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Friday, April 29, 2016

कोई भ्रम नहीं ! गडकरी-फड़णवीस एक रहें!

नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए !
केंद्रीय मंत्री गडकरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री फड़णवीस दोनों सावधान हो जाएं! यह एक ऐसा अरुचिकर प्रसंग है जिसका विस्तार न केवल महाराष्ट्र की राजनीति, बल्कि केंद्रीय राजनीति भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है! जबकि, यह सचाई मौजूद है कि इन दोनों नेताओं में से कोई भी ऐसा नहीं चाहेगा। उनकी नीयत साफ है। प्रदेश और राष्ट्रहित में एक साथ कदमताल करते ये दोनों भाजपा के नेता बेहतर जनहित और विकास के पक्षधर हैं- निज स्वार्थ से कोसों दूर।  फिर  ऐसी भ्रांति क्यों ?
इनकार दोनों करेंगे। बावजूद इसके लोगों के बीच ऐसा संदेश गया कि महाराष्ट्र के इन दो दिग्गज भाजपा नेताओं के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। शत-प्रतिशत गलत इस भ्रांति की उत्पत्ति तब कैसे हो गई? 'दुर्घटना' का कारण कतिपय शब्द, अवसर और विध्न संतोषियों द्वारा शब्दों को (कु) परिभाषित करना है। दोनों दिग्गज विदर्भ की अघोषित राजधानी और महाराष्ट्र की घोषित उपराजधानी नागपुर का क्रमश: संसद और विधान सभा में प्रतिनिधित्व करते हैं। राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में दोनों की अपनी-अपनी उपलब्धियां हैं, सकारात्मक भूमिकाएं हैं, और बेदाग राजनीतिक पाश्र्व है। आलोचना के लिए आलोचना करने वालों को छोड़ दें तो दोनों के प्रशंसकों की संख्या अनगिनत है। मुख्यमंत्री बनने के बाद देवेंद्र फड़णवीस के नेतृत्व में विकास की नई-नई योजनाएं बनीं और बिलकुल व्यवहारिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर उनके क्रियान्वयन प्रगति पर हैं। केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद गडकरी महाराष्ट्र, विशेषकर विदर्भ, के हित को लेकर चिंतित रहत हैं। उनकी ऐसी चिंता सकारात्मक है। उनकी महाराष्ट्र के प्रति ऐसी सक्रियता, बल्कि हाल के दिनों की कतिपय अतिसक्रियता के कारण हर घटनाक्रम में राजनीति व स्वार्थ ढूंढऩे वाले समीक्षक सक्रीय हो उठे हैं। गडकरी ने जब राज्य की सिंचाई परियोजनाओं के लिए बजट में आबंटित धन राशि को अपर्याप्त बताया तो समीक्षकों के इस खास वर्ग ने उनकी अवधारणा को प्रदेश सरकार विरोधी निरुपित कर डाला। दूसरे शब्दों में कहें तो सिंचाई को लेकर गडकरी की चिंता को फड़णवीस सरकार विरोधी करार दे डाला। जबकि सचाई के धरातल पर तथ्य यह है कि फड़णवीस की तरह गडकरी भी विकास की एक मजबूत रीढ़़ सिंचाई को सकारात्मक व्यवहारिक दिशा देने को उत्सुक हैं।  इसी चिंता के अंतर्गत उन्होंने टिप्पणी कर डाली थी कि सिंचाई के मद में एक छोटे से राज्य तेलंगाना में जहां 25 हजार करोड़ का बजट प्रावधान रखा है, वहीं महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में यह प्रावधान मात्र 7 हजार करोड़ का है। महाराष्ट्र के वित्त मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने इस मुद्दे पर स्थिति साफ करते हुए यह तय्थ सार्वजनिक किया कि वस्तुत: सिंचाई व इससे जुड़ी योजनाओं पर 12 हजार करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च की जा रही है। मुनगंटीवार ने विस्तार में सिंचाई संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में राज्य सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदमों की जानकारी देते हुए स्पष्ट किया कि धनराशि के अभाव में किसी भी योजना का क्रियान्वयन नहीं रूकेगा। उन्होंने धनराशि के आबंटन और शत-प्रतिशत उपलब्धता को भी चिंहित किया। मुनगंटीवार के स्पष्टीकरण के बाद लोग आश्वस्त हो गये कि राज्य सरकार सिंचाई योजनाओं के क्रियान्वयन में कोई कोताही नहीं बरत रही है।
 नितिन गडकरी का आशय कभी आलोचना का नहीं था। उन्होंने अपनी जानकारी और गणित के आधार पर राज्यहित में सिंचाई को लेकर पीड़ा व्यक्त की थी, नीयत साफ थी। उनका आशय ध्यानाकर्षण था। शत-प्रतिशत एक शुभचिंतक के रूप में उन्होंने फड़णवीस सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। जानकार पुष्टि करेंगे कि नितिन गडकरी एक सामान्य राजनेता से बिलकुल पृथक व्यवहारिक विकास पुरुष हैं। उसी प्रकार मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस भी सत्ता के चुंबकीय आकर्षण से दूर जनहितकारी राजनीति के पक्षधर रहे हैं। प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर उन्होंने व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए जो कदम उठाए उसके दूरगामी सुपरिणाम तय हैं। कथित सस्ती राजनीतिक लोकप्रियता के लिए तात्कालिक लुभावने कदम उठाने से इनकार कर फड़णवीस ने किसान और कृषि हित में लाभकारी योजनाओं को मूर्त रुप देने की दिशा में कदम उठाए हैं। किसान, कृषि, सिंचाई के मोर्चे पर गडकरी और फड़णवीस की सोच एक है। राजनीतिक गुटबाजी के पक्षधर नहीं चाहते कि महाराष्ट्र के ये दो दिग्गज समान सोच के साथ समान पथ पर कदमताल करेें। गडकरी-फड़णवीस की जोड़ी से सिर्फ महाराष्ट्र को ही नहीं, भारत राष्ट्र को भी अनेक आह्लादकारी  अपेक्षाएं हैं। पक्षपाती मीडिया के कुछ हस्ताक्षरों के सहयोग से ये तत्व दोनों के बीच मतभेद पैदा करने पर उतारू हैं। जबकि दोनों को नजदीक से जानने वाले गडकरी-फड़णवीस परिवार के बीच अटूट संबंधों की पुष्टि करेेंगे। राजनीति के क्षेत्र में भी दोनों के संबंध न केवल विचारधारा आधारित हैं, बल्कि भावनात्मक भी। बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े देवेंद्र के पिता गंगाधरराव फड़णवीस ही नितिन गडकरी को राजनीति के क्षेत्र में लेकर आये थे। तत्कालीन विधान परिषद सदस्य रामजीवन चौधरी ने भी गडकरी के पक्ष में सकारात्मक भूमिका निभाई थी।  और, युवा देवेंद्र फड़णवीस को राजनीति की जमीन उपलब्ध कराने में नितिन गडकरी ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। सबसे कम उम्र में नागपुर के महापौर बनने वाले देवेंद्र फड़णवीस को नितिन गडकरी का निर्णायक समर्थन मिला था । पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव में दोनों ने एक-दूसरे के पक्ष में जीत के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ी थी। केंद्रीय मंत्री के रूप में गडकरी और प्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में देवेंद्र फड़णवीस दोनों को प्रदेश के विकास के मार्ग पर कंधे से कंधे मिला कदमताल करते पूरा प्रदेश देख रहा है। इस पाश्र्व में दोनों के बीच मतभेद पैदा करने के कुत्सित प्रयास को तत्काल जमींदोज कर दिया जाये। हालांकि आवश्यकता नहीं है, फिर भी बेहतर होगा कि इस दिशा में पहल गडकरी और फड़णवीस स्वयं करें। शुभचिंतक के रूप में सुझावों को आलोचना मान संदेश प्रसारित करने वाले तत्व भी अपने पैर पीछे खींच लें। अन्यथा एक दिन उन्हें चौहारे पर नग्नावस्था में अपनी भूल के लिए सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ेगी। 

'जी न्यूज', 'इंडिया न्यूज', 'न्यूज एक्स' पर कानूनी शिकंजा

'मीडिया मंडी' के चौकीदार खुश हैं कि उनके अंगने में काला नकाब पहन नाचने और नचाने वाले मीडिया कर्मियों के चेहरे बेनकाब किये जा रहे हैं। कानून ने सही काम किया तो ये मुखौटाधारी जेल भी जा सकते हैं। पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत को ताक पर रख सत्तादेवी के साथ शयनकक्ष में रासलीला रचाने वाले ऐसे मीडिया विरोधी अराजक तत्वों को सजा मिले ये सभी चाहते हैं। कम से कम मीडिया पर विश्वास रखने वाला समाज तो यही चाहता है, लेकिन इस मुकाम पर सावधानी की भी जरुरत है। मीडिया कर्मी अथवा पत्रकार अगर अनैतिक कृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, तो उसका खामियाजा उन मीडिया संस्थानों को भी भुगतना पड़ता है, जिससे वे जुड़े हुए हैं। जबकि यह आवश्यक नहीं कि पत्रकारों के काले कारनामों में संचालक भी भागीदार हों ही। हां, अगर उनकी भागीदारी भी स्थापित होती है तो सजा उन्हें भी मिले। सावधानी इसीलिए जरुरी है। निष्पक्ष व्यापक जांच न्याय की मांग है। आलोच्य मामला भी इस आवश्यकता का आग्रही है।
 खबर मिली है कि, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के चर्चित वीडियो कांड प्रकरण में तीन मीडिया संस्थानों, 'जी न्यूज', 'इंडिया न्यूज' और 'न्यूज एक्स' के खिलाफ गुनाह दर्ज करने के लिए दिल्ली सरकार ने अदालत का दरबाजा खटखटाया है। दिल्ली सरकार का आरोप है कि इन तीन मीडिया संस्थानों में वीडियो के साथ छेडछाड़ कर जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष तथा स्वयं जेएनयू के खिलाफ साजिश रच उन्हें फंसाने और बदनाम करने की कोशिश की। 'जी न्यूज' द्वारा दिखाए गये वीडियो के आधार पर ही दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया था। अब अगर अदालत इसे मान लेती है कि, वीडियो फर्जी था या उसके साथ छेड़छाड़ हुई थी, तब निश्चय ही मीडिया संस्थान दंडित किये जाएंगे।
 इस बिंदु पर अहम सवाल यह कि मीडिया संस्थानों के इस फर्जीवाड़े की जिम्मेदारी किस पर?  क्या संस्थान के संपादकीय विभाग ने किसी साजिश के तहत या संचालकों के निर्देश पर फर्जीवाड़ा किया? इसकी छानबीन कर सच्चाई सामने लाया जाना जरुरी है। जिम्मेदारी सुनिश्चत करनी होगी कि फर्जीवाड़े के लिए दोषी संपादक है या मालिक। आम लोग इस पर अपने-अपने ढंग से कयास लगाते हैं। कुछ यह मान कर चलते हैं कि पत्रकार अपने निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए  सत्ता-शासन के साथ साठगांठ कर उसके इशारे पर ऐसे फर्जीवाड़े को अंजाम देते हैं। इससे पत्रकार जहां आर्थिक व अन्य लाभ प्राप्त करते हैं, वहीं सत्ता अपना राजनीतिक स्वार्थ साध लेती है। दूसरा पक्ष यह मानता है कि उच्च स्तर पर मीडिया संस्थान के मालिक सत्ता-शासन के साथ सौदेबाजी कर अपने संपादकीय विभाग द्वारा अपने मन की कर गुजरते हैं। क्या जेएनयू प्रकरण भी ऐसी साजिश का शिकार हुआ है? जिन मीडिया संस्थानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की पहल की गई है, पहले उनके संपादकों और मालिकों के पाश्र्व की चर्चा करनी चाहिए। किसी भी कानूनी संज्ञान के पूर्व ऐसा करना तर्क संगत है।
पहले चर्चा 'जी न्यूज' की। इसके संपादक पूर्व में कथित वसूली के आरोप में गिरफ्तार हो चुके हैं, जेल जा चुके हैं। मामला अभी भी अदालत में लंबित है। 'जी न्यूज' के पूर्व जिस मीडिया संस्थान से ये संपादक जुड़े थे, वहां भी एक फर्जी स्टिंग का आरोप इन पर लग चुका था। तब भी मामले ने काफी तूल पकड़ा था और पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा था। महिला संगठनों के निशाने पर भी तब ये संपादक आये थे। यहां तक कि उक्त मीडिया संस्थान का लाइलेंस भी कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया गया था। संपादक भी संस्थान से तब निकाल बाहर कर दिये गये थे। पूरी घटना से आहत मीडिया संस्थान के निर्दोष मालिक ने कुछ दिनों बाद अपने चैनल को ही बेच दिया। संपादक के दोष का खामियाजा मालिक को भुगतना पड़ा। 'जी न्यूज' में भी कथित वसूली के मामले में संपादक तो गिरफ्तार हुये, आरोपी मालिक भी बनाए गये। उन्हें जमानत लेनी पड़ी। अदालती फैसला आने के बाद पता चल पाएगा कि दोषी संपादक है या मालिक। जेएनयू के कथित फर्जी वीडियो प्रकरण में अगर मामले पर अदालत ने संज्ञान लेते हुए पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया तो संभवत: फैसले में यह भी तय हो जाएगा कि असली दोषी कौन है? बहरहाल संपादक का अतीत उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर रहा है।
 'इंडिया न्यूज' का मामला भी कुछ ऐसा ही है। हालांकि 'इंडिया न्यूज' ने 'जी न्यूज' के फुटेज को सही मानते हुए उसका प्रसारण कर दिया। यहां पर जिम्मेदार संपादकीय कक्ष अर्थात संपादक है। उन्होंने अपनी बुद्धि व विवेक का इस्तेमाल करने में चूक की।  संभवत: संपादक अपनी पूर्वाग्रही विचारधारा के कारण जानबूझकर ऐसा कर गुजरे। इनका अतीत भी इनके खिलाफ है। 'इंडिया न्यूज' के पूर्व जिस संस्थान से जुड़े थे, वहां भी मुलायम सिंह यादव के आय से अधिक संपत्ति के मामले में फर्जीवाड़ा कर समाचार प्रसारित करने का आरोप इन पर लग चुका है। उक्त संस्थान से इन संपादक की छुट्टी भी इसी कारण हुई थी। अपनी विचारधारा को खबरों पर थोपने में माहिर ये संपादक सत्ता-सुविधाभोगी रहे हैं। सत्ता की कृपा से सुविधा जुटा अत्यधिक 'सुखी' बन बैठे ये संपादक अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए संस्थान के मंच का उपयोग-दुरुपयोग करने से नहीं चूकते। अनेक आरोप लग चुके हैं इन पर। ऐसे में यह अंदाज लगाना सहज है कि जेएनयू के फर्जी वीडियो प्रकरण में भी अगर 'इंडिया न्यूज' दोषी पाया जाता है तो इस संपादक के कारण ही। संस्थान के मालिक का पाश्र्व उनकी सहभागिता को नहीं दर्शाता। कुख्यात आरुषि कांड के समय भी 'इंडिया न्यूज' अपने तत्कालीन प्रधान संपादक के कारण कानूनी पचड़े में फंस चुका था। भारत सरकार ने चैनल का लाइसेंस रद्द करने के लिए कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था। तब संस्थान के मालिक ने आंतरिक जांच कर संपादकीय के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। संस्थान बच गया था। लेकिन यह एक ऐसा उदाहरण है जो इस तथ्य को चिन्हित करता है कि वर्तमान जेएनयू मामले में भी पूर्व की तरह 'इंडिया न्यूज' का संपादकीय कक्ष ही जिम्मेदार है-मालिक नहीं।
तो यह एक गंभीर सवाल खड़ा करता है कि क्या पत्रकारीय स्वतंत्रता के नाम पर संपादकीय कक्ष को निज स्वार्थपूर्ति  के लिए इतनी छूट मिल जाये कि वे संस्थान का दुरुपयोग करते रहें और बदनामी के खाते में मालिक भी घसीटे जायें। निष्पक्ष न्याय का तकाजा है कि योग्यता के आधार पर 'मीडिया मंडी' में फल-फूल रहे इस अपराध के असली अपराधियों की पहचान की जाये। दंडित दोषी हों, निर्दोष नहीं! 

'प्रतिष्ठित' ही नहीं जनप्रतिनिधि भी दंडित हों!

संसदीय स्थायी समिति की इस अनुशंसा का स्वागत कि समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों (सेलिब्रिटी) द्वारा विभिन्न उत्पादनों के प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञापनों में सहभागी बन गलत दावे पेश करने पर उन्हें आर्थिक दंड के अलावा कारावास की भी सजा दी जाए। हांलाकि, गलत विज्ञापनों का यह सिलसिला बहुत पहले से जारी है किंतु हाल के दिनों में लोगों का ध्यान इस ओर गया और इन पर रोक लगाने की मांग मजबूत हुई।
किसी भी शिक्षित-सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है कि व्यावसायिक उत्पादों को महिमामंडित कर उपयोगिता संबंधी बड़े-बड़े किंतु गलत दावे किए जाएं। इससे न केवल समाज में भ्रम फैलता है, बल्कि गलत दावों के कारण, विशेषकर खाद्य पदार्थों को लेकर, उपभोक्ता के स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ किया जाता रहा है। उत्पादकों द्वारा प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अनाप-शनाप धनराशि की पेशकश कर उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व का अपने आर्थिक लाभ के लिए दुरुपयोग करना एक आम प्रचलन बन गया है। इसका सर्वाधिक दुखद पहलू तो यह है कि भारत रत्न से लेकर अन्य पद्म पुरस्कारों से सम्मानित 'प्रतिष्ठित' भी धन के लालच में उत्पादकों के जाल में फंस जाते हैं।  उत्पादों को उनके द्वारा विज्ञापित कर गलत दावे पेश कर उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जाता है। जरा कल्पना करें कि अमिताभ बच्चन सरीखा 'महानायक' जब एक तेल को मालिश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त करार दे उपभोक्ताओं को इस्तेमाल की सलाह दें तब बगैर गुणवत्ता की जांच किए उसका उपयोग शुरु कर देता है। क्या यह उपभोक्ता के साथ छल नहीं? साफ है कि उत्पाद की गुणवत्ता की जांच स्वयं अमिताभ बच्चन ने नहीं की होगी।  उन्हें तो मतलब अगर रहा होगा तो सिर्फ विज्ञापन के एवज में मिलनेवाली धनराशि से। ऐसे दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जब प्रतिष्ठित व्यक्ति गलत उत्पादों के पक्ष में विज्ञापन के लिए स्वयं को प्रस्तुत करते रहे हैं। चाहे फिल्म अभिनेता हों, अभिनेत्रियां हों या फिर ख्यातिनाम खिलाड़ी ही क्यों न हो, सभी उत्पादकों के इस जाल में फंसते रहे हैं।  जब मामला प्रकाश में आता है तब ये 'प्रतिष्ठित' स्वयं को विज्ञापन से अलग कर लेते हैं। ऐसा कर वे खुद को बचा भी लेते हैं। ऐसे में संसदीय स्थायी समिति की अनुशंसा का स्वागत किया जाना चाहिए। यह न केवल समाजहित में होगा बल्कि उपभोक्ताओं के साथ क्रूर मजाक में सहभागी बने प्रतिष्ठितों को दंडित कर सही मार्ग पर भी लाया जा सकेगा।  संसदीय समिति की अनुशंसा के अनुसार  आर्थिक दंड और कारावास का भय प्रतिष्ठितों को रोकेगा।  जरूरी है कि इस अनुशंसा को तत्काल कानूनी जामा पहना लागू किया जाए।
इसी से जुड़ा एक ओर ज्वलंत मुद्दा । विज्ञापनों द्वारा गलत दावे प्रस्तुत करने पर जेल जाने तक की सजा के प्रस्तावित प्रावधान के साथ ही सभी के जेहन में तत्काल एक और सवाल उठता है कि गलत 'वादों' के आधार पर चुनाव जीतनेवालों के खिलाफ भी इसी तरह के दंड की व्यवस्था क्यों न की जाए।  वादे कर चुनाव जीतने के बाद, बल्कि सत्ता में पहुंच जाने के बाद भी वादों से मुकरने के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। वादों पर भरोसा कर मत देनेवाला मतदाता तब छला महसूस करता है जब निर्वाचित जनप्रतिनिधि वादों की पूर्ति तो दूर ठीक उसके विपरीत कार्य करते दिखते हैं। क्या ऐसी वादाखिलाफी समाज के साथ विश्वासघात नहीं? सभी के लिए समान न्याय की अवधारणा के अनुरूप ऐसे 'छल' को भी दंडनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। जिन वादों के सहारे जनप्रतिनिधि सत्ता की कुर्सी पर बैठते हैं उन वादों को पूरा करना कानूनी रूप से भी अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए। क्योंकि जनता ने वादों पर भरोसा कर ही उन्हें सत्ता सौंपी होती है।
यह कोई विषयांतर नहीं, समान न्याय का तकाजा है। अगर प्रतिष्ठित व्यक्तियों को विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ताओं को  गलत भरोसा देने के लिए दंडित किया जाता है तब मतदाता को भी गलत भरोसा देने के अपराध में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दंडित किया जाना चाहिए। तभी लोकतांत्रिक भारत सभी के लिए समान न्याय संबंधी अपनी महिमांडित न्याय व्यवस्था के पक्ष में अंगड़ाई ले सकता है। आलोच्य प्रसंग में 'प्रतिष्ठित' कलाकार भी हैं,खिलाड़ी भी हैं और निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी।

Thursday, April 21, 2016

सावधान न्यायपालिका! सावधान कार्यपालिका!! सावधान संसद !!!

आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है ! 
है तो यह पुरानी कहावत, किन्तु इसकी प्रासंगिकता समाज के हर क्षेत्र में आज भी मौजूद है। इसी कड़ी में अद्भुत व्यवहारिक दृष्टिकोण के धारक केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का उल्लेख समचीनी होगा। अपने विशेष अंदाज में सम-सामयिक मुद्दों पर दो टूक राय रखने वाले गडकरी जब कहते हैं कि, अदालतों को अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए और यह कि भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) निजी और शासकीय चिकित्सा महाविद्यालयों को बंद करने का प्रयास कर रही है, तो यह एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन जाता है।
जहां तक अदालतों की मर्यादा का सवाल है, उनकी कथित 'अति सक्रियता' के आलोक में समाज के अनेक तबकों में आचोलनाएं-समालोचनाएं होती रही हैं। न्यायपालिका के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद अनेक फैसलों पर चिंतक अपनी प्रतिकूल राय देते रहे हैं। उद्देश्य न्यायपालिका की अवमानना न होकर ध्यानाकर्षण होते हैं। कभी-कभी संभावित प्रतिकूल राष्ट्रीय प्रभाव को लेकर चेतावनियां भी।
नितिन गडकरी ने कोई नई बात नहीं कही।  इसके पूर्व देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने संविधान संशोधन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के एक प्रतिकूल निर्णय पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, न्याय पालिका को अपनी सीमा नहीं भूलनी चाहिए। नेहरु के शब्द और तेवर तल्ख थे। दो टूक शब्दों में उन्होंने कहा था कि ''सर्वोच्च न्यायालय या न्यायपालिका संसद की सार्वभौम इच्छा आधारित फैसलों के मार्ग में नहीं आ सकती। संसद सभी समुदायों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है। अगर हम यहां-वहां कुछ गलती करते हैं तो वे ध्यान आकर्षित कर सकते हैं  किंतु, जहां समुदाय के भविष्य का सवाल है, कोई न्याय पालिका मार्ग में नहीं आ सकती। पूरा का पूरा संविधान संसद की देन है... कोई अदालत, न्यायपालिका की कोई व्यवस्था किसी तीसरे संसद की तरह काम नहीं कर सकती......अत: न्यायपालिका को इस सीमा के अंदर ही काम करना चाहिए......। '' नेहरु की चेतावनी तब एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनी थी। न्यायपालिक से इतर पूरे देश में नेहरु की भावना को आदर मिला था।
 गडकरी ने भी न्याय पालिका को उसकी सीमा की याद दिलाते हुए यह बताने की कोशिश की है कि अदालती फैसले जमीनी हकीकत के आलोक में होने चाहिए। यह एक ऐसा कड़वा सच है जिस पर राजनीतिक रुप से भिन्न-मतधारक भी गडकरी का साथ देंगे।
देश-समाज आज एक बिलकुल भिन्न न्यायायिक वातावरण का अहसास कर रहा है। स्कूल-कालेजों में दाखिले से लेकर अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था साफ-सफाई, मोहल्ले-टोलों में बिजली आपूर्ति की उपलब्धता, पेयजल संकट, रोजगार, नारी-सुरक्षा सम्मान आदि-आदि में भी प्रतिदिन अदालती हस्तक्षेप के उदाहरण सामने आ रहे हैं। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, नियुक्तियां आदि अन्य मामले तो आम हैं ही। एक धारणा सी बन गई है कि लोकतंत्र  के अन्य दो स्तंभ विधायिका और कार्यपालिका  की विफलता के कारण न्यायपालिका को सामने आकर हस्तक्षेप करना पड़ता है। इस तर्क में दम तो है किंतु सच यह भी है कि समय-समय पर कुछ ऐसे अदालती फैसले सामने आए हैं जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर के होते हैं।
गडकरी ने जिस संदर्भ में न्याय पालिका पर टिप्पणी की है वह गौरतलब है। राज्य में चिकित्सा महाविद्यालयों व चिकित्सकों को लेकर कई बार ऐसे अदालती आदेश आते हैं जिस कारण चिकित्सा महाविद्यालयों में ना केवल दाखिले प्रभावित होते हैं बल्कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सक उपलब्ध नहीं हो पाते। क्या उन क्षेत्रों के रहवासी मनुष्य नहीं हैं ? उन्हें वैद्यकीय चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती? किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह विषमता एक प्रशासकीय कलंक मानी जाएगी। कानूनी दावंपेच या और साफगोई से काम लिया जाये तो यह कहने में कतई संकोच नहीं कि अपने प्रभाव का उपयोग कर चिकित्सक न केवल ऐसे पदास्थापना पर अदालती रोक का आदेश प्राप्त कर लेते हैं, बल्कि मनपसंद पदास्थापन भी प्राप्त कर लेते हैं। दाखिला संबंधी परीक्षाओं और उनमें आरक्षण को लेकर अदालती आदेशों से भी व्यवधान पैदा होते रहे हैं। अनेक प्रशासकीय निर्णय पर अंतरिम अदालती रोक एक प्रचलन बन गया है। चिकित्सा महाविद्यालयों एवं चिकित्सा केंद्रों की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति तब दीर्घकालिक बन जाती है जब अदालती हस्तक्षेप शुरू हो जाते हैं। कानून की पुस्तकों से जटिल पेचीदगियां निकाल अधिवक्ता अदालत को जमीनी हकीकत से दूर रखने में सफल हो जाते हैं। नतीजतन कानूनी प्रावधानों से बंधी अदालतें अपने फैसलों के कारण समय-समय पर अव्यवहारिक निर्णय की दोषी बन जाती हैं, शिकार बनता है समाज, जिस न्याय मंदिर से समाज न्याय की अपेक्षा करता है वह इस मंदिर के न्यायिक घंटों के शोर में अपनी आवाज को दबा देख सिसकने को मजबूर हो जाता है।
आज पूरे देश में परिवर्तन की एक लहर सी चल रही है, वाजिब ही नहीं देश हित में होगा कि वर्तमान न्याय प्रणाली की आमूलचूल समीक्षा कर एक नई परिवर्तित न्यायपालिका को निखारा जाये। ध्यान रहे कल्याणकारी भारतीय लोकतंत्र में पारदर्शिता और लचीलापन अनिवार्य है। इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। संसद की सर्वोच्चता के बावजूद उसके द्वारा बनाए गये नियम-कानूनों की संवैधानिक समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को तो है किंतु, फैसलों को व्यवहारिक बनाने के लिए जमीनी हकीकत को हमेशा ध्यान में रखना होगा। भारतीय लोकतंत्र, समानता और विकास का आग्रही है। विषमता और पक्षपात लोकतंत्र के लिए घातक हैं। न्यायपालिक इन जरुरतों को नजरअंदाज ना करें। अन्यथा, इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा गलियों-सड़कों पर होने लगेगी और तब 'नियंत्रण' को लेकर एक नई खतरनाक बहस शुरु हो जाएगी। अत:  सावधान न्यायपालिका, सावधान कार्यपालिका और सावधान संसद ! 

कोठे पर बैठने को तत्पर 'मीडिया'?

कला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े एक कार्यकर्ता का मुंबई से फोन आया। 
उन्होंने पूछा, 'सर! क्या संस्थान की गतिविधियों या कार्यक्रम की खबर के प्रकाशन के लिए समाचार पत्रों को भुगतान करना पड़ता है?' मेरी जिज्ञासा पर उन्होंने बताया कि उनके संस्थान के एक कार्यक्रम से संबंधित खबर और चित्र स्थानीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों को प्रकाशनार्थ भेजे गए थे। एक समाचार संस्थान से प्रकाशन के लिए 70 हजार रुपए की मांग की गई। उसी प्रकार दो अन्य मीडिया संस्थानों से भी क्रमश: तीन लाख और ढ़ाई लाख की मांग की गई थी। इस चौंकानेवाली जानकारी ने 'पेड न्यूज' के खतरनाक विस्तार की जानकारी दी। वैसे भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत शीर्ष संस्थान प्रसार भारती का मुख्यालय एक 'मंडी हाऊस' में ही स्थापित है, 'मीडिया मंडी'  ने 'बाजार' अथवा 'बाजारू' को मोटी रेखाओं से चिन्हित कर दिया है। सुविधानुसार राजनेता या अन्य भारतीय मीडिया को बाजारू तो निरूपित करते रहे हैं किंतु जिस रूप में अब सामान्य खबरों के प्रकाशन के लिए धनराशि की मांग की जाने लगी है उससे यह साफ है कि आनेवाले दिनों में समाचार पत्र हों या खबरिया चैनलों के पर्दे, उन पर छपने या आनेवाली खबरें 'धन आधारित' होंगी।  ऐसे में खबरों की विश्वसनीयता पर बहसें भी बेमानी हो जाएंगी।
धनराशि के बदले छपनेवाली खबरें, जाहिर है, भुगतान करनेवाले व्यक्ति, संस्थान या राजदल की इच्छाओं के अनुरूप ही होंगी। सचाई व यथार्थ से कोसों दूर। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि समाचार पत्र और खबरिया चैनल अब पाठकों या दर्शकों के साथ छल और सिर्फ छल करेंगे। मुद्रित शब्दों को सच मानने वाले पाठकों के साथ एक बड़ा धोखा होगा यह। खबरिया चैनल भी तब ऐसी झूठी खबरों को आधार बना चैनलों पर ताल ठोककर छोटी-बड़ी बहसें कराते रहेंगे। वहां भी दर्शकों के साथ धोखा का अवतरण! फिर, क्या अचरज कि आज खुलेआम मीडिया को 'बाजारू' निरूपित किया जा रहा है।
तो क्या ऐसी स्थिति को स्वीकार कर आज का पत्रकार स्वयं को कोठे पर बिठाने के लिए तैयार रहे? चुनौती है उन्हें कि अगर 'बाजारू' बने रहना है तब कोठे पर बैठना ही होगा।  क्या ऐसी अवस्था के लिए तैयार हैं पत्रकार?  दबाव और प्रलोभन के वर्तमान युग में झुकते हुए अथवा साष्टांग रेंगनेवाले पत्रकारों का एक वर्ग दृष्टिगोचर अवश्य है किंतु अपवाद स्वरूप ही सही नगण्य संख्या में मौजूद पुराने अनुभवी पत्रकारों के साथ-साथ युवा पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग इस पतित अवस्था को स्वीकार करने तैयार नहीं। अब सवाल यह कि पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांत को स्वीकार कर सत्य मार्ग का वरण करनेवाला यह वर्ग क्या प्रतिरोध कर पाएगा? मीडिया संचालकों की सत्ता के साथ मिलीभगत और स्याह-सफेद में परस्पर पूरक ये सामान्य पत्रकारों पर हमेशा दबाव बनाए रखना चाहते हैं।  उनकी मजबूरियों का लाभ उठाकर संचालकगण अपनी मर्जी का करवा लेने में सफल हो जाते हैं। प्रतिरोध करनेवालों को प्रताडि़त करने की अनेक मिसाल सामने हैं। कड़वा सच तो यह है कि साधन-संपन्न संचालक वर्ग अपने साम्राज्य का विस्तार करता हुआ फल-फूल रहा है। ईमानदार पत्रकार हाशिए पर रुदन को विवश है।
फिर विकल्प? उपाय? 
है, जरूर है। इस दुस्थिति का सामना कर पराजित कने के लिए पाठकीय जागृति की जरूरत है। जिस प्रकार कुशासन के खिलाफ जब जनता सड़क पर निकलती है तो सत्ता परिवर्तन होता है। उसी प्रकार मीडिया मदहोशों को होश में लाने के लिए पाठक अगर ठान ले तो यह संभव हो सकता है। समाज में अनेक ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो इस हेतु पहल कर सकती हैं। मोहल्ले-मोहल्ले में पाठकीय जागृति मंच संस्था स्थापित कर पाठकों को प्रति दिन प्रकाशित खबरों की 'सचाई' से अवगत कराया जाए। तथ्यों के आलोक में खबरों की प्रामाणिकता पर विशेष चर्चा हो  शब्दों, पंक्तियों के बीच छुपे'सच' उजागर किए जाए, प्रायोजकों के चेहरें बेनकाब किए जाएं, राज-राजनीति और 'घरानों' के मंसूबे, हथकंडे चिन्हित किए जाएं, प्रलोभन प्रभावित संपादक और संपादकीय कक्ष  को भी नंगा करने में हिचकिचाहट न हों । बे-नकाब किए जाएं सभी, ऐसी मशक्कत न सिर्फ पाठकीय हितकारी होंगे बल्कि राष्ट्र हितकारी होंगे। 'मीडिया मंडी' की विश्वसनीयता भी तब पुर्नस्थापित होगी। समाज पर मीडिया के निर्विवाद प्रभाव के आलोक में ऐसा सफाई अभियान, सच पूछिए तो लोकतंत्र की पुकार हैं।
अब चुनौती 'मीडिया' को, चुनौती उसकी अंतरात्मा को कि वह लोकतंत्र की मूल आत्मा के साथ कदमताल करना चाहेगी अथवा निहित स्वार्थी 'धनपशुओं' की इच्छापूर्तिकर्ता बनना चाहेगी?
देश फैसले के लिए प्रतीक्षारत है। 

' कांग्रेस मुक्त भारत' ! 'संघ मुक्त भारत' !

इन नारों के सर्जक भूल जाते हैं कि भारतीय लोकतंत्र ऐसे नारों को स्वीकृति प्रदान नहीं करता। संसदीय लोकतंत्र में आरोप-प्रत्यारोप तो स्वभाविक हैं किंतु, बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली में किसी के अस्तित्व समाप्ति की सार्वजनिक घोषणाएं लोकतांत्रिक भावना के विपरीत हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तब सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने आक्रामक अभियान चलाकर 'कांग्रेस मुक्त' भारत का आह्वान किया था। स्वयं नरेंद्र मोदी अपनी आक्रामक शैली में इस नारे को पूरे देश में प्रचारित करते रहे। राजनीतिक रुप से उन्हें प्रतिसाद मिला और चुनावी सफलता के रूप में विशाल बहुमत। कांग्रेस का अस्तित्व तो समाप्त नहीं हुआ किंतु वह कुछ सीटों पर सिकुड़ बौना बनकर रह गई। सत्ता सिंहासन पर विराजमान हो भारतीय जनता पार्टी ने देश में कांग्रेस युग की समाप्ति की घोषणा कर डाली। देश चिंतित था कि एक कमजोर विपक्ष की मौजूदगी में लोकतंत्र सफल कैसे हो पाएगा। शंकाएं व्यक्त की गई कि विशाल बहुमत प्राप्त भारतीय जनता पार्टी कहीं निरंकुश शासक न बन बैठे। लेकिन बहुत जल्द लोगों ने देखा कि कमजोर, बौनी कांग्रेस विपक्ष के रूप में सत्तारुढ़ भाजपा की नींद उड़ाने में सफल होती गई। यही विशेषता भारतीय लोकतंत्र को विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बताने में नहीं हिचकिचाती। भारत की जनता की पैनी नजरें पक्ष-विपक्ष पर लगी हुई हैं।  'कांग्रेस मुक्त' भारत के नारे की परिणति पर भी उसकी दृष्टि केंद्रित है। 
दूसरा नारा, 'संघ मुक्त भारत' का औचित्य विवादास्पद है। संघ, अर्थात, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कोई राजनीतिक दल नहीं, एक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है। उसके लक्ष्य- सिद्धांत को लेकर बहसें हो सकती हैं किंतु, सत्ता की राजनीति के साथ उसे जोड़ा जाना उचित नहीं है। कांग्रेस के खिलाफ नारे के जवाब में किसी राजनीतिक दल को सामने न खड़ा कर संघ को खड़ा किया जाना स्वयं में हास्यास्पद है। विचारधारा के आधार पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का संघ के साथ तालमेल हो सकता है किंतु, सत्ता संचालन में नहीं। राष्ट्रीय मुद्दों पर अथवा राष्ट्रहित में सत्तापक्ष किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था के साथ विचार-विमर्श के लिए स्वतंत्र है। संघ अपवाद नहीं हो सकता। संघ की ओर से इस बिंदू पर बार-बार स्पष्टीकरण दिये जाने के बावजूद भाजपा पर आक्रमण के लिए विपक्ष द्वारा संघ को निशाने पर लिया जाना बौद्धिक दिवालियेपन के समकक्ष है। बेहतर हो, विपक्ष राजनीतिक स्तर पर भाजपा के विरोध के लिए भाजपा की नीतियों को निशाने पर लें, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नहीं। 

Thursday, April 14, 2016

आस्था, भक्ति और दाता आम्बेडकर!


सुबह जब कार्यालय आ रहा था रास्ते में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की एक प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना-वंदना का कार्यक्रम चल रहा था। आज वे डॉ. आम्बेडकर की 125 वीं जयंती पर श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे थे। सम्मान में मस्तक स्वत: झुक गया। ठीक उसी तरह जैसे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारा के सामने सिर झुकाता रहा हूं।
यह आदर-सम्मान, भक्ति या अवस्था उस 'आस्था' के प्रतीक  हैं जो प्राय: हर मनुष्य को नैसर्गिक रूप से प्राप्त है। चेतन और अवचेतन में सभी के अंदर मौजूद है यह 'आस्था'।  आडम्बरयुक्त भौतिकवादी युग में चाहे कोई समर्थन या विरोध में कितने भी तर्क-कुतर्क दे दे उसकी अंतरात्मा इनकार नहीं करेगी कि किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के प्रति आस्था उसके निहायत निजी विश्वास का प्रतीक है- जाति, धर्म, संप्रदाय से बिल्कुल पृथक। यह आस्था ही है जो कहती है 'मानो तो भगवान, नहीं तो पत्थर'! फिर इस आस्था पर संघर्ष क्यों?
सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करनेवाले द्वारका-शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने फिर ये क्यूं कहा कि महाराष्ट्र राज्य में जारी सूखे का कारण साई बाबा की पूजा करना है। इससे भी आगे बढ़ते हुए शंकराचार्य यहां तक कह गए कि चूंकि महाराष्ट्र स्थित शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं ने प्रवेश कर पूजा -अर्चना की है, शनि देवता कुपित हुए हैं और इस कारण महिलाओं पर बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होगी।  हिन्दू धर्म में भगवान के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित एक शंकराचार्य अगर इस तरह की बेतुकी बातें करते हैं तो तय मानिए कि अनेक हिन्दू धर्मावलम्बी 'हिन्दू धर्म' को लेकर शंकायुक्त सवाल खड़े करेंगे। साई बाबा को भगवान मान पूजा -अर्चना करनेवालों की संख्या भारत में करोड़ों है। सिर्फ महाराष्ट्र नहीं पूरे देश में साई मंदिर और साई भक्त मौजूद हैं। यहां मामला शत प्रतिशत आस्था का है। साई बाबा के भक्तों या अनुयायियों में हिन्दुओं की मौजूदगी सर्वाधिक है। बल्कि यूं कहें कि, कुछ अपवाद छोड़ हिन्दू ही हैं, तो गलत नहीं होगा। लोग अगर साई बाबा के प्रति आस्था प्रकट करते हुए उनकी पूजा करते हैं तो किसी को आपत्ति क्यों? आपत्तिजनक तो यह है कि शंकराचार्य ने महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश पर आपत्ति-विरोध जताया है। सिर्फविरोध ही नहीं, ईश्वरीय कोप का भय दिखाकर पूरे नारी समाज में आतंक फैलाने की चेष्टा भी शंकराचार्य ने की है। मैं समझता हूं हमारे देश का वर्तमान कानून किसी को भी ऐसे दुस्साहस की अनुमति नहीं देता। फिर शंकराचार्य के खिलाफ कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं?
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध या जैन आदि सभी अपने-अपने विश्वास के अनुरूप आस्थापूर्वक अपनी-अपनी विधि के अनुसार पूजा-अर्चना करते हैं। यह सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं पूरे संसार के हर वर्ग-सम्प्रदाय में प्रचलित है। इस मुद्दे को लेकर चाहे शंकराचार्य हों या कोई अन्य धर्मावलम्बी अगर वे समाज में परस्पर दुर्भावना पैदा करने की चेष्टा करते हैं तो उन्हें समाज व कानून का अपराधी माना जाना चाहिए। शंकराचार्य अपवाद नहीं हो सकते।
मैंने शुरुआत में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की चर्चा की है। डॉ. आम्बेडकर भी ईश्वरीय अवतार  के रूप में स्थापित हो चुके हैं। प्राचीन मान्यता भी है कि पृथ्वी पर समाज सुधार के लिए समय-समय पर 'अवतार' पैदा होते रहे हैं। उस काल की याद कीजिए जब गुलाम भारत आजादी के संग्राम के बीच 'स्वतंत्र भारत' के भविष्य  पर चिंतन-मनन कर रहा था।  तब के दौर के नेतृत्व में विभिन्न विचारधारा के लोगों का समावेश था। अलग-अलग विचारकों के बीच  स्वाभाविक मतभेद उजागर थे, मनभेद भी थे। किंतु सुरक्षित 'भारत भविष्य' पर सभी एकमत थे । राजनीतिक कारणों से आजाद भारत में 'नेता' के रूप में उभरे उन हस्ताक्षरों की चर्चा मैं यहां नहीं करना चाहता जो सत्ता वासना से अभिभूत- समझौते दर समझौते कर रहे थे। मैं यहां चर्चा सिर्फ डॉ. भीमराव आम्बेडकर की करुंगा जो राजनीति के वर्तमान कालखंड में अपने पुराने आलोचक वर्ग के भी 'प्रिय ' बन गए हैं। उन्हें अपनाने की एक अजीब होड़ सी मची है। कांग्रेस हो, भारतीय जनता पार्टी हो, समाजवादी पार्टियां हो, बहुजन समाज पार्टी हो या फिर आश्चर्यजनक रूप से वामपंथी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही क्यों न हो सभी आज डॉ. आम्बेडकर को 'अपना' कहते हुए बढ़-चढ़ कर महिमामंडित कर रहे हैं। लक्ष्य राजनीतिक लाभ जो है।
मेरे शब्द सीमित हैं आम्बेडकर के यथार्थ पर। और यथार्थ यह कि आज भारतीय लोकतंत्र अगर पूरे संसार में सफलतम लोकतंत्र के रूप में अनुकरणीय है तो उस भारतीय संविधान के कारण जिसके प्रमुख रचनाकार डॉ. भीमराव आम्बेडकर हैं। स्वतंत्र भारत को डॉ. आम्बेडकर की यह एक अतुलनीय पवित्र भेंट है। इस पर कृपया कोई राजनीति नहीं हो, इसे कोई चुनौती न दे। आम्बेडकर सभी के अपने ही तो हैं। 

शाबाश पीआईबी! मेनका गांधी का 'आदेश' निरस्त


'मीडिया मंडी'  के साहूकारों के मेनका गांधी पर मौन से सभी अचंभित हैं। मेनका गांधी फिलहाल भारतीय जनता पार्टी में हैं और केंद्र में मंत्री हैं, और यह भी कि उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत एक पत्रकार के रुप में की थी। तब श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। आज वही मेनका गांधी जब दो पत्रकारों की मान्यता रद्द करने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय को अनुशंसा करती हैं तो, आखिर क्यों? तकनीकी आधार पर उनकी अनुशंसा बिलकुल गलत है। तथ्यों के आधार पर भी वे गलत हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि, स्वयं उनकी भारत सरकार ने अनुशंसा अथवा अनुरोध को ठुकरा दिया। फिर मेनका गांधी ने ऐसी बेवकूफी की तो क्यों? 'मीडिया मंडी' में चर्चा है कि दो वरिष्ठ पत्रकारों की मान्यता रद्द करने संबंधी मेनका गांधी की अनुशंसा सिर्फ एक 'पब्लिसिटी स्टंट' था। यह संभव है।
जानकार पुष्टि करेंगे कि मेनका गांधी में यह 'गुण' आरंभ से ही विद्यमान है। पति संजय गांधी की मृत्यु के पश्चात मेनका ने संजय विचार मंच की स्थापना कर खबरों में बने रहकर वस्तुत: खुद को इंदिरा गांधी की उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करना चाहती थीं। उसी क्रम में उन्होंने अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका 'सूर्या' का प्रकाशन-संपादन शुरू किया। आज सरकार की कथित रुप से आलोचना को आधार बना विदेशी समाचार एजेंसी 'रायटर्स' के दो वरिष्ठ पत्रकारों की सरकारी मान्यता रद्द करने की पहल करने वाली मेनका गांधी की 'पत्रकारीय पसंद' की एक याद। इंदिरा गांधी के विरोधी जगजीवन राम के पुत्र सुरेश की निजी जिंदगी पर 'सूर्या' में एक बड़ी सनसनीखेज खबर प्रकाशित हुई थी। खबर के साथ ऐसे 'अंतरंग' चित्र लगाए गये थे, जिन्हें उस रूप में छापने के लिए कोई जिम्मेदार संपादक शायद ही तैयार होता, लेकिन संपादक मेनका गांधी ऐसा कर गुजरीं। तब उस खबर और चित्रों की व्यापक आलोचना हुई थी। लेकिन 'पब्लिसिटी' ऐसी मिली कि 'सूर्या' रातोरात चर्चित हो गई। आज मीडिया मंडी अगर 'सूर्या' की याद कर रहा है तो प्रभाव उस 'पब्लिसिटी स्टंट' का ही।
हालांकि अब बिलकुल परिवर्तित मेनका गांधी एक सफल राजनीतिक और कुशल मंत्री के रूप में उल्लेखनीय हैं। आलोच्य प्रसंग 'प्रहरी' को इसीलिए व्यथित कर रहा है कि मेनका गांधी ने इन दो पत्रकारों के खिलाफ घोर गैर वाजिब कार्रवाई के 'आदेश' दिये तो क्यों ? वह भी ऐसी खबर को लेकर जो बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुकी थी। तब तो उन्होंने कोई संज्ञान नहीं लिया था। फिर आज क्यों ? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि ताजा खबर उनके हवाले से प्रकाशित की गई थी? हां, सच यही है !
अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' में हाल में प्रकाशित एक खबर के अनुसार मेनका गांधी 'रायटर्स इंडिया' के दो पत्रकारों की पीआईबी मान्यता रद्द करवाना चाहती थी। कहते हैं कि विगत 19 अक्टूबर 2015 को 'रायटर्स' ने एक खबर जारी की थी, जिसमें मेनका गांधी के हवाले से सरकार की आलोचना की गई थी कि, उसने उनके मंत्रालय का बजट कम कर दिया है। संवाददाता ने अपनी रिपोर्ट में मेनका गांधी से हुई बातचीत का हवाला दिया था। इसी खबर से चिढ़ कर मेनका गांधी दो पत्रकारों आदित्य कालरा और एंड्रयू मैकेस्किल की मान्यता रद्द करवाना चाहती थीं। अब दिलचस्प यह कि 19 अक्टूबर की जिस रिपोर्ट में मेनका के हवाले से जो बातें कही गई थीं वे सभी बातें मेनका गांधी द्वारा मार्च और अप्रैल 2015 में वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे दो पत्रों का हिस्सा थीं, जिस पर आदित्य कालरा के नाम से 'रायटर्स' पर एक 'खास खबर' छपी थी। अब सवाल यह उठता है कि मेनका को अगर अपने कहे को गलत तरीके से छापे जाने पर आपत्ति है तो उन्होंने 19 मई 2015 की 'रायटर्स' की उस रिपोर्ट पर आपत्ति क्यों नहीं जताई, जिसमें वही बातें छपी हैं जबकि उसका आधार बातचीत नहीं, बल्कि 'लीक' हुए उनके ही दो पत्र हैं, जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय हैं।
'मीडिया मंडी'  के सदस्य इस बात पर भी चकित हैं कि 'इंडियन एक्सप्रेस' की खबर में असली बात क्यों छिपा ली गई? और, असली बात यह कि अक्टूबर से काफी पहले मई में ही आदित्य कालरा ने 'रायटर्स' पर एक खास रिपोर्ट की थी, जिसमें मेनका द्वारा वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे दो पत्रों का उद्धरण दिया गया है। एक पत्र 27  अप्रैल 2015 का है और दूसरा पत्र 5 मार्च 2015 यानी बजट के ठीक बाद का है।  अगर पांच महीने के अंतराल पर छपी दो रिपोर्ट, 19  मई और 19 अक्टूबर, को मिलाकर पढ़ा जाये तो दोनों में तथ्य एक ही समान नजर आएंगे। मेनका गांधी के जो विचार बजट कटौती पर 19 मई की रिपोर्ट में दो पत्रों के आधार पर शामिल किये गये हैं, तकरीबन वही बातें  19 अक्टूबर की रिपोर्ट में भी हैं। हां यह जरुर है कि उनका आधार मेनका गांधी से संवाददाताओं की हुई बातचीत है।
19 मई की 'रायटर्स' की 'खास खबर' और मेनका की दो चिट्ठियां 'लीक' होने के बाद तो कोई हलचल नहीं हुई, लेकिन 19 अक्टूबर को साक्षात्कार के आधार पर ऐसी खबर 'रायटर्स' पर छपने के बाद मेनका के मंत्रालय ने इस बात का जोरदार खंडन किया कि बजट कटौती पर मेनका की टिप्पणी प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों की कोई आलोचना है और मंत्रालय ने खबर को 'गलत व खुराफाती' करार दिया। उसी दिन मंत्रालय ने एक सफाई दी, जिसे 'रायटर्स' ने 20  अक्टूबर को ही छाप दिया, लेकिन इस घोषणा के साथ कि वह अपनी खबर पर कायम है। नाराज मेनका गांधी को इससे संतोष नहीं मिला। उसी दिन उनके निजी सचिव मनोज अरोड़ा ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सचिव सुनील अरोड़ा को एक पत्र भेजकर कहा कि उन्हें ''आदेश मिले हैं कि आपसे कालरा और मैकेस्किल की पीआईबी मान्यता को रद्द करने का अनुरोध किया जाये''। मंत्रालय ने मामला पीआईबी को सौंप दिया। शाबाश कि, पीआईबी ने कहा कि मान्यता के प्रावधानों के तहत वह दोनों पत्रकारों की मान्यता को रद्द नहीं कर सकता। प्रहरी प्रसन्न है कि भारत सरकार का यह अंग पीआईबी किसी दबाव में न आकर नियमों के तहत सरकार के मंत्री की अनुशंसा को अस्वीकार कर देता है। 

महाराष्ट्र कांग्रेस: विशाल आकार, लघु सोच!


सचाई के मुहाने पर पहुंच, सिर और आंखें पीछे कर निर्णय लेनेवाले को 'मूर्ख' के विशेषण से ही अलंकृत किया जाता है। और जो इस मूर्खता को स्वत: आत्मसात करते हैं उसे 'महामूर्ख' कहा जाता है। महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस ने स्वयं को इसी श्रेणी में डाल दिया है। बिल्कुल मुठ्ठी से सरकती रेत की तरह कांग्रेस महाराष्ट्र प्रदेश में उपलब्ध स्वर्णिम अवसर को हाथ से फिसल जाने की तत्परता दिखा रही है।
बदलते राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृष्य से उत्साहित कांग्रेस एक ओर जहां अपनी वापसी को देख रही है वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस हाथ आ रहे अवसर का लाभ उठाने  में चूक कर रही है। संगठनात्मक ढांचे में परिवर्तन की जरुरत तो थी, किंतु जिस रुप में प्रदेश कांग्रेस का पुनर्गठन किया गया है वह स्वयं में हास्यास्पद है। 19 उपाध्यक्ष, 66 महासचिव, 60 सचिव! प्रदेश कांग्रेस का यह नया 'जम्बो' रुप कितना कारगर सिद्ध होगा यह तो भविष्य ही बताएगा, किंतु नये पदाधिकारियों की घोषणा के साथ ही पार्टी के अंदर असंतोष का जो लावा फूटा है वह पार्टी के भविष्य के लिए सुखद तो कदापि नहीं है। अनेक कर्मठ-समर्पित कार्यकर्ताओं, नेताओं की उपेक्षा और आयातित नेताओं, कार्यकर्ताओं को वरीयता देने से अनेक कांग्रेसी क्षुब्ध हैं। कुछ ने इस्तीफा भी दे दिया है। तर्क तो यह दिया जा रहा है कि विशाल महाराष्ट्र के हर क्षेत्र के लोगों को नवगठित समिति में स्थान देकर उन्हें नेतृत्व का अवसर दिया गया है। किंतु विक्षुब्ध आशंकित हैं कि घोर अवसरवादी और 'व्यापारी बुद्धि' धारक जिन लोगों को शामिल किया गया है वे पार्टी और पद का दुरुपयोग करने से बाज नहीं आयेंगे । बल्कि आशंका तो यह भी जताई जा रही है कि थोड़े से लालच में यह तत्व मौका मिलने पर पार्टी की पीठ में भी छुरा भोंकने से पीछे नहीं हटेंगे।
प्रदेश कांग्रेस का यह ताजा घटना विकासक्रम दुख:द है। अंदरुनी खींचतान से परेशान सत्तारूढ़ भाजपा नेतृत्व का गठबंधन जहां अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष कर रहा है तो वहीं कांग्रेस की अपेक्षित एकजुटता भंग होती है तो इसका असर भविष्य में चुनावी सफलता पर भी पड़ेगा। लगता है कांग्रेस आलाकमान को सलाहकारों ने महाराष्ट्र की जरूरत को लेकर गुमराह किया है। महाराष्ट्र एक ऐसा प्रदेश है जहां कि राजनीतिक सफलता-विफलता देश के अन्य भागों को प्रभावित करती है। इस पाश्र्व में प्रदेश कांग्रेस का नया 'जम्बो संगठन' पार्टी के पक्ष में अगर कुछ सकारात्मक परिणाम देने में विफल रहा तो तय मानें कि देश के अन्य राज्यों में भी कांग्रेस संगठन अफरा-तफरी के शिकार बनेंगे। और तब कांग्रेस नेतृत्व महाराष्ट्र प्रदेश के 'नये आकार' को लेकर विलाप और सिर्फ विलाप करता नजर आयेगा। 

भाजपा को शिवसेना की चुनौती


भाजपा-शिवसेना के बीच जारी टकराव को खत्म करने के लिए स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस ने पहल की है। पार्टी के नेताओं व मंत्रियों को शिवसेना सहयोग की अपरिहार्यता बताकर उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर शिवसेना कथित रुप से भाजपा के गिरते ग्राफ का लाभ उठाकर प्रदेश में स्वयं को 'नंबर वन' की अवस्था में पुन: लाने के लिए बेचैन है। शिवसेना की इस योजना को बल मिल रहा है, उद्दव ठाकरे की आक्रामकता के कारण।
शिवसेना से 'उत्तराधिकारी' के मुद्दे पर राज ठाकरे से अलग होने के बाद उद्धव ठाकरे की क्षमता को लेकर सवाल उठाने वाले आलोचक भी आज 'आक्रामक' उद्धव को देख अचंभित हैं। आक्रामकता ऐसी कि महाराष्ट्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार में भागीदार होने के बावजूद शिवसेना आज वस्तुत: एक अति आक्रामक विपक्ष की भूमिका में दिख रही है। प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय मुद्दों पर राज्य व केंद्र सरकार के खिलाफ तीखी टिप्पणी करने में भी आगे रहने वाली शिवसेना ने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस के लिए मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। शिवसेना ने मुख्यमंत्री को दो टूक कह दिया है कि वे भाजपा नेताओं पर लगाम लगाएं अन्यथा सरकार से समर्थन वापस ले लिया जायेगा।
चूंकि फड़णवीस सरकार शिवसेना के सहयोग पर टिकी हुई है। मुख्यमंत्री असमंजस में हैं। शिवसेना को साथ लेकर चलना उनकी राजनीतिक मजबूरी है।
संभवत: इसी स्थिति को अपने पक्ष में भुनाने के लिए शिवसेना लगातार सरकार को कटघरे में खड़ी कर अपने जनाधार को विस्तार दे रही है। भाजपा की नजर आगामी मुंबई महानगर पालिका के चुनाव पर टिकी हुई है। भाजपा के स्थानीय नेता सेना को पछाड़ महानगर पालिका पर कब्जा करना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर वर्षों से कब्जा जमाए शिवसेना भाजपा को हाशिए पर भेजने को आतुर हैं। मुंबई भाजपा अध्यक्ष आशीष शेलार और तेज-तर्रार सांसद किरिट सोमैया अपने खास अंदाज में सेना को पटकनी देने की तैयारी में जुटे हैं। इनकी गतिविधियों से क्षुब्ध होकर ही उद्धव ठाकरे ने पिछले दिनों आरोप लगाया था कि भाजपा राज्य में शिवसेना को खत्म करने की साजिश रच रही है। उद्धव ने अपने विश्वस्तों से सलाह कर सेना के विस्तार की योजना तैयार की है। इसी प्रक्रिया में अनिल परब को विदर्भ का प्रभारी बनाया गया है। मालूम हो कि विदर्भ में भाजपा की गहरी पैठ है।  लगातार स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श कर अनिल परब ने विदर्भ में पार्टी के लिए अच्छी जमीन तैयार कर दी है। मालूम हो कि विदर्भ में भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। विदर्भ के ही देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बनने के बाद विदर्भ विकास की अनेक योजनाओं, विशेषकर कृषि और किसानों के हित में कल्याणकारी कार्यक्रमों को अंजाम दे धीरे-धीरे अपनी पैठ भी मजबूत कर रहे हैं। अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि अंतिम बाजी कौन मारता है।
भाजपा-शिवसेना के बीच जारी टकराव को खत्म करने के लिए स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस ने पहल की है। पार्टी के नेताओं व मंत्रियों को शिवसेना सहयोग की अपरिहार्यता बताकर उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर शिवसेना कथित रुप से भाजपा के गिरते ग्राफ का लाभ उठाकर प्रदेश में स्वयं को 'नंबर वन' की अवस्था में पुन: लाने के लिए बेचैन है। शिवसेना की इस योजना को बल मिल रहा है, उद्दव ठाकरे की आक्रामकता के कारण। उद्धव के आलोचक भी अब इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक परिपक्वता व उग्रता को पूरी तरह आत्मसात कर चुके उद्धव ठाकरे अब शिवेसेना को नई ऊंचाई पर पहुंचाने में सक्षम हो चुके हैं। पिछले विधान सभा चुनाव में पार्टी को पहले से ज्यादा सीटें जीताकर दिलाने वाले उद्धव अब और अधिक परिपक्व हो गये हैं। यही कारण है कि स्वयं को बालासाहेब ठाकरे का उत्तराधिकारी मानने वाले राज ठाकरे अब हाशिए पर चले गये हैं।
इस नये परिवर्तित राजनीतिक परिदृश्य में मुख्यमंत्री फड़णवीस व भाजपा नेतृत्व की साख दांव पर लग गई है। प्रदेश का मतदाता भाजपा-शिवसेना गठबंधन को मजबूत देखना चाहता है। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को पुनर्जीवित होने से रोकने की क्षमता भाजपा-सेना के संयुक्त गठबंधन में ही है। दोनों में बिखराव का अर्थ होगा, कांग्रेस-एनसीपी की वापसी। अब फैसला भाजपा नेतृत्व पर है कि वह शिवसेना की नाराजगी को दूर कर कांग्रेस-एनसीपी को हाशिए पर रखती है अथवा अतिआत्मविश्वास के तहत 'एकला चलो' की जोखिमभरी रणनीति को अपनाती है।

Thursday, April 7, 2016

'भोग भूमि' नहीं है भारत!

चौराहे पर एक मित्र मिल गये।
पूछ बैठे,'..आपने कपड़े क्यों नहीं पहने?' मैं अवाक! जवाब दिया.. 'पहन तो रखा हूं!' मित्र नहीं माने। बोले, '...उतार कर दिखाओ!' मैंने कपड़े उतार उनके सामने रख दिये। तत्काल मीडिया पर खबर चलने लगी कि मैं चौराहे पर नंगा खड़ा दिखा।  
ठीक यही स्थिति आज राजदलों की है। राजनेताओं की है। विभिन्न संगठनों की है और मीडिया की है। खबर तैयार करने के लिए कभी भी किसी से कपड़े उतरवा दें। विवाद पैदा करवा बहसें शुरू करवा दें। परिणाम स्वरुप चाहे देश-समाज चौराहे पर नंगा दिखे कोई परवाह नहीं। विवाद पैदा होने चाहिए, खबरें बननी चाहिए।  अब प्रमाणित मुझे करना होगा कि मैंने कपड़े पहन रखे थे। नंगा तो मुझे किया गया।
विवादों की कड़ी में यह नया विवाद किसी भी कोण से सामाजिक एकता अथवा सांप्रदायिक सौहाद्र्र को मजबूत करने वाला नहीं है। हालांकि विवाद पैदा करने वाले इसे राष्ट्रीय एकता, सम्मान व अखंडता से जोड़ रहे हैं। हां, मैं बात कर रहा हूं ताजातरीन 'भारत की माता की जय' विवाद की। सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता और देशभक्त बनाम देशद्रोही विवाद की दुखद परिणति के बाद 'भारत माता की जय' विवाद की उत्पत्ति की परिणति भी कोई सुखद होने वाली नहीं। इस सत्य की मौजूदगी के बावजूद अगर विवाद खड़ा किया गया है तो जाहिर है कि अकारण नहीं। कौन व क्यों  खड़ा कर रहा है इन विवादों को?  उद्देश्य क्या है? चूंकि, ये सभी विवाद उस खेमे से पैदा हुए हैं जो भारत,भारती और भारतीयता के पोषक व संरक्षक होने का दावा करते हैं, उद्देश्य दूरगामी परिणाम वाले ही हो सकते हैं। परंतु मेरी चिंता फिलहाल इन विवादों के कारण वर्तमान पर पड़ रहे अरुचिकर बल्कि खतरनाक परिणाम को लेकर है।
यह दोहराना ही होगा कि 'भारत माता की जय' का नारा अंग्रेजों के शासनकाल में गुलामी से मुक्ति के लिए 'संग्राम' में लिप्त आजादी के दीवानों के बीच जोश भरने वाला नारा था। अविभाजित भारत में हिन्दू, मुसलमान सहित अन्य धर्मांवलंबी भी आजादी के पक्ष में जोश - खरोश के साथ इस नारे को बुलंद किया करते थे। किसी को भी आपत्ति नहीं थी। धरती अर्थात मातृभूमि को 'भारत माता' के रुप में चिन्हित कर जय-जय कार हुआ करता था। कभी कोई विरोध नहीं, कोई विवाद नहीं। पंडित जवाहरलाल नेहरु की बहुचर्चित पुस्तक ' डिस्कवरी आफ इंडिया' में इस सत्य का, इस तथ्य का उल्लेख है। फिर आज, आजादी के लगभग 7 दशक बाद अचानक इस नारे को विवाद को घेरे में क्यों, कैसे और किसने ला दिया ?
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में  दुखद कन्हैया प्रकरण से शुरू होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत और फिर असदुद्दीन ओवैसी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस, योग गुरु बाबा रामदेव और अब भैयाजी जोशी! बात ने बतंगड़ का रुप ले लिया। कन्हैया प्रकरण के बाद मोहन भागवत ने सिर्फ दु:ख प्रकट किया था कि आज युवा पीढ़ी को राष्ट्र के प्रति प्रेम अथवा भक्ति के महत्व को बताने की जरुरत क्यों आ पड़ी है? यह तो स्वभाविक रूप से होना चाहिए था। बात आगे बढ़ी और ओवैसी ने अपने खास भड़काऊ अंदाज में 'भारत माता की जय' के विरोध में बयान दे डाला। मामले की गूंज, अशोभनीय प्रतिक्रिया महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश विधानसभाओं में देखने को मिली। पूरे देश में जिस प्रकार इस एक नारे ने  विभाजन की एक रेखा खींच डाली है, उससे सिवाय नुकसान के कोई लाभ होने वाला नहीं। ओवैसी का कथन कि चाहे 'मेरी गर्दन पर कोई छुरी  भी रख दे मैं  'भारत माता की जय' नहीं बोलूंगा',  सांप्रदायिक अवसाद से लवरेज है। प्रत्युत्तर में योगगुरु बाबा रामदेव का कहना कि 'अगर कानून से हाथ बंधे नहीं होते तो लाखों सिर धड़ से अलग कर देते', से भी घोर सांप्रदायिक सड़ांध आती है। आज तक कभी भी किसी ने भी 'भारत माता की जय' उद्घोष को सांप्रदायिकता के चश्मे से नहीं देखा था। फिर अब क्यों? राजनीतिक आरोप यह कि महत्वपूर्ण मुख्य मुद्दों से देश का ध्यान भटकाने के लिए ऐसे गैर मुद्दे पैदा किये जा रहे हैं। किसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए अगर अन्य किसी मुद्दे को सांप्रदायिक रूप दे खड़ा किया जाता है तो यह स्वयं में राष्ट्र विरोधी हरकत है। इस नये मुद्दे ने जिस रूप में पूरे देश में विवाद खड़ा किया है अगर इस पर तत्काल रोक नहीं लगाई गई तो परिणाम दुखद होंगे। क्योंकि, ये पूरा का पूरा मामला अब न केवल राजनीतिक बल्कि हिन्दू संस्कृति के सबसे बड़े पैरोकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारत में सबसे बड़ी इस्लामी संस्था 'दारूल उलूम देवबंद' के बीच भी टकराव का रूप ले चुका है । इसी खतरे को भांप विचारवान इस विवाद पर पूर्ण विराम लगाना चाहते हैं।
संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी का बयान कि जो इस भूमि को 'भोग भूमि' मानते हैं वे ही 'भारत माता की जय' कहने से इंकार करते हैं, तथ्यों के आधार पर सही तो है किंतु भ्रम भी पैदा करता है। तपस्वियों-मुनियों की भारत भूमि को भोग भूमि निरुपित नहीं किया जाना चाहिए । यह वीरों की भूमि है, संतों-मुनियों की भूमि है और भूमि है विश्वशांति के दूतों की । ओवैसी या उनके जैसे सिरफिरे अगर इसका 'भोग भूमि' के रुप में उपभोग करना चाहते हैं तो उनके प्रति ससम्मान कहना चाहूंगा कि सचमुच उन्हें भारत की इस धरती पर रहने का हक नहीं है । 

नारी शक्ति का सम्मान या अपमान?

 'मीडिया मंडी' के सदस्यों अर्थात घरानों के बीच पिछले कुछ वर्षों से 'कपड़ा उतार' की जो स्पर्धा शुरु हुई है उसके दर्दनाक व वीभत्स परिणाम सामने आने शुरू हो गये हैं। पाठक परेशान कि वह विश्वास करें तो किस पर करें। उसके सामने जब समाचार की जगह 'उपहार' परोस दिया जाता है तब वह असमंसज में पड़़ जाता है। हालांकि पाठकों को तभी समझ जाना चाहिए कि ऐसे अखबार के मालिकों, संपादकों की प्राथमिकता सूची में 'समाचार' अब नहीं रहा। ध्यान बंटाने के लिए ही उन्होंने 'उपहार' की परिपाटी चलाई है । ऐसे में काहे का समाचार और काहे की पत्रकारीय विश्वसनीयता। 'उपहार' लो अखबार खरीदो । अब अगर 'प्रहरी' नया नारा देता है कि 'उपहार नहीं समाचार' तो उसकी बला से। अब देखना दिलचस्प होगा कि पाठक की नजर 'उपहार'पर टिकती है या समाचार पर।
इसी कड़ी में इन दिनों कुछ अखबार 'उपहार' से  अलग 'अवार्ड' अर्थात पुरस्कार की होड़ में शामिल हो गये हैं। उपक्रम की मंशा तो ठीक है किंतु इसमें स्वार्थ व पसंद की घुसपैठ का नंगापन अच्छी मंशा को कंलकित कर देता है। ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों नागपुर में हुई।

'दैनिक भास्कर' की पहचान देश में हिन्दी के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक के रुप में है। पाठकों के बीच इसका एक विशिष्ट स्थान है। इसमें प्रकाशित खबरों व विचारों का उल्लेख पाठक विश्वास के साथ करते हैं। ऐसे में जब इस पर महिलाओं की प्रतिभा का मजाक बनाने और नारी सम्मान की जगह नारी अपमान का आरोप लगे तो पाठक और प्रशंसक निराश तो होंगे ही।
पिछले दिनों 'दैनिक भास्कर नागपुर' का 'वुमेन अवार्ड' उपक्रम प्रारम्भ से लेकर अंत तक संदेह और स्तरहीनता का शिकार रहा। यह कहा जाए कि इन पुरस्कारों का उपयोग दरअसल महिलाओं की प्रतिभा का मजाक बनाने के लिए किया गया तो गलत नहीं होगा.
सात श्रेणियों के अंतर्गत अंतिम पांच का चयन निर्णायक मंडल द्वारा किया गया। निर्णायकों की योग्यता पर तब प्रश्नचिन्ह लगता है और उन्हें नियुक्त करने वालों की समझ पर भी कि जो महिलाएं श्रेणी में नामांकन की पात्रता भी नहीं रखती थीं उन्हें अंतिम पांच में प्रतिष्ठित कर दिया गया, कला-संस्कृति श्रेणी में यह विशेषरूप से हुआ।
इसके बाद 'एसएमएस' द्वारा 'वोटिंग' का दौर शुरू हुआ। आज भला कौन इस तथ्य से परिचित नहीं कि यह व्यवस्था, टेलीफोन कम्पनियों से परस्पर सांठगांठ कर आर्थिक लाभ कमाने के लिए की जाती है।
पंचसितारा होटल में आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह का मुख्य उद्देश्य समूह की व्यावसायिक क्षमता का अहमपूर्ण प्रदर्शन था। जहां तक पुरस्कारों का सवाल है उन्हें पर्याप्त अहमियत भी नहीं दी गई।  विजेताओं के गलत और अप्रत्याशित निर्णय पत्र की नीयत को कटघरे में खड़ा करते हैं। उचित पात्र को पुरस्कार से वंचित करना अर्थात कला, संस्कृति, क्रीडा, समाजसेवा में सच्चे मन से जुटे साधकों को हतोत्साहित करना है।
आलोचना का दूसरा बड़ा मुद्दा महिला गौरव पुरस्कार समारोह में अत्यल्प वस्त्रों वाली माडलों का प्रयोग करना है जिन्हें देख उपस्थित महिलाओं ने असहजता महसूस की और जिसने पुरुषवर्ग को  भद्दे फिकरे कसने के लिए प्रेरित किया। यह प्रश्न अवश्य पूछा जाना चाहिए कि इस भोंडे प्रदर्शन द्वारा संस्कृति को किस तरह महिमामंडित किया जा रहा था।
इस तरह के कार्यक्रमों से पत्र की साख को बट्टा ही लगता है। विश्वसनीयता खो चुके इन पुरस्कारों से आने वाले वर्षों में भला कौन जुडऩा चाहेगा !!
अगर उनकी सोच स्वस्थ और नीयत नेक है तो अभी भी अपनी चूकों को न सिर्फ स्वीकारा जाना चाहिए  बल्कि सुधारा भी जाना चाहिए। बावजूद इस चूक के 'दैनिक भास्कर' (नागपुर)  के पाठक व प्रशंसक संस्थान को संदेह का लाभ देते हुए आश्वस्त हैं कि अपनी गलती का सुधार कर संस्थान भविष्य में कला, साहित्य, संस्कृति का सम्मान करेगा, अपमान नहीं। बाजार की जरूरतों की पूर्ति हो, इस पर प्रहरी को आपत्ति नहीं, लेकिन बाजार के सामने मीडिया कमजोर अथवा अपाहिज दिखे, स्वीकार ये भी नहीं।

फडणवीस की भावना को समझे विपक्ष!

शाब्दिक अर्थावली कभी-कभी वितंडावाद की जननी साबित हो जाती है। महाराष्ट्र के युवा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का 'भारत माता की जय' संबंधी वक्तव्य इसी का शिकार हुआ है । चूंकि, फडणवीस एक संवैधानिक पद पर विराजमान हैं, विपक्ष उनके वक्तव्य के शाब्दिक अर्थ निकाल उन्हें निशाने पर ले रहा है।  विपक्ष या अन्य आलोचक मुख्यमंत्री के शब्दों में निहित मर्म को जान-बूझकर अलग रख रहे हैं।  फडणवीस ने जब कहा कि जिस प्रकार लोग 'जयहिंद' कहते हैं उसी प्रकार 'भारत माता की जय' भी कहना होगा, तो उनकी भावना को समझा जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट भी किया कि यह नारा किसी धर्म विशेष का नहीं बल्कि समूचे देश का है। राष्ट्र और मातृभूमि के सम्मान से ओत-प्रोत 'भारत माता की जय' के उद्घोष पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह उद्घोष निश्चय ही किसी जाति या धर्म का अपमान नहीं करता।  युवा मुख्यमंत्री ने अपने भाषण के दौरान आवेश में यह अवश्य कह डाला था कि 'यदि इस देश में रहना है तो जिस प्रकार जयहिंद कहते हैं, उसी प्रकार भारत माता की जय कहना ही होगा'। निश्चय ही मुख्यमंत्री का आशय मातृभूमि के प्रति सम्मान प्रकट करने से था। राष्ट्र के साथ-साथ मातृभूमि के सम्मान में वंदना राष्ट्रीय स्वाभिमान को जागृत करता है। खेद है कि विपक्ष ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री से क्षमा की मांग की। बात अगर सामान्य राजनीतिक तुष्टिकरण तक सीमित होती तो संभवत: मुख्यमंत्री फडणवीस क्षमा मांग भी लेते, किंतु आलोच्य मामले में राजनीति से इतर भावना अगर जुड़ी है तो मातृभूमि के सम्मान के साथ, इस पाश्र्व में मुख्यमंत्री फडणवीस का जवाब स्तुति योग्य है कि चाहे मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी भी पड़े, माफी नहीं मांगेंगे। हर प्रसंग में राजनीति की घुसपैठ के आदी राजदल व राजनेता अपनी इस प्रवृति का त्याग कर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की भावना का आदर करें और खुद भी भारत राष्ट्र व मातृभूमि के सम्मान में समर्पण प्रदर्शित करें। भारत की धरती पर जन्म लेने वाला हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति - धर्म, संप्रदाय का क्यों ना हो, भारत माता की ही संतान है। अपनी मां की कोख से जन्म लेने वाला कोई संतान भला अपनी मां का जय-जयकार करने से कैसे इंकार कर सकता है?  किसी धर्म विशेष समुदाय को माता शब्द पर आपत्ति है तो उसका निराकरण उपलब्ध ग्रंथों के माध्यम से संभव है । मां अथवा माता को कोई भी धर्म संप्रदाय अपनी जननी के रूप में ही देखता है। महत्वपूर्ण है, इस भावना को समझना, सम्मान देना।  कुतर्कों का सहारा ले मुख्यमंत्री फडणवीस के शब्दों को चुनौती देना अनुचित है। इस मुद्दे पर राजनीति तो बिलकुल नहीं होनी चाहिए । कोई भी पक्ष यह न भूले कि 'भारतीय मन' राष्ट्र सम्मान की कीमत पर कोई समझौता नहीं करता, कुर्बानी देने को हमेशा तैयार रहता है।
यह ठीक है कि पूरा का पूरा विवाद अवांछित श्रेणी का है। परंतु जब बात उठ गई है तब इसे एक शालीन पूणविराम दिया जाना चाहिए - वितंडावाद से दूर, बहुत दूर। 

भाजपा का सर्वेक्षण अलोकप्रिय हो रहे हैं मोदी?...

राजनीतिक समीक्षक हतप्रभ हैं कि जिस तेजी के साथ अभी -अभी, लगभग दो वर्ष, पूर्व नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के शीर्ष पर चमक रहे थे उसी तेजी से उनकी लोकप्रियता नीचे कैसे गिरी?
सेंट्रल ऑब्जर्वर ''दुश्मन नही आईना'' की तर्ज पर कतिपय स्पष्ट कारणों को सामने रख आईना दिखाना चाहता है। कोई पूर्वाग्रह नहीं, सिर्फ सच और वास्तविकता!
यह आकलन किसी और का नहीं स्वयं भारतीय जनता पार्टी का है। महाराष्ट्र भाजपा द्वारा कराए गए एक आंतरिक सर्वेक्षण के अनुसार महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जहां 2013-14 में 40 प्रतिशत थी वह अब गिरकर 25 प्रश पर आ गई है।
सर्वेक्षण का दूसरा चौंकानेवाला तथ्य यह कि महाराष्ट्र प्रदेश में मुख्यमंत्री  देवेन्द्र फड़णवीस की लोकप्रियता भी मोदी के समानांतर 25 प्रतिशत ही है। हालांकि सर्वे में दोनों के बीच तुलना नहीं की गई है। लेकिन परिणाम से स्वयं प्रदेश भाजपा के अंदर असहज स्थिति पैदा हो गई है।
प्रसंगवश 1980 का एक वाकया। तब आपातकाल के बाद बिहार में इंदिरा गांधी की पसंद डॉ. जगन्नाथ मिश्र पुन: मुख्यमंत्री बने थे। एक बार वे प्रदेश के अनेक क्षेत्रों का दौरा कर लौटे थे। इस 'समीक्षक' से बातचीत के दौरान, दौरे में मिले भारी प्रतिसाद से उत्साहित डॉ. मिश्र ने बताया कि हर सभा में इंदिरा गांधी से ज्यादा लोग उन्हे सुनने को एकत्रित हुए। बधाई देते हुए 'समीक्षक' ने कहा कि इस तथ्य को अपनी रिपोर्ट द्वारा जनता तक पहुंचा देता हूं। पहले तो डॉक्टर मिश्र उत्साह में हां बोल गए किंतु तत्काल संशोधन कर लिया कि 'अरे... अरे, नहीं... नहीं, ऐसा करेंगे तो मेरी नौकरी चली जायेगी?' बात हंसी में खत्म हो गई।
महाराष्ट्र भाजपा के ताजा सर्वे में जब यह तथ्य उभर कर सामने आया कि प्रदेश में लोकप्रियता के मापदंड पर प्रधानमंत्री मोदी व मुख्यमंत्री फडणवीस बराबरी पर हैं तब असहज पार्टी नेता इस पर कोई भी टिपण्णी करने से कतरा गए। दूसरी ओर स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस की ओर से कहा गया कि इस 'व्यायाम' को सर्वे निरुपित नहीं किया जा सकता। सिर्फ यह प्रमाणित होता है कि लोकसभा एवं स्थानीय चुनाव में अंतर होता है, बात ठीक भी है। लेकिन, ठीक यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ हालिया दिनों में तेजी से नीचे गिरा है और गिरता जा रहा है। सच तो यह है कि गिरावट की यह प्रवृत्ति न केवल महाराष्ट्र प्रदेश में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर परिलक्षित है। पार्टी के लिए यह चिंता का विषय है।
चिंता पूरे देश को भी है। क्योंकि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में, कांग्रेस नेतृत्व के यूपीए कुशासन से त्रस्त देश के बहुमत ने मोदी के नेतृत्व में विश्वास करते हुए भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता सौंपी थी। लोगों ने यह मान लिया था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आमूल-चूल परिवर्तन, राष्ट्रीय परिवर्तन होगा और एक नया भारत अवतरित होगा। यही कारण था कि लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी के पक्ष में एक लहर नहीं, ज्वार उठा। नतीजतन, देश की सबसे बड़ी पुरानी राजनीतिक  पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक बौने का आकार ले सिकुडऩे को मजबूर हो गई।
नवनियुक्त प्रधानमंत्री मोदी को देश का पूरा समर्थन मिला। आधार अथवा नींव उनके प्रति राष्ट्रीय विश्वास था।
लेकिन, कड़वा सच अब यह है कि  पिछले दो वर्ष के मोदी शासनकाल के बाद प्रधानमंत्री की छवि व लोकप्रियता पर अमावस्या का ग्रहण लगता दिखने लगा है। लोगों का विश्वास और सपने चूर-चूर!
महाराष्ट्र प्रदेश से आगे बढ़ें तो राष्ट्रीय स्तर पर भी 2014 में मोदी के पक्ष में लोकप्रियता का ग्राफ जहां 70 प्रतिशत था वह 2015 के आरंभ में दिल्ली प्रदेश चुनाव के बाद गिरकर 50 प्रश पर आ गया था और ताजा कड़वा सच यह है कि पिछले बिहार चुनाव के बाद वह ग्राफ 40 फीसदी पर सिकुड़ गया। इस पाश्र्व में महाराष्ट्र का ताजा सर्वेक्षण स्वयं  भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए खतरे की घंटी है। राजनीतिक समीक्षक हतप्रभ हैं कि जिस तेजी के साथ अभी -अभी, लगभग दो वर्ष, पूर्व नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के शीर्ष पर चमक रहे थे उसी तेजी से उनकी लोकप्रियता नीचे कैसे गिरी?
सेंट्रल ऑब्जर्वर ''दुश्मन नही आईना'' की तर्ज पर कतिपय स्पष्ट कारणों को सामने रख आईना दिखाना चाहता है। कोई पूर्वाग्रह नहीं, सिर्फ सच और वास्तविकता!
सूक्ष्म पड़ताल के बाद यह तथ्य सामने उभर कर सामने आया है कि देश स्वयं को छला हुआ महसूस करने लगा है। परिवर्तन की जगह यथावत की मौजूदगी से देशवासी दुखी हैं। वादों की पूर्र्ति नहीं होने से देशवासी भयभीत हैं। महंगाई में अप्रत्याशित वृद्धि और रोजगार की मृग मरीचिका छल को चिन्हित कर रहा है। कृषि क्षेत्र में किसानों की दुर्दशा और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, निर्यात में गिरावट, भारतीय करेंसी (रुपये) की दीन-हीन अवस्था, एक  अंधकारमय भविष्य को सामने खड़ा करता है। काला धन एवं भ्रष्टाचार पर रोक व कड़ी कारवाई के वादे से दूरी सरकार की निष्क्रियता की चुगली कर रही है।  शिक्षण संस्थाओं में अफरा-तफरी और छात्रों के बीच असंतोष देश के भावी कर्णधारों के भविष्य पर सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं। विदेश नीति ऐसी कि पिद्दी  पड़ोसी नेपाल भी हमें आंखें दिखाने लगा है। चीन अपनी इच्छानुसार हमारे गालों पर तमाचा जड़ देता है। अदना पाकिस्तान हमें मूर्ख समझने लगा है। फुसफुसाहट है कि अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश हमारे प्रधानमंत्री मोदी को 'इमोशनल फूल' (भावनात्मक मूर्ख)  निरुपित कर उपहास उड़ाने लगे हैं। इस स्थिति में विदेश नीति को सफल अथवा कारगर तो नहीं कह सकते। जाने-अनजाने विकास से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को हाशिए पर रख बिल्कुल अनावश्यक गैर मुद्दों को हवा देने की नई परंपरा से देश का सामान्य वर्ग आतंकित है। प्राय हर क्षेत्र, हर विधा में एक असहज अंसतोष व्याप्त है। हर कोई तनावग्रस्त है, निराश है, भयभीत है।
 क्या यह सब अनायास है? एक व्यक्ति नरेन्द्र दामोदरदास मोदी में क्या देश ने विश्वास व्यक्त कर गलती की थी? इस पर फैसला करना जल्दबाजी होगी किंतु हम यह बताने की स्थिति में हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ईमानदारी और नीयत पर फिलहाल संदेह नहीं किया जा सकता। वर्तमान असहज स्थिति के लिए दोषी वह व्यवस्था है, जिसके नकारात्मक पक्ष की पहचान तो नरेन्द्र मोदी ने की, किंतु निराकरण की दिशा में व्यवहारिक कदम उठाने से उन्हें रोक दिया गया। गलत सलाह और गलत सलाहाकार दोषी हैं। इस अवस्था के लिए आकड़ों की बाजीगरी में कुशल ये तत्व मोदी के सामने आंकड़ा-आधारित 'स्वर्णयुग' प्रस्तुत करते रहे हैं। आम लोगों के बीच व्याप्त निराशा क्षोभ एवं उनकी आकांक्षा पर पर्दा डाल कृत्रिम खुशहाली व विकास के दर्शन प्रधानमंत्री को कराये जाते रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे कभी सलाहकार इंदिरा गांधी को वास्तविकता से दूर रख कल्पनालोक के कृत्रिम स्वर्णिम संसार को उनके सामने पेश किया करते थे। इंदिरा गांधी के पतन का कारण उनके अयोग्य -अवसरवादी सलाहकार ही बने थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी वैसी ही स्थिति में, कल्पनालोक के वैसे ही संसार में शनै:-शनै: वैसे ही धकेला जा रहा है। विश्व इतिहास गवाह है कि लोकप्रियता के  चरम पर पहुंचनेवाले शासक के पैर उनके कथित अपने ही खींचते रहे हैं। जो शासक चापलूसी, खुशामद को पहचान वास्तविकता से रुबरु हुए वे संभल गए, किंतु शेष पतन के गर्त में गिरते चले गए।
 विकास की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में विश्वगुरु बनने की अकूत संभावना लिए भारत आगे बढ़ रहा है तो अपनी नैसर्गिक क्षमता के कारण। अंतिम सफलता की शर्त ईमानदार, कुशल नेतृत्व है। देश आज भी इस मुकाम पर प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी को लेकर आशान्वित है। क्या नरेन्द्र मोदी उन्हें निराश करेंगे? आंशिक अथवा क्षणिक अलोकप्रियता को संपूर्ण सफलता में परिवर्तित करने की क्षमता रखनेवाले नरेन्द्र मोदी चेतें, जागें। आलोच्य असफलताएं पुन: सफलता में परिवर्तित हो जाएंगी।