चाहत रखनेवाले पाठकीय अपेक्षा की पूर्ति कदापि नहीं कर सकते।
गडकरी जब कहते हैं कि आज समाज, नेता, पत्रकार कोई भी 'परफेक्ट' अर्थात परिपूर्ण नहीं है, तो इसे मात्र एक कड़वे सच का रेखांकन न मान, इनके शब्दों में निहित पीड़ा पर विमर्श किया जाना चाहिए। जिंदगी के लिए आवश्यक संसाधनों व उनकी पूर्ति की आपा-धापी के बीच 'परिपूर्णता' अगर है तो वह अपवाद के खांचे में रूदन करती खड़ी मिलेगी। गडकरी सही हैं कि आज कोई भी परिपूर्ण नहीं है। लेकिन इसकी चाहत रखनेवाला, इसकी तलाश करनेवाला अगर परिपूर्णता के निकट पहुंच इसके दरवाजे पर दस्तक भी देता है तब, देश-समाज इसे उपलब्धि मान मुदित हो सकता है। नेता, पत्रकार और समाज इस हेतु प्रयास तो करें! एक पूर्णत: अ-परिपूर्ण व्यक्ति चाहे वह नेता हो या पत्रकार या फिर संपूर्णता में समाज ही क्यों न हो, अपेक्षित की आपूर्ति नहीं कर सकता। ऐसे में प्रयास कर इसके निकट पहुंचनेवाला अवश्य, अगर पूरा नहीं तो एक संतोषजनक मात्रा में, आपूर्ति कर सकता है। देश और समाज इससे संतुष्ट होगा। पूरी सफेद कमीज के किसी एक कोने में दाग को समाज स्वीकार कर लेगा किंतु, पूरी की पूरी दागदार कमीज को नहीं। चूंकि गडकरी की गिनती सामान्य राजनेता से पृथक एक स्पष्टवादी व व्यावहारिक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में होती है, उन्होंने बगैर शब्दों को चबाए सचाई को उगल दिया। बेहतर हो, राजनेता भी यहां से सूत्र पकड़ राजकर्म में एक-दो... दागदार बूंदों की परवाह न कर शेष स्वच्छता की चिंता करें। कोई उन्हें दागी नहीं कहेगा।  यह व्यवहारिक स्वीकृति होगी।  बाद में ऐसे दाग आसानी से साफ किए जा सकेंगे। और तब पूरी की पूरी कमीज बेदाग, साफ सामने होगी।
राजनेता और पत्रकार 'कम-दाग, अधिक-स्वच्छता'  को सफलता का मंत्र मान एक दूसरे के पूरक बन कदमताल करें, पेशेवर क्रांति आ जाएगी। 

26/3 का रहस्य?

स्वयं के 'उपयोग' से बचें मीडिया घराने
जेएनयू प्रकरण मे उजागर 'फर्जी वीडीयो' के बाद उत्तराखंड में 'फर्जी स्टिंग' प्रकरण ने मीडिया मंडी को नहीं नेताओं को नंगा किया है। हां, 'मंडी' का आंगन उपलब्ध कराने का अपराधी मीडिया अवश्य बना है। दोनों मामलों में। ताजा उत्तराखंड में। साथ ही मामला हैदराबाद विश्वविद्यालय का भी है, जिसके परिसर में मीडिया प्रवेश पर बंदिश है।
जेएनयू कांड में कुछ चैनलों पर प्रसारित फर्जी वीडियो को आधार बना दिल्ली पुलिस ने राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज कर कुछ गिरफ्तारियां की। जांच हुई, प्रमाणित हुआ कि वीडियो फर्जी था। आरोपियों को जमानत मिल गई। उत्तराखंड में एक राजनीतिक उथल-पुथल के बीच एक खबरिया चैनल समाचार प्लस ने मुख्यमंत्री हरीश रावत का एक 'स्टिंग' प्रसारित कर केंद्र सरकार को एक हथियार उपलब्ध करा दिया। आनन-फानन में उच्च स्तर पर चर्चा हुई, फैसला लिया गया और प्रदेश में सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। स्टिंग से लेकर राष्ट्रपति शासन लगाने तक के घटनाक्रम पर गौर करें। 26 मार्च को हरीश रावत की सीडी बनाई गई। 26 को ही वो सीडी दिल्ली पहुंच गई। 26 को ही वहां से सेंट्रल फॉरेंसिक लैब, चंडीगढ़ भी पहुंच गई। लैब सरकारी है और लैब ने हरीश रावत के वॉइस सैंपल लेकर उसका सीडी से मिलान भी करा दिया। वो भी 26 को ही। 26 को ही जांच की रिपोर्ट भी आ गई, और फारेंसिक लैब की जांच रिपोर्ट में सीडी असली घोषित। और रिपोर्ट 26 को ही राष्ट्रपति तक पहुंच गई। 26 को ही प्रधानमंत्री मोदी आनन-फानन में असम से दिल्ली पहुंचे और 27 की सुबह राष्ट्रपति शासन लागू। अब कोई भी इसे संदेह की नजरों से तो देखेगा ही। हां, यह जरूर है कि इस घटना या साजिश में खबरिया चैनल का स्टिंग ऑपरेशन गलत नहीं है। स्टिंग बिलकुल सही है। चैनल के ऊपर यह आरोप लगाया जा सकता है कि, कतिपय राजनेताओं अथवा राजदल विशेष ने खबरिया चैनल समाचार प्लस का 'उपयोग' कर लिया। अब मंडी यह पूछ सकता है कि चैनल का उपयोग अनायास हो गया या चैनल ने स्वयं को उपयोग के लिए उपलब्ध कराया। यहां शंका या बहस चैनल की 'नीयत' को लेकर। आरोप लग रहे हैं कि चैनल के मालिक के एक बागी कांग्रेस नेता के साथ अच्छे संबंध हैं। आवश्यकतानुसार एक मित्र दूसरे मित्र की मदद करते हैं। संभवत: यहां भी वही हुआ, किंतु मामला यहां चैनल से इतर राजनीतिक साजिश का है। उपर दिए गए 26/3 के घटनाक्रम से साफ है कि मुख्यमंत्री रावत के खिलाफ बागी कांग्रेसी नेता ने समाचार प्लस का भरपूर उपयोग किया।  जेएनयू प्रकरण के उलट। उस प्रकरण में कुछ खबरिया चैनल पूरी तरह साजिशकर्ताओं के साथ थे। उन्होंने मिलकर साजिश रची थी। फर्जी वीडियो तैयार किया गया, जिसके आधार पर दिल्ली पुलिस ने कुछ छात्रों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह जैसा संगीन मामला तैयार कर लिया था। इस मुकाम पर 'मीडिया मंडी' को सतर्क रहना होगा। राजनेता अथवा राजदल अपने स्वार्थपूर्ति हेतु मीडिया का उपयोग ही नहीं करेंगे बल्कि आवश्यकता पडऩे पर उसके साथ छल भी कर डालेंगे।
दूसरा मामला हैदराबाद विश्वविद्यालय का। वहां की एक छात्रा ने राष्ट्रिय मीडिया के नाम पर एक खुला पत्र लिखकर 'मीडिया ट्रायल' पर विरोध जताया है। उसने मीडिया पर सीधे-सीधे आरोप लगाया था कि ब्रेकिंग न्यूज के भूखे चैनल हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर के अंदर मीडिया के प्रवेश पर रोक के बावजूद 'करिश्मा' क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं। छात्रा का इशारा मीडिया के पास उपलब्ध उन संसाधनों,यंत्रणा से है, जिनका उपयोग कर वह प्रतिबंधित विश्वविद्यालय परिसर के अंदर हो रहे अत्याचारों का पर्दाफाश कर सकता है। छात्रा को दुख है कि आरंभ में राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा को सनसनी बना प्रसारित करनेवाला भारतीय मीडिया आज 'फॉलोअप' से दूर सचाई को उजागर करने में असमर्थ क्यों है?
छात्रा का सवाल या शंका अनुचित तो कदापि नहीं। हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर के अंदर पुलिस ने छात्रों के खिलाफ जिस वहशीपन का प्रदर्शन किया था उसे पूरे देश ने मीडिया के माध्यम से देखा था। बिलकुल तानाशाही अंदाज में प्रतिक्रिया कार्रवाई की गई थी। उसके बाद परिसर के अंदर मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। आश्चर्य इस बात का कि इस नाजायज पाबंदी का विरोध मीडिया की ओर से उस रूप में सामने नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी। क्या मीडिया और सत्ता-प्रशासन के बीच कोई समझौता हो गया? इस बिंदू पर मीडिया का ताजा मौन संदेह को बल तो देता ही है।  जब विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों पर लाठियां बरसाईं जा रही थी, उन्हें पीटा जा रहा था, चुनिंदा गालियों से नवाजा जा रहा था। छात्राओं को पकड़कर यातना दी गई, उन पर नस्ली और भद्दी टिप्पणियां की गई। उसके बाद यह अपेक्षा तो वाजिब थी की राष्ट्रीय मीडिया जेएनयू से कहीं अधिक हैदराबाद विश्वविद्यालय कि घटनाओं को सार्वजनिक करेगा, बहस करेगा। कार्रवाई के लिए संबंधित पक्ष को मजबूर करेगा। किंतु ऐसा नहीं हुआ। हैदराबाद विश्वविद्यालय की शोधार्थी प्रीति का यही दर्द है।
मीडिया मंडी हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर की घटना से अगर इसी तरह अप्रभावित रहा, तो तय मानिए विश्वसनीयता का ग्राफ एक बार फिर शर्मनाक निम्न स्तर पर चला जाएगा। क्या मंडी के पैरोकार ऐसा चाहेंगे?

उत्तराखंड- कसौटी पर संसदीय लोकतंत्र

लोकतांत्रिक भारत के संघीय ढांचे की मजबूती तथा केन्द्र-राज्यों के बीच मजबूत सौहाद्र्र्रपूर्ण संबंधों के प्रबल समर्थक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अगर उत्तराखंड प्रकरण का मंचन होता है, तब केन्द्र की नीयत और लोकतंत्र की नियति पर सवाल खड़े होंगे ही। आज से चार वर्ष पूर्व सन 2012 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 'ब्लॉग' में दिल्ली शासकों द्वारा सुनियोजित ढंग से देश के संघीय ढांचे को कमजोर किए जाने पर चिंता प्रकट की थी।
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के फैसले के आलोक में प्रधानमंत्री मोदी की तब की सोच और आज की सोच में फर्क स्पष्टत: दृष्टिगत है। साफ है कि फैसला राजनीतिक था। नैनीताल उच्च न्यायालय ने अपने दो अलग-अलग आदेशों में सदन के अंदर ही शक्ति परीक्षण की जरूरत को चिन्हित किया है। हालांकि उच्च न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई और आदेश बाकी है समीक्षक आशान्वित हैं कि अंतत: आदेश शक्ति परीक्षण के पक्ष में ही जाएगा। जहां तक कांग्रेस के 9 बागी सदस्य के निलम्बन का सवाल है पूर्व के अदालती आदेश स्पष्ट हैं कि यह विधानसभा अध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र का मामला है। बहरहाल अंतिम आदेश जो भी हो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा कर केंद्र सरकार ने उसी गलत परम्परा को आगे बढ़ाया है जो पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारें करती आई थीं। भारत के संघीय ढांचे और केंद्र -राज्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करनेवाला केंद्र सरकार का ताजा कदम किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं दिखता।
केंद्र और महाराष्ट्र में भाजपा के एक महत्वपूर्ण सहयोगी दल शिवसेना ने इस कार्रवाई को लोकतंत्र की हत्या निरुपित किया है। शिवसेना की यह आशंका राष्ट्रीय बहस का आग्रही है कि भाजपा देश में एकदलीय शासन की चाहत रखती है। किसी भी लोकतंत्र के लिए ऐसी प्रवृत्ति खतरनाक ही है। स्वयं भाजपा के विचारक व बड़े नेता पूर्व में लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते रहे हैं। राष्ट्रहित और लोकतंत्र को सर्वोपरि माननेवाली भाजपा पर ऐसी संदेहयुक्त शंका चोट पहुंचाती है।
दु:खद है कि सत्ता स्वार्थ में अंधी हो चुकी सरकारें समय-समय पर भूल जाती हैं कि लोकतांत्रिक भारत किसी की बपौती नहीं, इस पर सिर्फ लोक अर्थात जनता का अधिकार है। उत्तराखंड में भी केन्द्र सरकार ऐसे ही दुराग्रह की अपराधी बन बैठी है।
 भारत के संघीय ढांचे और केन्द्र -राज्यों के बीच सौहाद्र्रपूर्ण संबंध, संबंधी प्रधानमंत्री मोदी की सकारात्मक नीति व पहल के आलोक में स्वाभाविक सवाल खड़ा होता है कि क्या राजनीतिक लाभ के लिए वर्तमान भाजपा सरकार भी पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकार की राह पर चलना चाहती है? ध्यान रहे कांग्रेस के शासन-काल में गैर-कांग्रेस शासित राज्यों के साथ ऐसे खेल खेले जाते रहे थे। छद्म कारणों को आधार बना तब राज्य सरकारें बर्खास्त कर दी जाती थीं। ऐसी ही एक घटना के पश्चात सर्वोच्च न्यायालय ने सदन के अंदर ही बहुमत साबित करने संबंधी फैसला सुनाया था। इसकी उपेक्षा करते हुए नई केन्द्र सरकार द्वारा कांग्रेस स्थापित गलत राह का वरण नैनीताल उच्च न्यायालय के आदेश के बाद उसके लिए शर्मनाक साबित हुआ।

Wednesday, March 23, 2016

विजय माल्या की राह पर महुआ टीवी के तिवारी

चर्चित महुआ चैनल के प्रमोटर पी. के. तिवारी पर अब प्रवर्तन निदेशालय ईडी का शिकंजा कसता नजर आ रहा है। 14 राष्ट्रीय बैंकों को अरबों रुपये का चूना लगाने वाले तिवारी पर आरोप है कि चैनल के स्टूडियो बनाने के नाम पर फर्जी तरीके से पांच कंपनियां बनाकर अलग-अलग बैंकों से लोन लेकर अरबों रुपये का चूना लगाया। तिवारी के खिलाफ ईडी और सीबीआई के आलावा आयकर विभाग की भी जांच चल रही है।
बैंक अधिकारियों की मिलीभगत
सूत्रों के मुताबिक जी न्यूज और आज तक के बगल में स्टूडियो की खाली पड़ी जमीन पर महुआ चैनल के मालिक पीके तिवारी ने स्टूडियो तो नहीं बनाया, लेकिन इमारतें जरूर खड़ी कर दी। बताया जाता है पहुंच वाले तिवारी ने बैंक अधिकारियों से सांठगांठ कर बिना मौके का मुआयना किये लोन ले लिया।  जिसके चलते बैंक भी अपने कर्जे की वसूली को लेकर उसके खिलाफ कोई करवाई नहीं कर सके।
स्टूडियो की जमीन को छिपाया
गौरतलब है कि तिवारी ने बैंकों से लोन लेने के लिए 150 पेज  वाली जो प्रोजेक्ट रिपोर्ट एसबीआई काप्स से तैयार कराई, उसमें लिखा 101 . 59 करोड़ शेयर मार्केट से लायेंगें और बाकी का बैलेंस 203.18 करोड़ रुपये तीन अन्य बैंकों से फाइनेंस करायेंगे।  इन बैंकों में पीएनबी, बैंक ऑफ बड़ोदा और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया शामिल हैं। एसबीआई काप्स की रिपोर्ट में डिजटल स्टूडियो की जगह का जिक्र नहीं है,  लेकिन इस जगह के नाम पर 300 करोड़ रुपये का बैंक से कर्ज महुआ के मालिक पी. के तिवारी ने ले लिया। यही हाल पीएनबी का हुआ। फिलहाल इस मामले की जाँच कर रही एजेंसियों का कहना है कि करोड़ों का लोन देने से पहले किसी भी बैंक के फील्ड अफसर ने महुआ चैनल के नोएडा कार्यालय जाने की जरुरत भी नहीं समझी।
चर्चा का बाजार गर्म, भाग न जाए एक और 'विजय माल्या'
इन दिनों अपने आंगन में एक 'विजय माल्या' के अवतरण से बेचैन है। वैसे यह पहली घटना प्रकाश में आई है, अनेक अभी अंधकार में छिपे हैं। चर्चा का बाजार गर्म है कि क्या शराब कारोबारी विजय माल्या की तरह यह चैनल कारोबारी माल्या भी कानून को ठेंगा दिखा विदेश भाग जाएगा या ऊपरी 'कृपा' से पाक साफ बच जाएगा ?
बैकों से यूं ऐंठे अरब-खरब
सूत्रों के मुताबिक कभी इंडिया टीवी के मालिक रजत शर्मा के खास रहे पी के तिवारी ने रजत शर्मा से अलग हो जाने के बाद नोएडा की फिल्म सिटी में अलग-अलग टीवी लांच करने के नाम पर 14 राष्ट्रीय बैंकों को अरबों रुपये का चूना कर्ज लेकर लगाया। मिसाल के तौर पर महुआ टीवी की कंपनी सेंचुरी काम्युनिकेशन थी। इसी कंपनी को लांच करने के लिए 760 करोड़ रुपये लिए गए। इसी तरह एडिटिंग के लिए तिवारी ने पिक्शन विजन कंपनी बनाई। इसके लिए बैंकों से 195 करोड़ ऐंठ लिए। इतना ही नहीं महुआ के एक ओर चैनल के लिए 234 करोड़ की टोपी बैंकों को पहनाई। बताया जाता है कि तिवारी ने प्रोजेक्ट की फर्जी रिपोर्ट बनाकर नोएडा और कोलकाता में देश का सबसे आधुनिक डिजटल स्टूडियो बनाने की प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की और स्टेट बैंक से लेकर पंजाब नेशनल बैंक तक के अधिकारियों को खिला-पिला कर 304 . 77 करोड़ रुपये वसूल लिए। 

संवेदनशील व ज्वलनशील राष्ट्रवाद

परिवर्तन के वादे के साथ केन्द्रीय सत्ता की कमान संभालनेवाले प्रधानमंत्री मोदी जब कहते हैं कि सरकार  और संगठन को विकास, विकास और सिर्फ विकास के मूलमंत्र के साथ आगे बढऩा होगा तब, एक सवाल सहज रुप से प्रकट होता है कि फिर 'वोट बैंक' की राजनीति क्यों ?
पिछले दिनों भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री द्वारा संबोधित हर शब्द विकास केन्द्रित रहा। उन्होंने बिल्कुल ठीक ही विकास को देश की सभी समस्याओं के समाधान का मूलमंत्र बताया। लेकिन ठीक इसके विपरीत बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह सहित अन्य नेताओं ने कुछ हालिया अरुचिकर विवादों को केन्द्र में रखते हुए राष्ट्रवाद के मूलमंत्र को चिन्हित किया। परस्पर विरोधी ऐसे रुख से भ्रम की स्थिति पैदा होती है। सरकार और संगठन के चरित्र और कार्यशैली से परिचित सहमत होंगे कि ऐसा अनायास नहीं होता। गंभीर विचार मंथन के पश्चात सत्ता और संगठन के लिए ऐसी भूमिका निर्धारित की जाती है। इसे ही कहते हैं वोट की राजनीति की मजबूरी।
चूंकि, देश की जनता ऐसे परस्पर विरोधी बयान-आचरण की आदी हो चुकी है, उसे प्रधानमंत्री व अन्य नेताओं के भाषणों पर आश्चर्य नहीं हुआ। उसे इसकी चिंता भी नहीं। जनता की चिंता विकास और उससे जुड़ी अन्य क्रियाओं को लेकर है। वह जानती है कि विकास का अर्थ देश की चहुंमुखी प्रगति से जुड़ा है। विकास होगा तो खुशहाली आयेगी। खुशहाली का लाभांश हर किसी के हिस्से में जाएगा। देश की जमीनी सचाई से अच्छी तरह अवगत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकास के मूलमंत्र को चिन्हित किया है तो सोद्देश्य ! पार्टी अध्यक्ष सहित अन्य नेता जब राष्ट्रवाद को चिन्हित करते हैं तब तय मानिए कि आनेवाले विधानसभा चुनाव में पार्टी इसी मुद्दे को लेकर मैदान में उतरेगी। पिछले वर्ष बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जाति-धर्म-संप्रदाय और क्षेत्रीय आवश्यकता आदि के प्रयोग विफल साबित हो चुके हैं। इस सचाई की मौजूदगी के कारण पार्टी को एक नए मुद्दे की तलाश थी। जेएनयू प्रकरण ने जिस प्रकार देशभक्ति बनाम देशद्रोही की लड़ाई छेड़ दी, भाजपा को बैठे-बिठाए राष्ट्रवाद का मुद्दा मिल गया। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका विरोध कोई भी राजदल नहीं कर सकता। सभी को इसके पक्ष में आना ही होगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रवाद की आग की लपटों में कौन झुलसता है और कौन बेदाग बाहर निकल आता है? कांग्रेस सहित अन्य दलों को इस मुद्दे की काट की तलाश न कर अपने पक्ष में भुनाने की कौशलता का प्रदर्शन करना होगा। राष्ट्रवाद एक अत्यंत ही संवेदनशील व ज्वलनशील मुद्दा है। इसका स्पर्श करते समय हाथों की सुरक्षा और स्वच्छता दोनों का खयाल रखना होगा।   

पाठकों के 'हीरो' या मालिकों के 'चरणदास'

और अब, देश के उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी..!
मीडिया को नसीहत दी, लेकिन शालीनता के साथ। सत्य के धरातल पर, सचाई की कसौटी पर कसते हुए।
तब, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी! 2015 के दिल्ली चुनाव में मीडिया द्वारा केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को भाजपा के मुकाबले काफी आगे बताए जाने पर बरस पड़े थे। सार्वजनिक सभा में मीडिया को 'बाजारू' निरुपित कर डाला था।
आश्चर्य या दु:ख की बात नहीं। राजनेता अपनी सुविधानुसार मीडिया- मंडन करते रहते हैं। वैसे जूते खाने की हालत के लिए मीडिया अवसर भी स्वयं प्रदान करता रहा है।
उप-राष्ट्रपति अंसारी की पीड़ा, अपेक्षा और हिदायत हमें चिंतन को विवश करता है। ईमानदार चिंतन करें, स्वच्छता प्रतीक्षारत मिलेगी। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय  प्रकरण में वीडियो के फर्जीवाड़े से चिंतित उप-राष्ट्रपति ने बिल्कुल सही दर्द व्यक्त किया कि आज पत्रकारिता में निडर संपादकीय, उच्च पेशेवर और नैतिक मानक दुर्लभ हो गए हैं। उपराष्ट्रपति द्वारा व्यक्त इस भावना को कोई चुनौती दे सकता है? कदापि नहीं!   हां, यह जोड़ा जा सकता है कि दुर्लभ हैं, लुप्त नहीं हुए। संख्या में कम सही, निडर लेखिनी के धारक अभी हैं। यह स्थिति वर्तमान पत्रकारिता का यथार्थ है। उप-राष्ट्रपति ने इससे आगे बढ़ते हुए सीधे-सीधे आरोप लगाया है कि हाल के दिनों में ऐसा देखा गया कि बगैर तथ्यों की प्रामाणिकता की जांच किए समाचार प्रसारित कर दिए गए। निश्चय ही उनका इशारा जेएनयू प्रकरण की तरफ ही था। अंसारी ने आगे टिप्पणी की कि ऐसी खबरों से चैनलों के दर्शकों की संख्या में अस्थाई वृद्धि हो सकती है या चैनलों के राजनीतिक संरक्षकों के हित सध सकते हैं। किंतु, इससे उनकी विश्वसनीयता कम होती है और नागरिक अधिकार का क्षरण होता है। अंसारी ने मालिक और संपादक के बीच जिम्मेदारी के भाव में कमी और एक स्वतंत्र विचार-आधारित संपादक के प्रति मालिकों की उदासीनता पर पीड़ा व्यक्त करते हुए यह भी कहा कि, संपादकीय और विज्ञापन के बीच विभाजन की एक मोटी रेखा खींची जानी चाहिए।
स्याह आवरण के बावजूद मैं विश्वास व अपेक्षा के पूर्ण-त्याग के पक्ष में नहीं हूं। अंधकार और फिर उजाला, प्रकृति के नियम हैं। रात होगी तो भोर भी होगी। मीडिया में पतितों के बहुमत के बावजूद अल्पसंख्या में ही सही ईमानदार भी मौजूद हैं। वे निश्चय ही हामिद अंसारी के शब्दों में निहित संदेश और अपेक्षा को समझेंगे। निराकरण का प्रयास करेंगे, मार्ग ढूंढेंगे।
अंसारी ने मीडिया मालिक, संपादक और विज्ञापन की चर्चा की है। यह ठीक है कि मीडिया घरानों को राजस्व देनेवाले विज्ञापन की चिंता रहती है। संस्थान चलाने के लिए यह आवश्यक भी है। किंतु, जब इसकी कीमत पर पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत और चरित्र के साथ समझौते होने लगें, मानक बिखरने लगें तब चिंता होती है। सच तो यह है कि आज सिर्फ भारतीय ही नहीं, वैश्विक मीडिया भी इस संकट से त्रस्त है। ऐसे में सही मार्गदर्शक के रूप में एक स्वतंत्र, ईमानदार और निडर संपादक की मौजूदगी अपेक्षित है। संपादकीय कक्ष में मीडिया मालिकों के बढ़ते प्रभाव-दबाव के बीच निडर संपादकरूपी जीव की उपस्थिति स्वयं में एक खबर बनती है। क्योंकि कुछ अपवाद छोड़ अधिकांश संपादक मालिकों की इच्छा के सामने नतमस्तक ही दिखते हैं। शायद यह वैश्वीकरण का प्रभाव भी हो। पूरे संसार में 'मीडिया मुगल' के रूप में विख्यात 'रुपर्ट मर्डोक' के विषय में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे अपने सभी समाचार पत्रों और टी.वी चैनलों में संपादक के पद पर ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति करते हैं जो समाचार कक्ष में 'मालिक की आवाज' माने जाते हैं।  ये संपादक सुनिश्चित करते हैं कि पत्रकारों की स्वतंत्रता, मालिकों की संपादकीय सोच में निहित हो। इसी पर एक बार प्रसिद्ध अमेरिकी व्यंग्यकार  ए.जे.लिबलिंग ने टिप्पणी की थी कि,'The freedom of the press is guaranteed only to those who one!' व्यंग्य में की गई यह टिप्पणी निराधार तो कतई नहीं।
आज भारत में भी मीडिया मालिकों के बीच 'रुपर्ट मर्डोक' एक आदर्श हैं। सभी उनका अनुसरण करना चाहते हैं। हामिद अंसारी ने जिस राजनीतिक संरक्षण की ओर इशारा किया है, उस पर पत्रकार बिरादरी गौर करे। भौतिक सुख-सुविधा और तेजस्वी आभामंडल क्या राजनीतिक संरक्षण के बगैर प्राप्त नहीं हो सकता? बिल्कुल हो सकता है- जरूरतों को सीमित कर। यही बात मालिकों पर भी लागू होती है। निडर होकर पत्रकारीय मूल्य और दायित्व का निर्वहन करते हुए अपने संस्थान की विश्वसनीयता को मजबूत करें। संपादक और संपादकीय कक्ष को स्वतंत्रता प्रदान करें, उनमें आत्मविश्वास पैदा करें, उनकी जरूरतों का उचित ख्याल रखें। तय मानिए, राजनेता और राजदल आपके चरणों में होंगे। यहां मैं फिर उद्धृत करना चाहूंगा 'रुपर्ट मर्डोक' के साम्राज्य का। एक बार ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने मर्डोक के एक अखबार 'द सन' के संपादक मॅकएन्जी को फोन कर जानना चाहा कि 'हाऊस ऑफ कामन्स' में उनके द्वारा दिए गए एक महत्वपूर्ण भाषण को वे किस रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं? संपादक ने जवाब दिया 'प्रधानमंत्री जी, मेरे टेबल पर 'गंदगी' से भरी हुई टोकरी पड़ी है। कल सुबह वो सभी आपके सिर पर उड़ेलने जा रहा हूं।' किसी प्रधानमंत्री को मर्डोक जैसा ही कोई संपादक ऐसा जवाब देकर आसानी से निकल जा सकता था। ऐसा ताकतवर था मर्डोक का मीडिया साम्राज्य। तब उनका साम्राज्य सत्ता के नीचे नहीं, सत्ता के ऊपर हुआ करता था।
केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के साथ पत्रकारों सहित मीडिया घरानों में परिवर्तन का एक अनोखा किंतु, विचलित कर देनेवाला दौर चल पड़ा है। अब तक के परिणाम नकारात्मक हैं, लक्षण अशुभ हैं। संक्रमण के इस नए काल में पूरी की पूरी पत्रकारीय बिरादरी, चाल-चरित्र-चेहरा सभी कसौटी पर हैं। फैसला करना है कि हम पाठकों-दर्शकों की नजरों में 'हीरो' बनना चाहेंगे या राजनेताओं, बड़े व्यावसायिक घरानों के चरणों के दास? पूरा देश उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है।  

अगला प्रधानमंत्री भी नागपुर से!

 मोहन भागवत के प्रधानमंत्री बनने और नरेन्द्र मोदी के सरसंघचालक बनने से महाराष्ट्र की राजनीति में भी भूचाल आ गया है। चूंकि मोहन भागवत को एक खास एजेंडे के अंतर्गत प्रधानमंत्री बनाया गया है। बताया जा रहा है कि एजेंडे की पूर्ति के बाद मोहन भागवत प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी और को बिठा खुद मुक्त हो जाएंगे। एक सनसनीखेज व चौंकानेवाली जानकारी के अनुसार, भागवत के बाद अगला प्रधानमंत्री नागपुर से ही होगा। राजनीति की पंडितगिरी करनेवाले पंडित अंकगणितीय ज्योतिषियों से गणना कराने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि संघ मुख्यालय नागपुर में रहनेवाले भाजपा राजनीति के दो दिग्गजों केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी और मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस में से कोई प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठेगा। केन्द्र में प्रधानमंत्री मोहन भागवत के साथ नंबर दो पर आसीन गडकरी का पलड़ा वैसे तो भारी है किंतु, युवा फडणवीस की किस्मत भी चमक सकती है। अनुभव और कार्यकुशलता के आधार पर गडकरी की दावेदारी मजबूत रहेगी। किंतु, मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने जिस सुझ-बुझ के साथ महाराष्ट्र जैसे जटिल राज्य का मुख्यमंत्रित्व संभाला है, राज्य में विकास के नये-नये आयाम खोले हैं, देशी-विदेशी निवेश बढ़े हैं, आम लोगों के बीच सुरक्षा और विश्वास की भावना बढ़ी है, उससे उनकी दावेदारी भी मजबूत दिखती है। उनका युवा होना भी उनके पक्ष में जाता है। मृदुभाषी फडणवीस में सबको साथ लेकर चलने का गुण विद्यमान है। अधिकारियों और आम कर्मचारियों के साथ भी तालमेल बिठाने में फडणवीस निपुण हैं। दूसरी ओर अनुभव के साथ-साथ विशाल जनाधार गडकरी के पक्ष में जाता है। प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर दोनों के बीच मुकाबला तो कांटे का होगा, किंतु नागपुरवासी खुश हैं कि मोहन भागवत के बाद संतरा नगरी नागपुर को दूसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी मिलेगी। 

Thursday, March 17, 2016

'कानून के राज' को अंगूठा?

मैं बेचैन हूं!
सारा देश बेचैनै कि क्या हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था अक्षुण्ण रह पाएगी? बेचैनी इस बात की कि लोकतंत्र के तीनों पाये विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका क्या अपने वजूद खो देंगे? कोई कोरी कल्पना नहीं। इस चिंता-बेचैनी के आधार मौजूद हैं।
अभी पिछले दिनों मेरी एक जिज्ञासा पर दिल्ली में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी मेरी ताजा चिंता का कारण बनी है। श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम को लेकर मैंने कुछ जानकारी चाही थी। उक्त पत्रकार का सपाट जवाब था कि, '....आनेवाले दिनों में न्यायपालिका बेमानी हो जाएगी.... अवहेलना... अवमानना आम बात हो जाएगी।' क्या सचमुच?  लोकतंत्र में सर्वोच्च विधायिका और नियम-कानून तथा शासकीय आदेश के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार कार्यपालिका के क्रियाकलापों की समीक्षा के लिए संवैधानिक रूप से अधिकृत न्यायपालिका की अवहेलना या अवमानना की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। इस संस्था के ध्वस्त होने की परिणति लोकतंत्र के विध्वंस के साथ होगी। चूंकि, अभी चिंगारी दिखी है तत्काल इसे मौत दे दी जाए। विलंब का खतरा कोई न उठाए।
कोई वितंडावाद नहीं, एक सवाल जिसका सही जवाब ढूंढना  ही होगा। इस प्रक्रिया में राष्ट्रभक्ति से लेकर राष्ट्रद्रोह तक पर मंथन स्वाभाविक है। मंथन का निष्कर्ष हर भारतवासी के दिल में उठ रहे सवालों के जवाब देने में सक्षम होगा। राष्ट्रभक्ति और पाकिस्तान को लेकर उत्पन्न नया घृणास्पद राष्ट्रीय वातावरण भारत, भारती और भारतीयता की सोच को प्रतिकूल रूप में प्रभावित कर रहा है। इस पर पूर्ण विराम लगना ही चाहिए। अंगीकृत भारतीयता सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ विचारवानों के 'निष्कर्ष' पर पहुंचने को लालायित है। समाधान में विलंब प्रदूषण के फैलने में सहायक सिद्ध होगा। ऐसा ना हो इसलिए त्वरित मंथन व त्वरित निष्कर्ष जरूरी है।
सवाल श्री श्री रविशंकर का ही है  'आखिर एक साथ जयहिंद और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे क्यों नहीं लग सकते'?
जवाब देने के पहले सवाल के भावार्थ की मीमांसा जरूरी है। श्री श्री रविशंकर की 'नीयत' पर संदेह नहीं किया जा सकता। विश्व शांति की सोच के धारक, वसुधैव कुटुंबकम का भावार्थ और वैश्विक सौहार्द्र की ताजा भारतीय पहल को संकुचित एक पक्षीय राजनीतिक सोच से अलग रखना होगा। श्री श्री रविशंकर के सवाल को साम्प्रदायिक कोष्ठक में डाल सही उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सकता। हर शब्द, हर मंच, हर अवसर को राजनीतिक चश्मे से देखने के आदी राजनीतिक व समीक्षक संभवत: स्वार्थसिद्धि के लिए इस सवाल को भी राजनीतिक रंग में रंग डालेंगे। किंतु शाब्दिक अर्थावली से इतर 'नीयत' की मीमांसा ही बहस को सही दिशा दे सकती है। जाहिर है तब हम एक सार्थक निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे।
श्री श्री रविशंकर की संस्था 'आर्ट आफ लिविंग' द्वारा पिछले दिनों दिल्ली से सटे यमुना के तट पर आयोजित विश्व शांति समारोह की शुरुआत चूंकि विवाद अथवा कड़वाहट के साथ हुई राजनीतिक सोच व विचारधारा के अनुरुप समर्थन व विरोध के स्वर उठे।  चूक आयोजकों की ओर से भी हुई। कानून के शासन में स्थापित नियमों के अनुरुप ही सभी को चलना होता है। तकनीकी आरोप और सफाई को छोड़ दें तो यह सत्य रेखांकित हो चुका है कि नियमों का उल्लंघन करते हुए आयोजनकर्ता समारोह की तैयारियां करते रहे। आम प्रचलन की भाषा में कहें तो आयोजक यह मानकर चल रहे थे कि उनकी संस्था को चूंकि शीर्ष सत्ता का आशीर्वाद प्राप्त है, प्रशासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। प्रशासन की ओर से आश्वस्त आयोजक नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए तैयारियां करते रहे। शिकायतें दर्ज कराई गई और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने पर्यावरण को कथित रूप से पहुंचाए गये नुकसान के मुआवजे के रुप में पांच करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। सच पूछा जाए तो संभावित नुकसान के आलोक में पांच करोड़ की राशि अत्यंत तुच्छ मानी जाएगी। बावजूद इसके स्वयं श्री श्री रविशंकर ने मुआवजा देने से इंकार कर दिया।
निश्चय ही श्री श्री रविशंकर यहां कानून व न्यायपालिका की अवहेलना के दोषी बन जाते हैं।  न्यायाधिकरण का आदेश न्यायिक आदेश ही होता है। अगर श्री श्री रविशंकर सरीखा कोई सम्मानित व्यक्ति ऐसा करता है तो कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में इसका अनुसरण करनेवालों की लंबी पंक्ति तैयार हो जाए। और तब क्या पत्रकार मित्र का आकलन सही साबित नहीं हो जाएगा? न्यायपालिका की अवहेलना का सीधा अर्थ होगा समाज में अराजकता को आमंत्रण! और इतिहास गवाह है ऐसी अराजक स्थितियां गृहयुद्ध को आमंत्रित करती रही हैं। भारतीय लोकतंत्र में जनादेश के आधार पर शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। कभी कोई विरोध नहीं। जनता की अदालत का फैसला सर्वमान्य रहा है। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार इनसे जुड़े किसी भी संदेह या विवाद पर अंतिम निर्णय न्यायपालिका का ही होता है। इस पाश्र्व में न्यायपालिका के अस्तित्व को अगर चुनौती मिलती है तो निश्चय ही तत्काल समाधान ढूंढना होगा। चूंकि आलोच्य प्रसंग की शुरुआत श्री श्री रविशंकर आयोजित विश्व सांस्कृतिक समारोह के साथ हुई है उससे जुड़े तमाम विवादों पर न्यायाधिकरण के आदेश का पालन किया जाए। फैसलों पर असंतोष या आपत्तियां पहले भी प्रकट की जाती रही हैं। फैसलों पर ऊपरी अदालतों में पुनर्विचार याचिका दायर करने का प्रावधान है। आपत्ति दर्ज कर न्याय का इंतजार करना चाहिए न कि आदेश नहीं मानने का ऐलान। यह स्वयं में एक गंभीर अपराध है। श्री श्री रविशंकर अगर सचमुच भारतीय लोकतंत्र और संविधान में विश्वास रखते हैं तो वह कानून के राज के पक्ष में न्यायाधिकरण का आदेश मानते हुए मुआवजे की राशि तत्काल जमा कर दें। अपनी आपत्ति के लिए वे ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाने को स्वतंत्र हैं। श्री श्री रविशंकर यह न भूलें कि यहां मुद्दा उनके एक सांस्कृतिक आयोजन या पांच करोड़ रुपए की राशि का नहीं है बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था और कानून के राज के अस्तित्व का है। इसके विरुद्ध जानेवाला हर शख्स, संस्था अपराधी है। कानून के राज को अंगूठा दिखाने की हिमाकत करने वाले को मुक्त विचरने की छूट नहीं दी जा सकती।
अब अंतिम परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात 'पाकिस्तान जिंदाबाद' की। मंच से 'पाकिस्तान जिंदाबादÓ नारा लगाया गया यह निर्विवाद है। निर्विवाद यह भी कि हमारे देश भारत में 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारे लगानेवाले को देशद्रोही निरुपित किया जाता है। नारे से संबंधित आशय या भावार्थ आम लोगों के गले नहीं उतरने वाले। हाल के दिनों में कथित रूप से नारे लगानेवाले को देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा जा चुका है। जबकि उसके द्वारा 'पाकिस्तान जिंदाबाद' नारा लगाया जाना प्रमाणित नहीं हो पाया है।  श्री श्री रविशंकर के मंच से पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा यह प्रमाणित है। रविशंकर की सफाई कि एक साथ 'जय हिंद' और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे क्यों नहीं लग सकते एक अलग बहस का मुद्दा बन सकता है। किंतु इस मामले में यह तर्क स्वीकार नहीं। संदेह का लाभ देते हुए यह कहा जा सकता है कि पूरा मामला जुबान फिसलने अथवा अज्ञानता का है। अगर ऐसा है तो रविशंकर को यह स्वीकार कर लेना चाहिए। जनता माफ कर देगी। हां, तब भी यह सवाल कायम रहेगा कि भारत की भूमि पर पाकिस्तानी प्रतिनिधि को 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा बुलंद करने के लिए श्री श्री रविशंकर का मंच उपलब्ध क्यों कराया गया? 

अब मीडिया घरानों की पोल खोलेंगे शराब किंग विजय माल्या

'मीडिया मंडी' के आंगन में इन दिनों माल्या का 'भूत' तांडव कर रहा है। बैंकों से कर्ज ले पूरे देश को दारू पिलाने वाले विजय माल्या 'अ-कृतघ्न' भारत को छोड़ विदेश भाग गये हैं। हालांकि वे 'भागने' से इंकार करते हैं किंतु, भारत वापसी की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। 'मीडिया मंडी' चिल्ल-पौं पर माल्या ने धमकी दी है कि वे मीडिया घरानों की पोल खोल देंगे। कतिपय मीडिया घराने और पत्रकार माल्या द्वारा 'नंगा' कर दिये जाने की संभावना से भयभीत हैं। होना भी चाहिए। विशेष कर माल्या की अय्याशी में भागीदार मीडिया कर्मियों को। माल्या की धमकी के बाद तर्क-वितर्क और सफाई का दौर जारी है। किंतु, माल्या के 'उपकार' से फिलहाल इंकार करने का नैतिक साहस कोई जुटा नहीं पा रहा।
माल्या ने ट्वीट किया है कि अनेक मीडिया घराने उनके किंगफिशर जहाजों में न केवल घूमे हैं, बल्कि देर रात तक चलने वाली पार्टियों में भी शरीक हुए हैं। मेरे धन से उपकृत हुए मीडिया वालों के नाम एक रजिस्टर में दर्ज हैं। वक्त आने पर सब की पोल खुल जाएगी।
असल में माल्या के विदेश चले जाने अथवा भारत से भाग जाने को लेकर मीडिया में जो खबरें प्रसारित हुई, उससे माल्या बेहद खफा हैं।  भले ही माल्या ने यह बात नहीं कही, लेकिन उनके मन में यह विचार तो है ही कि मैंने बैंकों से जो कर्ज (लोन) लिया, उसे सिर्फ अपनी मौज-मस्ती पर खर्च नहीं किया, बल्कि मीडिया सहित राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और प्रभावशाली व्यक्तियों के ऐश-ओ-आराम पर भी पानी की तरह पैसा बहाया है। यानि जिन लोगों ने माल्या के लोन से मौज-मस्ती की, अब वही माल्या को भगोड़ा बता रहे हैं।
माल्या के ट्वीट से एक बार फिर हमारे मीडिया की पोल खुल गई है। असल में लोन की राशि से मीडिया घरानों ने मौज-मस्ती ही नहीं की, बल्कि माल्या की कंपनियों के करोड़ों रुपए के विज्ञापन भी प्रसारित किए।  मीडिया घरानों के मालिक कह सकते हैं कि विज्ञापन तो हमारा अधिकार है, लेकिन अब मीडिया घरानों को यह समझना चाहिए कि वक्त बदल गया है।
सोशल मीडिया के जमाने में मीडिया घरानों को अपनी आलोचना झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए।  जब बैंकों का कर्ज न चुकाने पर माल्या को दोषी माना जा सकता है तो फिर उसी कर्ज में से विज्ञापन के नाम पर करोड़ों रुपया प्राप्त करने वाले मीडिया घराने भी दोषी हैं।
इन दिनों देश में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के जो हालात हैं, उसमें माल्या को चाहिए कि वह जल्द से जल्द मीडिया के चेहरे पर से नकाब उतार दें। माल्या अपनी देर रात की पार्टियों के वो वीडियो जारी कर दें, जिसमें मीडिया घराने के लोग ही नहीं, बल्कि राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और प्रभावशाली व्यक्तियों की मौज-मस्ती भी शामिल है। माल्या को सिर्फ धमकी नहीं देनी चाहिए बल्कि अपनी धमकी पर अमल भी करना चाहिए।
माल्या जितने नंगे हो चुके हैं, उससे ज्यादा की अब गुंजाइश भी नहीं है। माल्या को चाहिए कि वह तत्काल प्रभाव से अपने देश आएं और एक-एक की पोल खोल दें।जब भी कोई बड़ा व्यक्ति अपराध में पकड़ा जाता है तो सबसे पहले मीडिया को ही धमकाता है। मीडिया को अब यह सोचना चाहिए कि आखिर हर बार उसे ही क्यों धमकी मिलती है।
...और यह भी
BBC Hindi ट्विटर पर रविवार को हैशटैग 'नए हिंदी मुहावरे' ट्रैंड कर रहा है, जिसमें लोग प्रचलित हिंदी मुहावरों को नया रूप दे रहे हैं. इस ट्रैंड की शुरुआत आम आदमी पार्टी नेता कुमार विश्वास ने एक के बाद एक कई ट्वीट करके की.एक ट्वीट में उन्होंने लिखा - नौ-दो माल्या हो जाना

नियम पर भारी भावना

जब  बात भावना की हो, राष्ट्रीय भावना की हो, राष्ट्रीय स्वाभिमान की हो, मन-मस्तिष्क व दिल से जुड़ी भावना की हो, तब नियम स्वत: भावना के लिए मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। यह एक पक्ष है। इससे जुड़ा दूसरा पक्ष भावना बनाम संभावना की।  संभावना खतरनाक है।
'भारत माता की जय' नहीं बोलने के दंड स्वरुप एमआईएम के विधायक वारिस पठान का महाराष्ट्र विधानसभा से निलंबन ने सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या नियम की अवहेलना कर भावना का सम्मान किया जा सकता है। विधानसभा अध्यक्ष ने सफाई दी है कि नियम संबंधी कोई प्रावधान नहीं होने के बावजूद उन्होंने सदन की भावना का आदर करते हुए विधायक वारिस पठान को सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित किया है। लोकतंत्र में विधायिक के सर्वोच्च स्थान को देखते हुए सदन की भावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आलोच्य मामले में चूंकि विधानसभा में सर्वसम्मति से निलंबन की मांग की, विधानसभा अध्यक्ष ने उसे स्वीकार किया। किंतु, एक बड़ा सवाल पैदा हो गया कि क्या भविष्य में भी नियमों को ताक पर रखकर सदन की भावना को सम्मान दिया जाता रहेगा। चूंकि, इस सवाल और उत्तर में परंपरा का समावेश है, गंभीर  चिंतन-मनन और बहस के बाद निर्णय लेना होगा। संसदीय व विधायिका मामलों से जुड़े विशेषज्ञ एकमत हैं कि वारिस पठान के निलंबन को विधानसभा के स्थापित नियम स्वीकृति प्रदान नहीं करते। विधानसभा अध्यक्ष को किसी सदस्य को निलंबित करने का अधिकार तो प्राप्त है किंतु, उसके साथ शर्तें जुड़ी हैं। नियामनुसार जब कोई सदस्य विधानसभा की कार्यवाही में व्यवधान पैदा करता है या अध्यक्ष के आदेश को मानने से इंकार करता है तब विधानसभा अध्यक्ष उसे निलंबित कर सकते हैं। वारिस पठान के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। विधानसभा में चर्चा हो रही थी, महापुरुषों के स्मारक के लिए सरकारी धन खर्च करने की। एमआईएम के एक विधायक की आपत्ति पर उत्पन्न तू-तू, मैं-मैं के बीच वारिस पठान ने शिवसेना के एक विधायक के पूछने पर जवाब दिया कि हमें 'भारत माता की जय' कहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। हम संविधान के अनुसार 'जयहिंद'  बोलेंगे पर 'भारत माता की जय' नहीं। इस वक्तव्य पर सभी दल के सदस्यों ने एकमत से वारिस पठान के निलंबन की मांग की। अध्यक्ष ने ठीक ही मांग को स्वीकार कर लिया। सर्वसम्मत भावना का आदर किया उन्होंने।
'भारत माता की जय' स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आजादी के दीवानों के बीच एक लोकप्रिय नारा था। यह नारा आज भी लोगों की भावना के साथ जुड़ा हुआ है। जब हम 'भारत  माता की जय' उद्घोष करते हैं तब भारत की धरती के प्रति आदर भाव प्रकट करते हैं। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दु:खद रूप से कतिपय अज्ञानी इस पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश करते हैं। असदुद्दीन ओवैसी और वारिस पठान जब 'जयहिंद' का उद्घोष करते हैं तब 'भारत माता की जय' पर आपत्ति क्यों? देश के किसी भी नागरिक को अगर इस पर आपत्ति है तो वह निश्चय ही भारत और भारतीयता की भावनात्मक अवमानना का दोषी है। महाराष्ट्र विधानसभा में नियम के ऊपर भावना को प्रमुखता इसीलिए दी गई है। वारिस पठान हो या और कोई, सभी इस हकीकत को स्वीकार कर लें कि पहले सम्मान देश का होता है बाद में किसी सोच, विचारधारा या व्यक्ति का। 

Friday, March 11, 2016

चिदंबरम से शर्मिंदा कांग्रेस...

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को चित्त कर चुकी भाजपा अब इस हथियार का इस्तेमाल कांग्रेस के खिलाफ, चिदंबरम को सामने कर, विधानसभा चुनाव में कर रही है। इशरत मामले से घोर विवादों के घेरे में आये कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम पर उनके बेटे कार्ति के भ्रष्टाचार से भी घेरा जा रहा है। पत्नी नलिनी शारदा चिटफंड घोटाले में पहले विवादों में आ चुकी हैं।
हालांकि चिदंबरम, बेटे कार्ति पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को 'राजनीति' बताते हुए एक सिरे से खारिज कर रहे हैं, किंतु आरोपों की गंभीरता मामले को दबने नहीं दे रही है। तमिलनाडू में डीएमके के साथ गठबंधन कर राज्य में उपस्थिति दर्ज कराने को बेचैन कांग्रेस इस नये घटनाक्रम से परेशान है।
यह एक विडंबना है कि जब-जब तमिलनाडू के चुनाव रहते हैं, चिदंबरम के कारण कांग्रेस कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। 90 के दशक में जब कांग्रेस राज्य में गैर नेहरु-गांधी नेता के नेतृत्व में बिखराव का सामना कर रही थी, एक दबंग नेता जी. के. मूपनार ने कांग्रेस छोड़कर क्षेत्रीय पार्टी 'तमिल मनिला कांग्रेस' यानि टीएमसी का गठन किया था। उस समय पी. चिदंबरम भी कांग्रेस छोड़ उनके साथ चले गये थे। वस्तुत: वह पार्टी के टूटने से ज्यादा, दबाव की राजनीति का असर था। मूपनार और उनकी टीएमसी को 1990 में तब सबक मिला, जब विधानसभा चुनाव में पी. चिदंबरम सहित वे सभी सीटें हार गये। इस करारी हार के बाद विद्रोही नेता मूपनार बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहे। बाद में उनके पुत्र वासन 'दुम दबाकर' वर्ष 2002 में कांग्रेस में लौटे।
तमिलनाडू में चूंकि पांच वर्ष के एक कार्यकाल के बाद सत्ता परिवर्तन का इतिहास रहा है। जयललिता की सत्तारुढ़  एआईडीएमके के खिलाफ करुणानिधि की डीएमके सत्ता की आस लगाए बैठा है। जयललिता की व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण इस बार संभवत: इतिहास दोहराया न जा सके, किंतु डीएमके आशावान है। कांग्रेस डीएमके का दामन थाम तमिलनाडू की सत्ता में भागीदार बनना चाहती है। भाजपा की उपस्थिति वैसे तमिलनाडू में ना के बराबर है। वह कांग्रेस को किसी भी कीमत पर पैर फैलाने नहीं देना चाहती। अगर डीएमके सत्ता में आई और कांग्रेस उसका भागीदार बनी तो उसका मनोवैज्ञानिक लाभ अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को मिलेगा। इस तथ्य से परिचित भाजपा डीएमके कांग्रेस गठबंधन को रोकने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। यही कारण है कि भाजपा नेतृत्व की ओर से जयललिता के खिलाफ कुछ भी नहीं बोला जा रहा है। भाजपा ने एक रणनीति के तहत पी. चिदंबरम एवं परिवार के भ्रष्टाचार के मामलों को तूल देना शुरू कर दिया है। विदेशों में कथित रुप से चिदंबरम के बेटे कार्ति के खड़े किए गए साम्राज्य पर कानूनी शिकंजा कसा जा रहा है। आरोप के अनुसार कार्ति ने विश्व के अनेक हिस्सों में अपने लिए बहुत बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया है। तथा वह 14 देशों में अन्य व्यापारी गतिविधियों में शामिल है। यह जानकारी प्रर्वतन निदेशालय के छापेमारी के दौरान जब्त दस्तावेजों एवं एयर सेल-मैक्सिस घोटाले की आयकर विभाग की जांच में सामने आई है। चिदंबरम एवं उनके पुत्र सभी आरोपों को निराधार बता रहे हैं। बावजूद इसके मीडिया में प्रतिदिन चिदंबरम परिवार के कथित भ्रष्टचार की खबरों के कारण निश्चित तौर पर तमिलनाडू में चिदंबरम के साथ-साथ कांग्रेस की छवि खराब हो रही है। आने वाले दिनों में भाजपा, चिदंबरम एवं उनके परिवार के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोपों को और सघन रूप में प्रचारित करने की योजना पर चल रही है।
यह एक विडंबना है कि जब-जब तमिलनाडू के चुनाव रहते हैं, चिदंबरम के कारण कांग्रेस कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। 90 के दशक में जब कांग्रेस राज्य में गैर नेहरु-गांधी नेता के नेतृत्व में बिखराव का सामना कर रही थी, एक दबंग नेता जी. के. मूपनार ने कांग्रेस छोड़कर क्षेत्रीय पार्टी 'तमिल मनिला कांग्रेस' यानि टीएमसी का गठन किया था। उस समय पी. चिदंबरम भी कांग्रेस छोड़ उनके साथ चले गये थे। वस्तुत: वह पार्टी के टूटने से ज्यादा, दबाव की राजनीति का असर था। मूपनार और उनकी टीएमसी को 1990 में तब सबक मिला, जब विधानसभा चुनाव में पी. चिदंबरम सहित वे सभी सीटें हार गये। इस करारी हार के बाद विद्रोही नेता मूपनार बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहे। बाद में उनके पुत्र वासन 'दुम दबाकर' वर्ष 2002 में कांग्रेस में लौटे।  तमिलनाडू में चूंकि पांच वर्ष के एक कार्यकाल के बाद सत्ता परिवर्तन का इतिहास रहा है। जयललिता की सत्तारुढ़  एआईडीएमके के खिलाफ करुणानिधि की डीएमके सत्ता की आस लगाए बैठा है। जयललिता की व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण इस बार संभवत: इतिहास दोहराया न जा सके, किंतु डीएमके आशावान है। कांग्रेस डीएमके का दामन थाम तमिलनाडू की सत्ता में भागीदार बनना चाहती है। भाजपा की उपस्थिति वैसे तमिलनाडू में ना के बराबर है। वह कांग्रेस को किसी भी कीमत पर पैर फैलाने नहीं देना चाहती। अगर डीएमके सत्ता में आई और कांग्रेस उसका भागीदार बनी तो उसका मनोवैज्ञानिक लाभ अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को मिलेगा। इस तथ्य से परिचित भाजपा डीएमके कांग्रेस गठबंधन को रोकने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। यही कारण है कि भाजपा नेतृत्व की ओर से जयललिता के खिलाफ कुछ भी नहीं बोला जा रहा है। भाजपा ने एक रणनीति के तहत पी. चिदंबरम एवं परिवार के भ्रष्टाचार के मामलों को तूल देना शुरू कर दिया है। विदेशों में कथित रुप से चिदंबरम के बेटे कार्ति के खड़े किए गए साम्राज्य पर कानूनी शिकंजा कसा जा रहा है। आरोप के अनुसार कार्ति ने विश्व के अनेक हिस्सों में अपने लिए बहुत बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया है। तथा वह 14 देशों में अन्य व्यापारी गतिविधियों में शामिल है। यह जानकारी प्रर्वतन निदेशालय के छापेमारी के दौरान जब्त दस्तावेजों एवं एयर सेल-मैक्सिस घोटाले की आयकर विभाग की जांच में सामने आई है। चिदंबरम एवं उनके पुत्र सभी आरोपों को निराधार बता रहे हैं। बावजूद इसके मीडिया में प्रतिदिन चिदंबरम परिवार के कथित भ्रष्टचार की खबरों के कारण निश्चित तौर पर तमिलनाडू में चिदंबरम के साथ-साथ कांग्रेस की छवि खराब हो रही है। आने वाले दिनों में भाजपा, चिदंबरम एवं उनके परिवार के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोपों को और सघन रूप में प्रचारित करने की योजना पर चल रही है। 

बेनकाब होंगे फर्जीवाड़े के दोषी 'टीवी चैनल्स'!

जेएनयू को लेकर 'मीडिया मंडी' में  उठा भूचाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। पूरे विवाद के दौरान जो झूठ-सच परोसा गया, उनके बीच जो सच प्रमाणित हुआ वह है 'वीडियो फर्जीवाड़ा'। दिल्ली सरकार द्वारा गठित जांच समिति की रपट से यह साफ हो गया कि जिस वीडियो फुटेज के आधार पर जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया, उस वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई थी। चूंकि पूरे मामले में स्वयं दिल्ली पुलिस कटघरे में खड़ी दिखाई दी थी, केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए गए। मीडिया का एक शक्तिशाली वर्ग एकतरफा अभियान चला रहा था। सच पर परदा डाल भ्रम फैलाने की कोशिश करता रहा। दिल्ली सरकार ने जांच करवा कर दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश की है। नई दिल्ली के 'डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट' ने अपनी जांच रिपोर्ट में बगैर शब्दों को चबाए साफ कर दिया है कि कन्हैया कुमार को फंसाने के लिए मूल 'वीडियो रिकार्डिंग' से छेड़छाड़ की गई।
सत्ता सिंहासन की ओर से उपकृत फर्जीवाड़े का आरोपी टीवी चैनल अभी भी सीनाजोरी की मुद्रा में है। कह रहा है कि हमने जो दिखाया वही सच है। 'जी न्यूज' के एक 'प्रोड्यूसर' द्वारा फर्जीवाड़े का विरोध करते हुए इस्तीफा देने के बाद ही संकेत मिल गये थे कि अब फर्जीवाड़े का पर्दाफाश हो जाएगा। लोगों को प्रतीक्षा थी तो आगे की कार्रवाई को लेकर।
दिल्ली सरकार का आभार कि उसने आगे की कार्रवाई करते हुए उन चारों न्यूज चैनलों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का फैसला कर लिया है, जिन्होंने फर्जी वीडियो का प्रसारण कर न केवल कन्हैया कुमार को 'देशद्रोही' बल्कि जेएनयू को भी पूरे संसार में बदनाम कर डाला। अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार ने अपने विधि विभाग को चैनलों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दे दिया है। परंतु दिल्ली सरकार की 'हैसियत' और चैनलों की 'विशेष हैसियत' के आलोक में कार्रवाई के अंजाम को लेकर संशय बना हुआ है।
 सत्ता के निकट बल्कि यूं कहिए कि सत्ता के हाथों बिक चुके इन चैनलों के संचालक, पत्रकार कन्हैया कुमार और जेएनयू के खिलाफ एकजुट हो चुके हैं। जेएनयू के रजिस्ट्रार भूपिंदर जुत्शी की ताजा रिपोर्ट प्रमाण है कि कन्हैया और उसके संगठन को फांसने के लिए ये तत्व कोई कोर कसर नहीं छोडऩे वाले हैं।
अगर 'जी न्यूज' सहित चार खबरिया चैनलों के खिलाफ मामले दर्ज होते हैं, न्यायालय में सुनवाई होती है तो पूरा का पूरा भारतीय मीडिया एक बदनुमा 'माध्यम' के रूप में स्थापित हो जाएगा। हर दिन राजनीतिकों और बाबुओं की पोल खोलने वाला मीडिया ऐसे में अपने अंदर प्रविष्ट दागियों को बाहर निकालने का अभियान चलाए। मीडिया घरानों में शीर्ष पदों पर बैठे हुए ऐसे दागी पत्रकार अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर मालिकों पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस घृणास्पद मुद्दे पर मीडिया मालिक और दागी पत्रकार एक होते हैं या अन्य ईमानदार पत्रकारों का आभा मंडल मालिकों को सुबुद्धि देते हुए दागियों के खिलाफ सही रास्ते पर ले आएगा? यह नहीं भूला जाना चाहिए कि मीडिया मात्र एक व्यावसायिक उद्यम नहीं है, बल्कि संविधान के चौथे स्तंभ के रूप में स्थापित लोकतंत्र का मजबूत प्रहरी भी है। निज स्वार्थ हेतु स्वयं को बिकाऊ बना बैठे मुठ्ठी भर संचालक या पत्रकार संपूर्ण मीडिया जगत को दागदार बना पाएंगे? इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। 

आओ ! कन्हैया-कन्हैया रोहित-रोहित खेलें..!!

सभी खेल रहे हैं।
भाजपा खेल रही है, कांग्रेस खेल रही है, वामपंथी खेल रहे हैं ! तो हम पीछे क्यों रहें? हम भी खेलें ! रोहित वेमूला तो बेवफा निकला। बीच में ही हथियार डाल शरीर त्याग कर दिया। कन्हैया उसे आदर्श बना जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। राजनीति में प्रविष्ट अपराधी भी भला पीछे क्यों रहें? खेल के मैदान में कूद पड़े । कन्हैया की जीभ और सिर काटनेवालों को लाखों के ईनाम घोषित कर डालें। और ऐसे जीभ और सिर काटने के लिए ईनाम घोषित करनेवालों  के सिर काटने वालों के सिर काटने पर भी ईनाम घोषित करनेवाले सामने आ गए हैं।  हाल में लोकसभा में बहस के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस 'खेल' के लिए जो लकीरें खींची उसके तत्काल बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैयाकुमार ने उस लकीर के नीचे एक बड़ी लकीर खींच दोनों को मात दे दिया। राहुल की तो छोडिय़े,'हाइप' की महत्ता को तब चिन्हित कर चुके प्रधानमंत्री मोदी स्वयं 'कन्हैया हाइप' से चित हो गए। है न विडंबना?
हाँ, यह विडंबना ही तो है कि भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नाम आज जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष 28 वर्षीय कन्हैया कुमार के साथ कोष्ठक में  उद्धृत किए जा रहे हैं! मैं तो इसे भारतीय लोकतंत्र का  एक स्वर्णिम पक्ष मानकर चलूंगा। और यह भारतीय 'माध्यम' के उस वर्ग की विजय है जो दबाव प्रलोभन से दूर सत्य-निष्ठा के मार्ग पर चलते हुए पाठकों-दर्शकों को सच परोसने की हिम्मत दिखा रहा है। 'कन्हैया' ऐसे ही तो अवतरित होते रहे हैं ! राजनीतिक विचारधारा या दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर चाहे जितना विरोध कर लिया जाए, सच के आईने में प्रतिबिंबित कन्हैया कुमार ने चिंतकों- विचारकों को देश की न केवल राजनीतिक दशा-दिशा बल्कि सामाजिक दशा-दिशा पर भी नए सिरे से मंथन को विवश कर दिया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश-विदेश में अपने संबोधनों में जिस युवा शक्ति का आह्वान करते रहे हैं,'कन्हैया शक्ति'उसी का प्रस्फुटन है। वैचारिक मतभेद से इतर ईमानदार विश्लेषक इसे प्रधानमंत्री की आशा-विश्वास की विजय के रूप में भी चिन्हित करेगा। यही तो भारतीय लोकतंत्र की वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक है। मोदी-गांधी के साथ अगर कुछ दिन पूर्व तक अंजान कन्हैया का नाम जुड़ा है तो इसे सकारात्मक रूप में लिया जाए। युवा खून की उबाल को  सही दिशा दे 'निर्माण' की नींव पक्की की जाए,गलत दिशा देंगे तो विध्वंसक साबित होगा। पसंद हमारी -आपकी !
जेएनयू अथवा कन्हैया प्रकरण से एक नई और अरूचिकर बहस छिड़ गई है, देशभक्त बनाम देशद्रोही की! विचारधारा के आधार पर जेएनयू कांड को देशद्रोह और कन्हैया को देशद्रोही निरूपित करने की कोशिश की जा रही है।  अंतिम फैसला तो अदालत का होगा किंतु अदालत के बाहर जिस राजनीतिक आधार पर पूरे प्रकरण को प्रचारित किया जा रहा है, वह खतरनाक है। पक्ष-विपक्ष दोनों भारतीय लोकतंत्र के उस मूल तत्व को न भूलें कि अंतिम फैसला जनशक्ति में निहित है। और यह कि वैचारिक आजादी लोकतंत्र की प्राण हैं। इस पर किसी प्रकार का अंकुश लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार होगा। इतिहास गवाह हैं कि जब-जब इस आजादी को नियंत्रित करने की कोशिश की गई सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। वैचारिक आजादी के प्रचारक व समर्थक देशद्रोही नहीं हो सकते। किसी खास घटना या मुद्दे पर विचारधारा के आधार पर मतभेद स्वाभाविक हैं। पक्ष-विपक्ष के अनुकूल-प्रतिकूल भी हो सकते हैं वें, किंतु देशविरोधी नहीं। लोकतंत्र में विभिन्न दलों की अपनी अपनी विचारधाराएं होती हैं। अलग-अलग
आदर्श -सिद्धांत होते हैं। किंतु राष्ट्र अर्थात राष्ट्रीय विचारधारा एक ही होती है,और वह है देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र की अक्षुण्णता! इस पर कोई समझौता नहीं! कन्हैया या रोहित की विचारधारा इसके प्रतिकूल कतई नहीं।
राजदल आज 'कन्हैया -रोहित' का खेल खेल रहे हैं तो विशुद्ध राजनीतिक लाभ के हक में। वोट की राजनीति के हक में। चूंकि हाल के दिनों में जाति और धर्म के नाम पर चुनावी जंग के परिणाम लाभ-हानि में बंटते दिखे हैं, आगामी महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों में इनकी नई व्याख्या के साथ देशभक्ति और देशद्रोह को जोड़ दिया गया है। सत्ता-वासना की भूख मिटाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार राजदल इस सत्य को विस्मृत कर चुके हैं कि जाति और धर्म की राजनीति से सत्ता देवी को तो हासिल किया जा सकता है किंतु स्वावलंबी,स्वाभिमानी राष्ट्र निर्माण  की अभिलाषा की पूर्ति नहीं की जा सकती। वह अभिलाषा जिसकी पूर्ति के पक्ष में न केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी,विपक्ष के नेता भी वकालत करते रहते हैं। करनी और कथनी के फर्क को समझने में समर्थ देश की जनता जब सचाई के आलोक में विचलित होती है,तब एक कन्हैया जन्म लेता है।
 कन्हैया एक प्रतीक है। 'आजादी' संबंधी असहज आरोप के जवाब में जब वह स्पष्ट करता है कि उन्हें भारत से नहीं बल्कि भारत में आजादी चाहिए, तब निश्चय ही वृहत्तर भारत की सोच प्रस्फुटित होती है। देश के संविधान, देश के कानून और देश की न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास व्यक्त करनेवाला देशद्रोही कैसे हो सकता है? एक विचारधारा की काट उससे अच्छी विचारधारा कर सकती है। देशभक्त को देशद्रोही करार दे किसी विचारधारा को मौत नहीं दी जा सकती!

Thursday, March 3, 2016

'देशद्रोही' खोजते दीपक चौरसिया !

मीडिया मंडी पर मीडिया 'ट्रायल' के संगीन आरोप लगते रहे हैं। समाज व देशहितकारी मुद्दों पर सकारात्मक दिशा दे अगर 'ट्रायल' होते हैं तो उनका स्वागत है किंतु जब मीडिया मंडी के न्यायाधीश सकारात्मक दिशा की जगह नापाक विचारधारा थोप नकारात्मक दिशा देने लगें, मामला अदालत में लंबित होने के बावजूद आरोपियों को  सिर्फ अपराधी नहीं देशद्रोही तक घोषित करने लगे, कानून और सबूतों को ठेंगे पर रख फैसले सुनाने लगे तब, मंडी के दलालों को कटघरे में खड़ा किया जाएगा ही।
अभी-अभी पिछले मंगलवार को टीआरपी के दौर में तेजी से आगे बढ़ते हुए इंडिया न्यूज चैनल के 'एडिटर इन चीफ' दीपक चौरसिया ने ऐसे ही आरोपों से स्वयं को कटघरे में खड़ा कर लिया। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कथित देशद्रोह प्रकरण की जांच अभी जारी है, पुलिस गवाह-सबूतों की तलाश कर रही है। मीडिया कर्मियों से भी पूछताछ जारी है। फर्जी वीडियो के रहस्य उजागर होने लगे हैं, आरोप पत्र दाखिल होना अभी शेष है, लेकिन चौरसिया ने अपने बहस के कार्यक्रम का शीर्षक दे डाला 'देशद्रोही कौन?। परदे पर तीनों आरोपी कन्हैया, अनिर्बान और उमर खालिद की तस्वीर के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में 'देशद्रोही कौन?' का 'ग्राफिक प्लेट'। कार्यक्रम में वामपंथी छात्र संगठनों और एबीवीपी के सदस्यों के बीच जेएनयू प्रकरण पर खुली बहस कराई गई। मजे की बात यह कि बहस के दौरान चौरसिया ने इनके देशद्रोह पर सवाल नहीं पूछा। फिर शीर्षक और ग्राफिक? जाहिर है कि उत्तेजक, सनसनीखेज शीर्षक केवल दर्शकों को कार्यक्रम के प्रति आकर्षित करने के लिए दिया गया था। जांच-प्रक्रिया से गुजर रहे देशद्रोह जैसे गंभीर मामले के साथ चौरसिया का 'बहस उपक्रम' अपराध की श्रेणी का है। बहस के दौरान भी  चौरसिया का पक्षपात साफ-साफ दिख रहा था। सभी वक्ताओं के लिए दो-दो मिनट का पूर्व निर्धारित समय एबीवीपी के सदस्यों के लिए बढ़ा दिया गया। जबकि वामपंथी संगठनों के छात्रों को यह सुविधा नहीं दी गई। कुछ छात्रों की आपत्ति को भी चौरसिया ने खारिज कर दिया कि जब मामले की जांच चल रही हो तो ऐसा मीडिया ट्रायल क्यों? चौरसिया का हास्यास्पद जवाब था कि हम बहस करवा रहे हैं फैसला नहीं दे रहे हैं। कार्यक्रम खत्म हो गया किंतु दर्शकों को इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि देशद्रोही कौन है?
विद्वान संपादक का विद्वतापूर्ण करिश्मा?
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में बल्कि यूं कहें कि लालकृष्ण आडवाणी के सूचना प्रशासन मंत्रितत्व काल में भारत सरकार के दूरदर्शन के लिए काम कर चुके दीपक चौरसिया के 'साम्राज्य' पर सवाल उठते रहे हैं। राजनाथ सिंह के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक 'सुविधाओं से उपकृत' चौरसिया के इंडिया न्यूज में प्रवेश की गाथा भी उतनी ही दिलचस्प है। सन 2008 की बात है तब इंडिया न्यूज को कुछ परिचित चेहरों की तलाश थी।  चौरसिया तब स्टार में थे। इंडिया न्यूज के एक वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी के साथ दीपक संस्थान के प्रबंक निदेशक से मिलने आये। ध्यान रहे दीपक मिलने आये थे। बातचीत चली, अचानक बातचीत के दौरान ही दीपक ने प्रबंध निदेशक से सवाल दाग डाला कि आपने यह कैसे समझ लिया कि मैं आपके साथ ज्वाइन करूंगा। प्रबंध निदेशक भौचक। बेचारा वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी हतप्रभ की फिर दीपक बात करने इंडिया न्यूज में आए ही क्यों? बातचीत तो खत्म हो गई किंतु उस दिन संस्थान के युवा प्रबंध निदेशक ने कुछ ठान लिया था। 2012 में जब दीपक को जब एबीपी (स्टार) छोडऩा पड़ा, तब उन्होंने अपनी ओर से इंडिया न्यूज का दरवाजा खटखटाया। ज्वांइन कर लिया। युवा प्रबंध निदेशक का संकल्प भी पूरा हुआ। इस पर विस्तार फिर कभी अन्य अवसर पर। लबोलुआब यह कि घोर अवसरवादी दीपक चौरसिया अपने 'लाभ' के लिए पत्रकारीय मूल्य और नैतिकता तो बहुत बड़ी बात है, व्यक्तिगत नैतिकता को भी जमींदोज करने में शर्माते नहीं। टीवी चैनल पर पत्रकारिता और स्तर की चिंता फिर क्यों ? हां, चौरसिया टीवी दुनिया के एक स्थापित परिचित चेहरा हैं। अब यह चौरसिया पर निर्भर करता है कि दर्शकों के बीच उनकी यह पहचान सिर्फ 'परिचित' के रुप में रहे या 'सुपरिचित' के रुप में! या फिर, 'कुपरिचित' का तमगा?
...और यह भी
कश्मीर से प्रकाशित 'स्टेट टाइम्स' में विगत 16 फरवरी को ही एक खबर छपी थी कि जेएनयू में कथित देशविरोधी नारा लगाने वाले कश्मीरी छात्रों को दिल्ली पुलिस ने इसलिए गिरफ्तार नहीं किया कि उन्हें ऊपर से 'मौखिक' आदेश था। कारण कि यदि उनकी गिरफ्तारी हो जाती तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ भाजपा को सरकार बनाने में फजीहत का सामना करना पड़ता। चूंकि खबर एक छोटे अखबार में छपी तब किसी ने संज्ञान नहीं लिया। अगर उसी समय खबर दिल्ली के बड़े अखबार में छप जाती तब जेएनयू को लेकर 'मीडिया प्रोपगंडा' का उसी दिन भांडा फोड़ हो जाता।

कन्हैया की जमानत से उठते सवाल

'अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू'
हालांकि किसी आरोपी को अदालत द्वारा जमानत दिया जाना अंतिम फैसला अर्थात आरोपों से बरी किया जाना नहीं होता, जेएनयू प्रकरण में छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को मिली जमानत में अनेक संदेश निहित हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय की विद्वान न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने कन्हैया को अंतरिम जमानत देते हुए जो टिप्पणियां की हैं, वे न केवल न्याय जगत बल्कि समाज की हर विधा से जुड़े लोगों के लिए विचारणीय है। विद्वान न्यायाधीश ने स्वयं को चौराहे पर खड़ा बताते हुए टिप्पणी की है कि अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलूहैं।
स्पष्ट है कि उनका संकेत अभिव्यक्ति की आजादी संबंधी संवैधानिक प्रावधान और देश के एक सजग नागरिक के रूप में कर्तव्य की ओर है। आलोच्य प्रसंग में छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी अगर रेखांकित है तो साथ ही छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में कन्हैया के कर्तव्य को भी चिह्नित किया गया है। जेएनयू परिसर में कथित रूप से जो देश विरोधी नारे लगाए गए, देश को खंडित करने की बात कही गई, उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता।  किंतु जिस वीडियो फुटेज के आधार पर कन्हैया के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप लगाया गया, उस वीडियो 'फुटेज' की प्रामाणिकता संदिग्ध है। यही नहीं, अदालत में जमानत की सुनवाई के दौरान स्वयं दिल्ली पुलिस की ओर से कहा गया कि कन्हैया के खिलाफ कोई भी वीडियो प्रमाण नहीं हैं। अभियोजन पक्ष ने आरोप को दोहराया कि कन्हैया घटनास्थल पर मौजूद था और अफजल से जुड़े  कार्यक्रम के आयोजकों में से एक था। ऐसे लचर आरोप पर न्यायाधीश को पूछना पड़ा कि क्या पुलिस को जानकारी भी है कि देशद्रोह क्या होता है? तभी संकेत मिल गया था कि कन्हैया को जमानत मिल जाएगी। न्यायाधीश की यह टिप्पणी भी गौरतलब है कि भारत के संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी के तहत हर नागरिक को अपनी विचारधारा और जुड़ाव के साथ जीने का हक है। किंतु हम अभिव्यक्ति की आजादी इसलिए मना पा रहे हैं, क्योंकि हमारे जवान सरहदों पर तैनात हैं। हमें सुरक्षा देने वाली हमारी सेना दुनिया के सबसे अधिक इलाकों में जैसे कि सियाचिन और कच्छ के रण में तैनात है। उस क्षेत्र में आक्सीजन की इतनी कमी है कि जो लोग अफजल गुरु और मकबूल भट्ट के पोस्टर सीने से लगाकर उनकी शहादत का सम्मान कर रहे हैं और राष्ट्र विरोधी नारेबाजी कर रहे हैं, वे इन कठिन परिस्थितियों का एक घंटे के लिए मुकाबला नहीं कर सकते। जिस तरह की नारेबाजी की गई है, उससे उन शहीदों के परिवार हतोत्सहित हो सकते हैं, जिनके शव तिरंगे में लिपटे ताबूतों में घर लौटे हैं।
कन्हैया पर लगे आरोपों की जांच अभी जारी है। चूंकि स्वयं कन्हैया ने देश-विरोधी गतिविधियों की भत्र्सना की है, क्या हम आशा करें कि वह जेएनयू परिसर में कथित रूप से मौजूद देश विरोधी तत्वों की पहचान कर, कानून के हवाले करेगा। कन्हैया जिस राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित है, वह देशद्रोहियों का साथ देने की इजाजत नहीं देता। अब तक के उपलब्ध प्रमाण से देश आश्वस्त है कि कन्हैया शोषण के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, मनुवाद के खिलाफ सामाजिक आजादी तो चाहता है किंतु देश की एकता और अखंडता के साथ समझौता नहीं। अगर यह सच है तो कन्हैया को आगे बढ़कर, छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए विश्वविद्यालय परिसर में अवैध रूप से प्रविष्ट तत्वों को कानून के हवाले करना ही होगा।
वैचारिक आजादी राष्ट्र की मजबूती का आग्रही है, राष्ट्र की संप्रभुता का आग्रही है, राष्ट्र की एकता और अखंडता का आग्रही है, विखंडन का कदापि नहीं। कन्हैया कुमार और उसके मित्र इस शाश्वत अपेक्षा को हृदयस्थ कर लें। 

मां दुर्गा! क्या ईरानी को गुमराह किया गया?

मैं एक हिंदू हूं।
मैं दुर्गा का उपासक हूं।
मुझे इस पर गर्व है।
किंतु, आज मैं शर्मिंदा हूं। मेरे अंदर का हिंदू उपासक मन शर्मिंदा है। और शर्मिंदा है पूरा का पूरा भारतीय मन, जो लोकतंत्र के मंदिर 'संसद' के अंदर दुर्गा को अपमानित होते देखने को विवश हुआ। किसने किया ऐसा, क्यों हुआ ऐसा? ऊंगलियां उठ रहीं हैं देश की मानव संसाधन मंत्री स्मृति जुबीन ईरानी की ओर। क्या यह विडंबना नहीं!
अपने जमाने की सुख्यात छोटे पर्दे की बड़ी अभिनेत्री स्मृति ईरानी के लिए पटकथा -संवाद आखिर कौन लिख रहा है? पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के छात्र रोहित की आत्महत्या और दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के प्रांगण में कथित देश-द्रोही गतिविधियों पर विपक्ष के हमलों का जवाब देते हुए ईरानी की आक्रामकता, वकृत्व- कला और भाव-भंगिमा को प्रशंसाएं तो मिलीं, किंतु दुर्गा-महिषासुर प्रसंग ने उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया।
पूरा देश हतप्रभ है कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति, आस्था और निजता के नाम पर देश में आखिर ये हो क्या रहा है? लोकतंत्र के मंदिर- संसद- में दुर्गा अपमान और सड़क से मिल रही चुनौती के खतरनाक स्वर! विस्मयकारी ही नहीं, पूर्वाभास हैं आने वाले अराजक दिनों की। अगर ऐसा हुआ तो तय मानिए, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत देश एक अराजक देश बन कर रह जाएगा। और इसके लिए जिम्मेदार होंगे हमारे सभी राजदल और कथित राजनेता। बावजूद इसके मौजूद जन-शक्ति से आशावान हूं कि खरोंचें तो लगेंगी किंतु, जनता टूटने-बिखरने नहीं देगी।
सड़क से संसद तक के शोर-शराबे के बीच देश का चिंतक वर्ग स्तब्ध है कि ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त भाजपा की नींव में मट्ठा डालने का काम स्वयं कुछ भाजपायी ही कैसे और क्यों कर रहे हैं? दलीय प्रतिबद्धता या विचारधारा के आधार पर कोई खंडन-मंडन ना करे। इस कड़वे सच पर मंथन कर, दोषी की पहचान कर ही 'भाजपा-गृह' को सुरक्षित रखा जा सकेगा। जब परिवार बड़ा होता है तब मतभेद के साथ-साथ विघ्नसंतोषी भी पैदा हो जाते हैं। ऐसे में शांति और अनुशासन बनाए रखने की जिम्मेदारी परिवार के मुखिया की होती है। भाजपा नेतृत्व इस आवश्यकता को अच्छी तरह समझ ले।
भाजपा को सत्ता सौंपने वाली जनता का बड़ा वर्ग अगर आज यह पूछ रहा है कि आखिर भाजपा को हो क्या गया है, तो इसकी चीर-फाड़ जरूरी है। भाजपा में तो योग्य, समझदार, ईमानदार चिंतकों की एक लंबी पंक्ति है। क्या कर रहे हैं ये लोग? कहीं ऐसा तो नहीं कि परस्पर संवाद-हीनता की स्थिति पैदा हो गई है। या फिर घर के अंदर कोई ऐसा गुट सक्रिय हो गया है, जो किन्हीं अनजान कारणों से पार्टी नींव को कमजोर कर रहा है। शायद सच यही है।
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद जरूरी है कि विवाद के पटकथा-संवाद लेखक और निर्देशक की पहचान की जाए। स्मृति ईरानी ने संसद के अंदर जिन तथ्यों के आधार पर चिल्ला-चिल्लाकर विपक्ष को शांत करने की कोशिश की, उनमें से अधिकांश तथ्य गलत निकले। रोहित आत्महत्या पर उन्होंने आक्रामक और भावुक शब्दावली के मिश्रण से आरोप लगाया कि आत्महत्या के बाद उसके पास किसी डॉक्टर या पुलिस को फटकने नहीं दिया गया। किसी ने उसकी श्वास वापसी की कोशिश नहीं की।  ईरानी द्वारा दी गई यह एक ऐसी जानकारी थी जो पूरे मामले की जांच की दिशा को प्रभावित कर सकती थी। लेकिन वहां की मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. राजश्री का बयान आ गया कि वे तुरंत घटनास्थल पर पहुंची थीं । उन्होंने रोहित के  शरीर की परीक्षा कर उसे मृत घोषित किया, मृत्यु प्रमाणपत्र भी दिया था। सबूत उपलब्ध है कि तब मौके पर पुलिस भी पहुंची थी। निश्चय ही गलत जानकारी के आधार पर संवाद लेखक ने केंद्रीय मंत्री के लिए संवाद लिखे। यह एक ऐसी चूक है जो केंद्रीय मंत्री को संसद और पूरे देश को गुमराह करने का आरोपी बनाती है। यही नहीं, बांग्लादेश की ऑक्सफोर्ड शोधकर्ता शर्मिला बोस ने भी स्मृति ईरानी पर गलतबयानी के आरोप लगाए हैं। सुश्री बोस का आरोप है कि भारतीय संसद के अंदर स्मृति ईरानी ने उनके नाम और उनकी पुस्तक 'डेड रिकॉनिंग : मेमोरीज ऑफ द 1971 बांग्लादेश वॉर' का उल्लेख करते हुए वैसी बातें संसद में बताई जो उनके पुस्तक का अंश है ही नहीं। साफ है कि किसी ने या तो बगैर पढ़े या फिर जान-बूझकर स्मृति ईरानी को गुमराह किया। हैदराबाद विश्वविद्यालय के उपकुलपति को लिखे पत्र के संबंध में भी ईरानी की गलतबयानी साबित हो चुकी है। राज्यसभा में बहस के दौरान ईरानी ने मायावती को ऊंची आवाज में शांत करते हुए कहा था कि'...अगर आप मेरी बातों से संतुष्ट नहीं होंगी, तो मैं अपना सिर काट आपके चरणों में रख दूंगी।'
दूसरे दिन जब मायावती ने ईरानी की बातों से असंतुष्टि जाहिर करते हुए ईरानी को चुनौती दी कि वे अपना वादा पूरा करें, तो आक्रोश भरे शब्दों में ईरानी ने बसपा कार्यकर्ताओं का आवाहन किया कि वे आएं और उनका सिर काटने की हिम्मत दिखाएं।
बिल्कुल हास्यास्पद प्रतिक्रिया थी ईरानी की ! वादा तो खुद से सिर काट चरणों में रखने का था। कांग्रेस  के एक नेता कपिल सिब्बल की बात यहां सही लग रही है कि 'संसद एक थियेटर बन गई है।'
हद तो तब हो गई जब जेएनयू प्रकरण पर चर्चा के दौरान ईरानी ने एक मुद्रित पर्चे को संसद में पढ़ते हुए बताया कि परिसर के अंदर मां दुर्गा को '.....' (अश्लील संबोधन) और महिषासुर को पूजने की बात कही गई है। घोर आपत्तिजनक है यह, संसद के बाहर किसी सिरफिरे के पर्चे में मुद्रित अश्लील व आपत्तिजनक शब्दों को मंत्री ईरानी ने पढ़ा क्यों? अध्यक्ष ने पर्चे को पढऩे की इजाजत कैसे दी? ईरानी, संसद में मां दुर्गा के विषय में अश्लील संबोधन की जानकारी दे पूरे देश में दुर्गा के विषय में गलत प्रचार करने की अपराधी बन गर्इं। एक स्थापित परंपरा है कि आपत्तिजनक अथवा अश्लील शब्दों को हूबहू न तो लिखा जाए, न तो बोला जाए। अगर बताना जरूरी ही हो तो संकेत का सहारा लिया जाए। ऐसे 'शब्द' उच्चारित नहीं किए जाते। विशेषकर जब प्रसंग 'धार्मिक आस्था' का हो। ईरानी यहां स्वयं मां दुर्गा के अपमान की अपराधी बन गर्इं। लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र के मंदिर में मां दुर्गा को लांछित किया गया। प्रभु निंदा का अक्षम्य अपराध है यह!
चूंकि यह सब कुछ घटित हुआ उस भारतीय जनता पार्टी के मंच से जो भारतीय संस्कृति और धार्मिक आस्थाओं के प्रति समर्पित है, इस बात की पूरी पड़ताल जरूरी है कि स्वयं के पैरों में कुल्हाड़ी मारनेवाली ऐसी घटना का असली जिम्मेदार कौन है? अगर यह सामान्य मानवीय भूल है, अति उत्साह व अल्पज्ञान-अद्र्धज्ञान की परिणति है, तो इन्हें स्पष्ट किया जाए। सार्वजनिक क्षमा मांगी जाए। और अगर किसी अदृश्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सुनियोजित 'मंचन' है यह, तब देश यह मानने पर विवश हो जाएगा कि भारत में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं, कुछ असामान्य घटित होनेवाला है।