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Friday, July 29, 2016

बेशर्म अर्णव ! किसी भी मुद्दे पर तुम्हारी तरफ होने से बेहतर है मर जाना : बरखा दत्त




किसी इंसान को जब अपनी गलती का एहसास हो जाए, संशोधन कर ले, तब उसे क्षमा कर देना चाहिए। सामाजिक और विधिक न्याय यही कहता है। कुख्यात राडिया प्रकरण में अपने उपर लगे कलंक के दाग से आहत पत्रकार बरखा दत्त को भी अब क्षमा कर दिया जाना चाहिए। प्रमाण मौजूद हैं कि उक्त कांड के बाद बरखा दत्त ने अपने सद्आचरण से पत्रकारिता, समाज और देश की ईमानदारी से सेवा की है। अर्थात वे निरंतर पश्चाताप करती आ रही हैं। फिर मीडिया मंडी क्यों न उन्हें माफ कर दे? हम इसके लिए तैयार हैं। विशेषकर ताजातरीन टाइम्स नाऊ के संपादक अर्णब गोस्वामी के मामले में बरखा दत्त ने जिस प्रकार पत्रकारिता और पत्रकारों के हित में कदम उठाते हुए अर्णब को कटघरे में खड़ा किया है मीडिया मंडी उन्हें सलाम करता है।
टाइम्स नाऊ के संपादक अर्णब गोस्वामी की दलाली पत्रकारिता अब किसी से छिपी नहीं है। कारण चाहे दबाव हो या प्रलोभन, अर्णब पत्रकारीय मूल्यों के साथ बलात्कार करते हुए पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी के लिए कलंक साबित हो रहे हैं। युवा पत्रकार हतोत्साहित हो रहे हैं। 'वॉच डॉग' की भूमिका में रहनेवाली पत्रकारिता आज सचमुछ शर्मसार है कि अर्णब गोस्वामी जैसा 'कलंक' उनकी बिरादरी का एक सदस्य है। बरखा दत्त ने बिलकुल सही टिप्पमी की है कि ' मैं शर्मिंदा हूं कि मैं भी उसी की तरह इस इंडस्ट्री का हिस्सा हूं। अर्णब का बेशर्म और कायरतापूर्ण पाखंड आश्चर्यजनक है।'
एनडीटीवी की चर्चित एंकर बरखा दत्त ने सोशल मीडिया के जरिये 'टाइम्स नाऊ' के संपादक और एंकर अर्णव गोस्वामी पर कऱारा हमला बोला। उन्होंने एक ट्वीट करके उस इंडस्ट्री में हो पर शर्मिंदगी ज़ाहिर की जिसमें अर्णव भी हैं। उन्होंने लिखा — 'टाइम्स नाऊ' मीडिया के दमन की बात करता है। वो जर्नलिस्ट्स पर मामला चलाने और उन्हें सज़ा दिलाने की बात करता है। क्या यह शख्स जर्नलिस्ट है? उस शख्स की तरह ही इस इंडस्ट्री का हिस्सा होने के लिए शर्मिंदा हूं।' बरखा यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने अपने गुस्से को विस्तार देते हुए अपने फेसबुक पेज़ पर एक टिप्पणी लिखी। उन्होंने लिखा-
'टाइम्स नाऊ' मीडिया के दमन की बात करता है ! वह पत्रकारों पर मामला चलाने और उन्हें सजा दिलाने की बात करता है ! क्या यह शख्स पत्रकार है ? मैं शर्मिंदा हूँ कि मैं भी उसी की तरह इस इंडस्ट्री का हिस्सा हूँ । अर्नब का बेशर्म और कायरतापूर्ण पाखंड आश्चर्यजनक है। वह बार-बार पाकिस्तान से बातचीत के समर्थकों पर पिनपिना रहा है लेकिन एक भी शब्द जम्मू-कश्मीर की बीजेपी-पीडीपी वाली उस सरकार के लिए नहीं बोल रहा जिनके गठबंधन की शर्तों में पाकिस्तान और हुर्रियत से बातचीत का समझौता है। और वह मोदी पर चुप्पी साधे हुए है जो पाकिस्तान के बातचीत के मामले में हद से आगे निकल गए हैं। मुझे इनमें से किसी पर भी आपत्ति नहीं है लेकिन चूँकि अर्णब गोस्वामी किसी की देशभक्ति को ऐसे विचारों से नापता है तो पूछा जाना चाहिए कि वह सरकार पर चुप क्यों है ....?  चमचागीरी?
कल्पना कीजिए कि एक पत्रकार सचमुच में सरकार पर मीडिया के एक धड़े का दमन करने के लिए दबाव बना रहा है। ऐसे पत्रकारों को वह पाकिस्तान की ख़ुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट ठहरा रहा है, आतंकियों का हमदर्द बता रहा है और कह रहा है कि उनके ऊपर मामला चलना चाहिए और सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए।
और हमारी पत्रकार बिरादरी? इस बिरादरी से राजनीतिक रूप से सही-गलत बने रहने के नाते कायराना चुप्पी साध रखी है। ठीक है लेकिन डरने वालों में से नहीं हूं श्रीमान गोस्वामी। और मुझे फर्कनहीं पड़ता कि तुम अपने शो पर कितनी बार मेरा नाम सीधे या घुमाकर लेते हो क्योंकि मैं तुम्हारे विचार को ढेला भर भी अहमियत नहीं देती। मुझे उम्मीद है कि मैं तुम्हारे लिए हमेशा वही रहूंगी जिसकी पत्रकारिता से तुम घृणा करोगे। और यक़ीन करो, यह घृणा इतनी परस्पर है कि किसी भी मुद्दे पर तुम्हारी तरफ होने का ख़्याल भी मेरे लिए मरने जैसा होगा !
दरअस्ल, गोस्वामी ने 26 जुलाई को अपने शो 'न्यूज़ ऑवर' में अपनी चर्चा (क्कह्म्श-क्कड्डद्म ष्ठश1द्गह्य स्द्बद्यद्गठ्ठह्ल) में चर्चा के दौरान तमाम पत्रकारों को निशाने पर लिया था। चर्चा के दौरान भारत-पाक के बीच आर-पार का युद्ध न होने का अक्सर अफसोस जाहिर करने वाले रिटायर्ड मेजर जनरल जी.डी बख्शी ने सवाल उठाया कि आखिर क्यों कुछ बड़े अखबारों ने बुरहान वानी की लाश की फोटो छापी ? ऐसा करना क्यों जरूरी था? उनके मुताबिक 'यह इन्फॉर्मेशन वॉरफेयर का युग है। हम मीडिया के हमले का शिकार हो रहे
इस कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए अर्णव गोस्वामी ने कहा कि 'जब लोग खुलेआम भारत का विरोध और पाकिस्तान व आतंकवादियों के लिए समर्थन ज़ाहिर करते हैं तो ऐसे लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए?' अर्णव ने कहा कि वे ऐसे लोगों को 'स्यूडो लिबरल्स' (छद्म उदारवादी) कहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे लोगों पर मुकदमा चलना चाहिए। चर्चा के दौरान गोस्वामी ने एक बार यह भी कहा कि 'मीडिया में कुछ खास लोग बुरहान वानी के लिए हमदर्दी दिखाते हैं। यह वही ग्रुप है जो अफजल गुरु के लिए काम करता है और उसकी फाँसी को साजिश बताता है। अर्णव ने कहा कि मीडिया में छिपे ऐसे लोगों पर बात होनी चाहिए।
इसी बहस में बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने सीधे बरखा दत्त की ओर इशारा करते हुए कहा कि कुछ लोग आजकल हाफिज सईद को पसंद आ रहे हैं। दरअसल इंटरनेट पर एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें हाफिज सईद ने बरखा दत्त की रिपोर्टिंग की तारीफ की है।

...तो जनता मजबूर हो जाएगी सड़कों पर उतरने को

...तो जनता मजबूर हो जाएगी सडक़ों पर उतरने को

देश की राजनीति का यह कैसा संक्रमण काल, जिसकी परिणति घटियापन और निकम्मेपन की निम्नतम गति को प्राप्त होती दिखने लगी हैकेंद्र में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन के साथ राजनीतिक पंडितों की टिप्पणियां आई थीं कि वर्तमान राजनीति एक ऐसे संक्रमण काल से गुजरने को विवश हुई है, जिसका परिणाम आने वाले अनेक दशकों को प्रभावित करेगा। कतिपय शंकाओं के बावजूद प्राय: सभी ने परिवर्तन को सकारात्मक रूप में लिया था। अपेक्षाएं व्यक्त की गई थीं कि लोकतंत्र की स्वाभाविक उठा-पटक, कांट-छांट और मर्यादाओं के बावजूद देश अब विकास के नये आयाम हासिल करेगा। एक पूर्णत: परिपक्व, खुशहाल लोकतंत्र के रूप में भारत विश्व का मार्गदर्शक बनेगा।हवा ऐसी पैदा की गई कि आम लोगों की अपेक्षाएं हिलोरें मारने लगीं।पूर्व के कथित भ्रष्ट भारत की जगह अब भ्रष्टाचार मुक्त भारत का उदय होगा। शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, तकनीकी, विज्ञान व रोजगार आदि के क्षेत्र में ऐसी क्रांति आएगी जो भारत का चेहरा बदल डालेगी।पूरा विश्व तब अपनी समस्याओं के समाधान के लिए भारत का अनुसरण करने लगेगा।अर्थात भारत को विश्वगुरु का दर्जा प्राप्त हो जाएगा। लेकिन अफसोस अब सब कुछ उल्टा होता प्रतीत होने लगा है। क्यों ? कैसे?
1947 में भारत को जब ब्रिटिश शासकों से आजादी मिल रही थी तब ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने टिप्पणी की थी कि, ‘‘ सत्ताधूर्तों, बदमाशों व जूतों से कुचलने वालों के हाथों में जाएगी, ये वे लोग हैं जिनका कुछ वर्षों बाद पता नहीं चलेगा। वे आपस में एक-दूसरे से लड़ेंगे और भारत राजनीतिक झगड़ों में ही खत्म हो जाएगा।’’ आजादी के शुरुआती वर्षों में यह भविष्यवाणी गलत साबित हुई, किंतु अब भी हम ऐसा कर सकते हैं? यह सवाल आज हर भारतीय-विशेषकर युवा पीढ़ी के मन में कौंध रहा है कि, आखिर कहां जा रही है हमारी राजनीतिकिस दिशा में अग्रसारित है भारत का लोकतंत्रक्या भ्रष्टाचार और कुशासन पर अंकुश लग पाएगा?क्या राजनीति कभी अपना सम्मान वापस पा सकेगीक्या लोकतंत्र की रीढ़ संसद अपनी प्रतिष्ठा कायम रख पाएगी ?क्या लोकतंत्र और संविधान की अक्षुण्णता कायम रखने की जिम्मेदार न्यायपालिका अपनी विश्वसनीयता को बेदाग रख पाएगीसवाल अनेक हैं, जिनके जवाब आने शेष हैं। लोग बेचैन हैं, प्रतीक्षारत हैं सकारात्मक जवाब के लिए। कब होगा उनकी प्रतीक्षा का अंतघटनाएं इतनी भयावह, आशंकाएं इतनी संगीन कि आम लोग किसी अनजान खौफनाक परिणाम की संभावना से आशंकित हैं। घटनाएं हैं ही ऐसी।
देश के इतिहास में पहली बार एक राज्य के मुख्यमंत्री अपने ही देश के प्रधानमंत्री व उनकी पार्टी पर आरोप लगा रहे हैं कि वे उनकी हत्या भी करवा सकते हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का ऐसा निम्न स्तर! हां ऐसा हुआ है।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आंशका व्यक्त की है कि प्रधानमंत्री व उनकी पार्टी भाजपा उनकी हत्या भी करवा सकती है।इस के पूर्व गुजरात के युवा सामाजिक कार्यकर्ता हार्दिक पटेल ने भी इसी तरह की आशंका व्यक्त की थी।लेकिन केजरीवाल का आरोप व बयान खौफनाक की श्रेणी का है।क्या केजरीवाल के बयान को उनकी हताशा निरूपित करते हुए खारिज कर दिया जाना चाहिए? या फिर एक लोकतांत्रिक आग्रह के आलोक में केजरीवाल के आरोपों की खुली जांच कराई जाएप्रस्ताव हास्यास्पद दिख सकता है, किंतु इस न्यायिक अवधारणा के आलोक में कि, प्रत्येक आरोप के निराकरण के लिए जांच जरूरी है, इसे खारिज नहीं किया जा सकता। चिंतकों के लिए यह एक घटिया स्तर का राजनीतिक घटना विकासक्रम है।तथापि यह सवाल मौजूद रहेगा कि आखिर अरविंद केजरीवाल ने ऐसी आशंका व्यक्त की तो क्यों? मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कोई अशिक्षित मूर्ख तो हैं नहीं! राजनीतिक महात्वाकांक्षा के अंतर्गत क्या कोई मुख्यमंत्री अपने प्रधानमंत्री पर ऐसा संगीन, भयावह आरोप लगा सकता हैमैं यह मानने को तैयार हूं कि केजरीवाल की आशंका निर्मूल अथवा आधारहीन है। बावजूद इसके भारत के विशाल लोकतंत्र की स्वच्छता को कायम रखने हेतु न्याय की वेदी पर भी इसे निर्मूल साबित करना होगा। पहल स्वयं सरकार को करनी होगी।
मुझे याद है कि 2014 की वह घटना जब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार की स्थापना के बाद एक टीवी पत्रकार को सत्तारुढ़ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने चेतावनी दी थी।तब बातचीत के दौरान भाजपा और संघ से जुड़े एक अत्यंत वरिष्ठ नेता ने मेरी जिज्ञासा पर बताया था कि अब इस देश में कुछ भी हो सकता है। पत्रकार की चेतावनी की घटना पर आश्चर्य न व्यक्त करते हुए उन्होंने गुजरात की याद दिलाई थी। बताया था कि कैसे गुजरात में प्राय: सभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों व अहसज प्रशासनिक अधिकारियों को सबक सिखाए गये थे।तब गुजरात में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे और अमित शाह उनके दाहिने हाथ के रूप में मंत्रिमंडल में शामिल थे। हाल ही में बाजार में आईतहलका’ के एक पत्रकार की बहुचर्चित पुस्तकगुजरात फाइल्स’ में कुछ ऐसे तथ्य सामने लाये गये हैं जिनकी काट के लिए अभी तक कोई सामने नहीं आया है। जबकि स्वयं मोदी व शाह के हक में है कि पुस्तक में उठाए गये सवालों के  माकूल जवाब दिये जाएं। 
बात कथित अराजक केजरीवाल तक सीमित नहीं है। अभी-अभी भाजपा के बहुचर्चित सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी समझ से विस्फोटक जानकारी दी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या अंग्रेजों ने की। स्वामी जैसे शिक्षित व्यक्ति का बयान दिमागी दिवालियापन नहीं, बल्कि किसी भावी कुत्सित योजना के तहत आया है। यह राजनीति केलंपटीकरण’ का ही एक नमूना है। देश जब अनेक समस्याओं से जूझता हुआ विकास के नये मार्ग पर कदमताल कर रहा हो तब ऐसे बयान के क्या मायने? साफ है कि जानबूझकर देश में अराजक वातावरण तैयार करने के लिए ऐसे गैर जिम्मेदाराना कुटिल बयान सामने लाये जा रहे हैं।स्वामी की टिप्पणी अवश्य राहुल गांधी के उस आरोप के संदर्भ में आई है कि गांधी की हत्या संघ के लोगों ने की थी। लेकिन, पुख्ता बचाव की जगह स्वामी ने अंग्रेजों पर हास्यास्पद आरोप लगा भविष्य के एक संभावितषड्यंत्र’ को चिन्हित कर दिया। कोई आश्चर्य नहीं कि स्वामी के आरोप के बाद राजनीति शास्त्र के अनेक विद्यार्थीकोमा’ में चले जाएं। चूंकि, सुब्रमण्यम स्वामी सत्तारूढ़ भाजपा के सांसद हैं, क्या देश अपेक्षा करे कि सरकार के स्तर पर इस की भत्र्सना की जाएगी ?
उदाहरण अनेक हैं जो देश में अराजक भंवर की संभावना को चिन्हित कर रहे हैं। केजरीवाल, स्वामी, पटेल तथा कन्हैया, उत्तराखंड, अरुणाचलल मीडिया-मर्दन, दादरी, गौवंश, धर्मांतरण, नेताओं के अश्लील संवाद, सांप्रदायिक व जातीय तनाव से आगे बढ़ते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले और हत्याओं का अंतहीन सिलसिला, विंस्टन चर्चिल की भविष्यवाणी की याद दिला देते हैं। हमें उनकी भविष्यवाणी को गलत साबित करना ही होगा और यह तभी संभव है जब दलगत राजनीति से ऊपर उठ, स्वार्थ का त्याग कर राष्ट्रहित मेंएकभारत, समृद्ध भारत’ को रेखांकित करें।अगर हम इसमें विफल रहे तो तय मानिये कि फिर महात्मा गांधी की वह भविष्यवाणी सही होगी, जिसमें उन्होंने कहा था कि शासकीय स्तर परसुशासन’ की विफलता एक दिन जनता को सडक़ों पर निकलने को मजबूर कर देगी। और जनता ही फैसले करेगी सडक़ों पर।

सलमान: कटघरे में न्यायपालिका


'दबंग' और 'सुल्तान' की ख्याति अर्जित कर चुके फिल्म अभिनेता सलमान खान का मामला अब न्यायपालिका की विश्वसनीयता के साथ जुड़ गया है। पुलिस और जांच एजेंसियां भी कटघरे में हैं। लोकतांत्रिक भारत में 'न्याय मंदिर' की विश्वसनीयता को कोष्ठक में रखने को हम तैयार नहीं। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा अंतत: इसी न्याय मंदिर से अपेक्षित है। इस पाश्र्व में जब न्यायपालिका पर उंगली उठती है तो पूरा का पूरा देश पीड़ादायक अवस्था में चला जाता है।
 मुंबई में जब फुटपाथ पर रात्रि में सो रहे कुछ लोगों को सलमान द्वारा कुचलकर मार दिये जाने के आरोप में जिस प्रकार पहले निचली अदालत ने सजा दी और फिर आनन-फानन में उसी दिन बंबई उच्च न्यायालय ने सजा पर रोक लगाते हुए सलमान को जमानत पर बरी कर दिया और अंतत: निचली अदालत के फैसले को निरस्त करते हुए दोषमुक्त करार दे दिया गया, संदेह तब भी पैदा हुआ था। ताजातरीन राजस्थान में काले हिरण के शिकार के मामले में भी निचली अदालत द्वारा सजा पाये सलमान को जिस प्रकार जोधपुर उच्च न्यायालय ने दोषमुक्त करार कर बरी कर दिया, लोगबाग अचंभित हैं। दोनों मामले में चूंकि अब सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप की अपेक्षा है, फिलहाल उच्च न्यायालयों के आदेश पर कोई प्रतिकूल टिपण्णी न करते हुए हम यह कहने को मजबूर हैं कि इन दोनों मामलों में न्याय की अवधारणा कि 'न्याय न केवल हो, बल्कि होता हुए दिखे भी' लांछित हुई है। उच्च न्यायालयों द्वारा सलमान को संदेह का लाभ दिये जाने पर संदेह प्रकट किया जाना स्वभाविक है।
ध्यान रहे, दोनों मामलों में संबंधित उच्च न्यायालयों ने प्रमुख गवाहों के बयानों की अनदेखी की। दिलचस्प यह कि जिन बयानों के आधार पर निचली अदालतों ने सलमान खान को दोषी पाया था, उन्हीं बयानों के आधार पर उच्च न्यायालयों ने सलमान को दोषमुक्त करार दिया। कानून अथवा न्याय के इस पेंच की गुत्थी सुलझनी ही चाहिए।
हिरण शिकार के मामले में ताजा तथ्य चौंकाने वाला है। अभियोजन पक्ष ने अदालत को बताया था कि प्रमुख गवाह, सलमान खान का ड्राइवर हरीश दुलानी लापता है, इसलिए अदालत में उससे पूछताछ नहीं की जा सकी। लेकिन एक हिंदी दैनिक के पत्रकार ने उस 'लापता' ड्राइवर को ढूंढ निकाला। बातचीत में ड्राइवर ने साफ-साफ कहा कि वह गायब नहीं है बल्कि उसे अदालत में बुलाया नहीं गया। ड्राइवर ने दो टूक कहा कि काले हिरण का शिकार सलमान खान ने ही किया था। सचमुच पुलिस और जांच एजेंसियों के लिए यह मामला शर्म के रूप में उजागर हुआ है। कोई भी समझ सकता है कि किसी 'प्रभाव', 'दवाब' या 'प्रलोभन' के अंतर्गत जानबूझकर मुख्य गवाह ड्राइवर दुलानी को 'गायब' घोषित किया गया। जानबूझकर अदालत को गुमराह किया गया। यह आचरण स्वयं में एक संगीन अपराध है। राजस्थान गृह विभाग को इसकी अलग से जांच कराकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। मुंबई पुलिस की तरह राजस्थान पुलिस ने भी सलमान खान को बचाने की कोशिश की है। मुख्य गवाह दुलानी ने कहा भी है कि सलमान खान को बचाने के लिए उसे अदालत में पेश नहीं किया गया।
अब, चूंकि महाराष्ट्र सरकार के साथ राजस्थान सरकार भी सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने जा रही है, पीडि़तों के पक्ष में न्याय की अपेक्षा की जा सकती है। ध्यान रहे, न्याय अगर होता हुआ न दिखे तो लोग यह मान लेते हैं कि सामथ्र्र्यवान कोई भी अपराध कर स्वयं को बचा लेते हैं। यह अवस्था लोकतंत्र और न्यायपालिका के माथे पर कलंक के रुप में न स्थापित हो जाये, यह सुनिश्चित करना अब न्यायपालिका के हाथों में है।

Sunday, July 24, 2016

अब 'अनजान' नहीं 'सतर्क' प्रधानमंत्री की जरूरत

विडम्बना !
हां! यह विडम्बना ही है!!
लेकिन एक बड़े फर्क के साथ । यह विडम्बना ' आ बैल मुझे मार' की तर्ज पर सादर आमंत्रित है। अल्प ज्ञान धारक भी चकित है कि ज्ञानी नेताओं, कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी पार्टी ऐसे किसी 'विडम्बना' को बार-बार जन्म कैसे दे रही है?
हां, ऐसा ही हो रहा है। पिछले वर्ष 2015 के आरंभ में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में अपने प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल से उनका 'गौत्र' पूछ लिया था। जवाब मतदाता ने दिया। 70 में से 67 सीटें केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' को और सिर्फ तीन सीटें मोदी की भाजपा को।
फिर 2015 के अंत में आया बिहार चुनाव । चुनावी दंगल में बिहार के नीतीश के मुकाबले स्वयं मोदी ने अपनी पार्टी की कमान संभाली। प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी गई। लो, यहां भी मोदी ने नीतीश का 'डीएनए' पूछ लिया! परिणाम? मोदी व उनकी पार्टी भाजपा चित, नीतीश विजयी।
और अब अगले वर्ष, 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव की गूंज के बीच प्रधानमंत्री ने तो नहीं हां, उनकी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता दयाशंकर सिंह ने प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी, दलितों की 'देवी' के रूप में लोकप्रिय  बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को ' ... या' निरूपित कर डाला।  ठीक उस समय जब बसपा के कुछ बड़े नेता मायावती पर गंभीर आरोप लगाते हुए पार्टी का दामन छोड़ रहे हैं। आहत मायावती सुरक्षात्मक मुद्रा में आ गई थीं। ऐसा लग रहा था कि इन नेताओं के पार्टी छोडऩे से बसपा की सत्ता की दावेदारी  हाशिए पर चली गई थी। कार्यकर्ता ही नहीं अनेक नेता भी मायूस हो बसपा की चुनावी संभावनाओं पर सवाल खड़े करने लगे थे। लेकिन, बैठे बिठाए मायावती और उनकी बसपा को  'दयाशंकर' की संजीवनी मिल गई। उनकी फिसलती जुबान से निकले शब्दों ने बसपा की दरकती दीवार को न केवल पाट दिया बल्कि, मायूस कार्यकर्ताओं, नेताओं में ऐसा जोश भर दिया कि  प्रदर्शन का पिछले दो दशक का रिकार्ड तोड़ते हुए भाजपा के विरोध में हजारों-हजार की संख्या में बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर निकल आए। अनायास मिली संजीवनी ने सचमुच बसपा के हौसले ही नहीं बुलंद किए बल्कि, उसकी चुनावी संभावनाओं को भी अन्य दलों के मुकाबले  शीर्ष पर ला खड़ा कर दिया।
पिछले दिनों अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे ऐसे लोगों को नहीं जानते जो विवादित बयानों से ध्रुवीकरण के प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के इन शब्दों को राजनीतिक विश्लेषकों ने तब भी संदेह के घेरे में रखा था। क्योंकि केंद्र में सत्ता प्राप्ति के बाद से ही भाजपा एवं इससे जुड़े अन्य संगठनों के अनेक नेताओं के विवादास्पद बयान सुर्खियां प्राप्त कर चुके थे। उनके बयान कथित 'ध्रुवीकरण' के इर्द-गिर्द ही घूम रहे थे। बयान टुटपूंजिए नेताओं की जुबान से नहीं बल्कि, सांसद और  मंत्री की भी जुबान से निकल रहे थे।  सारे बयान ' ध्रुवीकरण' को ध्यान में रखकर ही दिए जा रहे थे और दिए जा रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का जानकारी से इनकार  सवाल तो खड़े करेगा ही। और अब उत्तर प्रदेश के दयाशंकर सिंह जैसे नेता का घोर आपत्तिजनक बयान के क्या मायने? चूंकि, उत्तर प्रदेश में सत्ता का सपना देख रही भाजपा मायावती को एक बड़ी चुनौती के रूप में ले रही थी, पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व  राज्य में अपने प्रभाव की वृद्धि की दिशा में ताल ठोक रहा था। मायावती के कभी दाहिना हाथ माने जानेवाले प्रभावशाली स्वामी प्रसाद मौर्या और एक अन्य दमदार नेता आर.के. चौधरी का बसपा छोडऩा , सच पूछा जाए तो भाजपा की इच्छा के अनुकूल ही हुआ। इन दोनों नेताओं ने मायावती के ऊपर गंभीर व्यक्तिगत आरोप लगाए। आहत मायावती जवाब तो दे रही थीं किंतु, बसपा का आम कार्यकर्ता निराशा की गर्त में जाने लगा था। मायावती इससे भयभीत थीं।  पार्टी को हो रही क्षति की पूर्ति के लिए व्यग्र मायावती को सहारा स्वयं भाजपा के दयाशंकर सिंह ने प्रदान कर दिया।  निश्चय ही दयाशंकर सिंह ने इसके लिए पार्टी नेतृत्व से इजाजत नहीं ली होगी।  इस बिंदू पर प्रधानमंत्री मोदी को उनके अंजान होने के प्रति संदेह का लाभ दिया जा सकता है। लेकिन जब आज की भारतीय जनता पार्टी की पहचान नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नाम से हो रही है, प्रधानमंत्री की ऐसी अनभिज्ञता महंगी साबित होगी। बल्कि, ऐसा होना शुरू भी हो गया है। सभी राजनीकि विश्लेषक और राजदलों के नेता एकमत हैं कि आगामी वर्ष होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम न केवल भारतीय जनता पार्टी बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के भविष्य का निर्धारण करेंगे। कोई आश्च्र्य नहीं कि पार्टी ने अपनी पूरी ताकत उत्तर प्रदेश में झोंकना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लगातार राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा मतदाता को प्रभावित करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। सकारात्मक परिणाम के संकेत भी मिलने शुरू हो गए थे। किंतु अब '...या' प्रकरण महंगा पड़ता दिखने लगा है।
मेरी चिंता एक उत्तर प्रदेश, भाजपा या बसपा को लेकर नहीं है। चिंता है कथित ध्रुवीकरण के प्रयासों से उत्पन्न हो रहे अंधकार को लेकर। भय है कि इस अंधकार के आगो में कहीं पूरा देश उलझ कर न रह जाए। उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक एवं धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के प्रयास शुरू हुए और अब इसने भयंकर रूप में जातीय स्वरूप ले लिया। वहीं प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में भी जातीय ध्रुवीकरण का दैत्य  खतरनाक रूप से उभर कर सामने आया है। गुजरात में लोग इस ध्रुवीकरण के अंतर्गत सड़कों पर निकल आए। वहां भी मामला दलित उत्पीडऩ का बना। सांप्रदायिक आधार परअल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करने के बाद अगर विशाल दलित और पिछड़े समाज को अलग करने की कोशिश की जाती है तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत कहां से उदय होगा। सबका साथ, सबका विकास के संकल्प के साथ दिन-रात देश के विकास की चिंता करनेवाले नरेंद्र मोदी को क्या सचमुच 'अंधकार' में रखा जा रहा है। क्या कहीं जान-बूझकर तो प्रधानमंत्री मोदी को 'अंजान' के ताबे में तो नहीं रखा जा रहा है। अब तो बात सिर्फ उत्तर प्रदेश में राजनीतिक फसल काटने के मोदी सपने पर पानी फेरने से आगे 'मॉडल गुजरात' में वर्चस्व की जगह अस्तित्व की लड़ाई की संभावना प्रबल दिखने लगी है। कश्मीर, उत्तर प्रदेश और गुजरात की ताजा घटनाएं निश्चिय ही देश के अन्य भागों को भी प्रभावित करेंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कम-अज़-कम अब सतर्क हो जाना चाहिए। 'अंजान' घेरे से बाहर निकल सचाई का सामना करें। क्योंकि अगर बिहार की पुनरावृत्ति उत्तर प्रदेश में हुई तब स्वयं उनके नेतृत्व पर सवाल उठ खड़े होंगे। राजनीति का बिस्तर हमेशा गद्देदार नहीं होता। जब अनायास उस पर कांटे उत्पन्न होते हैं तो वे शरीर में इतने छिद्र कर देेते हैं कि उनका इलाज लगभग असंभव हो जाता है। विवादित बयानों वाले अपने सहयोगियों की पहचान कर उन्हें नियंत्रित करें। अल्पसंख्यक, दलित-पिछड़ों की फौज अगर सामने खड़ी हो गई तब राजनीतिक विजय हासिल नहीं की जा सकती। दयाशंकर सिंह प्रकरण के बाद अब यह पूछा जाना कि देह बेचने और देश बेचने में क्या फर्क है, तब नरेंद्र मोदी सरीखा राष्ट्रहित को बेचैन प्रधानमंत्री मौन कैसे रह सकता है। 

गुलाम नबी के तीखे आरोप - आग में पेट्रोल-तेल डालते चैनल!

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने खबरिया चैनलों पर होनेवाली बहसों पर एक तल्ख टिप्पणी की है। आजाद  का कहना है कि चैनलों पर चर्चा वाला जो माहौल बन गया है वह देश की बर्बादी का कारण बनेगा। हालांकि आजाद ने यह टिप्पणी कश्मीर के हालात पर की है किंतु यह प्राय: हर संदर्भ में पूरे देश के लिए लागू है। आजाद ने कुछ भी गलत नहीं कहा है। विभिन्न टीवी चैनलों पर  अलग - अलग क्षेत्र अथवा विधा के अतिथि विशेषज्ञों को बुलाकर ताजा घटनाओं पर बहस का एक फैशन चल पड़ा है।  आरम्भिक दौर मे ंतो सबकुछ ठीकठाक था किंतु हाल के दिनों में, बल्कि और अधिक साफ-साफ कहा जाए तो केंद्र में नई सरकार के गठन के बाद चैनलों पर होनेवाली बहसें साफतौर पर 'प्रायोजित' और पूर्वाग्रही दिखती हैं। चैनलों के संपादक या कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता वृहद्तर राष्ट्र या समाजहित में नहीं बल्कि व्यक्ति विशेष अथवा राजदल विशेष के हित में विषय चयन करते हैं।  बहस में भाग लेने के लिए अतिथि भी अपनी सुविधानुसार ही आमंत्रित किए जाते हैं। बहस को संचालित करनेवाले या संचालित करनेवाली एंकर बिलकुल जज की भूमिका में नजर आते हैं। निष्पक्ष जज नहीं 'प्रभावित' जज। अनेक बार महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों को छोड़ महत्वहीन मुद्दों पर बहसें कराई जाती हैं। उद्देश्य होता है, किसी व्यक्ति अथवा दल विशेष की लानत मलामत या फिर अतिश्योक्ति आधारित महिमामंडन। सर्वाधिक दुखद और खतरनाक बात यह कि राष्ट्रहित को बलाए ताक रख कभी-कभी ऐसे विषयों पर बहसें कराईं जाती हैं जिनसे न केवल समाज में परस्पर सद्भाव को तोड़ा-बिखेरा जाता है बल्कि, देश-समाज में सांप्रदायिक आधार पर तनाव भी पैदा किए जाते हैं।  कानून की दृष्टि से ऐसे आपराधिक आचरण का खुलेआम टीवी चैनलों पर प्रदर्शन क्या राष्ट्रद्रोह नहीं है? आम दर्शक अवाक रह जाता है, जब वह अतिथि वक्ताओं के साथ-साथ ही एंकरों को भी पक्षपाती भूमिका में देखता है। कभी-कभी तो जब कोई अतिथि वक्ता एंकर की सोच के विपरीत अपनी बातों को प्रभावी ढंग से रखने की कोशिश करता है तब या तो उसे बोलने नहीं दिया जाता या फिर इतनी टोका-टाकी की जाती है कि उसकी बात साफ-साफ दर्शकों तक पहुंच नहीं पाती। संभवत: गुलाम नबी आजाद ने इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर उपरोक्त टिप्पणी की होगी।
चूंकि गुलाम नबी आजाद ने कश्मीर की ताजा घटनाओं के संबंध में यह टिप्पणी की है, चर्चा जरूरी है। कश्मीर की ताजा घटना अपने अतिसंवेदनशील राजनीतिक पाश्र्व के कारण अत्यंत ही खतरनाक प्रतीत होने लगी है। भारत के अनेक प्रयासों के बावजूद घाटी में आतंकवादी घटनाओं में कमी की जगह खतरनाक वृद्धि हुई है। सीमा पार पाकिस्तान प्रशिक्षित व प्रायोजित आतंकवादी घुसपैठ कर हिंसक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। पिछले दिनों 22 वर्षीय   बुरहान वाणी की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद स्वयं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने न केवल उसे शहीद घोषित किया बल्कि आतंकवादियों के विरुद्ध हमारी कार्रवाई को मानवाधिकार का उल्लंघन तक बता डाला। यह सीधे-सीधे हमारे आंतरिक मामलों में पाकिस्तान का हस्तक्षेप है। लेकिन, घाटी की वारदातों को विभिन्न चैनलों ने अपनी बहसों में कुछ इस तरह पेश किया मानो वहां युद्ध की स्थिति कायम है और विभिन्न राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक गोटियां सेंक रहे हैं। चैनलों द्वारा घाटी में शांति स्थापित करने की दिशा में संदेश न देकर भड़काऊ बहस कराए गए, कराए जा रहे हैं। पूरी घटनाओं को कुछ इस रूप में पेश किया जा रहा है मानो कश्मीर और कश्मीरी भारत से अलग हैं, उनका अलग अस्तित्व है। युवा - किशोर बेरोजगारों को गुमराह कर प्रदर्शन में शामिल कर हिंसक घटनाओं को असामाजिक तत्व अंजाम दे रहे हैं। प्रशासन, सेना और अर्धसैनिक बल अपने दायित्व का निर्वाह तो कर रहे हैं किंतु, कभी-कभी वे भी भूल जाते हैं कि घाटी की जिस धरती पर वे तैनात हैं वह धरती भारत की ही धरती है। प्रदर्शनकारी भी भारतीय ही हैं।  दुखद रूप से खबरिया चैनल भी एक भारतीय की जगह कश्मीरी और भारतीय दो खेमे पैदा कर रहे हैं।  वे भूल जाते हैं कि प्रदर्शन में भाग ले रहे कश्मीरी युवा  भ्रमित हैं उन्हें गुमराह किया गया है। वे भूल जाते हैं कि ऐसी घटनाएं देश के अन्य भागों में भी, बदले चरित्र के साथ होती रही हैं। कश्मीर क्षेत्र चूंकि अतिसंवेदनशील क्षेत्र है वहां के मुद्दों पर बहस अथवा समाचार प्रसारण के समय जहां चैनलों को संयम से काम लेना चाहिए वहीं वे एक पक्ष बनकर भड़काऊ भूमिका में आ जाते हैं। यह अनुचित ही नहीं अपराध है। गुलाम नबी आजाद ने बिलकुल सही कहा है कि समाचार पत्र तो फिर भी कुछ संयम बरतते हैं लेकिन, चैनल जो माहौल बना रहे हैं वे देश की बर्बादी का कारण बन सकते हैं। आजाद की इस बात से कोई भी असहम नहीं होगा कि  तस्लीमा नसरीन या तारिक फतेह जैसे लोगों को क्रमश बांग्लादेश और पाकिस्तान ने तो देश निकाला दे दिया  किंतु हमने उन्हें शरण ही नहीं दी बल्कि, आग व जहर उगलने की छूट भी दे दी है। तस्लीमा भारत के आंतरिक मामलों में टिप्पणी करते हुए ज्वलंत मुद्दों में पेट्रोल तेल डाल आग भड़काती रही हैं। तारिक फतेह पाकिस्तान से निष्कासित होकर भारत में शरण पाता है और हमारे देश के खबरिया चैनल उसे आरमदेह कुर्सी प्रदान करते हैं ताकि वह इस्लाम के बारे में जहर उगले। निसंदेह टीवी चैनलों का ऐसा आचरण आपत्तिजनक ही नहीं राष्ट्रहित के विरुद्ध होने के कारण राष्ट्रद्रोह सरीखा है । ये दो उदाहरण तो मामूली हैं, देश के अन्य भागों में घोर सांप्रदायिक आचरण में लिप्त लोगों को अतिथि बना चैनलों पर जो शब्द उगलवाए जाते हैं उनसे देश का सांप्रदायिक माहौल बिगड़ता रहा है। सांप्रदायिक तनावों पर होनेवाली बहसों में भी विभिन्न चैनल आग पर पानी डालने की जगह पेट्रोल तेल डालते दिख रहे हैं। यह निंदनीय है।

कश्मीर में अब वैकल्पिक 'प्रयोग' की जरूरत

यह सच एक बार फिर मोटी रेखाओं से चिन्हित हो गया कि कश्मीर घाटी का बहुमत राज्य की वर्तमान पीडीपी-भाजपा सरकार से नाराज है। नाराजगी का मुख्य कारण स्वयं मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में जिस प्रकार  वोटों का ध्रुवीकरण हुआ था, संदेश मिल गया था कि घाटी और शेष जम्मू-कश्मीर का मानस भिन्न है। दुखद रूप से इस सच्चाई की उपेक्षा कर पीडीपी और भाजपा ने संयुक्त रूप से सरकार बना ली।  कोई आश्चर्य नहीं कि इस सरकार में वजूद में आने के बाद से घाटी में हिंसक आतंकवादी घटानाओं में खतरनाक वृद्धि हुई है। सीमा पार से घुसपैठ  की घटनाएं भी बढ़ी हैं। यही नहीं पड़ोसी पाकिस्तान की ओर से सीमा के उल्लंघन और गोलीबारी की घटनाओं में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। तनाव इतने बढ़े कि कश्मीर के मुद्दे को पाकिस्तान ने  अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक बार फिर उठाया और चीन का साथ लेकर हमें भयभीत करने की भी कोशिश की। एनएसजी की सदस्यता के मुद्दे पर चीन द्वारा भारत विरोध और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीनी और पाकिस्तानी सेना का संयुक्त प्रदर्शन एक गंभीर घटना विकासक्रम है। और चूंकि, इन सभी के पाश्र्व में राज्य की पीडीपी -भाजपा सरकार है, इनके अस्तित्व पर बहस तो होगी ही।
बहस जारी है कि घाटी के लोगों ने भाजपा के साथ महबूबा के गठबंधन को स्वीकार नहीं किया है। वैसे यह कोई चौंकानेवाला तथ्य नहीं है, इसकी आशंका पहले से थी। भाजपा ने जहां घाटी में अपनी मौजूदगी को दर्ज करा पार्टी के विस्तार की रणनीति के तहत महबूबा से हाथ मिलाया था वहीं महबूबा ने भाजपा की मदद से राज्य को एक स्थिर सरकार देकर विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाए थे। महबूबा की गणित भाजपा की केंद्र सरकार के पाश्र्व में तैयार की गई थी। महबूबा को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार राज्य की जारी विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में तो मदद करेगी ही आर्थिक पक्ष को मजबूत करने के लिए नये-नये पैकेज भी मुहैय्या कराएगी। केंद्र सरकार ने इस दिशा में सकारात्मक रुख भी दिखलाया, प्राथमिकता के आधार पर योजनाओं की मदद के लिए कदम उठाए। भाजपा  को भी उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर में विकास को गति दे शांति स्थापित की जा सकती है। सैद्धांतिक आधार पर यह सोच तो सही थी किंतु, व्यवहार के आधार पर अशांत घाटी ने इसे अस्वीकार कर दिया। चूंकि, कश्मीर घाटी में आतंकवादियों के जरिए पाकिस्तानी हित की मौजूदगी असंदिग्ध है, भाजपा के रणनीतिकार इस बिंदू पर चूक गये। वे भूल गए कि विभाजन के पश्चात ही विशेष दर्जे के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर की विभिन्न सरकारों ने विकास की दिशा में अनेक विशेष योजनाएं शुरू की थीं। अत्याधिक आर्थिक बोझ के बावजूद केंद्र सरकार ने सब्सिडी आदि के जरिए जम्मू-कश्मीर के लोगों को संतुष्ट कर शांति के साथ-साथ विकास की अपेक्षा की थी। लेकिन पाकिस्तान की बदनियति के कारण यह क्षेत्र अशांति का मैदान बन गया। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के साथ ही पाकिस्तान के शासकों की नजरें पृथ्वी के इस स्वर्ग पर गड़ी रहीं। नापाक घुसपैठ ही नहीं सेना के जरिए भी क्षेत्र को हड़पने की कोशिशें की गईं। किंतु स्वयं कश्मीरियों ने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों को सफल नहीं होने दिया। यह तथ्य भी अपनी जगह मौजूद है। इस पाश्र्व में ही जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में शांति के उपाय ढूंढे जाने चाहिए। बातचीत के रास्ते अगर निरंतर अप्रभावी सिद्ध होते रहें तो, अन्य विकल्प के प्रयोग से भारत हिचके नहीं। क्षेत्र में स्थायी शांति के लिए यह जरूरी है। 

Friday, July 15, 2016

अरुणाचल में संवैधानिक अरुणोदय !

हां, संविधान का सूरज ही तो चमका है अरुणाचल में ! नमन! भारतीय न्याय व्यवस्था को नमन !! न्याय मंदिर ने साफ कर दिया कि चाहे कोई भी हो, जी हां, कोई भी हो, गैरकानूनी-असंवैधानिक कृत्य को अंजाम देने की अनुमति भारतीय लोकतंत्र में नहीं दी जा सकती।  जबरिया के आरोपी कटघरे में खड़े किए जाएंगे, बेनकाब किए जाएंगे। उनके द्वारा परित आदेश, नियम निरस्त किए जाएंगे। संदेश बिलकुल साफ है, संघीय व्यवस्था में राज्यों के संवैधानिक अधिकारों के साथ कोई छेड़छाड़ न करे। कोई भी संविधान वर्णित व्यवस्था के विरुद्ध आचरण ना करे। कोई भी षड्यंत्र रच असंवैधानिक तरीके से किसी निर्वाचित सरकार को अपदस्थ न करे। संदेश साफ है कि  कोई भी संविधान के ऊपर नहीं है। लोकतांत्रिक भारत सर्वस्वीकृत संविधान से संचालित है। किसी व्यक्ति अथवा राजदल विशेष की इच्छा- अनिच्छा, पसंद-नापसंद से देश संचालित नहीं होगा। सात माह पूर्व अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल ज्योतिप्रसाद राजखोवा ने घोर असंवैधानिक कदम उठाते हुए बल्कि,षड्यंत्र रच जिस प्रकार वहां की निर्वाचित सरकार के खिलाफ कदम उठाए थे, उसे अब सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर अपदस्थ सरकार की पुनर्बहाली  का आदेश देकर इन संदेशों को पुन: मोटी रेखाओं से चिन्हित कर दिया। देश इस पर एक ओर जहां खुश है वहीं दूसरी ओर दु:खी भी। कारण साफ हैं।
पिछले वर्ष दिसंबर माह में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कुछ बागियों की पीठ थपथपा कर राज्यपाल राजखोवा ने एक के बाद एक ऐसे असंवैधानिक कदम उठाए जिनसे राज्यपाल पद की गरिमा तो तार-तार हुई ही संवैधानिक व्यवस्थाओं की भी धज्जियां उड़ाई गईं। राज्यपाल राजखोवा ने सिर्फ अपनी ही नहीं केंद्र सरकार की छवि भी धूमिल कर दी थी। आश्चर्य नहीं है कि सर्वोच्य न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में टिप्पणी की है कि राज्यपाल का काम केंद्र सरकार के एजेंट की तरह काम करना नहीं है, उन्हें संविधान के तहत काम करना होता है। मुद्दा सिर्फ किसी एक सरकार को अपदस्थ किए जाने या उसकी पुनर्बहाली का नहीं है। कटघरे में है विभिन्न सरकारों की अनैतिक मंशाएं और घोर असंवैधानिक अलोकतांत्रिक आचरण। चूंकि, सर्वोच्च न्यायालय का ताजा ऐतिहासिक फैसला न्यायापालिका और लोकतांत्रिक भारत की पहली घटना के रूप में दर्ज हुई है जब किसी एक सरकार को हटा पुरानी सरकार को सत्ता सौंपी गई है, माकूल समय है जब इस पूरी प्रक्रिया पर चिंतन-मनन कर किसी तार्किक परिणति पर पहुंचा जाए। लोकतंत्र और संविधान के रक्षार्थ अगर कोई बलि देनी हो तो संकोच न किया जाए। रोग नया नहीं पुराना है। न्यायपालिका ने जब ऐतिहासिक कदम उठाया है तब विधायिका भी हिम्मत दिखाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भारत देश किसी की बपौती नहीं। लोगों द्वारा संचालित लोकशाही व्यवस्था में संविधान की अवमानना लोकतंत्र की जड़ों पर कुदाल चलाना है। यह ठीक है कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में संसद सर्वोच्च है, इसे कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। तथापि, न्यायपालिका को संविधान विरुद्ध उठाए गए किसी भी संसदीय कदम अथवा कदमों की समीक्षा करने व आदेश  जारी करने का अधिकार प्राप्त है। अरुणाचल के मामले में इसी अधिकार का उपयोग हुआ। आदेश को 'विचित्र' निरूपित' करने वाले अपने ज्ञान-चक्षु खोल लें। बंद की स्थिति में 'विचित्र' ही दिखेगा।
मैं समझता हूं कि सर्वोच्च न्यायाल ने  प्रत्येक राजदलों को अवसर प्रदान किया है कि वे इस मुद्दे पर कोई राजनीति न करते हुए, लोकतांत्रिक व्यवस्था की अक्षुण्णता को ध्यान में रखते सार्थक बहस करें और ऐसा मार्ग ढूंढ निकालें ताकि भविष्य में भारत की संघीय व्यवस्था पर तो कोई आंच तो  नहीं ही आए, बल्कि  कोई भी असंवैधानिक आचरण के पश्चात बेदाग विचरण नहीं कर पाए।
जैसा कि मैंने कहा, रोग पुराना है। चूंकि , भूतकाल में किसी भी राजदल या सरकार ने इसके स्थायी उपचार की पहल नहीं की, रोग बढ़ता चला गया। नतीजतन ज्योति प्रसाद राजखोवा जैसे राज्यपाल बेखौफ, संविधान विरुद्ध मनमानी करने से नहीं हिचके। मुझे याद है 90 के दशक में जब उत्तर प्रदेश में निर्वाचित भाजपा सरकार को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर दिया था तब स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी धरने पर बैठ गए थे। उन्होंने तब घोषणा की थी कि जिस दिन केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी राज्यपालों की नियुक्ति संबंधी सरकारिया आयोग की अनुशंषाओं को तत्काल लागू किया जाएगा। अटलजी ने वादा किया था कि सरकारिया आयोग की सिफारिशों वाली संचिका पर जमी धूल की परतों को साफ कर सिफारिशों को लागू किया जाएगा। लेकिन अफसोस कि ऐसा हो ना पाया। केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, बावजूद इसके सरकरिया आयोग की संचिका पर जमी धूल की परतों को हटाना तो दूर सिफारिशों के ठीक उलट राजनीतिकों को राज्यपाल पद से नवाजा जाने लगा। इसके पूर्व की कांग्रेस सरकारें भी ऐसे ही अनैतिक आचरण करती रहीं। कठपुतली या एजेंट के रूप में राज्यपाल पदों पर पसंदीदा राजनीतिकों की नियुक्ति संबंधी कांग्रेस संस्कृति का अनुसरण भाजपा सरकारों ने भी किया। राजखोवा कोई अपवाद नहीं हैं।
फिर ऐसा क्या किया जाए कि 'राजखोवाओं' के जन्म पर अंकुश लग सके। भारत के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जे.एस वर्मा ने एक बार टिप्पणी की थी कि विधि के शासन को असरदार ढंग से लागू करने के लिए जरूरी है कि बेहतर सामाजिक मूल्य स्थापित किए जाएं। इस प्रक्रिया में अदालतें एक उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकती हैं। चूंकि, अरुणाचल के मामले में अदालत ने ऐसी ही भूमिका का निर्वहन किया है, इस पर मंथन हो । ज़ाया नहीं होने दिया जाए।
अब सवाल यह कि बेहतर सामाजिक मूल्यों की स्थापना हो तो कैसे? मैं नहीं समझता कि यह बहुत कठिन कार्य है। जरूरत है कि सभी पक्ष अहम का त्याग कर वृहत्तर राष्ट्रहित में संवैधानिक व्यवस्थाओं को सम्मान दें, लोकतांत्रिक पद्धति से व्यक्त लोकभावना का आदर करें। किसी सरकार का निर्वाचन लोकाभिव्यक्ति ही है। कतिपय प्रतिकूल परिस्थितियों पर काबू पाने के लिए संवैधानिक व्यवस्थाओं का सहारा लिया जाए। राजनीतिक प्रभाव-विस्तार के लिए संविधान के साथ खिलवाड़ न किया जाए। 1989 में कर्नाटक की बोम्मई सरकार से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का फैसला वस्तुत: असंवैधैनिक कृत्य पर सख्त न्यायिक संदेश है। शब्दश: अनुपालन हो। इसी प्रकार राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में सरकारिया आयोग की अनुशंषाएं लागू की जाएं। यही नहीं सन 2003 में अंतरराज्य परिषद ने स्वीकार किया था कि सरकारिया आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों पर अमल होना चाहिए। और सबसे जरूरी यह कि असंवैधानिक आचरण के दोषी राज्यपालों को भी दंडित किए जाने की संवैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए। इस पर बहस होनी चाहिए कि जब अदालत किसी को असंवैधैनिक कृत्य का दोषी ठहरा देती है तब उसे दंडित क्यों न किया जाए। देश दु:खी है तो इस स्थिति को लेकर ही। सिर्फ राज्यपालों के असंवैधानिक आदेशों को निरस्त कर देने से समाधान नहीं निकलेगा। रोग के स्थायी निराकरण के लिए असंवैधानिक निर्णयों के दोषियों को भी दंडित करना होगा। बेहतर सामाजिक मूल्यों की स्थापना की दिशा में ऐसे कदम निर्णायक साबित होंगे। असंवैधानिक कृत्यों के साथ-साथ उच्च स्तर पर राजनीतिक षड्यंत्रों से भी तभी छुटकारा मिल पाएगा। और विशेषकर जब प्रचुर रोशनी मौजूद हो तब भला न्यायपालिका अपनी आंखें बंद कैसे रख सकती है? इन शब्दों में निहित संदेश, संकेत हाशिए पर न रह जाएं, इसे सुनिश्चित करना सत्ता के साथ-साथ विभिन्न राजदलों की जिम्मेदारी है। क्या इस दिशा में ईमानदार पहल की आशा की जाएं?

'टाइम्स ऑफ इंडिया' का 'नागपुरिया इंटेलिजेंस'

खबरिया बिरादरी के नागपुरी सदस्य अचंभित हैं, भौचक हैं और साथ ही शर्मिंदा भी हैं। यदा-कदा प्रायोजित खबरों के माध्यम से किसी व्यक्ति विशेष अथवा संस्थान विशेष को फायदा-नुकसान पहुंचाने की खबरों की जनकारी तो सदस्यों को थी, इस पर अब किसी को आश्चर्य नहीं होता। किंतु जब अहमदाबाद के एक आयोजन की खबर नागपुर 'डेटलाइन' से नागपुर से प्रकाशित हो, वह भी कथित गुप्तचर एजेंसियों के हवाले से, तो खबरचियों के कान खड़े होंगे ही। हां ! ऐसा ही कमाल 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नागपुर संस्करण ने कर दिखाया है। संस्करण के संपादक और समाचार संपादक भी बेचारे कटघरे में खड़े कर दिए गए हैं, खबर देनेवाले 'अपराध संवाददाता'  के कारण।
विगत 8 जुलाई को  'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नागपुर संस्करण में नागपुर की डेटलाइन से एक खबर छपी कि अहमदाबाद में 'जल-जंगल-जमीन' पर अगले सप्ताह होनेवाले एक राष्ट्रीय सम्मेलन वस्तुत: नक्सलियों के 'फ्रंटल' समूहों द्वारा आयोजित है। विद्वान संवाददाता ने महाराष्ट्र के गुप्तचर स्त्रोतों का हवाला देते हुए बताया है कि इस सम्मेलन का आयोजन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के किसान संगठन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएन), भारतीय किसान यूनियन, समाजवादी समागम सहित अनेक एनजीओ शामिल हैं। आयोजन के सह आयोजक हैं : जन आंदोलनों का राष्ट्र्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय किसान सभा (36 केनिंग लेन), अखिल भारतीय वन श्रमजीवी यूनियन, अखिल भारतीय किसान सभा (अजॉय भवन), भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक असली), अखिल भारतीय कृषक खेत मजदूर संगठन, जन संघर्ष समिति, इंसाफ, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, किसान संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, माइन मिनरल एंड पीपुल्स (एमएमपी), मध्य प्रदेश आदिवासी एकता महासभा, समाजवादी समागम, किसान मंच, विंध्य जन आंदोलन समर्थक समूह, लोक संघर्ष मोर्चा, संयुक्त किसान संघष समिति, दर्शन, गुजरात सोशल वाच, पर्यावरण मित्र, गुजरात किसान संगठन, आदिवासी एकता विकास आंदोलन, लोक कला मंच, स्वाभिमान आंदोलन, गुजरात लोक समिति  और अन्य जन संगठन।
संवाददाता ने इन संगठनों को नक्सली संगठन निरूपित किया है। जबकि सचाई यह है कि इनमें से अनेक संगठन व्यावहारिक और सैद्धांतिक स्तर पर नक्सलियों की राजनीति का न केवल विरोध करते रहे हैं बल्कि, कुछ ने तो अपने-अपने कार्यक्षेत्र में नक्सलियों के खिलाफ सरकारी नीतियों तक का समर्थन किया है।  बावजूद इसके ऐसी रिपोर्ट का छपना साफ दर्शाता है कि संबंधित संवाददाता ने किन्हीं कारणवश जान-बूझकर न केवल पाठकों को बल्कि, स्वयं अपने संस्थान 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को भी गुमराह किया है। साफ है कि खबर 'प्लांटेड' है। अब संवाददाता की 'दिलचस्पी' और 'नीयत' की पड़ताल की जिम्मेदारी 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के संपादकीय नेतृत्व की है।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' में छपी इस खबर पर जरा नजर डालें... खबर कहती है कि 'गुप्तचर एजेंसियों के माध्यम से हाथ लगा एक दस्तावेज बताता है कि गुजरात स्थित एक संगठन ने देश भर के बिरादराना संगठनों से भूमि अधिग्रहण, एफडीआई, कार्पोरेट के हित, कुदरती संसाधनों की लूट, व वंचितों और मजदूरों की बदहाली के मसलों पर राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल होने का न्योता दिया था ...।'  संवाददाता यहां दावा कर रहा है कि गुप्तचर एजेंसियों द्वारा उन्हें एक दस्तावेज हाथ लगा। इतना बड़ा फरेब? सच तो यह है कि सम्मेलन के आमंत्रण  इस खबर के छपने के दस दिन पहले से ही भूमि अधिकार आंदोलन की ओर से सार्वजनिक रूप से प्रसारित किए गए, बांटे गए और जिसे कुछ वेबसाइटों ने प्रकाशित भी किया है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। खबर में लिखा गया है कि  अहमदाबाद के संगठन द्वारा जो आमंत्रण बाकी संगठनों को भेजा गया है उसकी प्रति 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पास है। इससे ज्यादा हास्यास्पद बात कुछ और हो ही नहीं सकती, क्योंकि न तो यह आयोजन गुप्त है और न ही इसका आमंत्रण कोई गोपनीय दस्तावेज है। खबर में जो 'एक्सलूसिव' पंक्ति उद्धृत की गई है, वह संघर्ष संवाद पर प्रकाशित आमंत्रण में हिंदी में यह है :  'गुजरात देश के सबसे बड़े समुद्र तटीय क्षेत्र वाले राज्यों में से एक है। इस पूरे तटीय क्षेत्र में थर्मल पॉवर प्लांट व रसायनिक संयंत्र को मंजूरी देकर इस क्षेत्र के पर्यावरण व मछुआरा समुदाय की आजीविका को समाप्त कर दिया गया है।''
जाहिर है गोपनीयता और इंटेलिजेंस स्त्रोत का इससे बड़ा मजाक कुछ नहीं हो सकता कि जिस आयोजन के बारे में दस दिन से इंटनेट पर सामग्री उपलब्ध है उसे देश के सबसे बड़े अखबार का प्रतिनिधि गुप्तचर स्त्रोत से हासिल बताकर दस दिन बाद छाप रहा है। 
खबर की प्रस्तुति इस रूप में की गई है मानों नक्सली अब गुजरात में प्रवेश कर गए हैं और वहां कोई गोपनीय बैठक करने जा रहे हैं।  हालांकि पूरी खबर पढऩे पर खबर का फर्जीवाड़ा खुल जाता है कितु यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो उठता है कि अहमदाबाद (गुजरात) की इस खबर को गलत ढंग से गुप्तचर एजेंसियों को स्त्रोत बताते हुए नागपुर डेटलाइन से नागपुर में क्यों और कैसे प्रकाशित किया गया?  सवाल यह भी कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' द्वारा इस फर्जी खबर को कथित गुप्तचर स्त्रोतों के नाम पर छापने का असली मकसद क्या है?  क्या 'टाइम्स ऑफ इंडिया' यह मानता है कि किसानों की , मजदूरों की, मछुआरों की, गरीबों की, दलितों की बात करना नक्सलवाद है? क्या उसे गांधीवाद, समाजवाद, दलितवाद आदि तमाम विचार नक्सलवाद के संस्करण लगते हैं? अगर नहीं तो फिर निश्चय ही संवाददाता द्वारा लिखी गई यह खबर विशुद्ध रूप से 'प्रायोजित' है। किसलिए और किसके हित में? यह तो  स्वयं संवाददाता ही बता सकते हैं।
(मीडिया विजिल के सहयोग से)

कश्मीर : जरूरत 'निर्णायक' कदम की

कश्मीर के ताजा घटना विकासक्रम ने केंद्र ओर राज्य दोनों सरकारों को कटघरे  में खड़ा कर दिया है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने शांंति और संयम बरते जाने की अपील की है, स्वाभाविक प्रश्न यह कि अपील किसके लिए? कश्मीर घाटी की ताजा हिंसक घटनाएं किसी नेतृत्व विशेष के अंतर्गत घटित न होकर नेतृत्वविहीन आकस्मिक घटना के रूप में सामने आई है। तथापि शांति और संयम जरूरी है। अब मुख्य सवाल यह कि तात्कालिक शांति के पश्चात क्या घाटी में स्थायी शांति के मार्ग ढूंढ़े जा सकेंगे? भारतीय गणराज्य में  विशेष दर्जा प्राप्त जम्मू-कश्मीर की समस्याएं भी बिलकुल अलग हैं। घाटी में अशांति है तो  पाश्र्व में आतंकवाद और सक्रिय अलगाववादी तत्व हैं। और चूंकि, 'रोग' दशकों पुराना हो चुका है, कड़वी दवा की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता।
एक युवा आंतकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद अचानक राज्य में हिंसक घटनाओं की उत्पति अनेक सवाल खड़े कर रही हंै। बुरहान की शव यात्रा में हजारों हजार की संख्या में स्थानीय लोगों की मौजूदगी, पाकिस्तान झंडों का लहराया जाना, आजादी की मांग करना कोई सामान्य घटनाविकासक्रम नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने बुरहान को आतंकी तो निरूपित किया हैं किंतु, सच यह भी है कि यह आतंकी पाकिस्तान प्रशिक्षित और पाकिस्तान प्रायोजित था। बुरहान की मौत पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा दुख जताया जाना और कश्मीर के कथित विवाद के हल के लिए संयुक्त राष्ट्र के पुराने प्रस्ताव का हवाला दिया जाना उनकी कुटिल मंशा और बदनियती का परिचायक है।  स्थायी समाधान ढूंढ़ते समय भारत को पाकिस्तान के इस रुख का ध्यान रखना होगा।
शांति का पक्षधर भारत कश्मीर समस्या का हल ढूंढने के लिए पाकिस्तान के साथ बातचीत का रास्ता अपनाता रहा है। अनेक बार द्विपक्षीय वार्ताएं हुईं, कतिपय समझौते भी हुए। बावजूद इनके कश्मीर में शांति की जगह अशांति ही फैलती गई। दोनों देशों के बीच युद्ध भी हुए। पाकिस्तान दो टुकड़ों में भी बंटा किंतु, कश्मीर समस्या जस की तस। बल्कि, और भी जटिल होती चली गई। टिप्पणी कुछ कड़वी लग सकती है किंतु, सत्याधारित होने के कारण प्रकटीकरण जरूरी है। कभी- कभी अप्रिय, अरुचिकर बातें भी समाधान का मार्ग  बता जाती हैं।
सच और सच यह कि, विगत की सभी शांति वार्ताएं परिणाम शून्य साबित होती रही हैं। इस सच के आलोक में तो कोई वास्तविक शांति दूत भी और आगे कदम बढ़ाने से हिचक जाएगा। भारत ने हमेशा शांति के पक्ष में परस्पर बातचीत को महत्व दिया है। किंतु बुरहान के बहाने पाकिस्तान ने जो संदेश देने की कोशिश की है, उसे अब गंभीरता से लेना होगा। पाकिस्तान का आंतरिक राजनीतिक और फौजी समीकरण कभी भी शांति समर्थक नहीं रहा है। मिथ्या व कुटिलता आधारित संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का उल्लेख कर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने अपनी मंशा साफ कर दी है। जरूरत है कि भारत अब कोई निर्णायक कदम उठाए। पिछले सात दशकों के कटु अनुभव भी ऐसी पहल की चुगली कर रहे हैं। कठोर निर्णय दुखद हो सकते हैं किंतु अब घाटी में स्थायी शांति के लिए ऐसे कदम उठाने ही होंगे। यही संपूर्ण भारतीय मन की आकांक्षा है।  भारत सरकार इसे सम्मान दे।

Friday, July 8, 2016

मोदी की पसंद तीखे बोल वाली अनुप्रिया


अपनी ही पार्टी (अपना दल) से अपनी ही मां (कृष्णा) द्वारा निष्काषित 35 वर्षीय अनुप्रिया पटेल को राज्य मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक तीर से अनेक निशाने साधे हैं। सुप्रसिद्ध लेडी श्रीराम कॉलेज, अॅमेटी विश्वविद्यालय और कानपुर विश्वविद्यालय से  पढ़ाई पूरी करने वाली अनुप्रिया ने मनोविज्ञान में एम.ए और एमबीए की डिग्री हासिल कर स्वयं को उच्च शिक्षित की पंक्ति में रखा है।
जाति से कुर्मी अनुप्रिया पूर्वी उत्तर प्रदेश की कुर्मी बहुल 25 से 30 विधानसभा सीटों पर जातीय प्रभाव रखती हैं। सार्वजनिक जीवन में अपने तीखे बोल के लिए भी पहचानी जानेवाली ऐसी अनुप्रिया को मोदी ने मंत्रिमंडल में यूं ही शामिल नहीं किया है।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ताजा फेरबदल को वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से अलग रखने की बात कही है, सचाई कुछ और है। जातीय और अन्य प्राथमिकताओं को प्रधानता दे मोदी ने जिस प्रकार अनुप्रिया को सामने लाया है उससे न केवल भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई बल्कि वहां के अन्य दलों में भी फुसफुसाहट शुरु हो गई है।
कथित ’धार्मिक उफान’ की जरूरत को ध्यान में रखकर ही अनुप्रिया का चयन किया गया है। ध्यान रहे ये वही अनुप्रिया पटेल हैं जिन्होंने अल्पसंख्यकों के खिलाफ ट्वीट कर टिप्पणी की थी कि ‘ कभी सुना नहीं था 100 करोड़ डर जाएं 20 करोड़ मुल्लों से...’ नफरत की राजनीति से भरपूर अनुप्रिया की इस टिप्पमी पर काफी बवाल खड़ा हुआ था। विपक्ष की ओर से तब टिप्पणी की गई थी कि अगर ये सही है तो नफरत की राजनीतिक के सबसे खतरनाक मंजर के लिए देश को तैयार रहना होगा।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर भी अनुप्रिया ने ट्वीट के जरिए टिप्पणी की थी कि ‘वो राष्ट्रभक्ति के खून में देशद्रोह का खून भरने का काम छोड़ दें वर्ना .....’ अनुप्रिया के इस ट्वीट को राहुल के लिए सीधी चेतावनी के रूप में देखा गया था। इसी प्रकार एक अन्य ट्वीट में अनुप्रिया ने कहा था कि ‘आज वतन को खुद के पाले घडिय़ालों से खतरा है बाहर के दुश्मन से ज्यादा घरवालों से खतरा है......’  पिछले जून माह में कैराना में हो रहे कथित हिंदूू पलायन के मुद्दे को लेकर अखिलेश सरकार पर चुप्पी साधने का आरोप लगाया था। नोएडा के दादरी में गोमांस रखने के शक में अखलाक की हत्या पर अनुप्रिया ने अखिलेश सरकार को आड़े हाथों लेते हुए टिप्पणी की थी कि ‘अखलाक पर करोड़ों रुपए न्यौछावर किए लेकिन कैराना के ंिहंदुओं के लिए दो बोल भी नहीं कहे....’
अनुप्रिया के मंत्री परिषद में शामिल किए जाने के साथ ही राजनीतिक गलियारे में चर्चा शुरु हो गई है कि वस्तुत: प्रधानमंत्री मोदी ने अनुप्रिया का चयन उत्तर प्रदेश के भावी नेता के रूप में किया है। भाजपा और संघ की विचारधारा को अपने तीखे बोल से आगे बढ़ानेवाली अनुप्रिया में प्रधानमंत्री ने नेतृत्व की क्षमता देखी है। महिला होने का अतिरिक्त लाभ भी अनुप्रिया को मिलेगा। अनुप्रिया को सामने लाकर प्रधानमंत्री मोदी उत्तर प्रदेश में सक्रिय भाजपा के अनेक महत्वाकांक्षी नेताओं को भी कड़ा संदेश दे दिया है।  हमेशा कुछ चमत्कारी के पक्षधर प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी अनुप्रिया कांग्रेस की संभावित नेता प्रियंका गांधी के मुकाबले प्रचार मैदान में कूदे। दिल्ली में भी स्मृति इरानी को मानव संसाधन मंत्रालय से हटाकर उनका कद छोटा करने के बाद एक तेज-तर्रार महिला नेत्री के स्थान को भी भरने की कोशिश अनुप्रिया के जरिए की जाएगी। क्योंकि अब तो यह तय है कि स्मृति ईरानी प्रथम पंक्ति की नेता नहीं रहेंगी। संभवत: यह स्थान अनुप्रिया पटेल को मिलेगा।
लेकिन राजनीतिक पंडितों की चिंता कुछ और है।  घोर सांप्रदायिक बोल बोलनेवाली अनुप्रिया पटेल का उपयोग अगल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए किया जाता है तब यह तय है कि अनुप्रिया भी साध्वी प्राची, योगी आदित्यनाथ और निरंजन ज्योती की राह पर जाएंगी। ऐसे में जिस ध्रुवीकरण को लेकर राजदल विचलित हैं उसमें इजाफा होगा। विचारधारा के आधार पर भाजपा और संघ की अनुकूल अनुप्रिया पटेल सचमुच भविष्य में भाजपा के लिए कम से कम उत्तर प्रदेश में काफी उपयोगी साबित होंगी।

स्वतंत्र न्यायपालिका के हक में सर्वमान्य हल जरूरी

इस निष्कर्ष पर कोई विवाद तो हो ही नहीं सकता कि स्वतंत्र न्यायपालिका ही लोकतंत्र की सुरक्षा की गारंटी है। यह न्यायपालिका ही है जो संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत निर्वाचित सरकारों द्वारा कानून के अनुपालन पर नजर रखती है। यह ठीक है कि कानून बनाने का  अधिकार संसद को है। इस पर भी कोई मतभेद नहीं। लेकिन, संसद निर्मित कानून का अगर ईमानदारी से अनुपालन नहीं होता, दुरुपयोग की आशंका जताई जाती है तब उसकी समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को संविधान ने प्रदान किया हुआ है। यही नहीं, जहां संविधान में संशोधन का अधिकार भी संसद को प्राप्त है वहीं ऐसे संशोधनों की समीक्षा का अधिकार  भी न्यायपालिका को प्राप्त है।  पूर्व में न्यायापालिका व्यवस्था दे चुकी है कि संविधान के बुनियादी ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अर्थात संसद कानून बनाए, सरकार कानूनों के अंतर्गत दायित्व निर्वाह करे और किसी विवाद की स्थिति में न्यायापालिका हस्तक्षेप करे, ये सब  लोकतंत्र के हित में की गई व्यवस्थाएं हैं। क्योंकि, अंतत: लोकतंत्र में लोक ही सर्वोपरि हैं। इस पाश्र्व में न्यायधीशों की नियुक्तियां महत्वपूर्ण हो जाती हैं। निष्पक्ष, कुशल, ईमानदार, पूर्वाग्रह से मुक्त संविधान के प्रति पूर्णत: समर्पित न्यायधीशों की नियुक्ति सुनिश्चित करना सरल कार्य नहीं। न्यायधीशों की नियुक्तियों को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद की खबरें भी बीच-बीच में आती रही हैं। न्यायपालिका पर नियंत्रण की इच्छा रखनेवाली कुछ सरकारों ने कतिपय आपत्तिजनक कदम भी उठाए। नियुक्ति संबंधी वर्तमान ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था को हाल के दिनों में चुनौतियां मिलनी शुरू हो गईं। केंद्र की नई सरकार ने न्यायधीशों की नियुक्तियों को लेकर कुछ वैकल्पिक सुझाव दिए हैं। संसद ने ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक पारित किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप बताते हुए उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। यहीं से नये विवाद की शुरुआत हुई। आयोग के प्रस्तावित प्रावधानों में सरकार की राय को  तवज्जो देने की बात कही गई थी जिसे भारत के मुख्य न्यायधीश ने खारिज कर दिया।
चूंकि पूरा प्रकरण संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करनेवाला है, इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए पूर्णत: निष्पक्ष, पारदर्शी कदम उठाए जाने की जरूरत है। मामला किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति का नहीं है। मामला किसी एक सरकार के समर्थन या विरोध का नहीं है। मुद्दा है देश कीलोकतांत्रिक व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखने का। अदालतों को हमारे देश में न्याय मंदिर का स्थान प्राप्त है। अदालती फैसलों को ईश्वरीय फैसला मानते हैं लोग। अत: इसमें कोई घालमेल अथवा पक्षपात को जगह नहीं दी जा सकती। चूंकि, सरकारें बदलती रहती हैं, किसी एक सरकार की भावना या विचारधारा के आधार पर न्यायपालिका संचालित नहीं हो सकती। हां, मानवीय गुण-अवगुण के समावेश की संभावना के कारण न्यायपालिका पर भी निगरानी व वैधानिक अंकुश जरूरी है।  ऐसे में केंद्र सरकार के नए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की टिप्पणी का स्वागत है कि ‘जजों की नियुक्ति पर सर्वमान्य हल ढूंढा जाएगा।’ चूंकि हमारी न्यायिक प्रणाली की विशिष्टता इसकी स्वतंत्रता है, आशा है कि नए मंत्री श्री प्रसाद इस रेखांकित जरूरत को विस्मृत नहीं करेंगे। 

संदेह ‘नीयत ’पर नहीं, ‘नियति’ पर है!!!

बात सिर्फ संयोग की होती तो मेरी कलम इस पहलू का स्पर्श नहीं करती। यह तो एक नीतिगत वैचारिक बड़े मंथन के बाद लिया गया फैसला है। केंद्र सरकार को ‘सर्वसमाजी सरकार’ का लबादा पहना अटलबिहारी वाजपेयी प्रदर्शित मार्ग के वरण का फैसला है। हां ! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगियों के साथ विचार मंथन कर केंद्रीय मंत्रिपरिषद को एक नयी पहचान देने की कोशिश की है। एक ऐसी पहचान जो मोदी सरकार पर अब तक लगते रहे एक विशिष्ट विचारधारा की पोषक सरकार संबंधी आरोप से मुक्ति दिला सके।  कार्यकाल के दो वर्ष पश्चात उठाया गया यह कदम कारगर तभी साबित होगा जब मोदी सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी नीयत की स्वच्छता से देश को आश्वस्त कर पाने में कामयाब होंगे।  फिलहाल यह संदिग्ध दिखता है।
यह दोहराना ही होगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय का  श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है। लेकिन, यही वह असहज कारण है जो अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने आश्वासनों-वादों के जरिए आम जनता के बीच अपेक्षाओं का जो पहाड़ खड़ा किया था, पूर्ति की कसौटी पर विफलता के कारण गले की फांस बनती जा रही है। चूंकि, विफलता का आरोप प्राय: हर क्षेत्र पर लगा, लोग अधीर हो उठे। शंका ने जन्म लिया कि सरकार सिर्फ शब्दों की खुराक से जनता का पेट भरना चाहती है। व्यवहार के स्तर पर घोषित योजनाओं की अनुपलब्धता सरकार की नीयत को लेकर चुगली करती रही। सरकार व प्रधानमंत्री मोदी जनता की नजरों में संदिग्ध बन बैठे। ऐसे में जनता को आश्वस्त करने, आकर्षित करने के लिए सकारात्मक रूप से मजबूत परिवर्तन की जरूरत प्रधानमंत्री ने महसूस की। केंद्रीय मंत्रिपरिषद व मंत्रियों के विभागों में ताजा फेरबदल इसी जरूरत की पूर्ति की दिशा में एक कदम है।
यह ठीक है कि इस निर्णय को अंजाम देने की प्रक्रिया में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी को अपने उवाचित अनेक शब्दों को निगलना पड़ा है। किंतु, समय एवं परिस्थितियां भारी पड़ीं। 2014 में सरकार गठन के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रिपरिषद के लघु आकार को सगर्व उद्धृत करते हुए टिप्पणी की थी कि ‘हम छोटी सरकार और अधिक कार्य ’ की नीति पर चलेंगे। निर्णय कारगर साबित नहीं हुआ।  दो वर्ष के अनुभव व परिणाम से मजबूर प्रधानमंत्री मोदी ने मंत्री परिषद के लघु आकार को कुछ ऐसा ‘जम्बो’ स्वरूप दिया कि कांग्रेस नेतृत्व की पिछली यूपीए सरकार को आकार के मामले में पीछे छोड़ दिया। बावजूद इसके अगर ताजा परिवर्तन अथवा फेरबदल के उपयोगी सकारात्मक परिणाम मिलते हैं तब देश उसे स्वीकार कर लेगा। कसौटी पर परिणाम ही रहेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बहुप्रचारित ‘परिवर्तन’ की याद करते हुए कहा है कि ‘ मैं स्वयं को सफल तब मानूंगा जब लोग परिवर्तन को महसूस करेंगे।’ अर्थात लोगों को परिवर्तन का एहसास हो। प्रधानमंत्री की भावना का आदर करते हुए मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि फिलहाल अर्थात पिछले दो वर्षों का अनुभव प्रधानमंत्री की अपेक्षा के बिलकुल विपरीत रहा है। अब तक जिन परिवर्तनों को अपने पक्ष में बताने की कोशिश प्रधानमंत्री व उनके सहयोगी करते आए हैं, क्षमा करेंगे, लोगों को उनका एहसास नहीं हो पाया। जो परिवर्तन सामने परिलक्षित हुए उन्हें सकारात्मक नहीं नकारात्मक रूप में लिया गया।
उदाहरण अनेक हैं। कुछ एक का उल्लेख कर ही यह साबित किया जा सकता है कि लोग निराश हुए हैं। सर्वप्रथम विदेश नीति को उद्धृत किया जा सकता है। अपने शपथ ग्रहण समारोह में अति उत्साहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर पड़ोसियों के साथ मधुर संबंध की जरूरत को चिन्हित किया था। पूर्व की सरकारों के कार्यकाल में सीमा पार से घुसपैठ की घटनाओं पर व्यंग्य कसते हुए प्रधानमंत्री मोदी सगर्व कहते आए हैं कि सीमा पार से गोलियों का जवाब गोलों से दिया जाएगा। वे अगर एक सिर काटेंगे तो हम दस सिर काटेंगे। केंद्र में सरकार गठन के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने सीमा पार से आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिए जाने की घटनाओं पर कड़ी जवाबी कार्रवाई की बातें कही थीं। किंतु, सच यही है कि सीमा पार से घुसपैठ व आतंक की घटनाओं में निरंतर वृद्धियां हुईं और हमारे निर्दोष जवान शहीद होते चले गए। सीमा पार कर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों ने हमारे देश में घुस पठानकोट एयरबेस पर आक्रमण जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। अभी-अभी कश्मीर में आतंकी हमलों की अनेक वारदातें हुईं। परिणामस्वरूप क्या यह सच नहीं कि हताहतों का ताजा स्कोर हमारे खिलाफ गया। जहां हमारे आठ जवान शहीद हुए वहीं पाकिस्तान के मात्र दो। क्या यही एक की एवज में दस सिर काट लाने संबंधी गर्वित घोषणा की परिणति है। अन्य पड़ोसी छोटे नेपाल व बड़े चीन के साथ भी हमारे संबंध बद से बदतर होते चले गए हैं। हालत यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा   अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर पहल एवं संभावनायुक्त दावों के बावजूद ‘एनएसजी’ की सदस्यता पाने में भारत विफल रहा।  हमारी विदेश नीति की यह एक भारी विफलता रही है।
आर्थिक मोर्चे पर भी तमाम दावों के बावजूद विफलता और विफलताएं ही हमारे पाले में आई हैं। सरकारी -गैर सरकारी प्रचार माध्यमों के द्वारा परिवर्तन का एहसास कराने की कोशिश तो की गई किंतु फिर वही ढाक के तीन पात। बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो चुकी अर्थव्यवस्था को संभालने और आर्थिक दिवालियेपन की दुरूह स्थिति से बचने के लिए अनेक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्रों में शत प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी देने के लिए केंद्र सरकार को बाध्य होना पड़ा। केंद्र सरकार ने रक्षा, उड्डयन व खुदरा व्यापार के वैसे क्षेत्रों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी दी जिसका तीखा विरोध अन्य लोगों के अलावा स्वयं नरेंद्र मोदी करते रहे हैं। तब कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार द्वारा ऐसे निवेशों में आंशिक अनुमति दिए जाने का प्रस्ताव लाया गया था। विरोध करते हुए स्वयं नरेंद्र मोदी ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में टिप्पणी की थी कि ‘ कांग्रेस देश को विदेशियों के हाथ में सौंप रही है।’ क्या इस बिंदू पर अब प्रधानमंत्री मोदी के विचार बदल गए हैं? सहसा विश्वास नहीं होता। फिर मत परिवर्तन का कारण?
मजबूरी, परिस्थितियों की मजबूरी। बाजार और उद्योग-धंधों में व्याप्त निराशा और धन की अनुपलब्धता से मजबूर मोदी सरकार को शत प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति देने संबंधी निर्णय लेना पड़ा। यह ठीक है कि ऐसी उदार व्यवस्था के माध्यम से देश में उद्योग-धंधों को मजबूती मिलेगी, रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। लेकिन इसमें निहित संभावित खतरों के प्रति सरकार को सजग, सतर्क रहना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि ‘नियंत्रण’ भारत के पास ही हो। ध्यान रहे विदेशियों के धन-प्रवेश के साथ संस्कृति का भी प्रवेश सुगम हो उठता है। और चूंकि भारत अपनी संस्कृति और सभ्यता  पर कोई समझौता नहीं कर सकता, विदेशी पूंजी निवेश पर कड़ी नजर रखनी पड़ेगी।

Friday, July 1, 2016

'सवाल भी मेरा, जवाब भी मेरा' की निंदनीय प्रस्तुति


आज जब मीडिया को बाजारू, वेश्या और चापलूस निरूपित किया जा रहा है, मुझे बरबस 'बाबूजी', लोकमत समूह के संस्थापक जवाहरलाल दर्डा, की याद आ रही है। बात 1988 की है जब हम 'लोकमत समाचार ' के प्रकाशन के उनके सपने को मूर्त रूप देने में व्यस्त थे। चूंकि 'बाबूजी' का राजनीतिक पाश्र्व था, महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार में मंत्री थे, मैं नीति को लेकर असमंजस में था। कुछ शंकाएं थीं जिनका निराकरण मैं प्रकाशन पूर्व ही चाहता था। एक दिन मैंने पूछा, 'बाबूजी, हमारी नीति क्या होगी?' बाबूजी ने प्रतिप्रश्न किया, '....  मुझे यह बताईए कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी आपकी बहुत प्रशंसा करें किंतु पाठक अस्वीकार कर दे, तो आप किसकी चिंता करेंगे?' मेरा जवाब था, ' नि:संदेह पाठकों की।' बाबूजी मुस्कुराए, बोले- 'यही हमारी नीति है। चिंता पाठकों की कीजिए, राजनेताओं की नहीं।' मैं आश्वस्त हो गया था।
किंतु आज दुखी हूं कि पत्रकारीय आत्मा व दायित्व के साथ बलात्कार करने में राजनेता सफल हैं तो इसलिए कि मीडिया संस्थान उनके लिए सुसज्जित बिस्तर उपलब्ध करा रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो वर्तमान की 'मीडिया' वास्तविकता यही है।  पिछले दिनों एक ऐसे ही 'पाप' का मंचन हुआ।
ऊंची 'टीआरपी' वाले अंग्रेजी के खबरिया चैनल 'टाइम्स नाऊ' पर प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ 'खास बातचीत' प्रसारित की गई। चूंकि प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पहला अवसर था कि जब नरेंद्र मोदी ने किसी खबरिया चैनल को विशेष साक्षात्कार दिया, लोग उत्सुक थे सवाल-जवाब सुनने को। प्रसारण के पूर्व कार्यक्रम को खूब प्रचारित किया गया। लोगों की उत्सुकता बढ़े इसे लेकर चैनल ने डिजिटल मीडिया के सारे मंचों का उपयोग किया। अर्नब गोस्वामी को लेकर मीडिया, दर्शक, पाठक हमेशा विभाजित रहे हैं। उनके लिए प्रशंसा और गालियों का दौर साथ-साथ चलता रहा है। चैनल के लिए प्रधानमंत्री के साक्षात्कार को उपलब्धि निरूपित कर अर्नब वाहवाही लूटने को व्यग्र थे। लेकिन अफसोस , प्रतिस्पर्धी चैनलों की बात छोड़ दें, दर्शक भी हताश-निराश हुए। पूरा का पूरा साक्षात्कार 'सवाल भी मेरे, जवाब भी मेरे' की तर्ज पर पूर्णत: प्रायोजित नजर आया। 'पेड न्यूज', 'पेड एडिट', 'पेड लीड' से आगे बढ़ते हुए 'पेड इंटरव्यू'! टिप्पणी कड़वी है किंतु , आधारहीन नहीं। सूचनाएं सार्वजनिक हो चुकी हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने अर्नब से प्रस्तावित सवाल मंगाए, उन्हें देखा, संशोधन किया, जोड़ा-घटाया और प्रधानमंत्री के जवाब लिखे गए। यही नहीं अर्नब को यह भी बताया गया कि कब  कब,  कहां-कहां उन्हें क्या टोकना है, कैसे टोकना है और क्या पूछना है? क्या इसे आमने-सामने का बेबाक साक्षात्कार कहा जा सकता है? बिलकुल नहीं! पूरा का पूरा साक्षात्कार प्रधानमंत्री के 'मन की बात' का छोटेे पर्दे पर प्रसारण सा दिखा। चैनल ने प्रधानमंत्री को मंच प्रदान किया उनके मन की बात को आम लोगों तक पहुंचाने का। आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री ने ऐसी बातों के लिए चैनल का मंच चुना ही क्यों? जिन बातों को प्रधानमंत्री ने चैनल के माध्यम से देश-विदेश के लोगों तक पहुंचाया उसके लिए सर्वथा उपयुक्त मंच कोई मीडिया कांफ्रेंस होता। जहां देश-विदेश के विभिन्न चैनलों और समाचार पत्रों के पत्रकार मौजूद होते, लेकिन ऐसा नहीं किया गया तो संभवत: इसलिए कि प्रधानमंत्री स्वयं कतिपय असहज सवालों से बचना चाहते होंगे।
असहज सवाल से ध्यान में आया कि अर्नब गोस्वामी स्वयं कभी तीखे सवालों व दो टूक विश्लेषण के लिए जाने जाते थे। जब प्रधानमंत्री के साक्षात्कार की खबर आई तब ऐसा लगा था कि अर्नब  अपने खोजी सवालों के जरिए प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर बहुत कुछ उगलवा लेंगे। अनेक ऐसे ज्वलंत मुद्दे आज देश में मौजूद हैं जिन पर प्रधानमंत्री से सीधे सवाल किए जा सकते थे। लेकिन, 'असहाय अर्नब' ऐसा कुछ नहीं कर पाए। कुछ सवाल पूछे भी गए तो, प्रधानमंत्री के जवाब के बाद प्रतिप्रश्न नहीं पूछे गए। साफ-साफ दिख रहा था कि  प्रधानमंत्री को असहज स्थिति में डालने से अर्नब बच रहे थे। पत्रकारिता और संपादकीय दायित्व के विपरीत अर्नब का आचरण नयी पीढ़ी के पत्रकारों के लिए निराशा का संदेश दे गया।
साक्षात्कार में उन ताजा विषयों पर जोर दिया गया जिन्हें लेकर प्रधानमंत्री मोदी को देश कटघरे में खड़ा कर रहा है। प्रधानमंत्री नेे साक्षात्कार के माध्यम से अर्थात 'टाइम्स नाऊ' के मंच से एनएसजी को लेकर भारतीय कूटनीति, सक्रिय विदेशी नीति, पाकिस्तान पर भारतीय रुख और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन जैसे मामलों पर अपने विचार तो रखे किंतु, एक साक्षात्कार में जैसे  पूरक प्रश्न पूछे जाते हैं अर्नब ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। जबकि प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए जवाबों पर अनेक सवाल पूछे जा सकते थे। रिजर्व बैंक के गवर्नर राजन के खिलाफ सुब्रमण्यम स्वामी के आक्रमण अभियान पर अर्नब ने सवाल तो पूछे किंतु, प्रधानमंत्री ने जब बगैर स्वामी का नाम लिए उन पर आक्षेप लगाए और राजन को सर्वथा योग्य और राष्ट्रभक्त बताया तब स्वाभाविक रूप से पूरक प्रश्न पूछा जाना चाहिए था कि प्रधानमंत्री ने आरम्भ में ही अर्थात स्वामी द्वारा राजन की आलोचना किए जाने के तत्काल बाद ही ये बातें क्यों नहीं कहीं? राजन को राष्ट्रभक्त तब क्यों नहीं बताया जब स्वामी उन्हें राष्ट्रद्रोही निरूपित कर रहे थे? और जब राजन इतने ही योग्य हैं तब उन्हें गवर्नर के रूप में दूसरा अवसर देने का निर्णय क्यों नहीं लिया गया? पूरक प्रश्न यह भी बनता था कि स्वामी की आलोचनाओं से क्षुब्ध और अपने बचाव में सरकार की ओर से किसी को सामने आता न देख जब राजन ने दूसरे कार्यकाल के लिए स्वयं को अनुपलब्ध घोषित कर दिया तब ही उनके पक्ष में प्रधानमंत्री क्यों बोल रहे हैं?
बात सिर्फराजन की ही नहीं  शत प्रतिशत सांप्रदायिक, सद्भाव बिगाडऩे हेतु भड़काऊ बयान देनेवाले कथित संतों-साध्वियों की जानकारी से स्वयं को अनजान बतानेवाले प्रधानमंत्री मोदी से पूरक प्रश्न के रूप में क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए था कि प्रधानमंत्री अपने ही सहयोगियों, सांसदों को पहचानते कैसे नहीं? अर्नब को आपत्ति इस बात पर भी व्यक्त करनी चाहिए थी जब प्रधानमंत्री ने कहा कि भड़काऊ बयान देनेवालेे लोगों को ज्यादा तूल देकर उन्हें हीरो न बनाएं। साफ था कि प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि ऐसे भड़काऊ बयानों पर मीडिया कोई विवाद पैदा करे। अर्थात उनकी उपेक्षा करे ताकि वे अपने बयानों से देश, समाज में  सांप्रदायिक सद्भाव को बेलगाम बिगाड़ते रहें। यह विश्वास करना कठिन है कि अर्नब जैसा पत्रकार इन बातों को समझ नहीं रहा हो। अर्नब के ज्ञान और तेवर के अनेक प्रशंसक मौजूद हैं। लेकिन, इस साक्षात्कार से उन्हें भी निराशा मिली है। अर्नब का पूरा का पूरा आचरण प्रधानमंत्री के एक जनसंपर्क अधिकारी की तरह रहा। इससे उत्पन्न निराशा के कारण ही वे आलोचना के शिकार हो रहे हैं। 'डिजीटल संसार ' में साक्षात्कार के द्वारा कीर्तिमान स्थापित करने का दावा करनेवाले अर्नब और चैनल 'टाइम्स नाऊ' यह न भूलें कि  किसी प्रायोजित कार्यक्रम पर अपने संसाधनों व स्त्रोतों दवारा कीर्तिमान अर्जित करना आसान है, किंतु तब आप पाठकों-दर्शकों की नजरों में घोर अविश्वसनीय बन जाते हैं। अब पसंद आपकी कि आप कथित कीर्तिमान के आग्रही बनना चाहते हैं या पत्रकारीय जगत के एक विश्वसनीय हस्ताक्षर?

जहरीले 'बोल' प्रसारित कर किस अभियान में जुटे हैं रजत शर्मा?


90 के दशक के मध्य की बात है अंग्रेजी दैनिक 'एशियन एज' के तत्कालीन प्रधान संपादक, देश के प्रख्यात पत्रकार , अब सांसद भी एम.जे. अकबर को अवमानना के एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ  ने तलब किया। आरोप था कि उनके अखबार ने एक आपत्तजिनक, भड़काऊ खबर प्रकाशित की थी। अकबर ने अपने बचाव में दलील दी कि खबर समाचार एजेंसी 'पीटीआई' द्वारा जारी की गई, जिसे छापा गया।  इस तर्क के आधार पर अकबर ने स्वयं को निर्दोष साबित करने की कोशिश की। न्यायाधीश ने इस पर टिप्पणी की थी कि  ''खबर का स्त्रोत चाहे कोई भी हो, प्रकाशन के बाद जिम्मेदारी अखबार व संपादक की बनती है।'' तात्पर्य कि योग्यता के आधार पर खबरों की सचाई जांच कर ही उसे प्रकाशित की जानी चाहिए। और आशय यह भी कि जिम्मेदारी संपादक की है कि वह अवांछित खबरों के प्रकाशन की अनुमति नहीं दे। 
खेद है कि आज 'मीडिया मंडी' का भरपूर 'उपयोग' ऐसी ही आपत्तिजनक, भड़काऊ खबरों के माध्यम से देश, समाज में अराजकता पैदा करने के लिए किया जा रहा है। पीड़ा तब गहरी हो जाती है जब ऐसी आपत्तिजनक कृत्य के प्रणेता 'मीडिया मंडी' के बड़े हस्ताक्षर पाए जाते हैं।  खबरिया चैनल इंडिया टीवी के सर्वेसर्वा रजत शर्मा ऐसे ही एक कृत्य के दोषी के रूप में चर्चित हुए हैं। अपने रसूख और राजनीतिक पाश्र्व के कारण पिछले दिनों पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित रजत शर्मा कभी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता थे। न्यूज पोर्टल 'मीडिया बिजी' की मानें तो शर्मा को यह सम्मान उनके इसी पाश्र्व के कारण मिला।
मुंबई में तब उपेक्षित फाके की जिंदगी गुजार रहे रजत शर्मा ने जब राष्ट्रीय चैनल इंडिया टीवी को जन्म दिया तभी विवादास्पद बन गए। विद्यार्थी परिषद के घोष वाक्य ज्ञान, शील, एकता के ठीक विपरीत चैनल में उन्होंने शील के नाम पर सेक्स समस्याओं और कुछ अनजान नेताओं के अंतरंग रिश्तों के एमएमएस दिखाना शुरू कर दिया। ज्ञान का आलम यह कि इंडिया टीवी ने सबसे पहले बताया कि एलियन धरती से गाय उठाकर ले जाते हैं। और भी बहुत सारा अनाप-शनाप। और बात अगर एकता की की जाए तो जितने भी आगलगाऊ नेता हैं वे उनकी मशहूर 'आपकी अदालत' में शामिल हो कर बगैर कोई सजा पाए बरी होते रहे हैं।
बात यहीं तक होती तब भी क्षम्य होता। लेकिन, जब देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश की आबोहवा में जहर घोलनेवाले महंत आदित्यनाथ व उनके बोल को महिमामंडित कर रजत शर्मा प्रचारित -प्रसारित करते हैं तब मीडिया मंडी' शर्मसार हो उठता है।  2014 के चुनाव के पूर्व भी इंडिया टीवी ने आदित्यनाथ को और उनकी विचारधारा को काफी प्रमुखता दी थी। अब 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को देखते हुए रजत शर्मा अपने इंडिया टीवी पर उन्हें बार-बार प्रस्तुत कर रहे हैं। आदित्यनाथ इस अवसर का भरपूर उपयोग घर वापसी' और लव जिहाद' जैसे मसलों पर आग उगलने के लिए करते रहे हैं। आमंत्रित दर्शकों से तालियां बटोर चैनल यह बताने की कोशिश करता है कि तालियां वस्तुत: देश भर की नुमाइंदगी करती हैं। ऐसा छल रच रजत शर्मा बाद में शांति का उपदेश देने की औपचारिता निभा महंत को बाईज्जत बरी करवा देते हैं। क्या यह 'छल' देश की जनता और स्वयं मीडिया मंडी' के साथ 'महाछल' नहीं है। पिछले दिनों जून माह में महंत आदित्यनाथ का प्रसारित एपिसोड कई बार दिखाया गया, क्यों? क्या रजत शर्मा इसके औचित्य को साबित कर सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी खास उद्देश्य से एक दल विशेष के 'मिशन यूपी' के कार्यक्रम को रजत शर्मा अपने चैनल के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं? प्रमाण इसकी सचाई की चुगली कर रहे हैं।
मीडिया मंडी में ही इस पर प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। कई अखबारों और चैनलों में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार नदीम अख्तर ने अपनी 'फेसबुक वाल' पर इस संबंध में जो टिप्पणी की है वह पठनीय है- '' इंडिया टीवी पर रजत शर्मा वाले आपकी अदालत वाले प्रोग्राम में सांसद योगी आदित्यनाथ खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ आग उगल रहे हैं। कह रहे हैं कि तुम एक मारोगे तो हम सौ मारेंगे। मुस्लिमों को हिंदू धर्म में वापस लाएंगे, ये 'घर वापसी' है। और स्टूडियो में मौजूद जनता आदित्यनाथ की हर बात पर ताली पीट रही है। इनमें कम उम्र की युवतियां भी शामिल हैं। बड़ा अजब माहौल है। खुलेआम भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इस तरह के भड़काऊ बयान वाले प्रोग्राम को न्यूज के नाम पर प्रस्तारित करके रजत शर्मा जी क्या संदेश दे रहे हैं? 'एडिटोरियल जजमेंट' नाम की कोई चीज रह भी गई है कि नहीं इस देश में?
माना कि योगी आदित्यनाथ की जबान पर रजतजी का कंट्रोल नहीं लेकिन, ऐसे भड़काऊ जहर उगलनेवाले इंटरव्यू को प्रसारित किया जाए या नहीं ये फैसला तो रजत ले ही सकते हैं? और मेरी ये जानने की तीव्र इच्छा है कि आदित्यनाथ के संविधान विरोधी बयानों पर स्टूडियो में ताली पीटनेवाली जनता कहां से बुलाई गई थी? क्योंकि खून-खराबे की बात करनेवाले गैरजिम्मेदार आदित्यनाथ की बातों पर ताली देश का कोई सामान्य नागरिक तो नहीं ही बजा सकता। ''
जवाब पद्मभूषण रजत शर्मा को ही देना होगा। संपादक के रूप में जिम्मेदारी तो उन्हीं की बनती है!

स्पष्टवादी राहुल बजाज! सलाम राहुल बजाज!!

सहज नहीं, अत्यंत ही असहज है मुद्दा! सभी के लिए गंभीर चिंतन का विषय। 1975 के जून माह में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा के बाद देश के एक प्रमुख उद्योगपति के नेतृत्व में 1-सफदरजंग, नई दिल्ली (तत्कालीन प्रधानमंत्री निवास) पर आपातकाल के समर्थन में 'मार्च' देश देख चुका है। आज जून 2016 में एक अन्य प्रमुख उद्योगपति को यह बताते हुए देश देख रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुछ मंत्रियों की कमजोरी व अनुभवहीनता के कारण सत्ता प्रधानमंत्री तक सिमट गई है। लोकतांत्रिक भारत के लिए यह एक नया किंतु सुखद घटना विकासक्रम है। चाटुकारिता की जगह स्पष्टवादिता लोकतंत्र को मजबूत करती है। तब 1975 में प्रदर्शन चाटुकारिता आधारित था, आज मंतव्य स्पष्टवादिता आधारित है। जीवंत  लोकतंत्र की यह एक उल्लेखनीय पहल है।
कुछ दिनों पूर्व गोदरेज उद्योग समूह के प्रधान आदी गोदरेज ने सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए कतिपय सार्थक सुझाव दिए थे। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी टिप्पणी पर अनुकूल-प्रतिकूल चर्चाएं हुईं। लेकिन अब बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज ने यह टिप्पणी कर राजनीतिक सनसनी पैदा कर दी है कि कुछ कमजोर मंत्रियों की वजह से सत्ता प्रधानमंत्री तक सिमट गई है। आज जब भारत उद्योग व्यापार के क्षेत्र में एक मजबूत शक्ति के रूप में उभर विश्व बाजार को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है, वैश्विक स्पर्धा को नया आयाम दे रहा है, राहुल बजाज की टिप्पणी प्रधानमंत्री व उनके सलाहकारों के लिए एक बड़ा इशारा है। वाणी से उत्पन्न वैचारिक क्रांति के लिए भी राहुल बजाज ने विषय प्रदान किया है। बजाज की टिप्पणी को निश्चय ही राजनीतिक नहीं माना जा सकता। भारतीय अर्थव्यवस्था के एक प्रमुख स्तंभ राहुल बजाज के शब्दों में निहीत संदेश और पीड़ा पर मंथन आवश्यक है। जब तक सत्ता स्थिर व मजबूत नहीं होती देश का अपेक्षित विकास हो ही नहीं सकता। संख्याबल के आधार पर सरकार की स्थिरता पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते। किंतु, सरकार की मजबूती पर संदेह अकारण नहीं। यहां हम अन्य बातों को छोड़ राहुल बजाज द्वारा उद्धृत वजह 'कमजोर मंत्री' को चिन्हित करना चाहेंगे। यह शत प्रतिशत सही है कि कुछ अनुभवहीन मंत्रियों के कारण केंद्र सरकार द्वारा घोषित अनेक योजनाएं अभी भी क्रियान्वयन के स्तर पर लटकी पड़ी हैं  या फिर कुछ योजनाओं के 'सु-फल' संदिग्ध हैं।  मोदी सरकार का दो साल का कार्यकाल इसका प्रमाण है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित अनेक कल्याणकारी लाभदायक योजनाओं का क्रियान्वयन या तो खटाई में पड़ा है या फिर अपेक्षित गति प्राप्त नहीं कर पा रहा है। कुछ मंत्री या मंत्रालयों को छोड़ दें तो अधिकांश मंत्री और मंत्रालय सुस्त ही नजर आएंगे। इस घातक 'शिथिलता' का इलाज प्रधानमंत्री ही कर सकते हैं।
अपनी स्पष्टवादिता में निहीत खतरे के प्रति भी राहुल बजाज सचेत हैं। अपनी टिप्पणी में उन्होंने कहा भी है कि अगर मैं यह कहूं कि यह एक व्यक्ति (मोदी) की सरकार है तो मैं परेशानी में आ जाऊंगा। हालांकि बजाज यह टिप्पणी करने से नहीं चुके हैं कि 2014 के चुनाव में एक व्यक्ति नरेंद्र मोदी की जीत हुई थी, पार्टी की नहीं। लोकतांत्रिक भावना का आदर करते हुए हम यह विश्वास कर सकते हैं कि राहुल बजाज की टिप्पणी को स्वयं प्रधानमंत्री सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे, नकारात्मक नहीं।