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Friday, February 26, 2016

जेएनयू परिसर में 'टैंक'... खतरनाक सुझाव

समाज के दो महत्वपूर्ण अंग छात्र और वकील समुदाय में आपराधिक, राजनीतिक विभाजन के बाद पूरे राष्ट्र की सुरक्षा के जिम्मेदार सैनिकों के बीच राजनीतिक विभाजन की खतरनाक कोशिशों पर तत्काल अंकुश लगाया जाए।  पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि खबरिया   'चैनल' अपनी बहसों में भूतपूर्व सैनिक अधिकारियों को विशेषज्ञ अतिथि के रूप में शामिल कर रहे हैं। सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंध के मामलों में उनके विशेषज्ञ विचारों का तो स्वागत है, किंतु राजनीति से जुड़े मुद्दों में उनकी सहभागिता खतरनाक है। जेएनयू विवाद में एक 'चैनल'  पर एक भूतपूर्व सैन्य अधिकारी को यह कहते सुना गया कि अभी तो भूतपूर्व सैनिकों में असंतोष उभरा है, अगर कार्यरत सैनिकों में ऐसा हो जाए तो...  क्या पूर्व अधिकारी चेतावनी दे रहे थे? बहस के आयोजक 'चैनलों' को चाहिए कि बहस के उनके सार्थक मंचों का ऐसा खतरनाक उपयोग न होने दें। जेएनयू मामला शत-प्रतिशत राजनीतिक स्वरूप ले चुका है। राष्ट्रभक्ति बनाम राष्ट्रद्रोह का जुमला उछाल सभी राजनीतिक दल इसका राजनीतिक लाभ उठाना चाह रहे हैं। ऐसे में पूर्व सैन्य अधिकारियों, कर्मियों को इस विवाद से दूर रहना चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। विगत बुधवार को पूरा देश स्तब्ध रह गया, जब सेना के कुछ पूर्व अधिकारियों ने जेएनयू प्रशासन को विश्वविद्यालय परिसर के अंदर एक 'टैंक' स्थापित करने का सुझाव दे डाला। 'महा बुद्धिमानी'! पूर्व सैन्य अधिकारी विश्वविद्यालय परिसर में टैंक खड़ा कर छात्रों के बीच राष्ट्रभक्ति की भावना उत्पन्न करने का तर्क दे रहे थे। छात्रों के मन में राष्ट्रभक्ति पैदा करने का ऐसा हास्यास्पद उपक्रम! क्या युद्ध में काम आनेवाले 'टैंक' विश्वविद्यालय में छात्रों को राष्ट्रभावना की प्रेरणा दे सकते हैं।
शौर्य के प्रतीक के रूप में टैंक का प्रदर्शन तो ठीक है, किंतु जिस संदर्भ में सैनिकों ने विश्वविद्यालय परिसर के अंदर इसकी स्थापना का सुझाव दिया वह आपत्तिजनक है।  एक राजदल से संबद्ध छात्र संगठन के कार्यक्रम में उपस्थित होकर इन पूर्व सैनिकों ने अपनी निष्पक्षता को संदिग्ध बना डाला है। अगर उन्हें राजनीति करनी है तो वे स्वतंत्र हैं। किंतु तब उन्हें सैनिक के लबादे का त्याग करना होगा। दु:खद और आपत्तिजनक बात तो यह कि तब ये पूर्व सैनिक अपनी पूरी वर्दी में तमगों के साथ कार्यक्रम में मौजूद थे। सैनिकों का किसी राजदल के साथ संबंद्धता लोकतंत्र के पूरे ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देगा। अनुशासित भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास रहा है। देश की सीमा के रक्षार्थ उनकी कुर्बानियां इतिहास में स्वर्णिम शब्दों में मौजूद हैं। राष्ट्रीयता और कर्तव्य तो उनके पवित्र मूल मंत्र हैं। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्ता परिवर्तन स्वाभाविक है। होते भी रहे हैं। किंतु सेना निष्पक्षता के साथ देश की सुरक्षा के पक्ष में अपना कर्तव्य निष्पादन करती रही है। अनेक अधिकारी अवकाश प्राप्त करने के बाद सक्रिय राजनीति में आए हैं, देश ने उनका स्वागत भी किया है। किंतु सैनिक वर्दी में उनसे ऐसी आशा नहीं की जा सकती। यह तो अपराध की श्रेणी का है, कर्तव्य विमुखता है। बल्कि कर्तव्य के साथ ऐसा घात, जिसे अंतत: राष्ट्रीय विश्वासघात के रूप में देखा जाएगा। अभी भी विलंब नहीं हुआ है, पूर्व सैनिक ऐसी हरकतों से बचें। मीडिया भी इन्हें हतोत्साहित करे।

...जवाब अभी भी नहीं मिले

संसद में सत्ता पक्ष की ओर से मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा विपक्ष को दिए गए जोशीले जवाब के बावजूद यह तथ्य कायम रह गया कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और छात्रों की गिरफ्तारी से उत्पन्न यक्ष प्रश्न, देशद्रोही कौन  या फिर आखिर देशद्रोह है क्या, के उत्तर नहीं मिले। दु:खद रूप से आलोच्य प्रसंग ने पूरे देश में देशभक्ति बनाम देशद्रोह पर एक अरुचिकर बहस छेड़ दी है। पक्ष-विपक्ष दोनों चाहें जितने तर्क-वितर्क दें, ताजा बहस हर दृष्टि से देश के लिए घातक सिद्ध होगा। विकास की वैश्विक दौड़ में अग्रिम स्थान प्राप्त करने को व्यग्र भारत को ऐसे अरुचिकर विवाद में उलझानेवाले राष्ट्रभक्त कदापि नहीं हो सकते। विकास के मार्ग में 'बहस' को खड़ा कर इसे बाधित करने की कोशिश है यह। साफ है कि जाने-अनजाने दोनों पक्ष भारत को विकास के मार्ग पर आगे बढऩे से रोकने वाला दिखने लगा है। क्या दोनों ऐसा ही चाहते हैं? बहस इस पर हो कि देश को सफलता के शीर्ष पर कैसे पहुंचाया जाए। इस पर नहीं कि देश के एक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान पर कब्जा सत्तापक्ष का हो या विपक्ष का। यह राजनीति ही है जिसे शिक्षण  परिसरों में प्रवेश देकर राजदल पूर्व में आत्मघाती कदम उठा चुके हैं। देर से ही सही पूर्णविराम इस प्रगति पर लगाया जाए।
विपक्ष के आरोपों के जवाब में सत्तापक्ष की ओर से स्मृति ईरानी ने भावनात्मक जवाब तो दिए किंतु उनमें कहीं कोई गहराई नहीं है। 'सिर काट कर कदमों में रख दूंगी' या 'कोई बता दे कि मेरी जाति क्या है', संसद के बाहर कोई चुनावी भाषण तो बन सकता है, किंतु संसद के अंदर तथ्याधारित तर्कपूर्ण जवाब ही स्वीकार किए जा सकते हैं। लेकिन जिस प्रकार स्मृति ईरानी ने विपक्षी नेताओं पर नाम लेकर हमले किए उससे संकेत साफ है कि सत्तापक्ष का इरादा देशभक्ति बनाम देशद्रोह की चिंगारी को दावानल का रूप देने का है। ऐसे में तो पूरा का पूरा भारत देश झुलस जाएगा। और फिर कौन सा विकास और किसका विकास? विश्वगुरु बनने का सपना  तो दूर पूरे विश्व में भारत एक घोर साम्प्रदायिक सोच वाले देश के रूप में स्थापित हो जाएगा। क्या यही चाहता है सत्तापक्ष और यही चाहता है विपक्ष। बेहतर हो दोनों पक्ष ऐसी प्रवृति का त्याग कर दें।
भारत जिस दृढ़ता के साथ 'सबका साथ सबका विकास' के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है, उस मार्ग में बाधा उत्पन्न करनेवाले वस्तुत: राष्ट्रविरोधी हैं, किंतु इन्हें भी राष्ट्रद्रोही निरुपित नहीं किया जा सकता। सत्तापक्ष, विशेषकर प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय अभिभावक की भूमिका में आना होगा। विपक्ष या कुछ दिगभ्रमित तत्वों के प्रहार को स्वाभाविक अथवा नैसर्गिक मान, उपेक्षा कर ही प्रधानमंत्री देश के सच्चे अभिभावक की भूमिका अदा कर पाएंगे।

Thursday, February 25, 2016

'जी-न्यूज' का शर्मनाक फर्जीवाड़ा!

जी-न्यूज!
एक खबर चल रही है 'ओपी शर्मा पर पिटाई का आरोप'।  इस खबर के साथ बगल में 'स्क्रीन' पर पिटाई की तस्वीर चल रही है, जिसमें ओपी शर्मा और उसके समर्थक सड़क पर गिरे हुए एक सीपीआई कार्यकर्ता की बुरी तरह पिटाई कर रहे हैं, बूटों तले रौंदते दिख रहे हैं। और पास में खड़ी पुलिस तमाशबीन बनी हुई है।
अब अगर पत्रकारिता का कोई विद्यार्थी यह पूछे कि फिर 'पिटाई का आरोप' कैसे? कोई संपादक जवाब नहीं दे पाएगा। लेकिन खुलासा किया इसी 'जी-न्यूज' के पत्रकार विश्वदीपक ने। दीपक उस समय ड्यूटी पर थे। उन्होंने जब 'आरोप' पर अपने वरिष्ठ से पूछा, तब जवाब मिला, 'ऊपर' से कहा गया है।
इलेट्रॉनिक मीडिया की दुनिया में देश में सबसे बड़े नेटवर्क के साथ 'जी-न्यूज' खबरिया चैनल इन दिनों सुर्खियों में है। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में कथित देश-द्रोही गतिविधियों की खबर के बाद 'जी-न्यूज' के ही 'फुटेज' के आधार पर दिल्ली पुलिस ने छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ देश-द्रोह का मामला दर्ज करते हुए उसे गिरफ्तार कर लिया। 'जी-न्यूज' ने बार-बार 9 फरवरी की उक्त घटना के वीडियो चलाए, जिसमें कन्हैया कुमार सहित जेएनयू के कुछ अन्य छात्रों को 'पाकिस्तान जिंदाबाद' और भारत विरोधी नारे लगाते हुए दिखाया गया। कुछ अन्य खबरिया चैनलों ने जी-न्यूज में दिखाए गए वीडियो की प्रमाणिकता को चुनौती देते हुए दूसरे वीडियो दिखाए, जो जी-न्यूज के वीडियो को फर्जी साबित कर रहे थे।
आरोप-प्रत्यारोप चल ही रहे थे कि बीच में संस्थान के एक पत्रकार विश्वदीपक ने 'जी-न्यूज' पर यह आरोप लगाते हुए कि संस्थान ने षड्यंत्र रचकर कन्हैया कुमार को देश-द्रोही साबित करने की कोशिश की है, इस्तीफा दे दिया। भावनात्मक और मार्मिक शब्दों से युक्त अपने त्याग-पत्र में विश्वदीपक ने पेशेवर जिम्मेदारी और नागरिक-दायित्व को चिह्नित करते हुए आरोप लगाया कि कमोबेश अब देश के हर 'न्यूज रुम' का संप्रदायीकरण हुआ है, लेकिन हमारे यहां ('जी-न्यूज') स्थितियां और भी भयावह हैं। विश्वदीपक ने सवाल उठाया है कि एक पत्रकार के तौर पर हमें क्या हक है किसी को देश-द्रोही की डिग्री बांटने का? ये काम तो न्यायालय का है न?
बिल्कुल ठीक। हमें, आपको या किसी भी मीडिया संस्थान को ये अधिकार नहीं कि वह किसी को देश-द्रोही घोषित करे। ये काम न्यायालय का है और आलोच्य मामले में भी कानून अपना काम कर रहा है। बहरहाल, उपलब्ध प्रमाण 'जी-न्यूज' द्वारा प्रसारित वीडियो के फर्जी होने की चुगली कर रहे हैं। यह पूरी की पूरी पत्रकारीय विरादरी के लिए शर्मनाक है।
विश्वदीपक ने भी अपने त्याग-पत्र में साफ-साफ लिखा है कि जब वे स्टूडियो में 'फुटेज' का संपादन कर रहे थे तब कहीं भी 'पाकिस्तान-जिंदाबाद' का नारा नहीं सुनाई दे रहा था। विश्वदीपक के अनुसार, कन्हैया को जान-बूझकर 'फ्रेम' किया गया। मजे की बात यह कि 'जी-न्यूज' के संपादक सुधीर चौधरी ने डंके की चोट पर बयान दिया कि वे प्रसारित वीडियो की सत्यता पर कायम हैं।
बात चूंकि सुधीर चौधरी की आई है तो जरा इनके पाश्र्व की भी जानकारी लें। ये वही सुधीर चौधरी हैं, जिन्होंने 2007 में 'जनमत' चैनल (जो बिक जाने के बाद अब लाइव-इंडिया के नाम से चल रहा है) में रहते हुए एक शिक्षिका का फर्जी 'स्टिंग' का प्रसारण कर चैनल को मुसीबत में डाल दिया था। भारत सरकार ने तब कार्रवाई करते हुए एक महीने के लिए चैनल का लाइसेंस निलंबित कर दिया था। चैनल बिक गया।
सन 2012! भारत की पत्रकार बिरादरी तब शर्मिंदा हुई थी, जब 'जी-न्यूज' के संपादक के रुप में सुधीर चौधरी अपने एक सहयोगी के साथ 100 करोड़ रुपए की कथित वसूली के आरोप में दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे। करतूत ऐसी कि चैनल के मालिक डॉ. सुभाष चंद्रा को भी आरोपी बना दिया गया। सभी अभी जमानत पर हैं।
जब कोई घटना होती है तब संबंधित का पाश्र्व भी जांच का आधार बनता है, सबूत बनता है। जेएनयू प्रकरण में जिस प्रकार सुधीर चौधरी के संपादकत्व में फर्जीवाड़ा का खेल खेला गया, चौधरी का पाश्र्व फर्जीवाड़े की सत्यता की चुगली कर रहा है।
राजदल या राजनीतिक अपने-अपने 'एजेंडे' चलाते हैं, इस पर कोई आपत्ति नहीं। पत्रकारों का कर्तव्य सामाजिक दायित्व से जुड़ा है। तटस्थता इसकी पहली शर्त होती है। ऐसे में अगर पत्रकार राजदलों के 'एजेंडों', विशेषकर जब वे किसी खास विचारधारा से प्रभावित हों, का विस्तार करने लगे तब वे स्वयं एक पक्ष बन जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। जेएनयू के आलोच्य मामले में कुछ मीडिया घरानों की भूमिका उन 'दलालों' की तरह रही जो न केवल अपने मालिकों के तलवे चाटते दिख रहे हैं, बल्कि शर्म-हया त्यागकर 'कुछ भी' करने को तत्पर हो जाते हैं । नैतिकता, ईमानदारी, तटस्थता और मूल्य तब किसी कोने में रुदन को विवश हो जाते हैं। इसकी पटकथा लिखने का जिम्मेदार इस बार 'जी-न्यूज' बना। 

हां! आप ही हैं भारत के प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री जी!
'भारतीय मन' बेचैन है, हतप्रभ है!
आपको यह बताने की जरुरत क्यों पड़ी कि आप भाजपा के नहीं, देश के प्रधानमंत्री हैं? और, यह कि विपक्ष व एनजीओ आपको खत्म करना चाहते हैं, अपदस्थ करना चाहते हैं? आपके प्रधानमंत्री पद की हैसियत को किसने चुनौती दी? किसने कहा, नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं? राजनीतिक चुहलबाजियों की परवाह न करें, ऐतिहासिक जनादेश के साथ अर्थात 'भारतीय मन' की इच्छा के अनुरूप भारत के प्रधानमंत्री आप ही हैं। कोई सिरफिरा ही आपकी इस हैसियत को चुनौती देगा। बावजूद इसके आपने इसका संज्ञान लिया तो कैसे?
देश का लोकतंत्र आपसे जवाब चाहता है। देश की जनता ने पूरे विश्वास के साथ आप पर भरोसा कर देश के शासन की बागडोर आपके हाथ में सौंप दी। भारतीय लोकतंत्र, समाज और देश के प्रति आपकी प्रतिबद्धता और समर्पण पर भारत ने विश्वास जताया। आरंभिक झंझावातों के बावजूद विश्वास आज भी कायम है। ऐसे में जब नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसा मजबूत कर्मठ प्रधानमंत्री चिन्हित करें कि 'मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं', तो सवाल तो खड़े होंगे ही! यह शंका भी कि कहीं आप स्वयं को असुरक्षित तो नहीं मानने लगे? अगर यह शंका आंशिक रूप से भी सच है तब दु:खद है। दोहरा दूं कि देश का आपके प्रति विश्वास आज भी कायम है। कतिपय विफलताओं के बावजूद देश अभी भी आपको संदेह का लाभ देने को तैयार है। किंतु 'समयावधि' और 'सीमा' की शर्त तो रहेगी ही।
केंद्रीय सत्ता का आपका पहला अनुभव और इसी तरह आपके अनेक साथियों के नवीन अनुभव के कारण अति उत्साह आधारित ऐसे अनेक प्रसंग लगभग एक वर्ष पूर्व सामने आए थे, जिसने अनेक असहज सवाल खड़े कर दिये थे। स्वयं सत्ता-संगठन और इससे बाहर असहज सवाल आपकी नीति और नीयत को लेकर पूछे जाने लगे। ऐसा तब हुआ जब आप आशाओं, अपेक्षाओं के झूले पर सवार हो इंद्रधुनष की भांति विश्व नीलाभ पर अवतरित हुए। राजनीतिक पंडितों के लिए अकल्पनीय आपका वह उदय 'भारतीय मन' की हिलोरें मारती आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में रेखांकित हुआ।  इस पाश्र्व में सवाल खड़े हुए कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते क्या हैं? विपक्ष नहीं, स्वयं आपकी पार्टी, सरकार और देश की जनता के एक वर्ग के बीच सवाल पूछा जाने लगा कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते क्या हैं? क्या मोदी सत्ता का केंद्रीयकरण कर 'रिमोट' अपने हाथ में रखना चाहते हैं? मोदी को 'सिर्फ' 'हां' चाहिए, विरोध स्वरूप 'ना' नहीं चाहिए। क्या मोदी तानाशाह बनना चाहते हैं? मोदी विश्व शांतिदूत बनना चाहते हैं? मोदी लोकतंत्रिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं? मोदी हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं? मोदी विपक्ष मुक्त लोकतंत्र चाहते हैं? मोदी भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते हैं? मोदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भगवा लहराना चाहते हैं? मोदी शब्दों की खुराक से 'बीमार' भारत को 'निरोग' करना चाहते हैं? मोदी परिवारवाद, वंशवाद खत्म करना चाहते हैं? मोदी सबका विकास सबका साथ चाहते हैं? मोदी सिर्फ चुने हुए औद्योगिक घरानों का विकास चाहते हैं? मोदी दमित इच्छायुक्त कुंठाग्रस्त व्यक्ति हैं? मोदी अल्पसंख्यक विरोधी हैं? मोदी सिर्फ व्यक्तिगत आभा मंडल की चमक के हिमायती हैं? मोदी भाषा-जुबान संस्कृति में भी परिवर्तन चाहते हैं? मोदी 'मेक इन इंडिया' का विस्तार कर 'मेड फार वल्र्ड' की पताका लहराना चाहते हैं?  ये सभी सवाल आज भी गुंजायमान हैं। इनके जवाब आपको ही देने हैं। शंकायुक्त ये सवाल पूर्णत: निराधार भी नहीं है।
 प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के कुछ समय बाद ही ऐसी संभावना व्यक्त की गई थी कि आने वाले समय में एक नया द्वंद्व खड़ा होगा-मोदी बनाम शेष का। सत्ता और संगठन के बीच सुगबुगाहट ऐसी संभावना के आधार बने थे। फुसफुसाहट में ही सही शंका उभरी थी कि आनेवाले समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न केवल विपक्ष बल्कि अपनी पार्टी और सहयोगी संगठनों के 'धुरंधरों' से निपटना होगा। लेकिन सुखद रूप से यह भी कहा गया था कि इस नये द्वंद में अंतत: विजयी नरेंद्र दामोदरदास मोदी ही होंगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मोदी को उन तत्वों से फिलहाल आंतरिक चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई हैं? क्या इसी से मजबूर होकर प्रधानमंत्री मोदी को अपनी 'हैसियत' को चिन्हित करना पड़ा।
इतिहास गवाह है आपके जैसे दृढ़ संकल्प व्यक्ति को आसानी से कभी लक्ष्य प्राप्त होने नहीं दिया गया। संघर्ष होते रहे, इतिहास में नये-नये अध्याय जुड़ते चले गये। लेकिन कड़वा सच यह कि आज तक कोई भी नेतृत्व निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाया। ऐसे में अगर कोई लक्ष्य के निकट भी पहुंच पाता है तो देश उसे अपना स्थायी सिरमौर बनाने में हिचकेगा नहीं। यह सत्य अडिग है। प्रधानमंत्रीजी! फिर आप विचलित क्यों हो रहे हैं? देश ने हमेशा साफ नीयत नेतृत्व को अपना 'महानायक' बनाया है।

Saturday, February 20, 2016

किसान आत्महत्या का दर्द और महाधिवक्ता!

महाराष्ट्र के महाधिवक्ता श्रीहरि अणे को सिर्फमहाराष्ट्र प्रदेश का नहीं, बल्कि पूरे देश का बड़ा सलाम। लकीरी परंपरा से पृथक श्रीहरि अणे ने आत्महत्या कर रहे किसानों की सचाई से अदालत को अवगत कराते हुए सरकारी 'बाबुओं' की न केवल जमकर खिंचाई की बल्कि उन्हें नंगा भी कर डाला। श्री अणे ने एक सजग, प्रदेश-देश हित के प्रति चिंतित प्रहरी की भूमिका अदा की है। सरकार उनकी इस टिप्पणी के मर्म को समझे कि एक किसान अपना आत्म-सम्मान बचाने के लिए खुदकुशी करता है। वह भी जब भीख मांगने की नौबत आ जाए। यह एक ऐसा कड़वा सच है, जिसे कोई भी झूठला नहीं सकता। सचमुच, वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजना बनाने वाले सरकारी अधिकारी इस मर्म को नहीं समझ पाते। विडंबना के रुप में कृषि-प्रधान भारत का किसान कर्ज से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या कर रहा है। एक ओर खबर आती है कि राष्ट्रीयकृत बैंक बड़े-बड़े कर्जदारों के हजारों-लाखों करोड़ के कर्ज माफ कर दे रहे हैं, वही दूसरी ओर किसान सरीखे छोटे कर्जदार बैंकों की प्रताडि़त करने वाली वसूली नीति से घबराकर अपने प्राण त्याग रहे हैं? ऐसी असमानता, ऐसा भेद-भाव उस लोकतांत्रिक देश में कैसे बर्दाश्त किया जा रहा है, जहां 'सबका साथ-सबका विकास' रुपी समानता का नारा दिया जा रहा हो। यह हमें स्वीकार्य नहीं।
महाराष्ट्र अभी एक युवा नेतृत्व से संचालित है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस प्रदेश के किसानों की समस्याओं, उनके दर्द से अच्छी तरह परिचित हैं। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ही उन्होंने प्राथमिकता के आधार पर किसानों का दु:ख-दर्द दूर करने की घोषणा की थी। व्यावहारिक कदम उठाते हुए उन्होंने कहा था कि सिर्फ कर्जमाफी समस्या का समाधान नहीं। प्रदेश प्रतीक्षारत है कि मुख्यमंत्री किसानों के हक में ऐसा स्थायी हल ढूंढ निकालेंगे कि च्किसान-आत्महत्याज् के कलंक से महाराष्ट्र प्रदेश मुक्त हो सके।
श्रीहरि अणे द्वारा किसानों की आत्महत्या का चित्रण प्रस्तुत करने पर बंबई उच्च न्यायालय ने जो कड़ा रूख अपनाया उसका भी स्वागत। उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार का ध्यान भी आकृष्ट करते हुए समस्या निदान के प्रति सहभागी बनने की जरूरत को चिह्नित किया है। उच्च न्यायालय ने बिल्कुल ठीक ही व्यवस्था दी कि किसानों की समस्या के निदान के लिए मुख्यमंत्री की निगरानी में एक अलग प्रकोष्ठ बने। अब आशा की जानी चाहिए कि फड़णवीस सरकार पहल करते हुए शीघ्र ही किसानों के हक में ऐसा फैसले लेगी ताकि किसान आत्महत्या जैसे बदनुमा दाग से महाराष्ट्र को मुक्ति मिल सके। 

क्या ये गृह-युद्ध की दस्तक है?

क्या देश गृह-युद्ध की ओर अग्रसर है? संकेत खतरनाक हैं, विचलित कर देने वाले हैं। देश-समाज की रीढ़, भविष्य छात्र समुदाय को निशाने पर लेकर अराजकता को आमंत्रित करने के क्या मायने? छात्रों को निशाने पर लिया जा रहा है, विश्वविद्यालयों को निशाने पर लिया जा रहा है, शिक्षकों को निशाने पर लिया जा रहा है, कुलपतियों को निशाने पर लिया जा रहा है और इससे आगे बढ़ते हुए न्यायपालिका और संविधान की भी अवमानना हो रही है।  कानून-व्यवस्था के जिम्मेदार पुलिस प्रशासन की विश्वसनीयता कठघरे में है।
अगर ये अनायास हो रहे हैं तो कारण अथवा कारणों की पहचान कर 'भ्रूण-हत्या' कर दी जाए। अगर किसी साजिश के तहत देश-विरोधी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है तो इन देश-द्रोहियों की पहचान कर दंडित किया जाए। घटनाएं सामान्य नहीं हैं। देश में एक समय ऐसा आया था जब जाति और धर्म को आधार बना मंडल बनाम कमंडल का संघर्ष उभरा था। तब पूरे देश को जाति और धर्म के नाम पर विभाजित करने के कुत्सित प्रयास हुए थे। सुखद रुप से तब समाज ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था। दु:खद रुप से आज राष्ट्र-प्रेम बनाम राष्ट्र-द्रोह का एक अभिनव टंटा शुरू कर दिया गया है।
छात्रों और न्याय के पैरोकार वकीलों को सामने कर अराजकता को आमंत्रित करने का प्रयास शुरू हो चुका है। जेएनयू के बहाने कथित राष्ट्र भक्ति और कथित विचारधारा पर सड़कों पर फैसले की तैयारी गृह-युद्ध का ही तो आमंत्रण है। न्याय की सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमिटी के सदस्यों पर काला कोट धारण किए वकीलों के एक वर्ग द्वारा हमला निश्चय ही न्यायपालिका और संविधान को चुनौती है। यह सिर्फन्यायपालिका की अवमानना नहीं बल्कि संविधान के उन अनुच्छेदों के साथ बलात्कार है, जिसने न्यायपालिका को लोकतंत्र के रक्षक के रुप में चिह्नित किया है। इस व्यवस्था को चुनौती देने वाले राष्ट्र-भक्त नहीं, राष्ट्र-द्रोही हैं। चूंकि इस असामान्य घटना विकास-क्रम से पूरा भारत देश और उसका लोकतंत्र प्रतिकूल रुप से प्रभावित होगा, सभी पक्ष अगर वे सचमुच में भारतीय हैं तो दलीय प्रतिबद्धता अथवा विचारधारा से इतर एकजुट हो पहले लोकतंत्र और न्याय के मंदिर को सुरक्षित रखें। जब ये मंदिर सुरक्षित रहेंगे तभी तो भारत देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित हो पाएगी। गृह-युद्ध की ओर बढऩे वाले हर पैर और हाथ तत्काल काट दिए जाएं-बगैर किसी भेद-भाव के। ये तत्व देश-भक्त नहीं, देश-द्रोही हैं। भारत का लोकतंत्र और भारतीय मन राष्ट्रीय सद्भावना और सदाचार का आग्रही रहा है-अराजकता और अलोकतांत्रिक व्यवहार का नहीं। 

Thursday, February 18, 2016

न्याय के साथ अन्याय का घृणित मंचन!

सत्तापक्ष के रणनीतिकारों की एक और आत्मघाती चूक। उस छात्र समुदाय को छेड़ दिया जिनकी अंगड़ाईयाँ या फिर विद्रोह सत्ता परिवर्तन का कारण बनती रही हैं! पहले हैदराबाद, फिर जेएनयू और अब जाधवपुर में। इन घटनाओं के पाश्र्व में निहित कारणों की पड़ताल से अलग यह सत्य, कड़वा सत्य, उभरकर सामने आया है कि पूरे देश में छात्र असंतोष मुखर होने को तत्पर है। क्या ऐसी परिणति से रणनीतिकार अनजान थे? या फिर, किसी गुप्त 'योजना' के तहत जान-बूझकर ऐसी स्थिति का निर्माण किया जा रहा है? ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त कर केंद्रीय सत्ता पर काबिज होनेवाली भारतीय जनता पार्टी की पहचान, सूझ-बूझ से परिपूर्ण राष्ट्रीय विचारकों की लंबी पंक्ति से युक्त एक शालीन राष्ट्रवादी राजनीतिक दल के रूप में रही है। फिर इसके रणनीतिकार ऐसी भूल कैसे कर बैठे? सामान्य चूक का तर्कस्वीकार्य नहीं। तो क्या किसी दूरगामी राजनीतिक 'प्रयोग' के रूप में इसे देखा जाए। अगर ऐसा है तो  'संभावित परिणाम' पर बहस स्वाभाविक है। प्रयोग के लिए भी समय और स्थान महत्व रखता है। और जब यह राजनीति से जुड़ा हो, सत्ता से जुड़ा हो तो प्रयोगधर्मी की 'नीयत' कसौटी पर कसी जाती है। 70 के दशक के आरंभ में गुजरात में छात्र असंतोष ने आंदोलन का रूप लिया था। विश्वसनीय नेतृत्व के अभाव में आरंभिक विफलता के बाद वह चिनगारी बिहार पहुंची। वहां जयप्रकाश नारायण जैसे सर्वमान्य लोकप्रिय नेतृत्व आंदोलन को प्राप्त हुआ। चिनगारी ने दावानल का रूप लिया, जिसकी तपिश में पूरा भारत उद्वेलित हो उठा। आरंभ में सत्तापक्ष ने असंतोष को हल्के से लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा पूछे जाने पर तब के बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने उन्हें जानकारी दी कि, ' मैडम ये कदमकुआं के एक जाति विशेष का आंदोलन है। मैं उन्हें (जेपी) उनके असली मुकाम पर पहुंचा दूंगा।' गफूर के उन शब्दों ने न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में ऐसी ज्वाला पैदा की, जिसने इंदिरा गांधी की सत्ता को हिलाकर रख दिया। आंदोलन को कुचलने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब आत्मघाती कदम उठाते हुए पूरे देश में आपातकाल लगा दिया था। जयप्रकाश नारायण सहित इंदिरा और कांग्रेस सरकार का विरोध करने वाले सभी बड़े नेता, पत्रकार, बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया गया। छात्र तो गिरफ्तार किए ही गए थे। तब लगभग पूरा देश जेल में परिवर्तित हो गया था। लेकिन सत्ता-शासन के डंडे के बल पर विरोध के स्वर को कुचलने में सत्ता विफल साबित हुई। छात्र आक्रोश दमित होने के बजाए और मुखर हो उठा था। अंतत: छात्र आंदोलन की विजय हुई, सत्ता की पराजय हुई। तब देश में पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार सत्तारूढ़ हुई थी।
इस ऐतिहासिक तथ्य की मौजूदगी में छात्र और शिक्षण संस्थानों के साथ सत्तापक्ष की ओर से छेड़-छाड़ के संकेत मिलते हैं तब 'नीयत' की पड़ताल जरूरी हो जाती है। यह तो निर्विवाद है कि नई सरकार के गठन के बाद से 'विचारधारा' के आधार पर शिक्षण संस्थाओं को रास्ते पर लाने के प्रयास शुरू हो गए थे। नियुक्ति से लेकर पाठ्यक्रम के साथ छेड़-छाड़ के अनेक बेचैन करने वाले प्रसंग सामने आए। चाहे मामला पुणे स्थित फिल्म संस्थान का हो या कोलकाता स्थित अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्व भारती का या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय सहित अन्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों का, 'अनुकूल पात्र' के अरुचिकर प्रसंग सामने आए। विभिन्न राज्यों में विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी 'अनुकूल बदलाव' के दृष्टांत सामने लाए गए। विरोध और बहसें अभी भी जारी हैं। कालांतर में इनके संभावित हश्र पर फिलहाल चर्चा नहीं। चर्चा ताजातरीन विवाद जेएनयू और उससे जुड़ी घटनाओं पर।
जेएनयू परिसर में एक घोर आपत्तिजनक कार्यक्रम के दौरान कथित रूप से राष्ट्र विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए गए। छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। विवाद का असली कारण यही बना। जिन तथ्यों के आधार पर कन्हैया कुमार को देशद्रोही बताया जा रहा है, वे संदिग्ध हैं।
यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि विश्वविद्यालय परिसर के अंदर आतंकी अफजल गुरु को महिमामंडित कर राष्ट्र विरोधी नारे लगाना, निश्चय ही एक गंभीर अपराध है। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन जो आरोप कन्हैया कुमार के ऊपर लगे उनके सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। मामले की जांच, निष्पक्ष जांच से ही असलियत सामने आ पाएगी। इस बिंदु पर दिल्ली पुलिस स्वयं एक पक्ष बनती नजर आ रही है। यह दु:खद है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। घटनाक्रम का विस्तार और भी दु:खद, बल्कि विस्मयकारी है। दो दिन बाद कन्हैया की पेशी के पूर्व अदालत परिसर व अदालत के कमरे में जो कुछ घटित हुआ, उससे पूरी की पूरी कानून और न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। अदालत के कमरे में छात्रों, शिक्षकों और कर्तव्य निष्पादन हेतु मौजूद मीडिया कर्मियों की पिटाई की गई। छात्राओं व महिला मीडियाकर्मियों को भी नहीं बख्शा गया। उनके साथ बदसलूकी भी हुई। विस्मयकारी यह कि तब अदालत के कमरे में मौजूद पुलिसकर्मी मूकदर्शक बने रहे। कमरे से सटे 'चेंबर' में मौजूद 'जज' भी बाहर नहीं निकले। और पिटाई करनेवाले कौन? 'न्याय मंदिर' में न्याय के पैरोकार अधिवक्ता, अर्थात वकील। जाहिर है कि ये वकील किसी विचारधारा से प्रभावित किसी खास उद्देश्य से अदालत के कमरे के अंदर अराजकता के तांडव का मंचन कर रहे थे। अपने पेशे को लांछित करते हुए वकीलों के जिस गुट ने अदालत के कमरे को प्रताडऩा-कक्ष में परिवर्तित कर डाला था, उनकी 'नीयत' की पड़ताल जरूरी है। चुन-चुन कर मीडिया कर्मियों की पिटाई कर बाहर निकालने का मतलब साफ है-पिटाई करनेवाले वकीलों का गुट नहीं चाहता था कि उनके घोर गैर-कानूनी अनैतिक कृत्य का कोई साक्ष्य सार्वजनिक हो। कन्हैया कुमार की अदालत में पेशी के ठीक पहले छात्रों, शिक्षकों और मीडियाकर्मियों की पहचान कर पिटाई करते हुए कमरे से बाहर क्यों निकाला गया? क्या वकीलों का गुट चाहता था कि कन्हैया की पेशी के समय अदालत के कमरे में अन्य कोई ना रहे? अगर इस संभावना में आंशिक सचाई भी निहित है तो एक अत्यंत ही बेचैन करने वाला असहज प्रश्न कि, क्या वकीलों की मंशा कुछ और थी? इस शंका का तार्किक निराकरण जरूरी है। क्योंकि इसके साथ न्याय मंदिर की पवित्रता, न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और न्याय के पैरोकारों की नैतिकता जुड़ी हुई है।
मैं चाहूंगा कि यह असहज संभावना या शंका गलत साबित हो। इसके लिए भी जरूरी है कि पूरे मामले की निष्पक्ष जांच-पड़ताल कर सच को सामने लाया जाए। सत्तापक्ष यानि भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी यह एक चुनौती पूर्ण समय है। मामले की गंभीर खतरनाक व्यापकता को ध्यान में रखकर ही प्रधानमंत्री ने यह टिप्पणी की होगी कि मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य का स्वागत। किंतु उनके शब्दों में निहित आश्वासन की असली परीक्षा व्यवहार के स्तर पर घटना की जांच के लिए उठाए गए कदमों से होगी। यह दोहराना ही होगा कि शासन की कुछ आरंभिक विफलताओं के बावजूद अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश का विश्वास प्राप्त है। ऐसे में क्या प्रधानमंत्री इस अद्भुत और निश्छल 'राष्ट्रीय विश्वास' को भंग करना चाहेंगे? कदापि नहीं। छात्र असंतोष के विस्तार को रोकना ही होगा। यह सत्तापक्ष और देशहित के लिए जरूरी है।विचारधारा संबंधी किसी प्रयोग का यह अवसर-काल नहीं है। अभी तो विकास आधारित वैश्विक उपलब्धियों के सपनों को साकार करने का समय है। 2014 के जनादेश में निहित अपेक्षाओं, विश्वास को पूरा करने का समय है। अपने 'मन की बात' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन्हें ही तो चिन्हित करते आ रहे हैं। फिर कोई व्यवधान क्यों?
सत्ता और संगठन दोनों इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही रणनीति तैयार करें, अंजाम दें। इसके लिए तात्कालिक जरूरत जेएनयू व इस सरीखे अन्य प्रकरण को विराम देने की है। जो हो गया, सो हो गया अब पूर्ण-विराम। रणनीतिकार इसे हृदयस्थ कर लें।

Thursday, February 11, 2016

'वॉच डॉग' से 'गाइड डॉग, तक

प्रहरी से मार्गदर्शक!
कर्ण प्रिय हैं ये शब्द। सुनने में अच्छे लगते हैं, पढऩे में भी अच्छे लगते  हैं । लेकिन वास्तविकता अथवा सचाई की जमीन पर  कुकुरमुत्ते की तरह उपजे कड़वे सच इसे सामने से चुनौती देते स्पष्टत: परिलक्षित हैं। फिर तो इसकी चीर-फाड़ होगी ही। चलिए चाकू उठा लिया जाए।
इंडियन लॉ इंस्टिट्युट के सुप्रसिद्ध प्राध्यापक डॉ. एस. शिवकुमार की एक नई पुस्तक आई है- 'प्रेस लॉ एंड जर्नलिस्टस वॉचडॉग टू गाइड डॉग'। डॉ. कुमार दावा करते हैं कि उन्होंने भारतीय पत्रकारों को समाज के प्रति जिम्मेदारी के एहसास के साथ दायित्व निर्वाह करते देखा है। 'प्रेस' जिस प्रकार विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के साथ-साथ समाज के अन्य क्षेत्रों के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देता है, उससे प्रेरित होकर ही उन्होंने प्रेस को 'वॉच डॉग' से आगे 'गाइड डॉग' निरूपित किया है। अपनी इस वंदना से प्रेस बिरादरी स्वाभाविक रुप से पुलकित है।
लेकिन आलोचक-समालोचक भी ताल ठोंकने लगे कि अगर प्रेस इतना ही जिम्मेदार है तब फिर प्रधानमंत्री, मंत्री, नेता और आम लोगों का एक बड़ा-बहुत बड़ा वर्ग इसे 'वेश्या- सदृश' क्यों निरुपित कर रहा है? संक्रामक की तरह पांव पसार चुके 'सोशल मीडिया' पर पत्रकारों के लिए प्रतिकूल विशेषणों की खतरनाक व्यापक मौजूदगी क्यों? क्या ये बिरादरी के लिए असहज स्थिति नहीं है?
नि:संदेह समाज-शासन की हर विधा के लिए प्रेस की भूमिका प्रहरी अर्थात 'वॉच डॉग' से आगे मार्गदर्शक अर्थात 'गाइड डॉग'  अपेक्षित है। 'प्रेस' के प्रति यह राष्ट्रीय अपेक्षा दायित्व व कर्तव्य को चिन्हित करता है। जब-जब इसे नजरअंदाज किया गया, आत्मघाती सिद्ध हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि बुरी तरह बदनाम हो चुकी राजनीतिक बिरादरी के समकक्ष पत्रकार बिरादरी को भी रखा जाने लगा। जिन विशेषणों से राजनीतिज्ञों को विभूषित किया जाता है, उनसे कहीं गंदे विशेषणों का इस्तेमाल आज पत्रकारों के लिए किया जाने लगा है। विश्वसनीयता के एक शर्मनाक दौर से 'प्रेस' को गुजरना पड़ रहा है। कारण की पड़ताल कठीन नहीं। साफ -साफ दिख रहा है कि अपने निजी व संस्थागत लाभ के लिए पत्रकार तथा मीडिया संस्थान पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत के साथ हर पल समझौता कर रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो देश -समाज के प्रति दायित्व, कर्तव्य निर्वाह से इतर इनकी भूमिका 'मार्गदर्शक' की तो कतई नहीं रह गई है। सत्ता-शासन व व्यावसायिक घरानों से जुड़ ये अपने लिए धन उपार्जन के साथ-साथ शासकीय तमगों के आकांक्षी बन गए हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष में इन्हें भी सत्ता सुख चाहिए, पुरस्कार चाहिए, सम्मान चाहिए। इन्हें हासिल करने के लिए ये कुछ भी करने को तत्पर मिलते हैं। इस तथ्य को भूल जाते हैं कि पुरस्कार और सम्मान स्वयं इनके कदम चूमेंगे अगर ये ईमानदारी पूर्वक पत्रकारीय दायित्व का निर्वाह करें।
प्रख्यात पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने पिछले दिनों अपने एक स्तंभ में टिप्पणी की थी कि पत्रकार को चाहिए कि वह खुद को पुरस्कार और तिरस्कार से ऊंचा उठाए रखे। वैदिक आगे लिखते हैं कि ''मैं ऐसे पत्रकारों को भी जानता हूं जो इन प्रभावहीन पुरस्कारों के लिए प्रयास करते रहते हैं। एक बार एक ही अखबार के दो पत्रकारों को पद्मश्री मिल गया। मैंने उन्हें बधाई दी और कहा,'एक खरीदो तो दूसरा मुफ्त।' ऐसे लोग बहुत कम हैं जिन्हें खोज-खोज कर पुरस्कार दिए जाते हैं। ज्यादातर लोग कतार में रहते हैं।'' वैदिक गलत नहीं हैं, पुरस्कारों से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक के लिए पत्रकारों को जुगाड़ बिठाते देखा जा सकता है। ऐसे में पत्रकार न तो 'वॉच डॉग' रह पाते हैं और न ही डॉ. शिवकुमार कल्पित 'गाइड डॉग'।
बावजूद इसके हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं। पत्रकार बिरादरी में आज भी, अपवाद स्वरुप ही सही, ऐसे पत्रकार मौजूद हैं जो शासकीय दबाव, प्रलोभन से दूर ईमानदारी पूर्वक पत्रकारीय कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। यह दोहराना ही होगा कि प्रख्यात पत्रकार स्व. निखिल चक्रवर्ती ने राष्ट्रीय सम्मान पद्मभूषण लेने से इन्कार कर दिया था। राष्ट्रीय स्तर पर जहां ऐसे सम्मान और अन्य 'तोहफों' के लिए शासन के समक्ष नाक रगडऩेवाले, बल्कि गिड़गिड़ानेवाले पत्रकारों की लंबी पंक्ति देखी जा सकती है, वहीं ऐसे पत्रकार भी मौजूद हैं जो ऐसी 'पेशकश' को अपने जूतों की नोंक पर रखते हैं।
कांग्रेस के एक बड़े नेता, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक बार दो-टूक कहा था कि, ''हम सत्ता में हैं तो हम चाहेंगे कि 'प्रेस' हमारा महिमामंडन करे, हमारा गुणगान करे..। हमारे पास दबाव और प्रलोभन के अनेक साधन मौजूद हैं..यह आप (पत्रकार) पर निर्भर करता है कि आप हमारे दबाव, प्रलोभन में फंसते हैं या नहीं।'' दिग्विजय जैसे शासकों की वह चुनौती समयानुसार बदलते स्वरुप में, आज भी मौजूद है। सचमुच, यह बिरादरी पर निर्भर करता है कि वे 'माया-मोह' में फंसें या 'माया-मुक्त' रहें।
चुनौती का सामना करने और कर्तव्य का निर्वाह करने के मार्ग में आनेवाले अवरोधकों को दूर कर ही पत्रकार 'गाइड डॉग' की भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। ध्यान रहे डॉ.शिवकुमार की अपेक्षा उनकी व्यक्तिगत अपेक्षा न होकर राष्ट्रीय अपेक्षा है। गिरावट के बावजूद देश-समाज आज भी पत्रकारिता और पत्रकारों को लोकतंत्र के 'पवित्र मंदिर' में स्थापित देखना चाहता है- सत्ता की कालिख भरी कोठरी या 'राज दरबार' में पूंछ हिलाते नहीं! 

Friday, February 5, 2016

लोकतंत्र की 'हत्या' पर मौन?


सलाम सर्वोच्च न्यायालय, सलाम। अरुणाचल प्रदेश में कथित रुप से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की हत्या पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जब यह टिप्पणी की कि, 'जब लोकतंत्र की हत्या हो रही हो, तब हम मूक दर्शक नहीं रह सकते,' तब भारत का लोकतंत्र और भारतवासी पुलकित हो उठे। लोकतंत्र की नींव जहां मजबूत हुई, वहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति देशवासियों का विश्वास बढ़ा।
सचमुच जब लोकतंत्र की हत्या परिलक्षित हो तब राज्यपाल के विशेषाधिकार का तर्कदे 'अपराध' पर परदा नहीं डाला जा सकता।  राष्ट्रपति और राज्यपालों को कानून से ऊपर विशेषाधिकार प्राप्त हैं, किंतु  लोकतंत्र की जिस नींव पर संविधान खड़ा है, देश खड़ा है, संसद विद्यमान है, राष्ट्रपति या राज्यपाल उस लोकतंत्र की हत्या तो दूर, अवमानना भी नहीं कर सकते। आलोच्य मामले में भी यह मापदंड लागू है। न्यायपालिका को ऐसे किसी भी आदेश या निर्णय या फिर कानून की समीक्षा का अधिकार प्राप्त है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की हत्या करती प्रतीत हों। अरुणाचल प्रदेश में जिस प्रकार राज्यपाल ने ताबड़-तोड़ निर्वाचित सरकार को अपदस्थ कर राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा की और केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया, प्रथम द्रष्ट्या वह संदिग्ध है-लोकतंत्र के विरोधी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी समीक्षा करने के पक्ष में फैसला कर बिल्कुल सही किया है। लोकतंत्र के विरोधी किसी भी निर्णय की समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है। ध्यान रहे, संसद की सर्वोच्चता की मौजूदगी के बावजूद संसद द्वारा निर्मित कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा न्यायपालिका कर सकती है।
क्या यह चिह्नित करने की जरूरत है कि एक मजबूत लोकतंत्र में ही देश की एकता, अखंडता निहित है? सुरक्षित है? सच तो यह है कि आज अगर देश में लोकतंत्र सुरक्षित है तो पवित्र न्याय मंदिर के कारण ही। न्यायपालिका के प्रति देश का अटूट विश्वास यूं ही नहीं है। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्वाचित जन-प्रतिनिधि वस्तुत: देश का प्रतिनिधित्व करते हैं, विधायिका का अंग बन ये कानून बनाते हैं, फैसले लेते हैं। लेकिन, विविधता से परिपूर्ण देश में परस्पर संतुलन बनाए रखने के लिए अंकुश भी जरूरी है। दस्तावेज प्रमाणित करते हैं कि विधानसभाओं और संसद में पहुंचे सभी निर्वाचित जन-प्रतिनिधि 'बेदाग' नहीं हैं। प्रमाण अंकुश की चुगली कर रहे हैं। इस पाश्र्व में यह सर्वथा उचित है कि न केवल इनकी क्रिया-कलापों को निगरानी के दायरे में रखा जाए, बल्कि समय-समय पर अंकुश रुपी हथियार का उपयोग भी किया जाए। अगर ऐसे संदिग्ध तत्वों को 'बे-लगाम' छोड़ दिया जाए तो कोई आश्चर्य नहीं अगर ये किसी दिन देश को बेचते हुए पाए जाएं।
अरुणाचल प्रदेश का मामला न्यायालय के विचाराधीन है, उस पर फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं। हम आश्वस्त हैं कि न्यायपालिका अपनी जवाबदेही का निर्वाह करते हुए लोकतंत्र को सुरक्षित रखेगी।

'मुस्लिम-मुस्लिम' और अब 'दलित दलित'? धिक्कार है...!

अरुचिकर है यह !
पहले 'मुस्लिम-मुस्लिम' और अब 'दलित-दलित' का जाप ! किसी भी सभ्य शिक्षित समाज को यह स्वीकार नहीं हो सकता। और हम न तो असभ्य हैं, और न ही अशिक्षित! फिर इसकी निरंतरता? जरूरत पूर्णविराम की है, कठोर पहल की है। इस मुकाम पर स्वाभाविक सवाल कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो कौन ?
इस सवाल को लेकर भयभीत होने की जरूरत नहीं है। यह 'राजनीतिक भय' ही है जिसने इस प्रवृत्ति को फलने -फूलने दिया। सत्ता-वासना से अभिभूत राजनेता-राजदल इसका बेजां इस्तेमाल करते रहे हैं। देश- समाज को धर्म-संप्रदाय और जाति के नाम पर बांटने में कोई हिचकिचाहट इन्होंने नहीं दिखाई। नतीजा सामने है। 21वीं सदी की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में जहां हमें मजबूत विकास मार्ग पर कदमताल करना चाहिए था, हम धर्म-जाति का ढोल पिटते रहे। पिट रहे हैं, और सभी पिट रहे हैं। क्या सत्तापक्ष, क्या विपक्ष, इस राजनीतिक स्वार्थ पर सभी एक साथ हैं। समाज विभाजित होता है, देश विभाजित होता है तो होता रहे, इनकी चिंता है तो सिर्फसत्ता प्राप्ति की। सत्ता सुख की प्रबल लालसा के समक्ष आम जनता का सुख किसी कोने में सिसकने को मजबूर है। लेकिन अब और नहीं! आम जनता आगे आए, युवा पीढ़ी नेतृत्व करे और स्वार्थ आधारित इस 'राज-इच्छा' को दफना दें।
प्रमाण मौजूद हैं इस प्रवृत्ति के विकास- विरोधी खतरनाक अंजाम के। बिहार का उदाहरण देना चाहूंगा। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव ने अपने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से बिहार के (अविभाजित) पूरे समाज को जातीय आधार पर विभाजित कर डाला। विकास की कीमत पर जातीयता को प्राथमिकता दी गई। नतीजतन भ्रष्टाचार के दानव ने अपने हाथ-पैर फैलाने शुरू कर दिए। प्रबुद्ध वर्ग की आपत्ति-प्रतिरोध को निर्ममतापूर्वक कुचलकर जातीयता और सिर्फ जातीयता का प्रचार-प्रसार  किया गया। परिणामस्वरुप राजनीतिक लाभ उठाते हुए लालू यादव व उनके परिवार ने लगातार पंद्रह वर्षों तक बिहार पर राज किया। किंतु इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि उन पंद्रह वर्ष के शासन के दरम्यान बिहार में विकास के नाम पर एक भी 'लाल ईंट' नहीं लगी। पहले से ही पिछड़ा बिहार और पिछड़ गया। अराजकता फैली, भय- आतंक  ने पांव पसारे । उस काल का दंश आज भी महसूस किया जाता है। यह एक उदाहरण जातीयता के खिलाफ राष्ट्रीय जागृति के लिए है।
क्या देश का कोई राज्य उपर्युक्त 'बिहार-मंचन' चाहेगा? सवाल ही पैदा नहीं होता। अब तो स्वयं बिहार भी नहीं।
इसे चिन्हित कर दिया जाए कि सांप्रदायिकता से कहीं अधिक खतरनाक जातीयता का रोग है। फिर दलित-राग की गूंज को अनुमति क्यों ? वह भी जब इसका इस्तेमाल जाति-विशेष उत्थान के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए किया जा रहा है। कांग्रेस जब सत्ता में थी तब उसने 'मुस्लिम-वोटबैंक' की राजनीति को सींचा था। विपक्ष में आने के बाद भी उसकी नीति में कोई बदलाव नहीं आया। दु:खद रूप से इसकी काट के रूप में 'दलित -वोटबैंक' की राजनीति को पैदा किया गया है। हैरानी इस बात पर है कि वर्तमान सत्तापक्ष भाजपा इसे उर्वरक प्रदान कर रही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए धर्म-संप्रदाय या जाति के नाम पर समाज के विभाजन की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती। चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा हो, मुलायम की सपा हो या फिर मायावती की बसपा ! चूंकि सभी के अपने -अपने स्वार्थ हैं, सत्ता और विपक्ष दोनों इसे हवा देते रहेंगे। लेकिन समाज इस विषाक्त हवा को गले के नीचे क्यों उतारे? समाज और व्यापक राष्ट्रहित के लिए संविधान और कानून मौजूद हैं। इनका उपयोग हो।
जब धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते, इनका दुरूपयोग नहीं किया जा सकता, तब फिर जाति के नाम पर क्यों? चुनाव आयोग पहल करे! धर्म और संप्रदाय की भांति जाति अर्थात दलित आदि के नाम पर वोट मांगे जाने को अपराध घोषित किया जाय। इन नाम पर वोट की राजनीति करनेवालों को अयोग्य घोषित कर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। जिस प्रकार जाति-सूचक संबोधन कानूनन अपराध है उसी प्रकार समुदाय-जाति के नाम पर वोट मांगे जाने को भी संज्ञेय अपराध घोषित किया जाए।