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Sunday, June 26, 2016

चेत जाएं चेतनाहीन चेतन भगत!


सिनेमा हॉल में बहुविवादित 'उड़ता पंजाब' देख रही एक 23 वर्षीय युवती बीच में ही हॉल में उठ खड़ी हुई और तेजी से बाहर निकल गई। बाहर अपने मोबाइल से उसने अपनी एक सहेली को फोन किया, '.... ओह इतनी गालियां..... ऐसी-ऐसी गालियां... ऐसी फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति किसने दी....? बर्दाश्त नहीं हुआ, मैं हॉल से बाहर आ गई...' 
'उड़ता पंजाब' पर वर्तमान युवा पीढ़ी की यह प्रतिक्रिया चिंतन का विषय है। स्वयं को बुद्धिजीवी, चिंतक, लेखक व समाज सुधारक बतानेवाले उपन्यासकार चेतन भगत फिल्म के प्रति इस नकारात्मक प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करेंगे, किंतु सच यही है। आश्चर्य है कि चेतन भगत ने फिल्म को सामाजिक व सराहनीय चिन्हित किया है। एक चिंतक के रूप में चेतन भगत के शब्दों को समाज का एक वर्ग स्वीकार भी कर सकता है, किंतु जब वे 'उड़ता पंजाब' के बहाने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी को विदा करने की मांग करते हैं तब उनकी घोर पूर्वाग्रही, ओछी, निम्न मानसिकता चिन्हित होती है। पहलाज निहलानी को 'कु-संस्कारी चमचा'  व अयोग्य बता कर चेतन भगत ने वस्तुत: अब तक की अपनी अर्जित उपलब्धियों पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
एक हिन्दी दैनिक में 'निहलानी को इसलिए विदा करें' शीर्षक के अंतर्गत चेतन भगत ने निहायत ही भद्दे तरीके से अपनी पूर्वाग्रही सोच को प्रस्तुत करते हुए निहलानी को निकम्मा, नालायक साबित करने की कोशिश की है। विरोधाभास से भरा चेतन का आलेख निहलानी को तो नहीं स्वयं चेतन के ही 'चमचा' होने की चुगली कर रहा है।  युवाओं के समक्ष अश्लीलता परोस पूरे समाज को भ्रष्ट करने सक्रिय गुट का चमचा! निहलानी को अयोग्य और नासमझ बतानेवाले चेतन भगत  इस तथ्य को भूल गए प्रतीत होते हैं कि निहलानी उस समय से फिल्मी दुनिया में मौजूद हैं जब चेतन का जन्म भी नहीं हुआ होगा। अपने उपन्यासों और उनके द्वारा लिखित कहानियों पर बनी एक जोड़ी फिल्म से चर्चा में आए चेतन भगत  यह न भूलें कि 'बेस्ट सेलर' के अपने हथकंडे होते हैं, वर्ग विशेष की पसंद का पाश्र्व होता है।  किसी जमाने में कुशवाहा 'कांत' और प्यारेलाल 'आवारा' की पुस्तकें भीं 'बेस्ट सेलर' हुआ करती थीं। 'महिमामंडन' के आवरण में सच पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।  झूठ कभी न कभी अनावृत्त हो ही जाता है। चेतन भगत कोई अपवाद नहीं।
चेतन भगत बताते हैं 'कि उड़ता पंजाब' की काफी सराहना हुई और 'बॉक्स ऑफिस' पर भी प्रदर्शन अच्छा रहा। बिलकुल गलत! सचाई कुछ ओर है। पंजाब और दिल्ली को छोड़कर पूरे देश में 'उड़ता पंजाब' एक 'फ्लॉप' फिल्म साबित हुई। पंजाब और दिल्ली में मिली आंशिक सफलता का कारण 'सेंसर बोर्ड' की आपत्तियों के बाद निर्माता अनुराग कश्यप द्वारा आक्रामक ढंग से प्रचार करना रहा। 'सेंसर' की आपत्तियों वाले दृश्यों को अनुराग कश्यप ने प्रचारित कर पंजाब और सटे दिल्ली के दर्शकों के दिलों में उत्सुकता जागृत कर दी थी। फिल्म प्रदर्शन के बाद यहां के लोग इसी उत्सुकता से प्रेरित हो वास्तविकता जानने के लिए आरम्भ के तीन दिनों शुक्रवार, शनिवार और रविवार को सिनेमा हॉल में पहुंचे। किंतु सोमवार से पंजाब और दिल्ली में भी कुछ दर्शक ही सिनेमा हाल में पहुंचे। 'सक्सेस पार्टी' आयोजित कर किसी फिल्म को 'सक्सेसफुल' नहीं बनाया जा सकता।  और हां, चेतन की जानकारी के लिए कि पड़ोसी पाकिस्तान में भी लगभग 100 'कट्स' के बाद उड़ता पंजाब को प्रदर्शन की अनुमति मिली है। आश्चर्य है कि चेतन भगत इस सचाई से मुंह मोड़ गए।
भगत 'प्रिय सिनेमा' और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति इंसाफ की दलील देते हैं। वे भूल गए कि 'प्रिय सिनेमा' का अर्थ हॉलीवुड नहीं होता। अभिव्यक्ति की आजादी भद्दे द्विअर्थी संवाद और अश्लील दृश्य परोसना नहीं होता। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हम समाज, विशेषकर युवा वर्ग के मन - मस्तिष्क में अश्लील गालियों और द्विअर्थी संवादों का शब्दकोश तैयार नहीं कर सकते।  चेतन भगत जी, अभिव्यक्ति की आजादी देश, समाज को 'संस्कारी' बनाने के लिए प्रयुक्त होती है न कि 'कु-संस्कारी'।
पहलाज निहलानी को स्वयंभू संस्कारी, मोदी चमचा और 'राजनीति की सीढिय़ां' चढऩे के उत्सुक व्यक्ति  के रूप में प्रस्तुत कर चेतन भगत ने खुद को  'कु-संस्कारी' घोषित कर डाला है। भारत देश 'संस्कारी' है और 'संस्कारी' ही बना रहेगा। अनुराग कश्यप सरीखे लोग चाहे जितनी कोशिश कर लें, कानून की कमजोरियों का लाभ उठा अपनी मनमानी कर लें, देश का बहुमत ऐसे लोगों को हमेशा नकारता रहेगा। आश्चर्य है कि चेतन भगत इस तथ्य को भूल गए कि पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में मौजूदा 'सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952' में निर्धारित नियमों व दिशा-निर्देश के अनुरूप फैसले लेते रहे। क्या किसी अध्यक्ष को इससे इतर फैसले लेने का अधिकार है? कानून सम्मत जायज फैसलों के कारण निहलानी को 'संस्कारी' बता व्यंग करने वाले निश्चय ही परम्परागत 'कु-संस्कारी' होंगे।  स्वयं चेतन भगत आलोच्य आलेख में कहते हैं कि '' मौजूदा सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 में ऐसी भाषा है जो लगभग किसी भी फिल्म को नैतिकता के नाम पर प्रतिबंधित कर सकती है..... इसमें नैतिक मानदंडों को ठीक-ठीक परिभाषित भी नहीं किया गया है। '' फिर निहलानी दोषी कैसे हो गए? 'राजनीति की सीढिय़ां' चढऩे संबंधी चेतन भगत का आरोप भी हास्यास्पद है। निहलानी 1989 से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में जुड़े रहे हैं। नरेंद्र मोदी की कार्यशैली व व्यक्तित्व के प्रशंसक निहलानी तब से हैं, जब मोदी मुख्यमंत्री भी नहीं बने थे। उनके नेतृत्व में विश्वास प्रकट करते हुए ही उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व हर-घर मोदी, घर-घर मोदी नामक एक 'वीडियो' बनाया था।  'मेरा देश है महान, मेरा देश है जवान , भारत को स्वच्छ बनाना है, जो सपना देखा बापू-मोदी ने उसे मिलजुलकर पूरा करना है।' संदेश वाले इस वीडियो को मशहूर फिल्म  'प्रेमरतन धन पायो' के साथ जोड़ा गया था, जिसकी पूरे देश में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। 'वीडियो' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यों की सराहना की गई थी। निहलानी ने ये सब किसी राजनीतिक पद प्राप्ति की लालसा से नहीं किया। अगर ऐसी इच्छा होती तो जानकार पुष्टि करेंगे कि पहलाज निहलानी बहुत पहले ही 'पद' प्राप्त कर सकते थे। चेतन भगत की जानकारी के लिए बता दूं कि, सन 2003 में ही जब रविशंकर प्रसाद सूचना प्रसारण मंत्री थे तब निहलानी को 'पद' की पेशकश की गई थी। निहलानी ने ठुकरा दिया था।
चेतन भगत इन वजहों से निहलानी को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पद से हटा दने की मांग करते समय भूल जाते हैं कि इससे भाजपा की छवि धूमिल नहीं हुई बल्कि, आभामंडल में इजाफा हुआ है।  'चमचा' प्रसंग' का उल्लेख कर चेतन भगत ने स्वयं को एक बुद्धिहीन चिंतक के रूप में प्रस्तुत कर डाला है। जिस साक्षात्कार में पहलाज निहलानी को ऐसा कहते हुए दिखलाया गया, क्या उसमें साफ-साफ नहीं दिखता कि 'चमचा' शब्द निहलानी के मुंह में जबरिया डाला गया? महान बुद्धिजीवी, 'बेस्ट सेलर', उपन्यासों के लेखक चेतन भगत जब शब्द के साथ बलात्कार करते दिखें तब निश्चय ही उनकी भत्र्सना की जानी चाहिए। चेतन भगत लिखित कहानियों पर बनी फिल्मों की कहानियां हीं वस्तुत: संदेहों के घेरे में हैंं। उनकी कहानियों पर करन जौहर ने जो फिल्में बनाईं, जानकार बताते हैं कि वे पहले ही बनीं फिल्मों यथा 'एक दूजे के लिए' व 'पहली झलक' से चोरी की गईं थीं। उनके प्रकाशित उपन्यासों की कथावस्तु भी, जानकार बताते हैं कि  बाहर से 'उड़ाई' गई थी। ऐसे चेतन भगत जिसकी विश्वसनीयता स्वयं संदेहों के घेरे में हो पहलाज निहलानी जैसे व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालता है तो, उसके छींटे स्वाभाविक रूप से स्वयं उनके चेहरे पर पड़ेंगे। ऐसा होना शुरू भी हो गया है। हां, इस पूरे प्रसंग में चेतन भगत ने समाधान के रूप में 'सिनेमेटोग्राफ एक्ट' में संशोधन का जो सुझाव दिया है उसे मेरे अतिरिक्त अन्य लोग भी स्वीकार करेंगे।

नगालैंड का अलग झंडा और पासपोर्ट वाली सनसनीखेज खबर को पचा गया मीडिया


खतरनाक, अत्यंत ही खतरनाक! मीडिया मंडी के पाठकीय बहिष्कार की पूर्व चेतावनी। अगर ऐसा होता है तो, किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बिरादरी के कुछ सहोदरों के  कु-कर्म ही ऐसे हैं - बाजारू, दलाली, प्रेस्टीच्यूट, चापलूसी के आरोपों से आगे पाठकों के साथ गद्दारी!
पिछले दिनों 3 बड़ी घटनाएं देश में हुईं। पहला देश के एक बड़े व्यावसायिक घराने 'एस्सार' द्वारा कुछ नेताओं, व्यवसायियों, कलाकारों, मीडिया कर्मियों आदि के फोन टेपिंग का मामला। दूसरा भारत के एक राज्य नगालैंड के लिए अलग झंडा और पासपोर्ट पर केंद्र सरकार की सहमति। तीसरा, हरियाणा राज्यसभा चुनाव में 'कलम-स्याही कांड'। ये ऐसी खबरें थीं जिनका राष्ट्रीय महत्व था, पाठकों-दर्शकों को तथ्यों की जानकारी दी जानी चाहिए थी। लोकतंत्र में हर नागरिक का यह अधिकार है। मीडिया का दायित्व है कि वह ऐसी जानकारियों से देश को अवगत कराए। किंतु, स्वार्थ, प्रलोभन और दबाव को आत्मसात कर मीडिया ने इन खबरों से पाठकों-दर्शकों को वंचित करने की कोशिशें कीं। वह तो कुछ 'अपवाद' थे जिन्होंने उपलब्ध सीमित संसाधनों व मंच से जानकारियां पाठकों-दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश की। सचमुच मीडिया मंडी के लिए शर्मनाक घटना विकासक्रम है।
'नगालैंड का अलग झंडा और पासपोर्ट होगा'...! ...तमाम अन्य चौंकाने वाली बातों के साथ यह भी उस शांति समझौते का हिस्सा है जो अगस्त 2015 की शुरुआत में केंद्र और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (इज़ाक मुइवा) के बीच हुआ था। पिछले कुछ दिनों से उत्तर पूर्व के अखबारों में इस बात को लेकर काफी चर्चा है, लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसका रत्ती भर भी जिक्र नहीं है। योग-तमाशे की चकमक छवियां गढऩे और प्रसारित करने में जुटा मीडिया दरअसल, तमाम जरूरी चीजें छिपाने का उपकरण बन गया है। न सबसे तेज 'आज तक', न आपको आगे रखने वाला 'एबीपी न्यूज' और न ही राष्ट्रवाद के नाम पर नफरत और युद्धोन्माद फैलाने वाला 'टाइम्स नाऊ' और उसके तमाम क्लोन, किसी भी चैनल में इसकी चर्चा नहीं है। हिंदी के अखबारों की तो बात ही जाने दीजिए, 'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'इंडियन एक्सप्रेस' तक इस मुद्दे पर खामोश हैं जबकि पिछले कुछ दिनों से यह मुद्दा सोशल मीडिया में छाया हुआ है। केंद्र सरकार भी सन्नाटा खींचे हुए थी। बाद में कुछ सकुचाते हुए गृहराज्यमंत्री किरन रिजीजू ने कहा है कि अलग झंडे और पासपोर्ट की मांग अभी मानी नहीं गई हैं, लेकिन समझौते के जानकार इस पर सरकार की सहमति बताने पर अड़े हैं। बहरहाल, असल मुद्दा है कि मीडिया चुप क्यों है ? वह सच्चाई बताने से परहेज क्यों कर रहा है? वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी ने इसे शर्मनाक बताते हुए पूछा है कि क्या ऐसे 'मीडिया' के बहिष्कार का वक्त आ गया है?
पंकज चतुर्वेदी बताते हैं कि जिन दो खबरों को मैं अखबारों में तलाश रहा था, हिंदी के किसी भी अखबार में नहीं मिली, एक है नगालैंड में आतंकवादियों के साथ समझौता कर देश में नई रीत लागू करने की और दूसरी हरियाणा में भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे बड़े घोटाले की जांच की। किसी भी अखबार ने इसे स्थान नहीं दिया। मीडिया के यह हालात चिंता का सबब हैं, यह तो आपातकाल से भी बदतर हालात हैं कि योग पर चार चार पेज रंगने वाले देश व समाज के सरोकार की खबरों को पाठकों से ना केवल छुपा कर बेईमानी कर रहे हैं, बल्कि अपनी विश्वसनीयता और स्वत़त्रता को गिरवी रख रहे हैं। ये खबरे हैं-
1. साल 2015 में जिस नगा समझौते को मोदी सरकार ने देख के लिए खुशखबरी बताया था, अब कुछ समाचारों ने उसके प्रावधानों पर सवाल खड़े कर दिए हैं. समाचारों के अनुसार नगालैंड में शांति समझौते के लिए भारत सरकार और विद्रोही समूह हृस्ष्टहृ-ढ्ढरू के बीच समझौते के अनुसार नगालैंड के लोग अपना अलग झंडा और पासपोर्ट रख सकेंगे.
आश्चर्यजनक रूप से इस बात का खुलासा समझौता होने के लगभग 1 साल बाद हुआ है और भारत सरकार ने भी इस पर चुप्पी साधी है. भारत की मुख्यधारा की मीडिया ने भी इस पर कोई समाचार नहीं प्रकाशित किया है जबकि उत्तर पूर्व के स्थानीय समाचार पत्रों ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया है .
हृस्ष्टहृ-ढ्ढरू के स्वघोषित गृह मंत्री किलो किनोंसेर के अनुसार भारत सरकार ने उनकी अलग झंडे और पासपोर्ट की मांग मान ली है और यह 2015 के समझौते का हिस्सा है.
पूर्व विद्रोही समूह के अनुसार हृस्ष्टहृ-ढ्ढरू और भारत सरकार के बीच का यह समझौता नगाओं के अलग राजनीतिक विचारधारा की जीत है.
केंद्र सरकार द्वारा इस समझौते को ऐतिहासिक बताया गया था और स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर कहा था कि देश को खुशखबरी मिलने वाली है.
2. राज्यसभा चुनाव में गलत स्याही के कारण रद्द हुए 13 वोट का मामला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसी मामले को लेकर हरियाणा कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अशोक तंवर, कांग्रेस विधायक किरण चौधरी और कांग्रेस, इनेलो समर्थित उम्मीदवार आरके आनंद चंडीगढ़ के सेक्टर-3 थाने में एफआईआर दर्ज करवाने पहुंचे।
मामले पर एफआईआर दर्ज न होने को लेकर तीनों नेताओं व कांग्रेसियों ने थाने में प्रदर्शन किया। हालांकि इस मामले में पहले ऑनलाइन शिकायत दी जा चुकी है। किरण चौधरी ने आरोप लगया कि पुलिस दबाव में है, इसलिए उनकी शिकायत दर्ज नहीं की जा रही।
गौरतलब है कि आरके आनंद इससे पहले भी चंडीग? आईजी को शिकायत दे चुके हैं। इस बार तीनों ने अंबाला के बीजेपी विधायक असीम गोयल, निर्दलीय विधायक जयप्रकाश, विजयी राज्यसभा उम्मीदवार सुभाष चंद्रा और रिटर्निंग ऑफिसर आरके नांदल के नाम शिकायत दी है।
उल्लेखनीय है कि 11 जून को राज्यसभा के लिए हुए चुनाव में गलत पेन से वोट डालने के कारण 13 वोट रद्द हो गए थे। इनेलो कांग्रेस के कुल 37 वोटों का समर्थन होने पर भी एडवोकेट आरके आनंद हार गए थे। आनंद को कुल 21 'वैलिड' वोट मिले थे। जबकि भाजपा समर्थित सुभाष चंद्रा को 15 वोट ही मिले थे, लेकिन वह दूसरी वरीयता के वोटों की कारण चुनाव जीत गए थे। इस मामले में कांग्रेस और इनेलो ने आरोप लगाया कि सत्तापक्ष और अधिकारियों की मिलीभगत से 'स्याही का खेल' रचा गया था। जिसकी बाद में 13 जून को आर.के. आनंद, अशोक तंवर और कांग्रेस नेता बी.के. हरिप्रसाद ने चुनाव आयोग को दिल्ली में इसकी शिकायत दी। इस के बाद चुनाव आयोग की एक टीम दिल्ली से चंडीगढ़ विधानसभा जांच के लिए पहुंची। इस पूरे घटनाक्रम के बाद 16 जून को चुनाव आयोग ने तीनों प्रत्याशियों को चुनाव की पूरी वीडियो दिखाने का फैसला कर इन्हें वीडियो दिखाई लेकिन जिसके बाद 'इंक कंट्रोवर्सी' ने ओर तूल पकड़ लिया। इसकी जांच में सामने आ गया है कि कतिपय लोगों ने पेन बदला व एक निर्दलीय विधायक ने आनंद समर्थक वोट गिरने के बाद फिर से असली पेन रख दिया.

विदेशी निवेश तो ठीक, सावधानी भी जरूरी !

एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) एक ऐसा अभिशापित शब्द है जिसके उच्चारण के साथ ही नकारात्मक बोध पैदा हो जाता है। इसके लिए जिम्मेदार स्वयं सत्ता में रह चुकी कांग्रेस और आज सत्ता में मौजूद भाजपा रही है। हम इसे एक विडम्बना के रूप में ही लेंगे कि देश के संपूर्ण विकास की रीढ़ आर्थिक विकास को राजनीतिक घालमेल में शामिल कर संदिग्ध बनाया जा रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। विकास की राजनीति और विकास पर राजनीति के अंतर को समझना होगा। एफडीआई के मुद्दे पर यह और भी जरूरी है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने रक्षा, उड्डयन, खाद्य सामग्री व 'सिंगल ब्रांड रिटेल' आदि क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश को मंजूरी दे पूरे देश में एक नई बहस छेड़ दी है। बहस इसकी योग्यता से अलग राजनीतिक अधिक है। चूंकि केंद्र में पूर्व की कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार ने जब पहल करते हुए इन क्षेत्रों में आंशिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश  की अनुमति दी थी तब आज की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध प्रकट किया था। विरोध के तेवर तीखे थे। स्वयं नरेंद्र मोदी ने जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, टिप्पणी की थी 'कांग्रेस पूरे देश को विदेशियों को सौंप देना चाहती है।' कद्दावर भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने कहा था कि कांग्रेस पर अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस का दबाव है। वर्तमान केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो आगे बढ़कर घोषणा कर डाली थी कि 'जीवन की आखिरी सांस तक हम एफडीआई का विरोध करते रहेंगे।' इस पाश्र्व में  विपक्ष का हमला स्वाभाविक है।  किंतु यह राजनीति है। यर्थाथ यह कि देश को निवेश चाहिए।  तथ्य यह भी कि कांग्रेस, भाजपा दोनों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में हैं। आंशिक निवेश का कभी विरोध करनेवाली भाजपा आज अगर संपूर्ण निवेश की पक्षधर है तब निश्चय ही इसका कारण देश की वर्तमान जरूरतें हैं। वर्तमान परिस्थितियां हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मद्देनजर आर्थिक मोर्चे पर स्थिरता के लिए जूझ रहे भारत को विदेशी निवेश की जरूरत है, इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर देर से ही सही, भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस सत्य को स्वीकार कर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में फैसला लिया है तब बेहतर होगा कि इसकी आलोचना न कर सकारात्मक पक्ष को देशहित में कैसे उपयोग में लाया जाए, इस पर बहस हो। आलोचना के लिए आलोचना और राजनीति के लिए आलोचना से हमें बचना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने इस निर्णय को 2015 के बाद दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक सुधार निरूपित किया है तो बिलकुल ठीक ही है। सरकार का यह दावा भी गलत नहीं कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को पूरी तरह उदार बना देने से भारत में रोजगार के नये-नये अवसर पैदा होंगे। हां, रक्षा क्षेत्र में शत-प्रतिशत निवेश की अनुमति को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताए जाने को पूर्णत: निराधार भी नहीं बताया जा सकता। सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत ही संवेदनशील इस क्षेत्र में विदेशी प्रवेश पर शंका स्वाभाविक है। किंतु, यह नहीं भूला जाना चाहिए कि भारत  न तो कमजोर है और न ही बुद्धिहीन कि ऐसे खतरों से निपट नहीं सकता। इस पर आवश्यक सावधानी रखने के प्रति भी सरकार ने निर्णय के पूर्व अवश्य विचार-विमर्श किया होगा। सरकार आवश्यक सावधानियां बरतेगी, ऐसी आशा की जा सकती है। इस बात की भी सावधानी बरती जानी चाहिए कि निवेश करनेवाली विदेशी कम्पनियां कहीं 'मालिक' बन रोजगार के माध्यम से हमारे युवाओं को सिर्फ 'नौकर' न बना डालें।

...तो खून-खराबा हो जाएगा! ( सनकी स्वामी की नई सनक! )


अपने चरित्र और राजनीतिक समीक्षकों की शंका के अनुरूप भाजपा के विवादास्पद सांसद सुब्रमण्यम स्वामी की सनक है कि रुकती ही नहीं। अपनी ही सरकार और पार्टी के कुछ लोगों को निशाने पर रखनेवाले इस घोर अविश्वसनीय स्वामी ने चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने अनुसासन तोड़ दिया तो खून-खराबा हो जाएगा। अपने अनुसासन के लिए विख्यात भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी ऐसी दु:स्थिति की कल्पना नहीं की होगी कि जब उनका अपना सांसद शिष्टता और अनुशासन की सारी मर्यादा तोड़ खून-खराबे की बाते करने लगेगा।
पिछले दिनों जब स्वामी ने केंद्र सरकार के मुख्य वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम पर गंभीर तीखे आरोप लगाए थे तब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उन्हें अनुशासन की सीमा में रहने की सलाह दी थी। जेटली की इस सलाह से बिफरे सुब्रमण्यम स्वामी ने एक ऐसा ट्वीट कर दिया जिससे पूरी पार्टी और केंद्र सरकार सकते में आ गई है।
स्वामी ने ट्वीट में लिखा कि 'मुझे बिना मांगे अनुशासन में रहने की सलाह देनेवालों को यह अंदाज नहीं है कि अगर मैंने अनुशासन तोड़ दिया तो खून-खराबा हो जाएगा। ' भाजपा का कोई वरिष्ठ सांसद खून-खराबे की बात करे, यह उसके चाल,चरित्र,चेहरा के घोष वाक्य को सीधी-सीध चुनौती है। भाजपा नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच ताजा टिप्पणी को लेकर घोर असंतोष है। पार्टी के अंदर जो वर्ग किन्हीं कारणों से स्वामी को समर्थन दे रहा है वह भी खून-खराबे वाली बात को पचा नहीं पा रहा है। यह तो बिलकुल सड़कछाप नेता की बात हो गई। लगता है स्वामी अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं अन्यथा स्वयं के सुशिक्षित, सुसंस्कृत होने का दावा करनेवाले 'हार्वर्ड रिटर्न ' सुब्रमण्यम स्वामी ऐसी घटिया बात नहीं करते। भाजपा नेतृत्व और संघ दोनों स्वामी की ताजा सनक से चिंतित हैं।
 स्वामी ने अपने ट्वीट में किसी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन साफ है कि उनका इशारा जेटली की ओर ही था। यह तब और साफ हो गया जब एक दूसरे ट्वीट में स्वामी ने लिखा कि ' विदेश यात्रा के दौरान मंत्रियों को पारम्परिक आधुनिक भारतीय ड्रेस पहनना चाहिए। कोट-टाई में वे वेटर जैसे दिखते हैं।' चूकि स्वामी के ट्वीट वाले दिन ही अखबारों में अपनी विदेश यात्रा में अरुण जेटली की कोट -टाई पहने तस्वीर छपी है, स्वामी का इशारा साफ है।
रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन, वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम और आर्थिक मामलों के सचिव शशिकांत दास के खिलाफ गंभीर आरोप लगानेवाले स्वामी के खिलाफ केंद्र सरकार के बड़े अधिकार लामबंद होने लगे हैं। इन अधिकारियों ने साफ कह दिया है कि अगर स्वामी पर अंकुश नहीं लगा तो वे भारत सरकार को मुश्किल में डाल देंगे। सरकारी अधिकारियों का यह रुख चिंताजनक है। पूरे प्रसंग में सर्वाधिक विस्मयकारी प्रश्न यह पूछा जा रहा है कि आखिर स्वामी किसकी शह पर इतना उछल रहे हैं? यह सवाल तब गंभीरता से पूछा गया जब स्वामी ने जेटली को उनकी औकात बताते हुए कह डाला कि 'जेटली से मेरा कोई लेना-देना नहीं है।  जरूरत पडऩे पर मैं प्रधानमंत्री मोदी या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से बात करुंगा।' राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि पार्टी का एक वर्ग अपने किसी खास मकसद की पूर्ति के लिए स्वामी का 'उपयोग' कर रहा है। उन्हें सत्ताशीर्ष का ही नहीं बल्कि संघ का भी समर्थन प्राप्त है। कतिपय आर्थिक मुद्दों पर सरकार की नीति निर्णयों से क्षुब्ध संघ आर्थिक क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन चाहता है। इधर स्वामी भी अर्थव्यवस्था व वित्त मंत्रालय को लेकर आक्रामक हैं। स्वामी के कदमों से विपक्ष को केंद्र सरकार को घेरने का अवसर मिल गया है। कारण और संभावित परिणाम से पृथक यह तो तय है कि केंद्र सरकार और भाजपा संगठन में समानांतर शक्ति केंद्र के पैदा होने के संकेत मिलने लगे हैं। मात्र दो वर्ष पूर्व ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा की यह स्थिति हानिकारक सिद्ध होगी। भाजपा व केंद्र की मोदी सरकार से लोगों ने बड़ी-बड़ी आशाएं लगा रखी हैं। आम जनता की अपेक्षा है कि पूर्व की कांग्रेस नेतृत्व की सरकारों के विपरीत मोदी सरकार सत्ता में परिवर्तन ला भ्रष्टाचार मुक्त काम करनेवाली सरकार के रूप में पहचान बनाएगी। ऐसे में स्वामी जैसे विघटनकारी तत्वों को अगर समर्थन, प्रश्रय मिलता है तो मोदी सरकार लोगों की आकाक्षांओं को पूरा कर पाएगी इसमें संदेह है। अगर आरोप सही है कि किसी विशेष 'योजना' को क्रियान्वित करने के लिए स्वामी का उपयोग किया जा रहा है तो यह एक अत्यंत ही गलत हथकंडा साबित होगा। गलत परम्परा की नींव पड़ेगी। देश की जनता सरल व पारदर्शी सत्ता की आकांक्षी है। 'योजना' व  'लक्ष्य' की पूर्ति के लिए अन्य सरल उपाय भी निश्चय ही उपलब्ध होंगे। स्वामी कदापि ऐसे लक्ष्यपूर्ति के लिए उपयोगी नहीं हो सकते।

Friday, June 17, 2016

राजनीतिक स्वार्थ पर कुर्बान विशिष्ट उपलब्धियां !


'क्या भूख न लगने की कोई दवाई है? '
बाल मजदूर के रूप में कार्यरत एक छोटी सी बच्ची ने जब एक डॉक्टर से यह पूछा, तब स्वयं डॉक्टर भी फफक पड़े।
यह है वर्तमान भारत का वर्तमान कड़वा सच! मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसी स्थिति आज ही पैदा हुई है। यह तो प्रतिफल है दशकों पुरानी अनुपयोगी अथवा साजिश आधारित नीतियों का। हमारी प्राथामिकताओं का जो कभी भी वास्तविक आवश्यकता अनुरूप निर्धारित न की गई। राजनीतिक स्वार्थवश अवसरवादी नीतियां बनीं, बनाई जाती रही हैं। सच से मुंह मोड़ काल्पनिक सफलता के ढिंढोरे पीटे गए। ऐसे में आज भी जब कोई बच्ची भूख मारने की दवा ढूंढती है तब निश्चय ही यह अवस्था देश की तथाकथित उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाती है। हर शासनकाल में ऐसा हुआ, आज भी हो रहा है।  राजनीतिक स्वार्थ ने हमारी प्राथमिकताएं बदल डाली हैं। निर्णय-नीतियां राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के पक्ष में जब तैयार की जाएं तब सामान्यजन तो भूखा रहेगा ही। खेद है परिवर्तन की लहर को साथ दे समाज-देश में आमूल-चूल परिवर्तन का स्वप्न देखनेवाली जनता के पाले में निराशा और निराशा ही आ रही है। क्या राजनीतिक स्वार्थ से ईतर, सत्ता सुख से ईतर, जाति- धर्म व संप्रदाय से ईतर वृहत्तर सामाजिक हित में निर्णय नहीं लिए जा सकते?  नीतियां नहीं बनाई जा सकतीं? कहने-दिखाने को तो सभी ऐसा प्रदर्शित करते हैं किंतु, उनका अंतर्मन राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता साधना के वशीभूत निरंतर समाज-देश को ठगता रहता है। क्या कोई इस सत्य को, इस तथ्य को चुनौती दे सकता है? ईमानदार, नि:स्वार्थ चुनौती तो कभी सामने नहीं आएगी। अगर लगभग साठ दशक की आजादी की यही उपलब्धि है तो धिक्कार है ऐसी आजादी पर!
विशिष्ट क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए सम्मानित  अथवा पुरस्कृत किए जाने की एक परम्परा रही है। ऐसे सम्मान पा लोग गौरवान्वित होते रहे हैं। समाज में इनकी एक विशिष्ट पहचान रही है। किंतु, राजनेताओं, राजदलों ने इनकी 'उपयोगिता' का भी राजनीतिकरण कर डाला।  इनकी विशिष्ट पहचान का उपयोग राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए किया जाने लगा। भला राजनीतिकों को यह कैसे बर्दाश्त होता कि समाज में उनके अतिरिक्त किसी और की  विशिष्ट पहचान हो? चतुर राजनीतिकों ने खेल खेला और दुर्भाग्य कि ये 'विशिष्ट' उनके जाल में फंसते चले गए।  संभवत: जान-बूझकर भी । संभवत:, कारण इनकी अपनी स्वार्थ पूर्ति भी !
पिछले दिनों उच्च सदन अर्थात राज्य सभा के लिए महाराष्ट्र से सत्ता पक्ष ने दो विभूतियों का चयन किया। एक डॉक्टर विकास महात्मे और दूसरे छत्रपति संभाजी राजे। कहा गया कि चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने के कारण डॉ. महात्मे को उच्च सदन में भेजा गया। डॉ. महात्मे ने नेत्र विशेषज्ञ के रूप में गरीबों की नि:शुल्क चिकित्सा कर समाज में काफी सम्मान प्राप्त किया।  एक अच्छे कुशल नेत्र विशेषज्ञ के साथ-साथ डॉ. महात्मे एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में समाज को हमेशा उपलब्ध रहे हैं। विगत दिनों इनके ऐसे योगदान के लिए ही भारत सरकार ने इन्हें पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया था।  कोई आश्चर्य नहीं कि राज्यसभा में भेजे जाने की खबर से प्रशंसक प्रसन्न हुए थे।  किंतु, तब सभी स्तब्ध रह गए, दुखी हुए जब उन्हें यह जानकारी मिली कि डॉ. महात्मे को राज्यसभा का सम्मान चिकित्सा एवं सामाजिक क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए नहीं बल्कि, उनकी जाति 'धनगर' के कारण मिला। धनगर जाति के लोग पिछले कुछ वर्षों से महाराष्ट्र में आरक्षण के लिए संघर्षरत हैं। मांग के पक्ष में धरना-प्रदर्शन भी होते रहे हैं। सच कि स्वयं डॉ. विकास महात्मे भी इनका नेतृत्व करते रहे हैं। डॉक्टर महात्मे की सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए इन्हें व्यापक समर्थन भी मिला और एक अवसर पर स्वयं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस भी धनगर समाज के एक आयोजन में सम्मिलित हुए। धनगर आरक्षण के पक्ष में आंदोलन ने पिछले दिनों महाराष्ट्र में गति प्राप्त कर ली है। किंतु, राजनीतिक मजबूरी ऐसी कि शाब्दिक सहानुभूति से अलग शासन फिलहाल आरक्षण देने में असमर्थ है।  राजनीतिक पंडित बताते हैं कि धनगर समाज की मांग की तीव्रता को कम करने के उद्देश्य से डॉक्टर महात्मे को धनगर प्रतिनिधि के रूप में राज्य सभा के लिए चयन किया गया।  इसकी पुष्टि भी तब हो गई जब स्वयं डॉक्टर महात्मे ने घोषणा की, कि जरूरत पड़ी तो धनगर समाज के आरक्षण के पक्ष में वे राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दे सकते हैं। ध्यान रहे, अभी राज्यसभा के सदस्य के रूप में शपथ लेना शेष है। ऐसे में इस्तीफे की बात कहकर स्वयं डॉक्टर महात्मे ने अपने चयन के महत्व को कम कर डाला। इस बिंदू पर डॉक्टर विकास महात्मे एक सफल चिकित्सक अथवा लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता नहीं बल्कि, एक जातीय नेता के रूप में प्रकट हुए हैं। राजनीतिक स्वार्थ का यही पक्ष विशिष्ट क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलिब्धयों को हाशिए पर रख देता है।
दूसरे नामित संभाजी राजे छत्रपति के साथ भी ऐसा ही हुआ। मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के वंशज और समाजसेवी के रूप में उन्हें राष्ट्रपति की ओर से तब नामित किया गया जब हरिद्वार के अखिल विश्व गायित्री परिवार के प्रमुख डॉक्टर प्रणव पंड्या ने अपना मनोनयन ठुकरा दिया था। तब डा. पंड्या की टिप्पणी थी कि राज्यसभा का माहौल उनके अनुकूल नहीं है। डा. पंड्या की भरपाई के रूप में संभाजी राजे का मनोननय किया गया। सामाजिक क्षेत्र में  उनकी उपलब्धियां रेखांकित की गईं किंतु, इस सच के उभरने में विलंब नहीं हुआ कि संभाजी राजे के मनोनयन का कारण भी उनकी जाति मराठा रही। राज्य का मराठा समाज भी अपने लिए आरक्षण के लिए संघर्षरत है। कांग्रेस नेतृत्व की पिछली महाराष्ट्र सरकार ने मराठा आरक्षण की घोषणा की भी थी किंतु, न्यायालय ने उसे अवैध घोषित कर दिया।  मराठा आरक्षण को वर्तमान सरकार का भी समर्थन प्राप्त है, इसके लिए कानून पड़ताल जारी है। कहते हैं धनगर डॉक्टर महात्मे की तरह मराठा संभाजी राजे छत्रपति का राज्यसभा के लिए मनोनयन कर मराठा जाति को संतुष्ट करने की कोशिश की गई है।
आरक्षण का मुद्दा अपनी जगह, मेरी चिंता का कारण यह कि क्या ये उपक्रम विशिष्ट क्षेत्रों में विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा अर्जित विशिष्ट उपलब्धियों का 'राजनीतिक दैत्य' के समक्ष 'बौनाकरण' नहीं है? इनका अपमान नहीं है? दुख और चिंता यह भी कि ऐसे व्यक्ति स्वयं भी राजनीतिक स्वार्थ की बलि चढऩे को तत्पर दिख रहे हैं। राजनीतिक स्वार्थ की सीढिय़ां चढ़ सत्ता सुख भोगने की यह कैसी वासना, जो अपनी ही अर्जित उपलब्धियों को अग्निकुंड में स्वाहा कर दे।
क्या आश्यर्च कि पूरा देश, पूरा समाज राजनीति, राजनीति और सिर्फराजनीति प्रभावित है!

पक्ष-विपक्ष की तरह विभाजित मीडियाकर्मी


कैराना तो एक उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो मीडिया मंडी को बाजार में निर्वस्त्र कर देंगे। दुख तो इस बात का है कि अल्पसंख्या में होने के बावजूद 'मीडिया मंडी' के ये तत्व इसलिए निडरतापूर्वक खुलकर बेशर्मों की तरह अपने कु-कृत्यों को अंजाम दे पाते हैं, क्योंकि शालीन, ईमानदार पत्रकारीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध मीडियाकर्मी खुलकर इन्हें बेनकाब करने सामने नहीं आ रहे। अगर ये मामला संपादकों, पत्रकारों अथवा संचालकों की तुच्छ स्वार्थपूर्ति  के लिए निष्पादित हुआ होता तो संभवत: देश इनका संज्ञान नहीं लेता।  किंतु, यह 'स्वार्थ' विभिन्न राजदलों की लोकतंत्र विरोधी कतिपय साजिशों को अंजाम देने के लिए पूरे किये जाते हैं। ये निश्चय ही राष्ट्रविरोधी, लोकतंत्र विरोधी हैं।
'मीडिया मंडी' में ऐसा कभी नहीं हुआ था! शोरगुल तो पहले भी होते थे, किंतु शेयर दलालों की तरह गला फाड़ चीखने-चिल्लाने सदृश नजारा, वह भी पक्षपातपूर्ण  बिरले ही देखने को मिलते थे। अब हालत यह है कि, कभी समाचार पत्रों में मुद्रित शब्दों को 'ईश्वरीय शब्द' मानने वाले पाठक हतप्रभ हैं कि टेलीविजनों पर प्रसारित समाचारों, विचारों से निकले शब्दों को 'दल्ला' के शब्द क्यों बताए जाने लगे?  ' सोशल मीडिया' जिसके माध्यम से आम जनता अपने विचार, अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करती हैं जरा उस पर एक नजर डाल लें। टीवी के मालिकों, संपादकों, संवाददाताओं व एंकरों को घोर अविश्वसनीय निरूपित करते हुए उन्हें ' दलाल और बिकाऊ' बताती हुई टिप्पणियों की भरमार मिलेगी। गाली-गलौच की सामान्य भाषा से आगे बढ़ते हुए अश्लील शब्दों के इस्तेमाल भी इन महान विभूतियों के खिलाफ आम बात हो गई है। मर्यादा असीमित। यह ठीक है कि इन टिप्पणियों को आम लोगों के विचार के रूप में दस्तावेज नहीं माना जा सकता। अमूमन ऐसी टिप्पणियां प्रायोजित होती हैं। चूंकि सोशल मीडिया पर कोई बंधन नहीं, कोई प्रबंधन, कोई संपादक नहीं, अपनी सुविधा अनुसार राजदल से लेकर मीडिया से जुड़ी संस्थाएं या लोग इसका उपयोग-दुरुपयोग करते रहते हैं। बावजूद इसके, यह सत्य भी अपनी जगह मौजूद है कि चिनगारी ही आग की लपटों में परिविर्तत होती हैं। हां, 'मीडिया मंडी' में ऐसी चिनगारियां स्पष्टत: परिलक्षित हैं। आग में घी डालने का काम स्वार्थी तत्व आसानी से कर जाते हैं।
अभी ताजातरीन उत्तर प्रदेश के कैराना की घटना लें। इलाहाबाद में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अवसर पर भाजपा के एक सांसद ने कथित रूप से346 ऐसे हिंदुओं की सूची जारी की, जो राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक किंतु कैराना में बहुसंख्यक संप्रदाय के लोगों के खौफ से कैराना से पलायन कर चुके थे। एक जनसभा को संबोधित करते हुए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस कथित घटना को गंभीर चिन्हित करते हुए कह डाला कि, इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अर्थात इसका गंभीरता से संज्ञान लिया गया। सूची जारी होने के साथ ही कुछ टेलीविजन कार्यक्रमों व समाचारों ने इसकी तुलना कश्मीर में पंडितों के पलायन से करते हुए अल्पसंख्यक समुदाय पर हल्ला बोल दिया।    उन पर आयोजित चर्चा कार्यक्रमों में इस कथित घटना के लिए राज्य सरकार और कतिपय राजदलों को दोषी ठहराया गया। घटना को सनसनीखेज बनाते हुए बताया गया कि, प्रदेश में बहुसंख्यक समुदाय स्वयं को असुरक्षित महूसस कर रहा है। लेकिन तभी दूसरी ओर कुछ अन्य टेलीविजन के संवाददाताओं ने मौके पर पुहंचकर छानबीन की, सांसद द्वारा जारी सूची में बताए गए नाम- पते पर पहुंचे और रहस्योद्घाटन किया कि सूची में अंकित कई लोगों की वर्षों पहले मृत्यु हो चुकी है, अनेक लोग वर्षों पहले बेहतर भविष्य और रोजगार की तलाश में कैराना छोड़ चुके थे। मजे की बात तो यह कि इस तथ्य के उजागर होने के बावजूद विभिन्न टेलीविजन कार्यक्रमों में पक्ष-विपक्ष की तरह द्वंद हुए और एक-दूसरे की जानकारियों को प्रायोजित निरूपित करने लगे। कार्यक्रमों में पूछा जाने लगा कि कैराना में संप्रदाय विशेष का बचाव क्यों किया जा रहा है? बताया यह भी गया कि कैराना पहुंच छानबीन करने वाले पत्रकार गलत गवाह, गलत तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं। गांव के लोगों को टेलीविजन के पर्दे पर लाकर जबरिया कहलाया गया कि फंला व्यक्ति की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी है और फंला परिवार वर्षों पहले ही गांव छोड़ चुका है, तब उस टेलीविजन संस्थान की मंशा पर संदेह प्रकट होता है। लेकिन आरम्भ में कश्मीरी पंडितों से तुलना करते हुए खबर को सनसनीखेज बनाने वाले टेलीविजन के संपादक , पत्रकार अपनी बातों पर अड़े रहे और गलत सूची पेश करने वाले सांसद का बचाव करते रहे। वे भूल गए कि उनकी खबरों से न केवल प्रदेश बल्कि पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। वे यह भी भूल गए कि, उत्तर प्रदेश में आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दल ऐसे मुद्दे उठा राजनीतिक लाभ लेना चाह रहे हैं।  मीडिया संस्थान यह भी भूल गए कि राजदल अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनका 'उपयोग' कर रहे हैं। क्या 'मीडिया मंडी' से जुड़े संपादक, पत्रकार इतने नासमझ अथवा भोले हैं कि, राजदल उनका आसानी से 'उपयोग ' कर ले? नहीं बिलकुल नहीं। ये तो स्वेच्छा से राजदलों की गोद में जा बैठे हैं। उनसे आलिंगनबद्ध हो पत्रकारीय दुराचार का मंचन कर रहे हैं। यह कृत्य न केवल मीडिया जगत बल्कि संपूर्ण राष्ट्र को शर्मसार करने वाला है। बल्कि अगर दो टूक शब्दों में कहा जाए तो 'मीडिया मंडी' के ऐसे कृत्य ने उन राजनेताओं के शब्दों को सच साबित कर दिया जिन्होंने समय-समय पर मीडिया को 'बाजारू और वेश्या' निरूपित किया था।
कैराना तो एक उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो मीडिया मंडी को बाजार में निर्वस्त्र कर देंगे। दुख तो इस बात का है कि अल्पसंख्या में होने के बावजूद 'मीडिया मंडी' के ये तत्व इसलिए निडरतापूर्वक खुलकर बेशर्मों की तरह अपने कु-कृत्यों को अंजाम दे पाते हैं, क्योंकि शालीन, ईमानदार पत्रकारीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध मीडियाकर्मी खुलकर इन्हें बेनकाब करने सामने नहीं आ रहे। अगर ये मामला संपादकों, पत्रकारों अथवा संचालकों की तुच्छ स्वार्थपूर्ति  के लिए निष्पादित हुआ होता तो संभवत: देश इनका संज्ञान नहीं लेता। किंतु, यह 'स्वार्थ' विभिन्न राजदलों की लोकतंत्र विरोधी कतिपय साजिशों को अंजाम देने के लिए पूरे किये जाते हैं। ये निश्चय ही राष्ट्रविरोधी, लोकतंत्र विरोधी हैं।

Tuesday, June 14, 2016

... राष्ट्रद्रोह है 'मुसलमान मुक्त भारत' का आह्वान!

साध्वी?
नहीं ! मैं साध्वी संबोधन नहीं कर सकता। किसी बदजुबान के लिए यह विशेषण पाप होगा। सिर्फप्राची। संत या साध्वी किसी धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग या समाज के विरुद्ध और इनसे आगे बढ़ते हुए किसी संप्रदाय विशेष को   'खत्म' किए जाने की वकालत कैसे कर सकते हैं? हिंदू संस्कृति और धर्म इस बात की अनुमति नहीं देता है, बल्कि  चर्चा ही नहीं करता। फिर ऐसे किसी बदजुबान को साध्वी कहलाने का हक कैसे दे दिया जाए?
यह पहली बार नहीं है जब प्राची ने अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध विष वमन किया हो। अनेक मौकों पर वह अल्पसंख्यकों को राष्ट्रद्रोही निरूपित करते हुए उनके सफाए का आह्वान कर चुकी हैं। ऐसे -ऐसे कड़वे बोल उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बोले, जो   देश के वर्तमान कानून के अनुसार ही उन्हें राष्ट्रद्रोही घोषित कर डालेंगे। समाज में सांप्रदायिक आधार पर विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य फैलानेवाला राष्ट्रद्रोही ही तो हो सकता है। ये वही प्राची है, जिन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अंग्रेजों का एजेंट करार दिया था। यह कहने से नहीं चुकी थी कि देश को आजादी महात्मा गांधी के तकली कातने से नहीं मिली थी। इसी प्राची ने आरोप लगाया था कि अंग्रेजों के जमाने में पूरे देश में जहां सिर्फ 300 कत्लगाह थे अब वे बढ़कर 30,000 हो गए हैं। इस आरोप के क्रम में प्राची यह भूल गई थी कि देश का सबसे बड़ा कत्लगाह गुजरात में है। और यह भी कि न केवल इस कत्लगाह का मालिक बल्कि देश के अधिकांश कत्लगाहों के मालिक कोई और नहीं हिंदू ही हैं।  जब दादरी कांड में अखलाक की हत्या हुई तो तत्काल बोल पड़ी थीं कि गौ-मांस खानेवालों का यही हश्र होना चाहिए। यहां भी प्राची भूल गईं कि स्वयं केंद्र सरकार में एक ऐसे मंत्री मौजूद हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ''हां, मैं 'बीफ' खाता हूं, कौन रोकेगा मुझे?'' संभवत: प्राची को अभी भी इनकी हत्या की प्रतीक्षा हो। जम्मू में अमरनाथ और वैष्णोदेवी जानेवाले यात्रियों पर हमले की संभावना के बीच प्राची ने चेतावनी दी थी कि अगर ऐसा हुआ तो हज यात्रियों को इसका खामियाजा भुगतना होगा। और तो और, पठानकोट हमले के बाद उनका विवादित बयान आया कि सेना में बैठे मुस्लिम अफसरों की जांच हो कि कहीं उनके तार पाकिस्तान से तो जुड़े नहीं हैं। मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या के जवाब में प्राची ने हिंदू महिलाओं से आह्वान किया था कि वे भी पांच-पांच बच्चे पैदा करें।
सभी बोल कानून विरोधी, संविधान विरोधी और राष्ट्र विरोधी। फिर भी साध्वी के मुलम्मे के साथ समाज के नेतृत्व करने का दावा करनेवाली प्राची कानून को ठेंगा दिखाते हुए, देश के शासकों को ठेंगा दिखाते हुए बेखौफ छुट्टा घूम रही हैं, समाज और देश को सांप्रदायिक आग में झोंकने वाले बयान देती जा रही हैं और देती ही जा रही हैं। और आश्चर्य कि कोई रोकनेवाला नहीं, कोई कानूनी कार्रवाई नहीं। 'राजनीति' करते हुए उनके बयानों को निजी बताते हुए लोग पल्ला तो झाड़ लेते हैं किंतु  अपेक्षित कार्रवाई नहीं की जाती। फिर प्राची 'उत्साहित' हो तो क्यों नहीं?
इस बार तो उन्होंने हद ही कर दी। प्राची ने रुडकी में कहा कि '' हमने 'कांग्रेस मुक्त' भारत का स्वप्न  पूरा कर लिया है। अब समय है मुसलमान मुक्त भारत बनाने का। ''  क्या यह देशद्रोह नहीं? कथित रूप से पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगानेवाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर जेल भेज दिया गया था। गुजरात में आरक्षण के पक्ष में पाटीदार आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले युवा हार्दिक पटेल को भी राजद्रोही निरूपित करते हुए जेल भेज दिया गया। फिर देश में पूरे संवैधानिक अधिकार के साथ रहनेवाले करोड़ों मुलमानों के खिलाफ, उनसे भारत को मुक्त करने का आह्वान करनेवाली प्राची पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं? क्या धर्म-संप्रदाय के आधार पर समाज में वैमनस्य फैलाना कानूनन अपराध नहीं है? क्या एक संप्रदाय विशेष के लोगों से देश को 'मुक्त' किए जाने का आह्वान अलगाववाद और आतंकवाद को प्रोत्साहित नहीं करता? क्या यह आह्वान देश के एक और विभाजन का आगाज नहीं देता? बिलकुल शत प्रतिशत ! इन आरोपों की अपराधी प्राची हैं। आश्चर्य है कि देश के कानून की नजरों में ये क्यों नहीं आ पा रहीं? यहां उल्लेखनीय यह कि प्राची कांग्रेस मुक्त भारत का लक्ष्य प्राप्त कर लेने की बात कह रही है। और चूंकि 'कांग्रेस मुक्त' भारत का नारा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया था, क्या देश यह मान ले कि प्राची प्रधानमंत्री के ही किसी लक्ष्य को आगे बढ़ा रही हैं? सामाजिक और राष्ट्रीय सद्भाव के पक्ष में हर धर्म, संप्रदाय के लोगों को साथ ले विकास मार्ग पर कदमताल करने का आह्वान, बल्कि संकल्प लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा चाहेंगे इस पर देश विश्वास करने को तैयार नहीं। इस पाश्र्व में प्राची का अपराध और गुरूतर हो जाता है, क्योंकि उनके शब्दों से स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि के दागदार होने का खतरा है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने प्राची के वक्तव्य से दूरी बनाते हुए यह अवश्य कहा है कि पार्टी प्राची के बयान से इत्तेफाक नहीं रखती है, यह सवाल पूछा जाएगा कि तब प्राची के खिलाफ कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है? वैश्वीकरण के वर्तमान युग में जब भारत और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं, प्राची का बड़बोलापन भारत को विश्व की नजरों में संदिग्ध बनाता रहेगा। सत्तापक्ष, विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी को प्राची के बड़बोलेपन का उचित संज्ञान लेना ही होगा। अन्यथा यह खतरा मौजूद रहेगा कि लोगबाग  कहीं प्राची के शब्दों को 'सत्ता-प्रेरित' न मान लें। अगर ऐसी 'दुर्घटना' हुई तो तय मानिए कि विकास संबंधी भारत के सभी कार्यक्रम -योजनाएं अपेक्षित परिणाम कभी भी नहीं दे पाएंगी। क्या प्रधानमंत्री मोदी ऐसा चाहेंगे?
दो वर्ष पूर्व केंद्र में सत्ता परिवर्तन के पश्चात 'राष्ट्रीय परिवर्तन' की जो बयार बह रही है उसके सकारात्मक परिणाम तभी मिलेंगे जब 'सबका साथ, सबका विकास' की अवधारणा को ईमानदारी के साथ क्रियान्वित किया जाए।  इसके लिए जरूरी है कि प्राची व उनके जैसी साध्वियों व संतों के राष्ट्रद्रोही क्रिया-कलापों पर अंकुश लगाया जाए। कानून सबके लिए समान है। इसके पालन के मार्ग में 'भगवा' को अपवाद न बनाया जाए। कानून और न्याय जब तक पक्षपात व पूर्वाग्रह से मुक्त रहेंगे लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा। विकासपथ पर भारत को अभी लंबा मार्ग तय करना है। मार्ग में अवरोधक स्वत: प्रकट होंगे, कुछ नैसर्गिक , कुछ राजनीतिक। ऐसे में अगर 'परिवार' ही अवरोधक बन सामने खड़े होते रहेंगे तब विकास तो दूर अराजकता का ऐसा झंझावात पैदा होगा जो व्यवस्था के साथ-साथ प्राचीन मान्यताओं को भी तार-तार कर डालेगा। मैं नहीं समझता कि साफ नीयत प्रधानमंत्री व उनके सहयोगी कुछ ऐसी आपदा को आमंत्रित करना चाहेंगे।

Friday, June 3, 2016

जश्न, जश्न और जश्न !

एक होता है भरे पेट का चिंतन। दूसरा, पेट भरने के लिए चिंतन। दोनों में फर्क उत्तर-दक्षिण की भाँति है। वर्तमान, पूर्व और भावी शासक इसे याद रखें। जश्न के वर्तमान दौर में जनता इन्हें इस कसौटी पर भी कसेगी।
मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे हुए और सरकार तथा संगठन के स्तर पर शृंखलाबद्ध जश्न मनाया गया।  एक ऐसा जश्न जो आजादी के बाद कभी भी किसी सरकार ने 5 वर्ष, 10 वर्ष या 15 वर्ष पूरे होने के बाद भी नहीं मनाया था। पूरे देश को मीडिया के सहयोग से जश्नमय कर दिया गया। सरकारी खजाने से बताते हैं कि 1,000 करोड़ से अधिक इन जश्नों पर खर्च कर दिए गए। बिल्कुल राष्ट्रीय पर्व की तरह विकासपर्व के रूप में ये जश्न मनाया गया। भारत में घोषित राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के प्रचार - प्रसार पर भी कभी इस राशि का अंशमात्र भी व्यय नहीं हुआ। फिर ऐसा क्या चमत्कारिक हो गया था कि किसी एक केंद्र सरकार के कार्यकाल की अवधि के दो वर्ष पूरा होने पर ऐसे जश्न मनाए जाएं? चूंकि यह देश, भारत देश, किसी एक व्यक्ति या संगठन की बपौती नहीं है, जनता का ऐसे जश्नपर सवाल उठाना उनका हक है। फिर क्यों हुआ ऐसा?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी कहा था कि यह 'हाईप' का युग है। सार्वजनिक मंच से प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी। तो क्या प्रधानमंत्री उवाचित इसी शब्द से प्रेरित हो सरकार और संगठन ने 'हाईप' निर्माण हेतु अघोषित राष्ट्रीय उत्सव मनाया? शायद सच यही है। लेकिन इस प्रक्रिया में रणनीतिकार इस अकाट्य तथ्य को भूल गए कि ऐसे जश्न की प्रासंगिकता तभी प्रमाणित होती है जब सामान्य जन की सहभागिता हो। आलोच्य प्रसंग में ऐसी सहभागिता संदिग्ध है। इन जश्नों के माध्यम से सरकार की ओर से लोगों को यह बताने की कोशिश की गई कि सरकार अपने वादों के अनुरूप देश को विकास के रास्ते ले जा रही है और उपलब्धियों का सिलसिला शुरू हो चुका है। बताने की कोशिश की गई कि, लोकसभा चुनाव के दौरान दल ने, विशेषकर नरेंद्र मोदी ने जो वादे किए थे, सत्ता में आने के बाद पार्टी उन्हें पूरी शिद्दत के साथ पूरा कर रही है। उपलब्धियों के नाम पर आर्थिक मोर्चे पर कथित सफलता और विदेशों में भारत की गूंज को पेश किया गया।  सरकार की ओर से बताया गया कि विनिर्माण, ऊर्जा, सॉफ्टवेयर आयात जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त की गई हैं और किसानों व युवाओं के कल्याण के लिए ऐसे कदम उठाए गए जो पहले उपक्षित रहे। दावा किया गया कि यह इकलौती सरकार है जिसने हर दिन एक नई पहल की है।
अब राष्ट्रीय बहस छिड़ गई है कि क्या सचमुच मोदी सरकार की दो वर्ष की कथित उपलब्धियां भविष्य की सफलता की सूचक हैं? सवाल किए जा रहे हैं कि क्या मोदी सरकार ने अपने चुनावी वादों को पूरा किया? सप्रमाण यह कहा जाने लगा है कि आरम्भिक दो वर्ष का कार्यकाल निराशा और विफलतापूर्ण रहा है। आंकड़ों के साथ प्रमाणित किया जाने लगा है कि जीवनोपयोगी उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में इस दौरान कई गुणा वृद्धि हुई है। महंगाई इतनी कि ऐसी वस्तुएं अब सामान्य जन की पहुंच से बाहर की हो गई हैं। रोजगार के मोर्चे पर भी स्पष्टत: अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए हैं। युवा इससे आक्रोशित हैं। कृषि से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादनों में भी गिरावट सामने है। निर्यात में भी गिरावट के संकेत हैं। दावों के अनुरूप विदेशी पूंजी निवेश अभी संदिग्ध है। बैंकिंग क्षेत्र खतरनाक रूप से पतन की ओर जाता दिख रहा है। तकनीकी बाजीगरी के आधार पर प्रस्तुत तर्क चाहे जितना दे लें, जो खतरनाक रूप से दृष्टिगोचर है वह यह कि, एक ओर जहां छोटे -छोटे कर्जदार वसूली की यंत्रणा से आक्रांत हो आत्महत्या तक करने को मजबूर हो रहे हैं, वहीं बड़े पूंजीपतियों के हजारों-लाखों करोड़ के कर्ज एक झटके में माफ कर दिए जा रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि इतिहास में पहली बार बड़े बैंक हजारों करोड़ के घाटे का सामना कर रहे हैं। यह एक ऐसा कड़वा सच है जिसकी सफाई सरकार को देनी ही होगी।
जश्न मना रहे हैं, जरूर मनाएं। लेकिन जब ईमानदार आत्मपरीक्षण को तरजीह देंगे तब सत्ता पक्ष को चिंतन-मनन करना चाहिए कि कथित तमाम उपलब्धियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'कर्मवीर' की जगह 'भाषणवीर' से क्यों नवाजा जा रहा है? 'जुमले' का जुमला क्यों चर्चित है? देश का अल्पायु बच्चा भी आज सशंकित , आतंकित क्यों है? इतने 'हाईप' के बावजूद पूरे देश में अनिश्चितता का वातावरण कैसे कायम हो गया? किसान आत्महत्या की संख्या में निरंतर वृद्धि क्यों हो रही है? धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर समाज में विभाजन की रेखाएं क्यों खिंचती जा रही हैं? गलत ही सही लेकिन विचारधारा विशेष को आम जनता पर थोपने के आरोप क्यों लग रहे हैं? अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त करवाने वाले  राष्ट्रपुरुषों के अपमान का सिलसिला कैसे शुरू हो गया? पिछले 6 दशक की जिन उपलब्धियों के कारण भारत को पूरे संसार में एक विशिष्ट मान्यता प्राप्त हुई, भारत का लोकतंत्र पूरे संसार के लिए अनुकरणीय बना, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए उन्हें नकारात्मकता की स्याही से क्यों रेखांकित किया जा रहा है? निर्माण क्षेत्र में प्रगति का दावा करनेवालों को यह भी बताना होगा कि, पिछले दो वर्षों के दौरान सीमेंट और लोहे का उपयोग लगभग आधा क्यों हो गया? आदि-आदि ! ऐसे अनेक सवाल हैं जिन पर सत्ता पक्ष को आत्मचिंतन करना होगा। लोगों की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर नहीं कि वे अतीत को भूल जाएं। वर्तमान की सफलता का आकलन अतीत के साथ तुलना से ही संभव हो पाता है। 'हाईप' पैदा कर अतीत पर काली चादर डाल वर्तमान को सफेद प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
मोदी सरकार अगर सचमुच एक निर्णायक सरकार के रूप में स्थापित हो जनस्वीकृति प्राप्त करना चाहती है तो, उसे हीन-घृणित दलीय संघर्ष से ऊपर उठ व्यापक राष्ट्रहित में पूरी ईमानदारी के साथ अपने घोषित वाक्य 'सबका साथ सबका विकास' पर अमल करना होगा। इतिहास अगर बदलना ही है तो उस इतिहास को बदल दें जिसने हर सदी -काल में समानता की जगह विषमता को ऊर्जा प्रदान की है। भारत एक संसाधनपूर्ण समृद्ध देश है, इस पर कोई बहस नहीं। इसकी लोकतांत्रिक नीवं बहुत ही मजबूत है।  लेकिन 'मन की बात' करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'भारतीय मन' से अपरिचित नहीं हो सकते। और यह 'भारतीय मन' ही है जो ईमानदार कर्मठ नेतृत्व को तो सिर आखों पर तो बिठाता है, किंतु भ्रष्ट, अयोग्य को गटर में फेंकने से नहीं हिचकता। 2014 का आम चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। लेकिन प्रधानमंत्री जी! सत्य यह भी कि आप के कुनबे में भी अब 2014 के पूर्व के रोगों के कीटाणु प्रवेश करने लगे हैं। एक सही चिकित्सक के रूप में उनको मौत देने की जिम्मेदारी आप पर है। अन्यथा इतिहास दोहाराया जाने की कु-परम्परा से आप परिचित तो होंगे ही!

आधुनिकता के वरण को तैयार पत्रकारिता, किन्तु...?

''पत्रकारों के पैरों के छालों से आज का इतिहास लिखा जाएगा।''
महादेवी वर्मा के इन शब्दों में निहित विश्वास और अपेक्षा स्पष्टत: दृष्टिगोचर है। इन शब्दों के माध्यम से महादेवी वर्मा ने पत्रकारों से जो अपेक्षा व्यक्त की थी, क्या वे पूरी हुईं? विगत 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस पर यह सवाल खड़ा हुआ। वैसे देश के अधिकांश पत्रकारों, मीडिया समूहों और संस्थाओं को इस दिवस की याद नहीं आई। जिन लोगों ने याद रखा वे चिंतन की मुद्रा में अवश्य आए। आतिशी शीशे लेकर वे पत्रकारों के पैरों के छालों को ढूंढने निकले। वैसे छालों को जिनसे महादेवी वर्मा ने आज का इतिहास लिखे जाने की कल्पना की थी। खोजी निराश हुए। छालेयुक्त पैरोंवाले पत्रकार तो नहीं मिले, 'ब्रांडेड' जूतों से सुरक्षित पैरधारक पत्रकार ही उन्हें मिल पाए। हो सकता है कहीं दूर-दराज स्थल में कोई 'अपवाद' मौजूद हो, किंतु खोजी वहां पहुंच नहीं पाए। फिर महादेवी वर्मा की इच्छा की पूर्ति करने वाले इतिहास लेखक करें तो क्या करें?
तो क्या सचमुच पत्रकार और पत्रकारिता इतिहास प्रेरक के योग्य नहीं बन पा रहे? पूर्णत: अविश्वसनीय बन चुके हैं? इतने सुविधाभोगी बन गए हैं कि शपथपूर्वक उनकी ईमानदारी को उद्धृत कर इतिहास में दर्ज करने योग्य कोई नाम न मिले? हां, कड़वा सच यही है! कतिपय राजनेता व अन्य आज अगर पत्रकारों और पत्रकारिता को कोठे पर बैठा देखने लगे हैं, तो दोष इनकी आंखों का नहीं है। दोष हमारे चरित्र का है, हमारे कृत्य का है। पाठकीय अपेक्षा के बिल्कुल उलट आज हम जब सुविधा के सागर में तैरते हुए सत्ता व व्यवस्था का कल्पित स्तुतिगान करते रहेंगे तो हम पर कोई विश्वास करे तो कैसे? भ्रष्ट राजनेता, उद्योगपति व नौकरशाह तो चाहेंगे ही कि हमारी सफेद पोशाक को दागदार बना हमें मुंह छुपाने को विवश कर दें। तभी उनकी सत्ता सुरक्षित रह पाएगी, विस्तार होता रहेगा। पहले भी ऐसा होता था, किंतु एक सीमा के अंदर। आज यह एक विस्तारित कु-प्रथा के रूप में सर्वत्र उपस्थित है। हजारों, लाखों, करोड़ों के भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए सैकड़ा में करोड़ों उपलब्ध कर गौरवशाली पत्रकारिता के पवित्र मंदिर को भ्रष्ट किया जाना अब कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में पत्रकारिता के बड़े-बड़े हस्ताक्षर बेनकाब हो चुके हैं।  टेलीविजन पत्रकारिता के उदय के साथ इस रोग ने कैंसर का रूप ले लिया है। अब मामला सिर्फ संपादकीय कक्ष तक सीमित नहीं है। इनके ऊपर प्रबंधन की बड़ी मांग हॉवी है। संपादकीय कक्ष को पंगु बना प्रबंधन पत्रकारिता को बाजारू बनाने में हिचकता नहीं। स्वार्थ और लोभवश संपादक और उसके अधीनस्थ प्रबंधन के इस खेल के भागीदार बन जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज की पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है। सूचना अर्थात सही खबर और निष्पक्ष विश्लेषण की जगह प्रायोजित खबरें और पक्ष-विशेष के लाभार्थ तैयार विश्लेषण प्रस्तुत किए जाने लगे हैं। निश्चय ही यह पाठकों, समाज व देश के साथ छल है, विश्वासघात है।
समाचार पत्रों -पत्रिकाओं में इन दिनों  जो घटिया सामग्री परोसी जा रही है, उसके लिए प्रबंधन और उसकी हां में हां मिलाने वाला संपादकीय कक्ष पाठकीय रुचि और मांग की दुहाई देता है। इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता । सच तो यह है कि अच्छी, स्वस्थ पाठकीय रुचि जागृत करने की जिम्मेदारी भी समाचार पत्रों-पत्रिकाओं पर है। पाठकीय रुचि का बहाना तो वे तत्व बनाते हैं जो एक सर्वथा अरुचिकर भ्रष्ट समाज की स्थापना के पक्षधर हैं। अपनी तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए वे पूरे समाज को भ्रष्ट देखना चाहते हैं। पिछले दिनों एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के स्थानीय संपादक यह कहते हुए पाए गए थे कि, 'हां! हम पाठकों को 'करप्ट' करने के लिए आए हैं।' इस मानसिकता का न केवल विरोध हो बल्कि इस पर पूर्णविराम सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पाठकों की रुचि के सवाल पहले भी खड़े होते रहे हैं। लेकिन समाज-देश के प्रति समर्पित संपादकों ने इस तर्क पर कभी भी समझौते नहीं किए। 19 वीं शताब्दी में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादन में 'विशाल भारत' ने जो उंचाइयां प्राप्त की थी, जो पाठकीय स्वीकृति उसे मिली थी,वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। पंडित चतुर्वेदी ने कथित पाठकीय रुचि के तर्क की चर्चा करते हुए एक बार लिखा था कि,'पाठकों की रुचि को प्रधानता मैंने कभी नहीं दी, सात्विक मानसिक भोजन तैयार करना ही हम लोगों ने अपना परम कर्तव्य समझा। पाठकों को यह रुचता है या नहीं, इसे हमने कभी सामने नहीं रखा। और इसीलिए 'विशाल भारत' को सस्ती लोकप्रियता कभी नहीं मिली। 'विशाल भारत' ने गंभीर पाठकों और गंभीर लेखकों को सदैव आकर्षित किया।' निश्चय ही पंडित चतुर्वेदी का आशय 'अरूचिकर' रूचि से रहा होगा। यह सस्ती लोकप्रियता ही है, जिसे अर्जित कर पत्र-पत्रकार व संचालक स्वयं को महिमामंडित करते हैं। खेद है कि वे सस्तेपन की लज्जा से उठनेवाली दुर्गंध को नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में अगर पत्रकारीय वातावरण दुर्गंधमय हो जाए तो आश्चर्य क्या?
विलंब अभी भी नहीं हुआ। आधुनिक पत्रकारिता के नाम पर आधुनिकता के लबादा धारक सचेत हो जाएं। पतन की गहराई में पहुंचने के बावजूद आज भी देश-समाज पत्र और पत्रकारों की ओर आशाभरी दृष्टि लगाए बैठा है। उनके विश्वास के साथ कोई घात न हो, कोई छल न हो।
आधुनिक पत्रकारिता के मायने बदल जाने की दुहाई देनेवाले ये न भूलें कि पत्रकारिता के मूल्यों को कोई बदल नहीं सकता। वह अक्षुण्ण है। इसे रौंदने की मंशा रखनेवाले अपनी तात्कालिक सफलता के गुमान में न रहें। अंतत: वे गिरेंगे, नष्ट हो जाएंगे। आधुनिक पत्रकारिता, आधुनिकता का वरण तो करेगी किंतु उसके सकारात्मक पहलुओं को, विद्रूप स्वरूप को कदापि नहीं!  

कांग्रेस : वंश मंजूर, अयोग्यता नहीं !

पुरानी मान्यता है कि  'अवसर' कभी भी किसी को वंचित नहीं रखता। समय व अवसर देख 'अवसर' कभी न कभी, सभी के समक्ष उपस्थित अवश्य होता है। तब निर्भर करता है कि उसका उपयोग कौन, कब, कैसे करता है? समयानुसार सदुपयोग की दशा में अनुकूल परिणाम मिलते हैं, दुरुपयोग की दशा में विपरीत हानिकारक प्रमाण। हर काल में यह प्रमाणित होता आया है। बावजूद इसके जब जान-बूझकर, मंदबुद्धि कारण या फिर निज स्वार्थवश अगर उपलब्ध 'अवसर' को नजरअंदाज किया जाता है तब परिणाम के खाते में विफलता और सिर्फ विफलता ही आती है।
ताजा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृष्य में, विडम्बनावश देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ ऐसी ही अवस्था को प्राप्त है। अवसर सामने है, तथापि नेतृत्व समय की मांग के अनुरूप इसका सदुपयोग करने में हिचकिचा रहा है। नेतृत्व इस तथ्य को भूल जा रहा है कि सत्ताच्युत होने के बाद भी देश की निगाहें कांग्रेस पर टिकी हैं। 'परिवर्तन' के पक्ष में प्रयोगवश देश के बहुमत ने जिस भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंपी है, उस पर निगरानी व अंकुश की अपेक्षा जनता एक सशक्त विपक्ष के रूप में कांग्रेस से कर रही है। लोकसभा में अल्पसंख्या के बावजूद पिछले 2 वर्ष के कार्यकाल में कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में सफल तो रही है, किंतु एक राष्ट्रीय दल के रूप में जनमानस के बीच अपेक्षित स्वीकृति प्राप्त करने में विफल रही है।
समीक्षक एकमत हैं कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी की मौजूदगी के बावजूद पूरा देश अभी भी उन पर पूरी 'आस्था' प्रकट नहीं कर पा रहा है। राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर उन्हें अध्यक्ष पद के लिए तैयार करने की कोशिशें की गईं। कुछ परिलक्षित परिवर्तन और प्रगति के पश्चात भी राहुल गांधी स्वयं पार्टी के अंदर एकमेव पसंद नहीं बन पा रहे हैं। यह एक सच है और इस तथ्य के आधार पर ही कांग्रेस को भविष्य के लिए नेतृत्व और रणनीति पर निर्णय लेना होगा। पुत्रमोह व वंशमोह से इतर व्यापक दलहित में फैसले लेने होंगे। इस सचाई को ध्यान में रखते हुए कि इस बिंदू पर गलत निर्णय न केवल कांग्रेस दल बल्कि भारत और भारत के लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध होगा। विकल्प मौजूद है। वंश के भीतर भी, वंश के बाहर भी।
गलत ही सही, यह धारणा अभी भी आधारहीन नहीं हुई है कि कांग्रेस को 'गांधी -नेहरू' का मुलम्मा चाहिए ही। आजादी के बाद से मतदाता के बीच 'गांधी-नेहरू' अपनी पैठ बना चुका है। पिछले चुनाव में पराजय का कारण इसके प्रति मोहभंग नहीं, बल्कि भष्टाचार था। जिस प्रकार 1977 में कुशासन और भ्रष्टाचार के कारण जनता ने कांग्रेस को अस्वीकार कर दिया था उसी प्रकार 2014 में भी जनता ने कांग्रेस के खिलाफ मत प्रकट कर भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना फैसला सुनाया था। अर्थात जनता को गांधी-नेहरू परिवार तो स्वीकार्य है किंतु भ्रष्टाचार नहीं। परिवार में भी 'योग्यता' पसंद करेगी जनता। कड़वा सच कि इस कसौटी पर राहुल गांधी खरे नहीं उतर रहे। फिर क्यों नहीं परिवार में मौजूद अन्य योग्य व स्वीकार्य चेहरे को सामने ला कांग्रेस नया प्रयोग करे। हां, यहां एक और सिर्फ एक चेहरा प्रियंका गांधी के रूप में सामने है। प्रयोग के तौर पर अगले वर्ष होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान प्रियंका को सौंप पार्टी उनकी उपयोगिता की परीक्षा ले सकती है। निर्णय सिर्फ कांग्रेस दल के हित हेतु न हो, वृहत्तर राष्ट्रीय हित संबंधी हो।